पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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अष्टसखी टिप्पणी : पुराणों में राधा-कृष्ण के परितः स्थित सखियों/गोपियों के नाम क्रमशः विशाखा, शैब्या, पद्मा, भद्रा, ललिता, श्यामला, श्रीमती/धन्या व हरिप्रिया आए हैं। राधोपनिषद के उल्लेख से इन गोपियों की विभिन्न दिशाओं में स्थिति का निर्धारण होता है। राधोपनिषद में आग्नेय कोण में स्थित सखी का नाम श्रद्धा प्रकट हुआ है, जबकि पुराणों में यह नाम शैब्या है। यह मानवीय त्रुटि है या यह परिवर्तन जानबूझ कर किया गया है, यह आगे वर्णन से स्पष्ट होगा। वृन्दावन में जो राधा-कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय विकसित हुए हैं, उनमें यह 8 नाम ललिता, विशाखा, चम्पकलता, चित्रा, तुङ्गविद्या, इन्दुलेखा, सुदेवी और रंगदेवी के रूप में प्रकट हुए हैं। पहला प्रश्न तो यह उठता है कि क्या पुराणों में प्रकट हुए आठ नामों और वृन्दावन में प्रचलित सखियों के आठ नामों में साम्य है या नहीं? और यदि साम्य है तो उनकी दिशाओं में स्थिति में भी साम्य है या नहीं? जैसा कि इस टिप्पणी में आगे वर्णन किया गया है, पुराणों और वृन्दावन की सखियों के नामों में साम्य है, लेकिन दिशाओं में स्थिति में नहीं। अभी यह ज्ञात नहीं है कि क्या सखियों की दिशाओं में स्थिति में सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के अनुसार अन्तर आ जाता है अथवा वह एक समान रहती है? यह उल्लेख कर देना उपयुक्त होगा कि राधा की सखियों से क्या तात्पर्य हो सकता है और इन सखियों का दिशाओं के अनुसार वर्गीकरण करने की आवश्यकता क्यों पडी? सखी से तात्पर्य हमारे दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों से, दैनिक जीवन की प्रवृत्तियों से हो सकता है। हमारी सभी प्रवृत्तियां, सभी कार्यकलाप केन्द्रस्थ सात्विक प्रकृति राधा की सेवा करें, यही सखी का उद्देश्य हो सकता है। वैदिक साहित्य में सखियों को नहीं, अपितु सखाओं को महत्त्व दिया गया है और उन्हें मरुत नाम दिया गया है। इन्द्र एक मरुत को काट कर उसे सात भागों में विभाजित करता है और फिर सात टुकडों को काट-काट कर उनको 49 संख्या में विभाजित करता है। तब जाकर मरुत उसके सखा बनते हैं। मरुतों के सात गणों में से प्रत्येक में सात मरुत हैं। यह सात गण क्रमशः सात्त्विक, सूक्ष्म होते चले जाते हैं और इनका विकास ऊर्ध्व दिशा में होता चला जाता है। सखियों के संदर्भ में वैदिक साहित्य में बहुत कम उल्लेख है। यह काम पुराणों ने पूरा किया है। सखियों को आठ दिशाओं में विभाजित किया गया है जिससे प्रत्येक दिशा की विशिष्ट प्रकृति के अनुसार अपनी प्रवृत्तियों का विभाजन किया जा सके। यदि कोई सात्त्विक प्रकृति का पुरुष है तो उसे सखियों के चक्कर में पडने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सीधे राधा की, केन्द्रीय सात्त्विक प्रकृति की आराधना करेगा।
विशाखा
विशाखा टिप्पणी : पुराणों के अनुसार राधा की 8 सखियों में विशाखा सखी का स्थान पूर्व दिशा में है जबकि ललिता सखी का पश्चिम दिशा में। ललिता कृष्ण को रच-रच कर ताम्बूल/पान प्रस्तुत करती है। ताम्बूल शब्द तबि, ष्टबि आदि धातुओं के आधार पर निर्मित है। तबि, ष्टबि धातुएं मर्दन अर्थ में प्रयुक्त होती हैं – प्राण और अपान के मर्दन से व्यान का जन्म होता है, ऐसा कहा जाता है। व्यान प्राण दक्षता उत्पन्न करता है। यह मदयुक्त अवस्था है। दूसरे शब्दों में मर्दन की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यह मर्त्य स्तर पर अमृत स्तर के मिश्रण से उत्पन्न स्थिति है। ताम्बूल लता का जन्म भी अमृत के भूमि पर क्षरण से हुआ है। अथर्ववेद 8.7.4 में ओषधियों का वर्गीकरण उनके तनों के अनुसार किया गया है। एक ओषधि स्तम्भ/स्कन्ध अर्थात् तने वाली है, दूसरी काण्ड वाली, तीसरी बिना तने की अर्थात् विशाखा, जिसके मूल से ही शाखाएं निकल रही हैं, तना है ही नहीं। यह स्कन्ध उद्देश्य-विशेष का प्रतीक हो सकता है। हो सकता है कि ताम्बूल भी उद्देश्य विशेष का प्रतीक हो। पुराण में उल्लेख आता है कि नाग-पुत्री ललिता ने उदयन को अम्लान ताम्बूल माला उदयन को अर्पित की। इन उद्देश्यों को रच-रच कर कृष्ण को अर्पित करना है। इसके विपरीत, विशाखा की स्थिति निरुद्देश्य है, सभी ओर किरणें फैल रही हैं। यह समाधि से व्युत्थान की स्थिति हो सकती है। गर्ग संहिता में विशाखायूथ की गोपियां कृष्ण विरह पर अपनी प्रतिक्रिया इस प्रकार व्यक्त करती हैं कि गोचारण के समय अनुचरों सहित जाते हुए मत्त हाथी जैसे कृष्ण अपने रवों से स्वपुर को प्रबोधित कर देते हैं(गोचारणायानुचरैर्व्रजंतं प्रबोधयंतं स्वपुरं विरावैः)। यहां गोचारण इन्द्रियों का नियन्त्रण हो सकता है। वामन पुराण में वामन के विराट रूप में विशाखा नक्षत्र की स्थिति भ्रूमध्य में कही गई है। अथर्ववेद 19.7.3 में विशाखा नक्षत्र के राधा बन जाने की कामना की गई है। वैदिक साहित्य में अन्यत्र विशाखा नक्षत्र नाम न लेकर राधा कहकर ही काम चला लिया गया है क्योंकि विशाखा नक्षत्र से अगला नक्षत्र अनुराधा है। विशाखा सखी का वर्ण : विद्युत जैसा, वस्त्रों पर तारे जडे हैं। राधा व कृष्ण के बीच दूती का कार्य करती है। सखी बिसाखा अति ही प्यारी। कबहुँ न होत संगते न्यारी॥ बहु विधि रंग बसन जो भावै। हित सौं चुनि कै लै पहिरावै॥ ज्यौं छाया ऐसे संग रहही। हित की बात कुँवरि सौं कहही॥ दामिनि सत दुति देह की, अधिक प्रिया सों हेत। तारा मंडल से बसन, पहिरे अति सुख देत॥ माधवी मालती कुञ्जरी, हरनी चपला नैन। गंध रेखा सुभ आनना, सौरभी कहैं मृदु बैन॥ - श्री ध्रुवदास-कृत “बयालीस लीला” से उद्धृत Visakha is the second most important of the eight varistha-gopis. Her attributes, activities and resolve are all much like those of her friend Lalita. Visakha was born at the exact same moment as her dear friend, Srimati Radharani, appeared in this world. Visakha's garments are decorated with stars and her complexion is like lightning, being cream-colored with a tinge of red (gaurangi). She is 14 years, 2 months and 15 days in age. Her father is Pavana, the son of the sister of Mukhara-gopi, and her mother is Daksina-devi, the daughter of the sister of Jatila. Her husband is Bahuka (Vahika-gopa). Her residence is cloudlike in color. She appears in gaura-lila as Sri Ramananda Raya. Visakha-devi is the intimate friend of the Divine Couple. Although she is more exalted than the younger gopis (the gopi messengers lead by Vrnda devi), she also takes up the work of carrying messages between Radha and Krsna and she is the most intelligent and expert of all the gopi messengers. Loquacious Visakha is expert at joking with Lord Govinda, and she is the perfect counsellor of the Divine Couple. Being expert at all aspects of amorous diplomacy, she knows all the arts of how to conciliate an angered lover, how to bribe him, and how to quarrel with him. Visakha is very dear to Sri Krsna and has the bhava known as svadhina-bhartrka. Her seva is dressing and decorating. In Sri Visakha’s yutha the chief sakhis are Malati, Madhavi, Candrarekha, Subhanana, Kunjari, Harini, Surabhi and Capala.
तुङ्गविद्या पुराणों में आग्नेयी दिशा में शैब्या गोपी की स्थिति का उल्लेख है जबकि राधोपनिषद में श्रद्धा गोपी का। अथर्ववेद 15.2.8 में आग्नेय कोण में श्रद्धा पुंश्चली की स्थिति का उल्लेख है जिसका विज्ञान मित्र है, भूत और भविष्य परिष्कन्द हैं। पुंश्चली शब्द संकेत देता है कि श्रद्धा अस्थिर है। इस कथन को पुराणों में रानी शैब्या की कथाओं के आधार पर समझा जा सकता है। एक कथा में शैब्या राजा सगर की पत्नी बनकर असमञ्जस पुत्र को जन्म देती है। यह असमञ्जस वही श्रद्धा और अश्रद्धा के बीच की स्थिति है। अन्य कथा में शैब्या राजा शतधनु की पत्नी है। राजा शतधनु का किसी पाखण्डी से सम्पर्क हो गया जिसके परिणामस्वरूप राजा को मृत्यु-पश्चात् श्वान, सृगाल आदि की योनियां प्राप्त होती रही और प्रत्येक बार शैब्या उन योनियों से अपने पूर्व पति का उद्धार करती रही। राजा द्वारा विभिन्न योनियां प्राप्त करना यम की ओर से एक नियत कर्म था, लेकिन शैब्या ने इतना कर दिया कि एक योनि में रहने का समय केवल एक दिन रह गया। इस प्रकार शैब्या ने काल संक्षेप कर दिया। यह कथा इंगित करती है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति में मनुष्य सबसे पहले श्रद्धा के आधार पर ही अग्रसर होता है और यदि उसमें कोई अज्ञानी व्यक्ति अश्रद्धा, संशय उत्पन्न कर देता है तो यह शुभ संकेत नहीं है। एक अन्य कथा में शैब्या अपने कुष्ठी पति को ढो रही है जिसके पदाघात से शूलारोपित माण्डव्य ऋषि को कष्ट पहुंच जाता है और वह सूर्योदय होने से पहले कुष्ठी पति को मरने का शाप देते हैं। शैब्या सूर्योदय होने का ही निषेध कर देती है। शैब्या का कुष्ठी पति होना डा. फतहसिंह के अनुसार यह संकेत देता है कि आत्मा की ज्योति का जीवन में अवतरण नहीं हुआ है। जैसे ही अवतरण होगा, सूर्योदय होगा, कुष्ठ समाप्त हो जाएगा। वृन्दावन में शैब्या/श्रद्धा को तुङ्गविद्या नाम दिया गया है, ऐसा अनुमान है। तुंगविद्या और शैब्या की प्रकृतियों में साम्य का अनुमान पद्म पुराण की इस कथा से लगाया जा सकता है कि आत्मदेव और धुंधली का आख्यान तुङ्गभद्रा नदी के तट पर घटित हुआ था। इस कथा में धुंधली वही धुंधली बुद्धि है जिसे स्पष्ट दिशा निर्देश प्राप्त नहीं हो रहे हैं। तुङ्गविद्या गोपी 18 वेदविद्याओं की ज्ञाता है, गान विद्या/नाट्य शास्त्र में कुशल है, रस शास्त्र में कुशल है। उसके गान की प्रकृति को मार्गी संगीत कहा गया है। मार्गी का एक अर्थ तो यह हो सकता है कि इससे जीवन में मार्ग का निर्धारण किया जा सकता है। दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि इसके द्वारा हमें मार्जन करना है, लोकभाषा में मांजना है। तीसरा अर्थ यह हो सकता है कि यह संगीत मृग की अवस्था है। यह मृग इस संसार में अपने लिए भोग आदि की खोज करता रहता है। तुङ्ग शिखर को कहते हैं। ऐसा हो सकता है कि तुङ्गविद्या अपने संशय को १८ वेदविद्याओं को जानने के पश्चात् नष्ट करती हो। तुङ्गविद्या को यदि तुञ्जविद्या कहा जाए तो वेदों के अनुसार इसकी व्याख्या करना संभव हो जाता है। वैदिक निघण्टु में तुञ्ज शब्द का वर्गीकरण वज्र नामों के अन्तर्गत किया गया है। इसका अर्थ होगा कि अपने निश्चय को वज्र जैसा दृढ संकल्प बनाना है जिसमें संशय का कोई स्थान न हो। तुञ्जति शब्द का वर्गीकरण दानकर्मा शब्दों के अन्तर्गत किया गया है। यदि श्रीसूक्त से तुलना की जाए तो श्रीसूक्त में आग्नेय कोण में जिस ऋचा का विनियोग है, वह है – उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥ इसका शब्दार्थ है कि जो देवसखा है, वह मेरे पास आए। तथा कीर्ति मणि के साथ आए। मैंने इस राष्ट्र में जन्म ले लिया है। कीर्ति मुझे ऋद्धि प्रदान करे। इस ऋचा में देवसख आत्मा का वह रूप हो सकता है जो परमात्मा से निर्देश लेने लगा है, उसका सखा बन गया है। तब वह कल्याणकारी रूप में सम्पूर्ण देह में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में, राष्ट्र में अपना विस्तार कर सकता है। क्या कीर्ति का पूर्व रूप धुंधली बुद्धि है, यह अन्वेषणीय है। पुराणों में तो सुचन्द्र व कलावती का अवतार वृषभानु व कीर्ति कहे गए हैं जो राधा को जन्म देते हैं। तुङ्ग विद्या सब विद्या माही। अति प्रवीन नीके अवगाही॥ जहां लगि बाजे सबै बजावै। रागरागिनी प्रगट दिखावै॥ गुन की अवधि कहत नहिं आवै। छिन-छिन लाडिली लाल लडावै॥ गौर बरन छबि हरन मन, पंडुर बसन अनूप। कैसे बरन्यो जात है, यह रसना करि रूप॥ मंजु मेधा अरु मेधिका, तन मध्या मृदु बैंन। गुनचूडा बारूंगदा, मधुरा मधुमय ऐंन॥ मधु अस्पन्दा अति सुखद, मधुरेच्छना प्रवीन। निसि दिन तौ ये सब सखी, रहत प्रेम रस लीन॥ - “बयालीस लीला” से साभार Tungavidya is the fifth of the varistha gopis. Her complexion is the color of kunkuma and the fragrance of her body is like sandalwood mixed with camphor. Her dress is pandu-mandana (pale yellow). She is fifteen days younger than Srimati Radharani, and her age is 14 years, 2 months and 22 days. She wears white garments. Her parents are Puskara and Medha-devi and her husband is Balisa. On the western petal of Madana-sukhada Kunja lies the extremely beautiful crimson-colored Tungavidyanandada Kunja, where Sri Tungavidya Sakhi always resides. In gaura-lila she appears as Sri Vakresvara Pandita. She loves Sri Krsna very much and, filled with eagerness for that prema, she exhibits the bhava known as vipralabdhatva. She is very devoted to her seva of dancing and singing, and is a celebrated music teacher who is expert at playing the vina and singing in the style known as marga. She has full faith in Krsna. She is very expert at arranging the meetings of the Divine Couple. She is learned in rasa-sastra (transcendental mellows), is learned in the eighteen branches of knowledge, in niti-sastra (morality), dancing, drama, literature and all other arts and sciences. Being hot-tempered and expert at dissimulation, Tungavidya is one of the leaders of the gopis. Some of the sakhis in Tungavidya’s yutha are Manjumedha, Sumadhura, Sumadhya, Madhureksana, Tanu madhya, Madhusyanda, Gunacuda and Varangada. These gopis are the best of dancers. They are musicians expert at playing the mrdanga and singing in recital halls. They are especially engaged in fetching water from the streams in Vrndavana. Eight gopi messengers headed by Manjumedha-devi are especially expert at arranging political alliances (sandhi) the first of diplomatic maneuvers in the art of politics between Radha and Krsna.
चित्रा
पुराणों में दक्षिण दिशा में पद्मा गोपी की स्थिति कही गई है जबकि वृन्दावन परम्परा में इस दिशा में चित्रा सखी को स्थान दिया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि आकाश में जैसे नक्षत्र हैं, वैसे ही इस पृथिवी पर चित्र-विचित्र रूप हैं। कोई अच्छा रूप है, कोई खराब रूप है। आवश्यकता इस बात की है इन चित्र रूपों को विकसित करके इन्हें पुनः आकाश के नक्षत्रों का रूप दिया जाए। दक्षिण दिशा यम की, पितरों की और दक्षता प्राप्त करने की दिशा है। पहले हम पुराणों के माध्यम से यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि दक्षिण दिशा में पद्मा सखी के नामकरण से क्या तात्पर्य सिद्ध होता है? पुराणों में सार्वत्रिक रूप से एक कथा में पद्मा को राजा अनरण्य की कन्या कहा गया है। हमारी आत्मा अरण्य है, जंगल है जिससे ऊपर की स्थिति अन्-अरण्य की, परमात्मा की है(लक्ष्मीनारायण संहिता)। इस अनरण्य को पद्म में स्थित अङ्गुष्ठ पुरुष की बहुत चाह है, लेकिन वह केवल कन्या रूप में पद्मा को, प्रकृति को ही प्राप्त कर पाता है। फिर इस पद्मा को पत्नी रूप में पाने वाला पैप्पलाद बनता है। पैप्पलाद ऋषि वह है जिसका पालन पिप्पलों के भक्षण से, इस पृथिवी के भोगों के सेवन द्वारा हुआ है। इस पद्मा को धर्म भी पत्नी रूप में प्राप्त करना चाहता है, लेकिन उसे पद्मा के शाप से चार युगों में चार पाद वाला बनना पडा। पद्मा शब्द की निरुक्ति इसी आधार पर की जा सकती है कि जगत में प्राणियों को पाद प्रदान करे, उनमें चलने की शक्ति दे, जैसे सूर्योदय पर सारे प्राणी चलने लगते हैं। लक्ष्मीनारायण संहिता में उल्लेख आता है कि पद्मा गोपी कृष्ण के पादयुगल में अलक्तक लगाती है। दूसरी ओर पद्मा गोपी द्वारा कृष्ण को भालतिलक बिन्दी लगाने का भी उल्लेख है। इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है, यह भविष्य में अपेक्षित है। चित्रा का चित्रण पुराणों में यम-पत्नी के रूप में किया गया है। एक वेश्या के रूप में भी चित्रा का चित्रण किया गया है जो अपने किन्हीं सत्कार्यों के कारण अगले जन्म में दिव्या देवी बनती है। पुराणों में पिङ्गला को भी वेश्या कहा जाता है जो सदा इस आशा में जीती है कि उसे उसका प्रियतम मिलेगा। जब वह आशा का त्याग कर देती है, तभी उसे चैन मिलता है। श्रीसूक्त में दक्षिण दिशा में जिस ऋचा का विनियोग है, वह है – कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥ अर्थात् मैं उस श्री का आह्वान करता हूं जो कां, कामनाओं की पूर्ति करती है, सोस्मिता अर्थात् मुस्कराने वाली है, जिसके चारों ओर हिरण्य का घेरा है, जो आर्द्रा है, करुणा से आर्द्र है, ज्वलन्ती है, पापों को जला डालती है, तृप्त है, पिङ्गला वेश्या की तरह अतृप्त नहीं है, तृप्त करने वाली है, इत्यादि। चित्रा सखी दुहुँनि मन भावै। जल सुगंध लै आनि पिवावै॥ जहां लगि रस पीवे के आही। मेलि सुगंध बनावै ताही॥ जेहि छिन जैसी रुचि पहिचानै। तब ही आनि करावत पानै॥ कुंकुम कौसौ बरन तन, कनक बसन परिधान। रूप चतुरई कहा कहौं, नाहिन कोऊ समान॥ सखी रसालिका तिलकनी, अरु सुगंधिका नाम। सौर सैन अरु नागरी, रामिलका अभिराम॥ नागबेंनिका नागरी, परी सबै सुख रंग। हित सौं ये सेवा करैं, श्री चित्रा के संग॥ - श्री ध्रुवदास-कृत बयालीस लीला, पृष्ठ 149 Citra is the fourth of the varistha gopis. Her beautiful saffron complexion resembles the color of kunkuma, and her garments are the color of crystal. She is 26 days younger than Srimati Radharani, being 14 years, 7 months and 14 days of age. Her father is Catura, the paternal uncle of Suryamitra. Her mother is Carcika-devi and her husband is Pithara. She is an adhika-mrdvinayika, and her home is in Yavata. In gaura-lila she appears as Sri Govindananda. She and Sri Krsna are very affectionate toward each other, and she is very devoted to her seva of bringing cloves and garlands. She is especially expert in the lover's quarrel between Radha and Krsna (the third of the six definitions of the word abhisarana). When Lord Madhava is full of bliss, she becomes satisfied. Citra-devi can read between the lines of books and letters written in many different languages, perceiving the hidden intentions of the author. She is a skilled gourmet and can understand the tastes of various foods made with honey, milk, and other ingredients simply by glancing at them. She can nicely make various kinds of nectarean beverages. (There are also eight other gopi maidservants, headed by Rasalika-devi, who are expert at making various nectarean beverages.) Citra-devi is expert in playing music on pots filled with varying degrees of water. She is learned in the literature describing astronomy and astrology, and she is well versed in the theoretical and practical activities of protecting domestic animals. She is especially expert at gardening. There are other gopis who mostly collect transcendental herbs and medicinal creepers from the forest and do not collect flowers or anything else. Citra-devi is the leader of these gopis. The chief gopis in Sri Citra’s yutha are Rasalika, Tilakini, Saurasen, Sugandhika, Vamani, Vamanayana, Nagari and Nagavallika.
इन्दुलेखा
नैर्ऋत कोण में भद्रा गोपी की स्थिति कही गई है। भद्र से तात्पर्य है कि हमारे जीवन में जो भी घटना रौद्रता उत्पन्न करती है, जैसे भूख, प्यास आदि, उनको भद्र स्थिति में रूपान्तरित करना है(क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठां अलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् – श्रीसूक्त)। अथर्ववेद 15.2.16 में नैर्ऋत दिशा में उषा पुंश्चली की स्थिति कही गई है जिसका विज्ञान मन्त्र कहा गया है और अमावास्या व पौर्णमासी परिष्कन्द कहे गए हैं। यह संकेत देता है कि भूख, प्यास आदि जितने अग्नि से उत्पन्न उपद्रव हैं, उनका विकास उषा तक होना चाहिए, क्षुधा का प्रभाव सिर तक होना चाहिए(उषा वै अश्वस्य मेध्यस्य शिरः - शतपथ ब्राह्मण), तभी वह भद्र बन सकते हैं। पुराणों में उषा को अनिरुद्ध की पत्नी कहा गया है। यह कथा उषा को समझने की कुंजी है। जो भी कुछ निरुद्ध है – स्वप्न, क्षुधा, शकुन इत्यादि, वह सब निर्ऋति के अन्तर्गत आता है। जब वह अनिरुद्ध बन जाते हैं तो वह उषा के अन्तर्गत आते हैं। निर्ऋति का अस्तित्व होने पर वह शकुन मात्र रहते हैं, उषा का अस्तित्व होने पर वह मन्त्र बन जाते हैं। और अमावास्या व पौर्णमासी परिष्कन्द कहने से यह संकेत दे दिया गया है कि उषा केवल सूर्योदय तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, अपितु उसका विस्तार चन्द्रमा तक होना चाहिए। अनुमान है कि भद्रा गोपी वृन्दावन की इन्दुरेखा/इन्दुलेखा गोपी के तुल्य है। इन्दुलेखा गोपी नागवशीकरण विद्या की ज्ञाता है और उसे नागों को वश में करने वाले मन्त्रों पर सिद्धि प्राप्त है। वह सामुद्रिक/देहलक्षण शास्त्र की और रत्न विज्ञान की ज्ञाता है तथा राधा-कृष्ण को कण्ठ आभूषण प्रस्तुत करती है। उसकी मुख्य सेवा चंवर डुलाना है। वह राधा और कृष्ण के बीच प्रेम संदेशों का आदान-प्रदान करती है जिसे संभवतः कोक विद्या नाम दिया गया है। नैर्ऋत दिशा अवचेतन मन की दिशा है। हो सकता है कि अवचेतन मन में बसे संस्कारों को नाग नाम दे दिया गया हो जिनको इन्दुलेखा मन्त्र द्वारा वश में करना जानती है। जब संस्कार अवचेतन से बाहर निकल कर प्रकट हो जाएंगे तो वह मन्त्र कहलाएंगे। इन्दुलेखा अति चतुर सयानी। हित की रासि दुहुंन मनमानी॥ कोक कला घातन सब जानै। काम कहानी सरस बखानै॥ बसी करन निज प्रेम के मंत्रा। मोहन विधि के जानत जंत्रा॥ छिनछिन ते सब पियहि सिखावै। तातें अधिक प्रिया मन भावै॥ देह प्रभा हरताल रंग, बसन दाडिमी फूल। अधिकारिन सब कोस की, नाहिन कोऊ सम तूल॥ चित्रलेखा अरु मोदिनी, मन्दालसा प्रवीन। भद्रतुङ्गा अरु रसतुङ्गा, गान कला रस लीन॥ सोभित सखी सुमंगला, चित्रांगी रस दैंन। ये तौ रहैं सब बात में, सावधान दिन रैंन॥ श्री ध्रुवदास जी के उपरोक्त कथन में कोक कला की व्याख्या कुक – आदाने धातु के आधार पर तथा कोकिल शब्द के आधार पर की जा सकती है। जो कुछ कहीं सुनाई पड गया है, शकुन के रूप में प्रकट हुआ है, उसको चेतना के बाह्यतम स्तर पर लाना है, अपने जीवन में उतारना है, यह कोक का अर्थ हो सकता है जो नैर्ऋत दिशा के लक्षणों से मेल खाता है। Indulekha is the sixth of the varistha gopis. She has a lemon-yellow (tan) complexion and wears garments the color of a pomegranate flower. She is three days younger than Srimati Radharani, being 14 years, 2 months and 10 1/2 days of age. Her parents are Sagara and Vela-devi and her husband is Durbala. On the southeastern petal of Madana-sukhada Kunja lies the golden-colored Purnendu Kunja, where Sri Indulekha lives. In gaura-lila she appears as Vasu Ramananda. Indulekha-devi has a deep love for Sri Krsna and possesses the prosita-bhartrka-bhava. She often serves Krsna by bringing Him nectar-like delicious meals. She is vama-prakhara and her principal seva is fanning with a camara. Indulekha is contrary and hot-tempered by nature. She is learned in the science and mantras of the Naga-sastra, which describes various methods of charming snakes. She is also learned in the Samudraka-sastra, which describes the science of palmistry. She is expert at stringing various kinds of wonderful necklaces, decorating the teeth with red substances, gemology and weaving various kinds of cloth. In her hand she carries the auspicious messages of the Divine Couple. In this way she creates the good fortune of Radha and Krsna by creating Their mutual love and attraction. Indulekha-devi is fully aware of the confidential secrets of the Divine Couple. Some of her friends are engaged in providing ornaments for the Divine Couple, others provide exquisite garments, and others guard their treasury. In Sri Indulekha’s yutha the chief gopis are Tungabhadra, Citralekha, Surangi, Rangavatika, Mangala, Suvicitrangi, Modini and Madana. The group of gopis headed by Tungabhadra-devi are the friends and neighours of Indulekha. Among these gopis is a group, headed by Palindhika-devi, which acts as messengers for the Divine Couple. ललिता टिप्पणी : पुराणों में ललिता गोपी राधा-कृष्ण के परितः विद्यमान 8 गोपियों में से एक है। ब्रह्माण्ड पुराण में ललिता द्वारा भण्डासुर के वध की कथा का विस्तार से वर्णन है। भण्डासुर की उत्पत्ति शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने के पश्चात् कामदेव की भस्म से हुई है। चूंकि शिव में उग्रता विद्यमान थी, अतः भण्डासुर में भी उग्रता विद्यमान है। भण्डासुर के क्या अर्थ हो सकते हैं, इस संदर्भ में भडि धातु कुत्सा/निन्दा अर्थ में, परिभाषण/विकृत हास्य अर्थ में और कल्याण/भण्डार अर्थ में प्रयुक्त होती है। लोक में धान्य को भूनने के उपकरण को भाड कहते हैं। भण्डासुर की पुरी का नाम शून्यक पुरी है। पुराणों में ललिता गोपी का न्यास पश्चिम दिशा में किया जाता है। पश्चिम दिशा पाप नाश की, श्मशान की दिशा है। शिव ने भी कामदेव को भस्म कर दिया। लगता है पुराणों में इसे भण्डासुर की शून्यक पुरी नाम दिया गया है। लेकिन शून्य स्थिति पर्याप्त नहीं है। इस शून्य में रस उत्पन्न होना चाहिए। यह कार्य ललिता देवी का है। स्कन्द पुराण में धृतराष्ट्र नाग की पुत्री ललिता उदयन को घोषवती वीणा व अम्लान ताम्बूल स्रज भेंट करती है। उदयन पूर्व दिशा की, उदय की स्थिति हो सकती है। वीणा संगीत का, रस का परिचायक हो सकती है। राधावल्लभ सम्प्रदाय में श्री ध्रुवदास जी ने अपनी पुस्तक “बयालीस लीला” में ललिता के विषय में लिखा है कि यह रुचि उपजाती है, रच-रच कर पान/ताम्बूल खिलाती है(ललिता परम चतुर सब बातन। जानत है निज नेह की घातन। पानन बीरी रुचिर बनावै। रुचि लै रचि रचि रुचि सौं ख्वावै॥ मुख ते बचन सोई तो काढै। जाते दुहुं में अति रुचि बाढै॥ गोरोचन सम तन प्रभा, अद्भुत कही न जाइ। मोर पिच्छकी भांति के, पहिरे बसन बनाइ॥ रतन प्रभा अरु रति कला, सुभा निपुन सब अंग। कलहंसी रु कलापनी, भद्र सौरभा संग॥ मनमथ मोदा मोद सौं, सुमुखी है सुख रास। निसि दिन ये आठौ सखी, रहैं ललिता के पास॥ – श्री ध्रुवदास-कृत बयालीस लीला के अन्तर्गत दस मुक्तावली लीला, प्रकाशक – बाबा तुलसीदास, गोपाल भवन, दुसायत वृन्दावन, विक्रम संवत् 2028, पृष्ठ 148)। इस प्रकार ललिता देवी के साथ ताम्बूल का कोई अभिन्न सम्बन्ध है। ताम्बूल के विषय में कहा गया है कि अमृत के पृथिवी पर क्षरण से ताम्बूल की उत्पत्ति हुई है। ताम्बूल शब्द की निरुक्ति तबि, ष्टबि इत्यादि धातुओं के आधार पर की जा सकती है जिनका अर्थ मर्दने किया गया है। यह मर्दन प्राण और अपान वायुओं के बीच हो सकता है जिससे व्यान प्राण की उत्पत्ति संभव है। व्यान प्राण से दक्षता उत्पन्न होती है। स्वयं ललिता सखी की स्थिति पश्चिम दिशा में है जो अपान का पुर कहा जाता है। स्तम्भन का लालन करने के संदर्भ में भी ताम्बूल का अर्थ हो सकता है। यह स्तम्भ ओषधि-वनस्पतियों का स्कन्ध हो सकता है। और अध्यात्म में यह उद्देश्यों का प्रतीक हो सकता है। कुछ ओषधियां ऐसी होती है जो स्कन्ध से युक्त होती हैं। कुछ ऐसी होती हैं जो स्कन्ध से रहित होती हैं। ऐसी ओषधियों का प्रतीक विशाखा है – जिसके मूल से ही शाखाएं निकलने लगती हैं। पुराणों में ललिता देवी का उद्भव वेदानुसार कहा गया है। वेदों में प्रतीत होता है कि रर शब्द ललिता का परिचायक है। ललिता को ररिता कह सकते हैं। रर शब्द की मूल धातु क्या है, यह ज्ञात नहीं हो सका है। हो सकता है कि रर का मूल ऋ हो। ऋग्वेद के सायण भाष्य में रर शब्द का अर्थ दान किया गया है। ऋग्वेद 3,32.2, 3.35.1 व 5.43.3 में ररिम मदाय शब्द प्रकट हुए हैं, अर्थात् मद उत्पन्न करने के लिए सोम इत्यादि का ररण किया जा रहा है। ललिता सखी का वर्ण – पीला चमकदार, वस्त्र : मयूर पिच्छ जैसे वर्ण वाले, राधा व कृष्ण के झगडों के बीच सुलह कराने वाली। Of the varistha gopis, Lalita is the most important, being the leader and controller. She and the other eight principal gopis, the other gopis and the manjari have forms that are for the most part like the transcendental form of Srimati Radharani, the queen of Vrndavana. Lalita is famous as Srimati Radharani's constant companion. Her complexion is like the yellow pigment gorocana and her garments are like peacock feathers. Her mother is Saradi-devi and her father is Visoka. Her husband is named Bhairava. He is a close friend of Govardhana-gopa. Her age is 14 years, 8 months and 27 days. Her home is in Yavata and her nature is vama-prakhara. In gaura-lila, she has assumed the form of Sri Svarupa Damodara Gosvami. The beauty of all the other gopis appears to be conserved in the form of Lalita-devi. She is contrary and hot-tempered by nature. In an argument, her mouth becomes bent with ferocious anger and she expertly speaks the most outrageous and arrogant replies. When the arrogant gopis pick a quarrel with Krsna, she is at the forefront of the conflict. When Radha and Krsna meet, she audaciously remains standing a little away from them. Lalita-devi is full of ecstatic love for the Divine Couple. She is expert at arranging both Their meetings and Their conjugal struggles. Sometimes, for Radha's sake, she offends Lord Madhava. With the help of Purnamasi-devi and the other gopis Lalita arranges for the meetings of Radha and Krsna. She carries the parasol for the Divine Couple, she decorates Them with flowers, and she decorates the cottage where They rest at night and rise in the morning. On the northern petal of Ananga-sukhada Kunja, there is a beautiful kunja covered with various kinds of flowers and trees. This place is known as Lalitanandada Kunja and it is the color of lightning. The lovely Lalita Sakhi always lives here. She has a beautiful bright yellow (gorocana) complexion and wears a dress the color of peacock feathers. She is adorned with celestial ornaments and personifies the type of bhava known as khandita. She and Sri Krsna are very, very dear to each other and her seva is to bring camphor and tambula to Him. The chief sakhis in Lalita’s group are Ratnarekha (Ratnaprabha), Ratikala, Subhadra, Candrarekhika (Bhadrarekhika), Sumukhi, Dhanistha, Kalahamsi and Kalapini.
रङ्गदेवी वायव्य दिशा में पुराणों में श्यामला गोपी की स्थिति कही गई है। पुराणों में श्यामला का नाम कलि-भार्या, यम-भार्या आदि के रूप में आता है। श्यामला का अवतरण अनिरुद्ध-भार्या उषा के रूप में तथा देवकी, द्रौपदी, रोहिणी आदि के रूप में हुआ है। वृन्दावन में इस दिशा में रङ्गदेवी गोपी को स्थान दिया गया है, ऐसा अनुमान है। पुराणों के श्यामला नाम और वृन्दावन के रङ्गदेवी नाम में कोई अन्तर नहीं है। श्यामला का अर्थ है श्याम वर्ण का लालन करने वाली, उसमें रंग देने वाली। रङ्गदेवी गोपी की सेवा राधा-कृष्ण को चन्दन अर्पित करना है। वह सुगन्ध की ज्ञाता है। वह मन्त्र द्वारा कृष्ण को आकृष्ट कर सकती है। रंग देवी अति रंग बढावै। नख सिख लौं भूषन पहिरावै॥ भांति भांति के भूषन जेते। सावधान ह्वै राखत तेते॥ कमल केसरी आभा तन की। बडी सक्ति है चित्र लिखिन की॥ तन पर सारी फबि रही, जपा पुहुप के रंग। ठाढी सब अभरन लिये, जिनके प्रेम अभंग॥ कलकंठी अरु ससि कला, कमला अति ही अनूप। मधुरिंदा अरु सुन्दरी, कंदर्पा जु सरूप॥ प्रेम मंजरी सो कहै, कोमलता गुन गाथ। एतो सब रस में पगी, रंग देवी के साथ॥ अथर्ववेद में इस दिशा में इरा पुंश्चली की स्थिति कही गई है जिसका विज्ञान “हस” है। अह और रात्रि परिष्कन्द हैं। इरा से तात्पर्य होता है पृथिवी पर उत्पन्न होने वाली ओषधि-वनस्पतियों से। हस्ती इस इरा का विशेषज्ञ माना जाता है, अतः उसे ऐरावत कहते हैं। पुराणों में तो इरा हस्तियों की माता है। वेदों में इरा के अन्य रूप इळा और इला हैं। सोमयाग में इळा के प्रतीक रूप में दक्षिण भारतीय इडली व्यञ्जन बनाया जाता है जिसका सेवन यज्ञ के सबसे अन्त में किया जा सकता है। कहा गया है कि इळा पाकयज्ञिया है, अर्थात् उसको यज्ञ के द्वारा पकाना है। पकने के पश्चात् ही उसका सेवन किया जा सकता है। इरा के विज्ञान के रूप में “हस” शब्द का उल्लेख है। सामवेद के गायन में दो शब्द आते हैं – अस और हस। संभवतः अस अन्तर्मुखी स्थिति है और हस बहिर्मुखी। अथवा हस हंस से, नीर-क्षीर विवेक से सम्बन्धित हो सकता है। लेकिन हस के संदर्भ में यह तर्क संतोषजनक नहीं हैं। संभावना यह है कि हस का परोक्ष रूप “घस” है। घस शब्द का प्रयोग खाने के लिए होता है। इसी धातु से घास बना है। यदि वेद में इरा/इळा के भक्षण का निषेध है तो फिर उसका विज्ञान यही हो सकता है कि उसका भक्षण किस प्रकार किया जाए। भौतिक पृथिवी की जो इरा है, उसका सेवन हम अपने भोजन के रूप में कर ही रहे हैं। लेकिन वेद का संदेश है कि पहले उसको पाकयज्ञिया बनाओ, तब भक्षण करना। इ़डा को पाकयज्ञिया बनाने से क्या तात्पर्य हो सकता है, इसको इस तथ्य से समझ सकते हैं कि वायव्य दिशा की विशेषता क्या है। जैसा कि वायु शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया जा चुका है, वायु एक ऐसी स्थिति है जहां जड पदार्थ के कारण गुरुत्वाकर्षण लगभग समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि वायु का प्रवाह मुक्त रूप से होता रहता है। यदि गुरुत्वाकर्षण विद्यमान रहता है तो वनस्पति जगत गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में वृद्धि करने के लिए प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करता है और इस कार्य में ही उसकी अधिकांश ऊर्जा का व्यय हो जाता है। ऊर्जा की चरम परिणति – पयः को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसे गुरुत्वाकर्षण से बचाया जाए। यही कारण है कि वनस्पतियां अपने बीज के चारों ओर काष्ठ का आवरण बनाती हैं जो प्रतिक्रिया काष्ठ का ही रूप है। इस आधार पर यह विचार किया जा सकता है कि जब वनस्पति जगत को गुरुत्वाकर्षण शक्ति जैसी किसी शक्ति का सामना करना नहीं पडेगा तो उसके पयः का और बीज का स्वरूप क्या होगा। वही इरा पाकयज्ञिया कहलाने योग्य होगी। श्रीसूक्त में इस दिशा में पृथिवी की गन्ध को प्रमुखता दी गई है(गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥)। इरा, पृथिवी की गन्ध आदि कथन यह संकेत करते हैं कि किसी प्रकार से जड भूतों से सूक्ष्म भूत प्रकट करने हैं, जड से चेतन भूत उत्पन्न करने हैं। वही पृथिवी आदि तत्त्वों की गन्ध है। करीषिणी शब्द के संदर्भ में, करीष सूखे गोबर को कहते हैं जिसे जलाने के काम में लिया जाता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में करीषिणी को घर्म/धर्म? की पत्नी कहा गया है। यदि करीषिणी को धर्म के बदले घर्म की पत्नी माना जाए तो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। घर्म शरीर के परितः प्रकट हुई गर्मी को कहते हैं। महापुरुषों के चित्रों के मुख के परितः एक आभामण्डल दिखाया जाता है। वह भी घर्म का रूप है। इस घर्म का मूल करीषिणी को कहा गया है। जब वायव्य दिशा में श्यामला गोपी या रङ्गदेवी गोपी की स्थिति कही जाती है तो साधना के स्तर पर उससे यही तात्पर्य निकाला जा सकता है कि अब साधक की देह का आभामण्डल श्याम, काला नहीं रह गया है, अब वह रङ्ग वाला है। यदि भौतिक पृथिवी के लिए उसकी ओषधि-वनस्पतियां इरा हैं तो साधक की पृथिवी के लिए उसका आभामण्डल इरा है। Rangadevi Rangadevi is the seventh of the varistha gopis. Her complexion is the color of a lotus filament and her garments are red like a jaba flower. She is seven days younger than Srimati Radharani, and is 14 years, 2 months and 4 1/2 days of age. Her parents are Karuna-devi and Rangasara, and her husband is Vakreksana. On the southwest petal of Madana-sukhada Kunja lies the dark blue, cloudlike Sukhada Kunja, where Sri Krsna’s beloved Sri Rangadevi always resides. She possesses the utkanthita-bhava, and in every way she is very attached to Sri Krsna. Her seva is offering candana, and her nature is vama-madhya. In Kali-yuga she appears in gaura-lila as Govindananda Ghosa. Rangadevi's personal qualities are much like those of Campakalata. She is always like a great ocean of coquettish words and gestures. She is very fond of joking with her friend Srimati Radharani in the presence of Lord Krishna. Among the six activities of diplomacy she is especially expert in the fourth: patiently waiting for the enemy to make the next move. She is an expert logician and because of previous austerities she has attained a mantra by which she can attract Lord Krsna. The chief gopis in Sri Rangadevi’s yutha are Kalakanthi, Sasikala, Kamala, Prema Manjari, Madhavi, Madhura, Kamalata and Kandarpa-sundari. Kalakanti-devi is the leader of the eight most important friends of Ranga-devi. These friends are all expert in the use of perfumes and cosmetics and burning aromatic incense, carrying coal during the winter and fanning the Divine Couple in the summer. Ranga-devi's friends are able to control the lions, deer and other wild animals in the forest.
चम्पकलता पुराणों में उत्तर दिशा में धन्या/श्रीमती सखी की स्थिति कही गई है जबकि वृन्दावन की परम्परा में अनुमान है कि उत्तर दिशा में चम्पकलता का स्थिति है। अथर्ववेद 15.2.26 में उत्तर दिशा में सोम व सप्तर्षियों की स्थिति का उल्लेख है। जब पुराणों में उत्तर दिशा में धन्या सखी की स्थिति कही जाती है तो धन्या से तात्पर्य है वह प्रकृति जिसे ऋणात्मक से धनात्मक बनाना सम्भव है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार तो सारी प्रकृति ऋणात्मकता की ओर ही अग्रसर हो रही है, उसे धनात्मकता की ओर ले जाने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन वैदिक व पौराणिक साहित्य धनात्मकता की ओर अग्रसर होने की संभावना प्रस्तुत कर रहा है। हरिवंश पुराण २.११० में आख्यान आता है कि नारद जी सबसे पहले कूर्म को कहते हैं कि तू धन्य है। कूर्म कहता है कि धन्य तो गंगा है जिसमें मेरे जैसे अगणित प्राणी हैं। गंगा कहती है कि धन्य तो समुद्र है जिसमें मेरे जैसी कितनी नदियां समा जाती हैं। समुद्र कहता है कि धन्य तो पृथिवी है जिस पर मैं स्थित हूं और न जाने कितने जीव स्थित हैं। पृथिवी ने कहा कि पर्वत धन्य हैं जो काञ्चन और रत्नों को धारण करते हैं। पर्वतों ने कहा कि प्रजापति धन्य हैं। प्रजापति ने कहा कि वेद धन्य हैं। वेदों ने कहा कि यज्ञ धन्य हैं जो हमें धारण करते हैं। यज्ञों ने कहा कि विष्णु धन्य हैं। विष्णु ने कहा कि मैं दक्षिणाओं सहित धन्य हूं। विष्णु द्वारा धन्यता में दक्षिणा को जोडना यह संकेत देता है कि दक्षता प्राप्ति धन्यता के लिए आवश्यक है और दक्षता प्राप्ति की दिशा उत्तर दिशा नहीं, अपितु दक्षिण दिशा है। अतः उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाएं मिलकर तब धन्यता की ओर ले जाएंगी। सोमयाग में भी ऐसा होता है कि सामान्य रूप से जो कार्य दक्षिण दिशा में किया जाता है, साधना की उच्चतर स्थिति में वह उत्तर दिशा में स्थान्तरित कर दिया जाता है(आग्नीध्र ऋत्विज)। पुराणों में धन्या पितरों की कन्या है जो तप से सीरध्वज जनक की पत्नी बनकर सीता को पुत्री रूप में प्राप्त करती है। इतनी सूचना हमें धन्या शब्द से प्राप्त हो जाती है। यदि वृन्दावन की चम्पकलता सखी पुराणों की धन्या सखी के तुल्य है तो चम्पक शब्द से हमें और सूचनाएं प्राप्त होनी चाहिएं। पुराणों में अङ्ग देश व चम्पा नगरी पर्यायवाची शब्द हैं। महाभारत वनपर्व 113 तथा वाल्मीकि रामायण में चम्पा नगरी के राजा लोमपाद का आख्यान है जिनके राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी। वर्षा कराने के लिए उन्होंने तपस्वी ऋष्यशृङ्ग को अपने राज्य में आकृष्ट किया और फिर अपनी पुत्री शान्ता का विवाह ऋष्यशृङ्ग से कर दिया। यहां शान्ता का पूर्व रूप क्षान्ता है। चम्पक या चम्पा शब्द चपि धातु से बना है और चपि धातु का अर्थ क्षान्त किया गया है। जब वर्षा नहीं होगी तो क्षान्त स्थिति, क्लान्त स्थिति, घबराने की स्थिति ही उत्पन्न होगी। जब ऋष्यशृङ्ग रूपी विज्ञानमय कोश की शक्ति से सम्पर्क स्थापित हो जाएगा तो क्षान्त स्थिति शान्त स्थिति में रूपान्तरित हो जाएगी। शब्दकल्पद्रुम शब्दकोश में चम्पक शब्द के संदर्भ में सांख्यशास्त्र की सिद्धि विशेष के रूप में चम्पक को उद्धृत किया गया है और कहा गया है कि न्याय द्वारा स्वयं परीक्षित अर्थ भी तब तक श्रद्धा योग्य नहीं बनता है जब तक गुरुशिष्य ब्रह्मचारियों सहित संवाद न हो जाए। अतः सुहृदों के साथ, गुरुशिष्य व ब्रह्मचारियों के साथ संवादों की प्राप्ति चतुर्थी सिद्धि चम्पक है। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि गुरु विज्ञानमय कोश है, शिष्य मनोमय कोश है। महाभारत आदि में उल्लेख आता है कि चम्पा नगरी के राजा अधिरथ सूत ने गङ्गा से एक मञ्जूषा प्राप्त की जिसमें सूर्य का अंश कर्ण था। अधिरथ सूत व उसकी पत्नी राधा ने कर्ण को पुत्र रूप में पाला और कर्ण चम्पा नगरी का राजा बना। इस आख्यान में यह उल्लेखनीय है कि कर्ण आदित्य का अंश है जबकि उत्तर दिशा सोम की दिशा है। अन्य आख्यान में राजा वेन अङ्ग देश का राजा था। ऋषियों ने वेन को मार कर उसकी देह का मन्थन करके विष्णु के अवतार पृथु को उत्पन्न किया। वेन शब्द की टिप्पणी में वेन को वेर्न, पक्षी के सदृश कहा गया है। वेन से उत्पन्न पृथु सोम का, विष्णु का अंश है। गर्ग संहिता में एक कथा आती है कि अनिरुद्ध ने चम्पा नगरी पर विजय प्राप्त करने के लिए आक्रमण किया तो चम्पा नगरी की सेना ने अनिरुद्ध की सेना पर शतघ्नियों द्वारा आक्रमण किया जिससे अनिरुद्ध की सेना जलने लगी। तब अनिरुद्ध ने पर्जन्यास्त्र छोडा जिससे शतघ्नियों की अग्नि शान्त हो गई। यह कथा भी संकेत देती है कि चम्पा नगरी में अग्नि या आदित्य रूपी क्षान्ति विद्यमान है। श्रीसूक्त में जिस ऋचा का उत्तर दिशा में विनियोग किया गया है, वह है – आदित्यवर्णे तपसोऽधि जाता वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः। इस ऋचा में चन्द्रमा का तो प्रत्यक्ष रूप से कोई उल्लेख नहीं है, अपितु आदित्य का है। ऐसा क्यों है, यह अन्वेषणीय है। बिल्व फल अस्थियों में मज्जा का प्रतीक हो सकता है। बिल्व फल की तुलना कर्ण की मञ्जूषा से भी की जा सकती है। और जैसा कि ऊपर के कथन संकेत देते हैं, बिल्व फल विज्ञानमय कोश का प्रतीक भी हो सकता है। वृन्दावन के साहित्य में चम्पकलता सखी को व्यञ्जन बनाने में निपुण, पात्र निर्माण में निपुण, तर्क द्वारा राधा के विरोधियों को तुष्ट करने वाली कहा गया है। वैदिक दृष्टिकोण से संभवतः अन्न तो दक्षिण दिशा में प्राप्त होता है और अन्नाद्य, अन्नों में सर्वश्रेष्ठ घृत, दधि, मधु आदि उत्तर दिशा में प्राप्त होते हैं। अन्न पाक का कार्य व्यान वायु द्वारा किया जाता है। सोमयाग में अन्नपाक का कार्य दक्षिणाग्नि पर किया जाता है। चम्पकलता सखी के पिता का नाम चण्डाक्ष कहा गया है। यह चन्द्राक्ष का पूर्व रूप हो सकता है। पुराणों में चम्पा नगरी की स्थिति पूर्व दिशा में भी कही गई है(अङ्ग देश के रूप में) और पश्चिम में भी(गर्ग संहिता में सिन्धु प्रान्त में स्थित चम्पा नगरी का उल्लेख आता है जिसका राजा विमल है जो अपनी कन्याओं को श्रीकृष्ण को अर्पित कर देता है)। उत्तर व दक्षिण दिशाओं को त्याग कर चम्पा की स्थिति पूर्व व पश्चिम में क्यों कही गई है, यह अन्वेषणीय है। चंपकलता चतुर सब जानै। बहुत भांति के बिंजन बानै॥ जेहिजेहि छिन जैसी रुचि पावै। तैसे बिंजन तुरत बनावै॥ चंपकलता चम्पक बरन, उपमा कौं रह्यौ जोहि। नीलाम्बर दियौ लाडिली, तन पर रह्यौ अति सोहि॥ कुरंगा छीमन कुंडला, चन्द्रिका अति सुख दैन। सखी सुचरिता मंडनी, चन्द्रलता रति ऐंन॥ राजत सखी सुमन्दिरा, कटि काछनी समेत। बिबिध भांति बिंजन करै, नवल जुगल के हेत॥ Campakalata is the third of the varistha-gopis. Her complexion is the color of a blossoming yellow campaka flower and her garments are the color of a blue-jay's. She is one day younger than Srimati Radharani, and her age is 14 years, 2 months and 13 1/2 days. Her father is Arama, her mother is Vatika-devi and her husband is Candaksa. Her qualities are much like those of Visakha. In gaura-lila she appears as Sri Sivananda. Campakalata veils her activities in great secrecy. She is expert at the art of logical persuasion, and she is a skilled diplomat who knows how to thwart Srimati Radharani's rivals. Campakalata is expert at collecting fruits, flowers, and roots from the forest. Of all the gopis who are appointed as protectoresses of the trees, creepers, and bushes of Vrndavana, the leader is Campakalata-devi. She is an expert cook who knows all the literatures describing the six flavors of gourmet cooking. She is so expert at making various kinds of candy that she has become famous by the name Mistahasta (sweet hands). Using only the skill of her hands, she can artistically fashion things from clay. On the southern petal of Madana-sukhada Kunja lies Kamalata Kunja, the home of Sri Krsna’s beloved Sri Campakalata. This extremely blissful kunja is the color of molten gold. Campakalata, who loves Krsna very much, personifies the stage of a nayika known as vasaka-sajja. Her nature is vama-madhya, and her seva is to offer jewelled necklaces and to fan with a camara. The chief gopis in Campakalata’s yutha are Kurangaksi, Suracita, Mandali, Manimandana, Candika, Candralatika, Kandukaksi and Sumandira.
सुदेवी ईशान कोण में पुराणों में हरिप्रिया गोपी की स्थिति का उल्लेख है। हरि स्थिति वह होती है जहां सारे पाप नष्ट हो चुके होते हैं, वृत्र मर चुका होता है। प्रिय स्थिति कौन सी होती है, इस विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख आते हैं कि चक्षु, प्राण, श्रोत्र, नासिका आदि देह के प्रत्येक अंग से प्रिय बनना है। अथर्ववेद में इस दिशा में विद्युत पुंश्चली की स्थिति का उल्लेख है जिसका विज्ञान स्तनयित्नु है और श्रुत व विश्रुत परिष्कन्द हैं। वृन्दावन में हरिप्रिया गोपी के तुल्य सुदेवी गोपी हो सकती है जिसके विषय में प्रत्यक्ष रूप से उल्लेख किया गया है कि वह हरिप्रिया है। सुदेवी गोपी की सेवा राधा के केश विन्यास करना, आंखों में अंजन लगाना, गात्र मर्दन करना आदि हैं। सुदेवी शुकों को प्रशिक्षण देती है, शकुन विद्या में निपुण है, बागवानी में निपुण है। शुक क्या होता है, यह सामरहस्योपनिषद में एक कथा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। एक वेदपाठी ब्राह्मण मृत्यु के पश्चात् शुक बनता है और एक कायस्थ मृत्यु के पश्चात् भ्रमर बनता है। भ्रमर/अलि की रुचि केवल रस ग्रहण करने में होती है। शुक को तो रस और विरस, दोनों को समान रूप से अपनाना है। सखी को आलि भी कहते हैं। अतः सखियां भ्रमरों का रूप हैं। यह कहा जा सकता है कि सुदेवी की स्थिति में मनुष्य यह निर्णय कर सकता है कि वेदों का वास्तविक अर्थ क्या है। शकुन कभी-कभी उत्पन्न होते हैं। इस विषय में अथर्ववेद का यह कथन उपयोगी हो सकता है कि यह दिशा विद्युत की है। यदि विद्युत की स्थिति होगी तो शकुन शकुन नहीं रह जाएंगे, वह जीवन की धारा बन जाएंगे। श्रीसूक्त में ईशान कोण में निम्नलिखित ऋचा का विनियोग है – मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥ इस ऋचा में वाचः सत्यं का उल्लेख शकुन विद्या को ओर इंगित करता प्रतीत होता है। साधना में यश से पूर्व की स्थिति यक्ष कही जा सकती है, जहां संशय विद्यमान रहता है। महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद प्रसिद्ध है। आकूति का अर्थ डा. फतहसिंह ने अथर्ववेद 19.4.2 के लिए इस प्रकार लगाया है कि आ-समन्तात्, चारों तरफ से, कु-शब्दे, अभिव्यक्ति करना। चारों तरफ जिसका शब्द एक साथ होने लगे, बाढ की तरह, वह आकूति है। हमारे अन्दर तीन प्रकार की शक्तियां हैं – भावना शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति। क्रिया शक्ति के कारण क्रिया केवल एक-दो अङ्गों में ही हो सकती है, सारा शरीर एकदम क्रियाशील नहीं हो सकता। इसी तरह ज्ञान भी स्थानिक है। लेकिन भावना शक्ति पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है, बाढ की तरह। इसका मूल है काम – वह काम नहीं जो वासना में प्रकट होता है, अपितु काम का दूसरा रूप – धर्म के अविरुद्ध काम। चित्तवृत्तियों का माता के समान पालन करने वाली, उन्हें शुद्ध करने वाली आकूति है। हरेक नर नारी के लिए यह सुलभ नहीं है। यह सुलभ तभी होगी जब हम बाह्य वृत्तियों से, काम-क्रोध-लोभ आदि से ऊपर उठें। यह परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति है, राधा। आकूति को गीता में बुद्धि कहा गया है, ऐसी बुद्धि जहां सारे संशय मिट जाते हैं। सखी सुदेवी अतिहि सलौनी। काहूँ अंग नाहिने औंनी॥ सुठ सरूप मोहन मन भावै। रुचि सों सब सिंगार बनावै॥ कच कवरी गूँथत है नीकी। अति प्रवीन सेवा करैं जी की॥ अंजन रेख बनाइ संवारै। रीझि मुकर लै प्रिया निहारैं॥ सारो सुवा पढावत नीके। सुनिसुनि मोद होत सब हीके॥ अति प्रवीन सब अङ्ग में, जानत रस की रीति। पहिरे तन सारी सुही, बढवत पल पल प्रीति॥ कावेरीरु मनोहरा, चारु कवरि अभिराम। मंजु केशी अरु केसिका, हार हीरा छबि धाम॥ महा हीरा अति ही बनी, हीरा कंठ अनूप। उपमा कछु नहि कहि सकत, ऐसी सबै सरूप॥ कहे गौतमी तंत्र में, इन सखियन के नाम। प्रथम बंदि इनके चरन, सेवहु स्यामा स्याम॥ - श्री ध्रुवदास-कृत “बयालीस लीला”, पृष्ठ 151 Sudevi Sudevi is the eighth of the varistha gopis. She is sweet and charming by nature. She is the sister of Rangadevi. Her husband is Vakreksana, the younger brother of Bhairava. Her marriage with Vakreksana was arranged by his younger brother. Her form and other qualities are so similar to those of her sister Rangadevi that they are often mistaken for one another. Like Rangadevi, she has a complexion the color of a lotus stamen and wears a dress the color of a red jaba flower. Being slightly older than her sister, her age is 14 years, 2 months and 4 days. On the northwest petal of Madanananda Kunja lies the beautiful emerald-colored Vasanta-sukhada Kunja, the residence of Sri Sudevi. In gaura-lila she appeared as Sri Vasudeva Ghosa. She is very loving toward Sri Hari, and possesses the bhava known as kalahantarita. Her seva is to bring water. Sudevi always remains at the side of her dear friend Srimati Radharani, and arranges Radharani's hair, decorates Her eyes with mascara, and massages Her body. She is expert in training male and female parrots and she is also expert in the pastimes of roosters. She is an expert sailor and she is fully aware of the auspicious and inauspicious omens described in the Sakuna-sastra. She is expert at massaging the body with scented oils, she knows how to start fires and keep them burning and she knows which flowers blossom with the rising of the moon. The principal gopis in Sri Sudevi’s yutha are Kaveri, Carukavari, Sukesi, Manjukesika, Harahira, Harakanthi, Haravalli and Manohara. Kaveri-devi and the other friends of Sudevi are expert at constructing leaf-spitoons, playing music on bells and decorating couches in various ways. Sudevi's friends are also entrusted with the decoration of the Divine Couple's sitting place. Sudevi's friends act as clever spies, disguising themselves in various ways and moving among Radharani's rivals (Candravali and her friends) to discover their secrets. Sudevi's friends are the deities of Vrndavana forest and they are charged with the protection of the forest birds and bees. इस टिप्पणी में प्रयुक्त सखियों के चित्र http://icskondesiretree.buzznet.com/photos/default/list/ वैबसाईट से तथा अंग्रेजी का विवरण http://www.vrindavan.de/varistha.htm वैबसाईट से साभार ग्रहण किए गए हैं। अन्य चार मुख्य दिशाओं में ललिता, चम्पकलता, विशाखा व चित्रा के नाम प्रकट होते हैं। यह क्रम ललिता, विशाखा, चम्पकलता और चित्रा भी है। अतः इनके दिशा विन्यासों में भ्रम की स्थिति है। श्री ध्रुवदास-कृत “बयालीस लीला” पुस्तक( प्रकाशक : संत तुलसीदास, वृन्दावन, पृष्ठ 148, दस मुक्तावली लीला) में ललिता रुचि उत्पन्न करती है, रच-रच कर पान खिलाती है, विशाखा वस्त्र पहनाती है, चम्पकलता व्यञ्जन परोसती है, चित्रा पेय प्रस्तुत करती है, तुङ्गविद्या गानविद्या में निपुण है, इन्दुलेखा कोकविद्या में निपुण है, रंगदेवी जपापुष्प सदृश वस्त्र धारण करती है और सुदेवी दाडिम पुष्प सदृश वस्त्र धारण करती है । प्रथम लेखन : 9-12-2012ई.(मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् 2069)
संदर्भ *(कृष्णस्य) पार्श्वे राधिका चेति। - - - -पश्चिमे सम्मुखे ललिता। वायव्ये श्यामला। उत्तरस्मिन् श्रीमती। ऐशान्यां हरिप्रिया। पूर्वस्मिन् विशाला। अग्नेय्यां श्रद्धा। याम्यां पद्मा। नैर्ऋत्या भद्रा। - राधोपनिषद(तुलनीय : स्कन्द पुराण 7.4.12.25, पद्म पुराण 5.70.5) 1 *श्र॒द्धा पुँ॑श्च॒ली मि॒त्रो मा॑ग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौ क॑ल्म॒लिर्म॒णिः। भू॒तं च॑ भवि॒ष्यच्च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम्। मा॒त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑॥(आग्नेयी दिशा?) - शौ.अ. 15.2.8 *उ॒षाः पुं॑श्च॒ली मन्त्रो॑ माग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौ क॑ल्म॒लिर्म॒णिः। अ॒मा॒वा॒स्या च पौर्णमा॒सी च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम्। मा॒त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑॥ (नैर्ऋत दिशा?) - शौ.अ. 15.2.16 *इरा पुं॑श्च॒ली हसो॑ माग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौ क॑ल्म॒लिर्म॒णिः। अह॑श्च॒ रात्री॑ च परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम्। मा॒त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑॥(वायव्य दिशा?) - शौ.अ. 15.2.24 *स उद॑तिष्ठ॒त् स उदी॑चीं॒ दिश॒मनु व्यचलत्। तं श्यै॒तं च॑ नौध॒सं च॑ सप्त॒र्षय॑श्च॒ सोम॑श्च॒ राजा॑नु॒व्यचलन्।– शौ.अ. 15.2.26 *वि॒द्युत् पुंश्च॒ली स्त॑नयि॒त्नुर्मा॑ग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौ क॑ल्म॒लिर्म॒णिः। श्रु॒तं च॒ विश्रु॑तं च परिष्क॒न्दो मनो॑ विप॒थम्। मा॒त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑॥ (ईशान दिशा?) – शौ.अ. 15.2.32 *न्यायेन स्वयं परीक्षितमप्यर्थं तावन्न श्रद्दधते यावद्गुरुशिष्यसब्रह्मचारिभिः सह न संवाद्यते। अतः सुहृदां गुरुशिष्यसब्रह्मचारिणां संवादकानां प्राप्तिः सुहृत्प्राप्तिः सा सिद्धिश्चतुर्थी चम्पकमुच्यते। - शब्दकल्पद्रुम में उल्लिखित सांख्य शास्त्र
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