पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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There
is a universal statement in vedic literature that waters in the beginning were
in the form of unmanifest pleasure. Then somehow, after penance, this pleasure
descended at mortal level in the form of manifest ego. This form has been
symbolically given the name froth – one which contains a mixture of air, water
and earth elements. This ego further developed gradually in earth, sand, sugar,
stone, iron and at last in gold. Proper explanation for all these forms is yet
to be evolved. The other form of the above anecdote is available – that the
protector of people became exhausted. He made penances, due to which waters were
born, just like sweat. This statement indicates that the initial state is the
state of least entropy, least disorder. When some disturbance is created in this
state due to some reason, then infinite pleasure descends at mortal level also.
This state of increased disorder has to be rectified by penances. The
highest form of waters seems to be of waves. The water of waves can cross its
origin and go away. The waves have been said to be dawn. But these waves should
not move in horizontal direction. These should move in upward direction. In
outer world, the waters may flow by themselves, but in vedic literature,
external energy has to be provided to them so that these may start flowing. First published : 5-4-2008 AD( Chaitra krishna chaturdashee, Vikrama samvat 2064) आपः टिप्पणी : वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है( उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.३.५, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.१८.१.१, तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.१, शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.१ आदि ) कि आपः पहले सलिल था/थे । आपः ने सृष्टि की कामना से तप किया तो एक हिरण्य अण्ड उत्पन्न हुआ । वह एक संवत्सर तक आपः पर तैरता रहा । तब उसमें प्रजापति का जन्म हुआ । प्रजापति ने उस अण्ड का भेदन किया, इत्यादि । आपः की पूर्व अवस्था सलिल होने के कथन को पद्म पुराण १.४०.१४२ के आधार पर समझा जा सकता है जहां कहा गया है कि सलिल अव्यक्तानन्द की अवस्था है । इस अव्यक्तानन्द को व्यक्त स्तर पर अवतरित कराना है । इसका उपाय तप कहा गया है । इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.१ में एक आख्यान आता है कि प्रजापति श्रान्त हो गए । उन्होंने सृष्टि की कामना से तप किया । तप से आपः का प्रादुर्भाव हुआ । आपः ने तप किया जिससे फेन उत्पन्न हुआ, फेन ने तप किया तो मृदा उत्पन्न हुई, मृदा से सिकता, सिकता से शर्करा, शर्करा से अश्मा, अश्मा से अयः, अयः से हिरण्य । इस कथन के प्रत्येक स्तर को विस्तार से समझने की आवश्यकता है । सर्वप्रथम, प्रजापति के श्रान्त होने से क्या तात्पर्य हो सकता है जिससे आपः की उत्पत्ति होती है ? भौतिक जगत में तो श्रम से श्रान्त होने के कारण स्वेद आदि के रूप में जल की उत्पत्ति होती है । लेकिन प्रजापति की अवस्था में यह माना जा सकता है कि प्रजापति निर्गुण समाधि की अवस्था में स्थित व्यक्तित्व है जो न्यूनतम अव्यवस्था वाली, न्यूनतम एण्ट्रांपी वाली स्थिति है । जब किसी कारण से इस स्थिति में क्षोभ उत्पन्न होता है, तब गुणों वाली, सविकल्प समाधि की स्थिति उत्पन्न होती है । यही प्रजापति का श्रान्त होना हो सकता है । इस स्थिति में प्रजापति ने तप किया जिससे आपः उत्पन्न होते हैं । तप का अर्थ वर्धित अव्यवस्था को न्यून करना हो सकता है । यह तप चेतना के विभिन्न स्तरों पर किया जाना है जिससे अव्यक्तानन्द वाली सलिल अवस्था का रूपान्तर आपः के रूप में हो सके । आपः के एक व्यावहारिक रूप का उद्घाटन शतपथ ब्राह्मण ५.३.४.१-१६ में राजसूय याग में अभिषेचनीय आपः के संभरण के संदर्भ में होता है । अभिषेक हेतु विभिन्न स्रोतों से आपः का सम्भरण किया जाता है । जब नदीपति से आपः का सम्भरण किया जाता है तो नदीपति के लिए कहा जाता है कि अपांपतिरसि - तुम आपः के पति हो । शतपथ ब्राह्मणकार ने इस वाक्य की व्याख्या में कहा है - विशां पतिरसि । इसी प्रकार अगले स्रोत निवेश्य? से आपः का ग्रहण करते समय कहा जाता है - अपां गर्भोऽसि, जिसकी व्याख्या में कहा गया है - विशामेवैनमेतत् गर्भं करोति । वैशन्ती(अल्प सर - सायण) स्रोत से आपः ग्रहण करते समय कहा जाता है - मान्दा स्थ । इससे स्थावरा विशः को अनपक्रमिणी बनाते हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि आपः विशः से, प्रजा से सम्बन्धित हैं । और प्रजा के बारे में वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आते हैं कि प्रजापति की प्रजा उत्पन्न होते ही उनसे दूर चली जाती है । उसको निकट लाने के लिए विशेष उपाय करने पडते हैं, प्रजा को अन्न प्राप्ति का लालच देना पडता है आदि । यह भी संभव है कि सभी आपः विशः से सम्बन्धित न हों । अभिषेक के संदर्भ के आरम्भ में ही अध्वर्यु द्वारा जिन प्राक् और प्रत्यङ् आपः का ग्रहण किया जाता है, उनके लिए क्रमशः 'वृष्ण ऊर्मिरसि राष्ट्रदा' तथा 'वृषसेनोऽसि राष्ट्रदा' यजुओं का उच्चारण किया जाता है । यह ऊर्मियां ऊर्ध्व दिशा में स्यन्दमान आपः का परिचायक हो सकती हैं । ऋग्वेद ६.६४.१ में आपः की ऊर्मियों की तुलना उषाओं से की गई है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद ९.३३.१, ९.४९.१, ९.७२.७, ९.८०.५, ९.८६.८, ९.९६.१९, ९.१०८.५ में भी अप: की ऊर्मियों अथवा ऊर्मि के उल्लेख हैं । ऋग्वेद ९.७२.७ के अनुसार अप: की ऊर्मि में सोम की स्थिति है । ऋग्वेद ९.४९.१ में सोम अप: की ऊर्मि का द्युलोक के पार शोधन करता है । ऋग्वेद १०.८०.५ के अनुसार पवमान सोम इस प्रकार गति करता है जिस प्रकार सिन्धु की ऊर्मि । ऋग्वेद ९.८६.८ तथा ९.९६.१९ के अनुसार सोम अप: की ऊर्मि को प्राप्त करता है('सचते') । ऋग्वेद ७.९.३ से ऐसा प्रतीत होता है कि जिस अग्नि को ऋचाओं में 'अपां गर्भ:' कहा गया है, वही विकसित होकर उषाओं में अग्रणी बनती है और वही स्व: की स्थिति है जिस पर आगे विचार किया जाएगा । स्यन्दमान आपः के लिए 'अर्थेत स्थ राष्ट्रदा' यजु का तथा प्रतीप स्यन्दमान आपः के लिए 'ओजस्वती स्थ राष्ट्रदा' यजु का उच्चारण किया जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.५६ का कथन है कि स्यन्दमान आपः तिरश्चीन् लोकों के परिचायक हैं । अब मैत्रायणी संहिता ३.६.३ का यह कथन समझने में सरलता हो सकती है कि तीन प्रकार के आपः हैं - दिव्य, सामुद्रिय और पार्थिव ( ऋग्वेद ९.६५.६ ऋचा के सायण भाष्य में चार प्रकार के अप: का उल्लेख है जिनमें से दो वस्तीवरी व एकधना अप: हैं)। वैदिक मन्त्रों में प्रायः आपो देवी: मातर: का उल्लेख आता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.११८ में आख्यान आता है कि आपः देवों की पत्नियां थी । इन देवपत्नियों ने वायु देवता के संयोग से पहले अह/दिन रथन्तर साम का सृजन किया, दूसरे दिन बृहत् का, तीसरे दिन वैरूप का, चौथे दिन वैराज का, पांचवें दिन शाक्वर का और छठे दिन रैवत का । यह आख्यान इंगित करता है कि हमारी जो विशः हैं, जो बाह्य वृत्तियां हैं, उनका नियन्त्रण किस प्रकार करना है । पहले उनको दैवी बनाना है जिससे वे देवों की पत्नियों का रूप ले सके( वैदिक ऋचाओं में अप: के दासपत्नियां होने के उल्लेख आते हैं जिनका नियन्त्रण इन्द्र द्वारा किया जाता है ) । फिर यह वृत्तियां ६ प्रकार की वृत्तियों को जन्म देती हैं । रथन्तर के संदर्भ में कहा गया है कि रथन्तर द्वारा पृथिवी अपना सर्वश्रेष्ठ भाग द्युलोक में स्थापित करती है । बृहत् द्वारा सूर्य अपनी ज्योति तमोमयी पृथिवी में स्थापित करता है । इस प्रकार यह ऊर्ध्व - अधो दिशा में गति है । वैरूप के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण ३.५६ में कहा गया है कि यह तिरश्चीन गति है (भागवत के तृतीय स्कन्ध में कर्दम व देवहूति विमान में आरूढ होकर विभिन्न लोकों में विहार करते हैं ) । ऐसी ही स्थिति वैराज के संदर्भ में भी होनी चाहिए । भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के आधार पर ऐसी कल्पना की जा सकती है जहां पृथु द्वारा पृथिवी को समतल बनाया जाता है । तिरश्चीन गति को ऋतुओं तथा दिशाओं के रूप में भी समझा जा सकता है । शाक्वर, रैवत द्वारा क्या होता है, यह अभी अज्ञात है । यह कल्पना कर सकते हैं कि जो आपः स्थावर हैं, वह शाक्वर और रैवत का रूप ले सकते हैं । शाक्वर रथन्तर रूप है जबकि रैवत बृहद् रूप । रथन्तर की प्रकृति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि स्थावर आपः का जो सार भाग है, वह शाक्वर बनता है । शरीर के स्तर पर क्या मज्जा को शाक्वर रूप में समझा जा सकता है, यह विचारणीय है । वैदिक साहित्य के अनुसार शाक्वर वह है जिसकी आज स्तुति करने पर वह भविष्य के कल में अभीष्ट कार्य सम्पन्न करने योग्य होता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.३३३ आदि के अनुसार रथन्तर गौ रूप है, बृहत् अश्व रूप, वैरूप अज रूप, वैराज अवि रूप, शाक्वर व्रीहि रूप और रैवत यव रूप । छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार अज सूर्योदय से पूर्व की अवस्था है, अवि सूर्योदय की, गौ मध्याह्न की और अश्व अपराह्न की । जिन आपः को दैवी रूप नहीं दिया जा सकता, उनके लिए विकल्प सामुद्रिय और पार्थिव बनाने का है, ऐसी कल्पना की जा सकती है । द्वादशाह नामक सोमयाग में पहले ६ अहों की संज्ञा रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज, शाक्वर और रैवत होती है । इसके पश्चात् सातवें, आठवें और नवें अहों की संज्ञा छन्दोम होती है । कहा गया है कि समुद्र छन्दोम है । भागवत पुराण के सातवें, आठवें और नवें स्कन्धों के वर्णन से इस छन्दोम समुद्र को समझने में सहायता मिल सकती है । भागवत पुराण के सातवें स्कन्ध में मुख्य रूप से हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद की कथा आती है । आठवें स्कन्ध में समुद्र मन्थन और मोहिनी अवतार द्वारा अमृत वितरण की कथा आती है । ऐसा प्रतीत होता है कि पहले ६ अह तो सर्व को विश्व बनाने की तैयारी है और जब विश्व बन जाए, सारी प्रजा अन्तर्मुखी हो जाए तो फिर उसको नियन्त्रित रूप में बहिर्मुखी बनाया जाता है । यह अन्वेषणीय है कि क्या भागवत का दशम स्कन्ध पार्थिव आपः से सम्बन्धित हो सकता है जिसमें कृष्ण लीला का वर्णन है ? वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आपः को कं, सुखं, आनन्द की स्थिति कहा गया है जो सब कामों को प्रदान करने वाली है ( उदाहरण के लिए, ) । वैदिक ऋचाओं में इन्द्र आदि द्वारा आपः को नीचा करने के उल्लेख आते हैं । इस कथन को पद्म पुराण के आधार पर समझा जा सकता है । पद्म पुराण १.४०.१४२ में सलिल और फेन के संदर्भ में कहा गया है कि सलिल अव्यक्तानन्द की अवस्था है जबकि फेन व्यक्ताहंकार की (पुराणों में फेन को इन्द्र द्वारा ब्रह्महत्या से उत्पन्न पाप का प्रतीक माना जाता है । ऋग्वेद ४.१८.७ के अनुसार आपः इन्द्र के पाप/अवद्य को धारण करते हैं ) । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आपः और फेन के संदर्भ में भी फेन को समाधि से व्युत्थान की अवस्था में व्यक्त अहंकार के प्रादुर्भाव का प्रतीक माना जा सकता है । आख्यान में कहा गया है कि उत्पन्न हुए फेन को तप करने का निर्देश प्राप्त हुआ । फेन ने तप किया तो मृदा उत्पन्न हुई । मृदा का नाम मृदा इसलिए पडा क्योंकि यह मृदु जैसी है । मृदा का निहितार्थ क्या हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय आरण्यक ५.२.८ का कथन है कि मृत्खनन करुण्यतम है । इस आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि मृदा की मृदु स्थिति से तात्पर्य करुणा उत्पन्न होने से है । यह ध्यान देने योग्य है कि भौतिक जगत में फेन में वायु, जल और मृदा निहित होते हैं । मृदा में वायु तत्त्व का भाग कम रह जाता है । फिर मृदा ने तप किया तो सिकता उत्पन्न हुई । इस कथन में सिकता का सिकता नाम इसलिए है कि इसमें रेतः सिंचन की प्रक्रिया विद्यमान है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.११ में गार्हपत्य अग्नि चयन के संदर्भ में कहा गया है कि अग्नि की भस्म यातयाम है, बेकार हुआ भाग है । जब वैश्वानर अग्नि इस भस्म में अपने रेतः का सिञ्चन कर देती है तो यह भस्म अयातयाम हो जाती है, उपयोगी हो जाती है । अध्यात्म में भस्म पापों के जल जाने के पश्चात् की स्थिति है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार भस्म को इस प्रकार समझ सकते हैं कि तापगतिकी के दूसरे नियम के अनुसार यह सारा संसार अव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है । संसार में जितनी ऊर्जा है, वह तो नष्ट नहीं होती, केवल उसमें अव्यवस्था की वृद्धि हो जाती है । अव्यवस्था में वृद्धि से उस ऊर्जा से कोई उपयोगी कार्य नहीं लिया जा सकता । इसको इस प्रकार समझ सकते हैं कि जब तक वाष्प इंजन के सिलिण्डर आदि में बंद है, तब तक उससे उपयोगी कार्य कराया जा सकता है । उसी वाष्प को यदि हवा में फेंक दिया जाए तो वह कार्य करने के लिए अनुपयोगी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड में विद्यमान ब्लैक होल ऐसी ही स्थितियां हैं जिनकी अव्यवस्था में वृद्धि हो चुकी है । वैदिक साहित्य का कथन है कि यातयाम/बेकार भाग को भी रेतः सिंचन द्वारा, किसी प्रकार से अव्यवस्था में ह्रास करके उपयोगी बनाया जा सकता है । सिकता द्वारा तप करने से शर्करा उत्पन्न होती है । शर्करा को शम् की स्थिति कहा गया है ( ) । पुराणों में शर्करा की व्याख्या के संदर्भ में कहा गया है कि देवों के अभिषेक हेतु जो शीकर/रिमझिम वर्षा थी, उसकी जो बूंदे मर्त्य लोक में गिरी, उससे शर्करा उत्पन्न हुई । फिर शर्करा के तप से अश्मा/पत्थर बनता है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अश्मा में आपः का जो ऊर्जा भाग है, वह विद्यमान है और वैदिक मन्त्रों में कहा जाता है कि जो क्षुधा है, वह अश्मा में जाकर स्थिर हो जाए, अथवा वह अश्मा को खाना आरम्भ कर दे । जो लोग अनशन करते हैं, उनके विषय में कहा जाता है कि आरम्भ के ४-५ दिन तो कष्ट होता है, उसके पश्चात् उनकी क्षुधा उन्हीं के मांस का भक्षण करना आरम्भ कर देती है । अतः उतना कष्ट नहीं रहता । अश्मा का एक अर्थ व्याप्त स्थिति भी हो सकता है - संवेदनाएं - जैसे खुजली आदि, एक - स्थानिक नहीं रही, अब कोई भी संवेदना उत्पन्न होने पर सर्वत्र व्याप्त हो जाती है । इससे आगे अयः और हिरण्य की स्थिति है । हिरण्य अवस्था को बोधगया में बुद्ध की स्वर्ण - निर्मित मूर्ति के आधार पर समझ सकते हैं - जहां शरीर में कहीं भी कालिमा विद्यमान नहीं है, सारी कालिमा का शोधन अग्नि द्वारा कर दिया गया है । जिस प्रकार भौतिक जगत में सूर्य की किरणों से जल वाष्प बन कर बादल बनता है, फिर वह जल वर्षा के रूप में नीचे पृथिवी पर आता है, उसी प्रकार मनुष्यों में घर्म(आन्तरिक गर्मी) के कारण अभ्र/बादल बनते हैं और फिर किसी प्रकार का रूपान्तरण होने से जल का अवतरण होता है, वैसे ही जैसे शिव की मूर्ति पर जल बूंद - बूंद अथवा धारा रूप में क्षरण करता रहता है । शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.२ से संकेत मिलता है कि इस वर्षण की प्रक्रिया में २ या ३ संभावनाएं निहित हैं जिन्हें मण्डूक, अवका और वेतस नाम दिया गया है । अवका के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.२२ का कथन है कि अवका नाम इसलिए पडा क्योंकि आपः के अवतरण से अवाङ् /व्युत्थान अवस्था कं/आनन्द से पूर्ण हो गई । अवका का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि आनन्द की अनुभूति इतनी गहरी थी कि वाणी उसको व्यक्त नहीं कर सकी, अतः वह अवाक् हो गया । दूसरी स्थिति को वेतस/वेत्ति नाम दिया गया है । हो सकता है यह कोई ज्ञानपूर्ण अनुभूति हो । एक अन्य स्थिति को मण्डूक नाम दिया गया है । मण्डूक वर्षा का कामना करते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक ७.३.२ आदि में कहा गया है कि अधिज्योतिष स्तर पर अग्नि पूर्व रूप है, आदित्य उत्तर रूप और आपः सन्धि हैं । वैद्युत सन्धान है । आपः अग्नि और आदित्य के बीच सन्धि किस प्रकार बन सकते हैं, इसका विश्लेषण शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.१३ में गार्हपत्य अग्नि चयन तथा शतपथ ब्राह्मण १२.१.३.१३ में गवामयन याग के स्वरसाम नामक अहों के आधार पर किया जा सकता है । गार्हपत्य अग्नि चयन के संदर्भ में कहा गया है कि यह लोक गार्हपत्य है । आपः परिश्रित हैं । इस लोक का विस्तार आपः द्वारा करते हैं । इस कथन को इस प्रकार समझाया गया है कि भौतिक जगत में इस पृथिवी के चारों ओर समुद्र विद्यमान है । इसी प्रकार गार्हपत्य अग्नि के चयन में किया जाना चाहिए । यह भी कहा गया है कि समुद्र के आपः का विस्तार तिर्यक् नहीं होना चाहिए, अपितु ऊर्ध्वमुखी होना चाहिए, अन्यथा वह पृथिवी को डुबा देगा । अग्नि इस आपः से सम्पर्क धूम द्वारा करती है, ऐसा कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.१.४ का कथन है कि समुद्र तेज में श्रित है, फैला हुआ है और समुद्र आपः की प्रतिष्ठा है । |