पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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अर्क एकेन दृष्ट्या, तपसः द्विभागाः सन्ति – रात्रकालीना साधना एवं अह्नःकालीना साधना। अग्निहोत्रकृत्ये प्रातःकालीनं एवं सायंकालीनं अग्निहोत्रौ भवतः। साधकः रात्रिकाले शयनं न करोति, अपितु स्वचेतनायां बाह्यवृत्तीनां विलयं करोति। जैमिनीयब्राह्मणे १.७ उल्लेखमस्ति - स वा एषो ऽस्तं यन् ब्राह्मणम् एव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस् तेजसाग्निम् ऊर्जौषधी रसेनापस् स्वधया वनस्पतीन्॥ बाह्यवृत्तीनां विलायकस्य चेतनायाः संज्ञा अर्कः अस्ति, अयं प्रतीयते। अह्नि अस्य संज्ञा अश्वमेधः भवति। सोमयागे सुत्या दिवसस्य अवसानं उक्थ्यकृत्येन भवति। उक्थ्य अर्थात् ये प्राणाः सुप्ताः सन्ति, येषां जागरणं सामान्यरूपेण संभवं नासीत्, तेषां स्तोत्रेभ्यः जागरणम्। अतः परं रात्रेः विकल्पमस्ति। लौकिकरूपेण, संगीतगायने अयं सर्वविदितं अस्ति यत् यदायदा रात्रिः गहना भवति, तदैवानुसारेण रागेषु मध्यमस्वरस्य तीव्रतायां वृद्धिः भवति। वैदिककर्मकाण्डे अयं प्रतीयते यत् रात्रिकालीना साधना अतिरात्रसंज्ञके यागे निहिता अस्ति। लौकिकरूपे यः धूनी रमाना कृत्यः अस्ति, तदपि अर्कसाधनायाः रूपं प्रतीयते। अयं प्रतीयते यत् रात्रिकाले येषां वृत्तीनां चेतनायां विलयं करणीयं भवति, तत् पर्याप्तं नास्ति। तेषां वृत्तीनां वर्धनमपि अपेक्षितं अस्ति। वैदिकवाङ्मये अस्य संज्ञा अर्कपुष्पः अस्ति। नारदपुराणानुसारेण १.६७.६० विष्णवे अर्कपुष्पस्य अर्पणस्य निषेधमस्ति, शिवाय एव अर्पणीयम्।
सामवेदे सामः अस्ति – इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः । अर्कस्य योनिमासदं ॥ ४७२ ॥ अयं इषोवृधीयस्य साम्नः(ग्रामगेयः) एवं इषोवृधीयस्य (ऊहागानम्) आधारः अस्ति। साम्नः उद्देश्यं किमस्ति, अस्मिन् विषये कथितुं शक्यन्ते यत् प्रकृत्यां वर्धनस्य या इच्छाशक्तिः अस्ति, तस्याः संज्ञा इषः अस्ति। साम्नः तृतीये पादे अर्कशब्दः ऋग्वेदे ९.६४.२२ ऋचः तृतीयपादेन सह तुलनीयमस्ति यत्र अर्कस्य स्थाने ऋत शब्दः अस्ति – इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः । ऋतस्य योनिमासदम् ॥२२॥ अयं सुविदितमस्ति यत् प्रकृत्यां वर्धनस्य, विकसनस्य या अभीप्सा, इषं अस्ति, तत् अतिमन्दगत्यात्मिका अस्ति। अस्यां गतिप्राप्त्याः उपायं इषोवृधीयमस्ति।
या अर्कसाधना अस्ति, तत् ब्रह्मौदने योगदानं करोति अथवा प्रवर्ग्ये।
ऋग्वेदस्य
१.८३.६ कथनमस्ति - बर्हिर्वा यत्स्वपत्याय
वृज्यतेऽर्को वा श्लोकमाघोषते दिवि । आधुनिकविज्ञानानुसारेण, प्रकृत्यां ये अहानि – रात्रयः आविर्भवन्ति, तेषां कारणं पृथिव्याः स्वधुर्योपरि भ्रमणं अस्ति, यस्य संज्ञा भ्रमिः अस्ति। पृथिव्याः अन्या गतिः कक्षा प्रकारस्य अस्ति यत्र सा सूर्यस्य परितः गतिं करोति। यदा डा. कल्याणरमणः अर्कं चक्रेण सह सम्बद्धं करोति, अयं कल्पना गहनरूपेण चिन्तनीया अस्ति।
टिप्पणी : पुराणों में शिव आदि को अर्क पुष्प अर्पित करने का बहुत महत्त्व बताया गया है। अर्क शब्द का अर्थ मुख्यतः दो धातुओं के आधार पर किया जाता है – अर्चि अर्थात् अग्नि की लपटें और अर्च अर्थात् अर्चना, स्तुति। लोकभाषा में अर्क के जंगली पौधे से हम सभी परिचित ही हैं। अध्यात्म और वैदिक साहित्य में पुरुष की कल्पना अर्क वृक्ष के रूप में की गई है। ऋग्वेद ८.५१.४ में अर्क को सात शीर्ष और तीन धातुओं वाला कहा गया है। सात शीर्षों की संभावित व्याख्या संभवतः मनुष्य के शीर्ष भाग में २ कान, २ नाक, २ आंख व एक मुख के रूप में की जा सकती है। तीन धातुओं की कल्पना संभवतः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यौ के रूप में की गई है। इन व्याख्याओं को समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि मनुष्य का शीर्ष भाग सारे शरीर का रस है, सार भाग है। शतपथ ब्राह्मण १०.३.४.५ में कहा गया है कि हमारे कान अर्क वृक्ष के पत्तों की भांति हैं, जो अक्षियां/चक्षु हैं, वह अर्क पुष्प की भांति हैं, जो नासिका है, वह अर्क कोश की भांति है, जो अर्क धान हैं, वह दन्तों की भांति, अर्कष्ठीला जिह्वा की भांति और अर्कमूल अन्न की भांति है। अर्क के परवर्ती अंग जैसे अर्क धान आदि को अर्क पुष्प के अंगों के रूप में समझना चाहिए। अर्कमूल को अन्न कहा गया है। सारे वैदिक साहित्य में अर्क की अन्न के रूप में ही व्याख्या करने का प्रयत्न किया गया है। सारी प्रजा अन्न के पीछे दौडती है। इसी प्रकार मनुष्य के विचार, व सारे शरीर के अणु-अणु को किसी परम अन्न की चाह है। ऋग्वेद ८.५१.१० में मधुमान् और घृत स्रवित करने वाले अर्क की कामना की गई है। यह अर्कमूल जिसे अन्न कहा गया है, क्या है, यह विचारणीय है(ऋग्वेद ९.२५.६ व ९.५०.४ के अनुसार सोम का अवतरण अर्क की योनि में होता है)। ऐतरेय आरण्यक २.१.२ की व्याख्या संभवतः अर्क के त्रिधातु रूप की व्याख्या के लिए है। यदि पृथिवी उक्थ बनती है तो उससे उत्पन्न अग्नि अर्क अन्न का रूप होगी, अन्तरिक्ष के उक्थ बनने पर वायु अर्क अन्न का रूप है और द्यौ के उक्थ बनने पर आदित्य अर्क अन्न का रूप है। अध्यात्म में यह पुरुष शरीर ही उक्थ बन जाता है। उसका मुख पृथिवी जैसा उक्थ है जिसमें वाक् अर्क अन्न है। अन्तरिक्ष की भांति नासिका है जिसमें प्राण वायु अर्क अन्न है। ललाट द्यौ की भांति उक्थ है जिसमें चक्षु अर्क अन्न है। यह देवों के लिए अन्न बनने चाहिएं। जैसे प्रजा अन्न के पीछे दौडती है, ऐसे ही यदि चक्षु आदि अन्न बन जाएं, श्लोक बन जाएं तो देवगण अपना-अपना भाग प्राप्त करने के लिए इनके पीछे दौडे आते हैं(ऋग्वेद १.८३.६)। अर्क शब्द का प्रयोग वेदों में एकवचन और बहुवचन में हुआ है। संभवतः सारे शरीर से निकलने वाली अर्चियों के लिए अर्क का प्रयोग बहुवचन में हुआ होगा। जब अर्चियां एकीकृत रूप धारण कर लें तो उसे अर्क कहा जा सकता है। ऋग्वेद में अर्क का बहुवचन में प्रयोग बहुत सी ऋचाओं में हुआ है, अतः प्रतीत होता है कि अर्क का यह रूप भी महत्त्वपूर्ण है। यह मन के बृहद् रूप से सम्बन्धित हो सकता है(शतपथ ब्राह्मण १०.५.३.३)। वैदिक साहित्य में एक धारा अर्क – अश्वमेध के बारे में है(पैप्पलाद संहिता १६.८२.७)। जैमिनीय ब्राह्मण १.२५ के अनुसार मेध्य अश्व आदित्य का रूप है। अग्नि वाक् अर्क का रूप है। सायंकाल अर्क अग्नि में आदित्य रूपी अश्व की आहुति देते हैं। प्रातःकाल आदित्य रूपी अश्व में अर्क की आहुति देते हैं। डा. फतहसिंह का विचार है कि अर्क एकान्तिक साधना और अश्वमेध सामूहिक, सामाजिक साधना है। अर्क सम्बन्धी कुछ ऋचाएं वैदिक साहित्य में सर्वत्र उद्धृत की गई हैं। उनमें एक ऋग्वेद १.१६४.२४ की ऋचा में गायत्री और अर्क में सम्बन्ध स्थापित किया गया है। दूसरी ऋचा “प्रजा ह तिस्रो” इति (ऋग्वेद ८.१०१.१४) की व्याख्या जैमिनीय ब्राह्मण २.८८ में की गई है। मूक, बधिर, जड, अन्ध व्यक्ति का तथा तीसरी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् अर्क वृक्ष से विवाह किया जाता है जिसकी विधि बौधायन गृह्यसूत्र ५.५ में दी गई है। प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अर्क इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः। इन्द्रं वाणीरनूषत॥ १.००७.०१ य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा। मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०४ उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि। इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्यः स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन्॥ १.०३३.०२ उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे। शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना॥ १.०४७.१० अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा समञ्जे। वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम्॥ १.०६१.०५ अस्मा इदु ग्नाश्चिद्देवपत्नीरिन्द्रायार्कमहिहत्य ऊवुः। परि द्यावापृथिवी जभ्र उर्वी नास्य ते महिमानं परि ष्टः॥ १.०६१.०८ प्र मन्महे शवसानाय शूषमाङ्गूषं गिर्वणसे अङ्गिरस्वत्। सुवृक्तिभिः स्तुवत ऋग्मियायार्चामार्कं नरे विश्रुताय॥ १.०६२.०१ द्विता वि वव्रे सनजा सनीळे अयास्यः स्तवमानेभिरर्कैः। भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसाः॥ १.०६२.०७ सनायुवो नमसा नव्यो अर्कैर्वसूयवो मतयो दस्म दद्रुः। पतिं न पत्नीरुशतीरुशन्तं स्पृशन्ति त्वा शवसावन्मनीषाः॥ १.०६२.११
बर्हिर्वा यत्स्वपत्याय वृज्यतेऽर्को वा
श्लोकमाघोषते दिवि । त उक्षितासो महिमानमाशत दिवि रुद्रासो अधि चक्रिरे सदः। अर्चन्तो अर्कं जनयन्त इन्द्रियमधि श्रियो दधिरे पृश्निमातरः॥ १.०८५.०२ अहानि गृध्राः पर्या व आगुरिमां धियं वार्कार्यां च देवीम्। ब्रह्म कृण्वन्तो गोतमासो अर्कैरूर्ध्वं नुनुद्र उत्सधिं पिबध्यै॥ १.०८८.०४ उतो नो अस्या उषसो जुषेत ह्यर्कस्य बोधि हविषो हवीमभिः स्वर्षाता हवीमभिः। यदिन्द्र हन्तवे मृधो वृषा वज्रिञ्चिकेतसि। आ मे अस्य वेधसो नवीयसो मन्म श्रुधि नवीयसः॥ १.१३१.०६ अस्ताव्यग्निः शिमीवद्भिरर्कैः साम्राज्याय प्रतरं दधानः। अमी च ये मघवानो वयं च मिहं न सूरो अति निष्टतन्युः॥ १.१४१.१३ गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् । वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ॥१.१६४.२४॥ प्र स्कम्भदेष्णा अनवभ्रराधसोऽलातृणासो विदथेषु सुष्टुताः। अर्चन्त्यर्कं मदिरस्य पीतये विदुर्वीरस्य प्रथमानि पौंस्या॥ १.१६६.०७ आस्थापयन्त युवतिं युवानः शुभे निमिश्लां विदथेषु पज्राम्। अर्को यद्वो मरुतो हविष्मान्गायद्गाथं सुतसोमो दुवस्यन्॥ १.१६७.०६ रपत्कविरिन्द्रार्कसातौ क्षां दासायोपबर्हणीं कः। करत्तिस्रो मघवा दानुचित्रा नि दुर्योणे कुयवाचं मृधि श्रेत्॥ १.१७४.०७ आवो यस्य द्विबर्हसोऽर्केषु सानुषगसत्। आजाविन्द्रस्येन्दो प्रावो वाजेषु वाजिनम्॥ १.१७६.०५ उप व एषे नमसा जिगीषोषासानक्ता सुदुघेव धेनुः। समाने अहन्विमिमानो अर्कं विषुरूपे पयसि सस्मिन्नूधन्॥ १.१८६.०४ अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः। गाथान्यः सुरुचो यस्य देवा आशृण्वन्ति नवमानस्य मर्ताः॥ १.१९०.०१ व्यन्त्विन्नु येषु मन्दसानस्तृपत्सोमं पाहि द्रह्यदिन्द्र। अस्मान्सु पृत्स्वा तरुत्रावर्धयो द्यां बृहद्भिरर्कैः॥ २.०११.१५ अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन्। अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम॥ ३.०२६.०७ त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन्। वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद्द्यावापृथिवी पर्यपश्यत्॥ ३.०२६.०८ नि गव्यता मनसा सेदुरर्कैः कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम्। इदं चिन्नु सदनं भूर्येषां येन मासाँ असिषासन्नृतेन॥ ३.०३१.०९ स जातेभिर्वृत्रहा सेदु हव्यैरुदुस्रिया असृजदिन्द्रो अर्कैः। उरूच्यस्मै घृतवद्भरन्ती मधु स्वाद्म दुदुहे जेन्या गौः॥ ३.०३१.११ इन्द्रः पूर्भिदातिरद्दासमर्कैर्विदद्वसुर्दयमानो वि शत्रून्। ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्र आपृणद्रोदसी उभे॥ ३.०३४.०१ विष्णुं स्तोमासः पुरुदस्ममर्का भगस्येव कारिणो यामनि ग्मन्। उरुक्रमः ककुहो यस्य पूर्वीर्न मर्धन्ति युवतयो जनित्रीः॥ ३.०५४.१४ ऋतावरी दिवो अर्कैरबोध्या रेवती रोदसी चित्रमस्थात्। आयतीमग्न उषसं विभातीं वाममेषि द्रविणं भिक्षमाणः॥ ३.०६१.०६ शुचिमर्कैर्बृहस्पतिमध्वरेषु नमस्यत। अनाम्योज आ चके॥ ३.०६२.०५ एभिर्भव सुमना अग्ने अर्कैरिमान्स्पृश मन्मभिः शूर वाजान्। उत ब्रह्माण्यङ्गिरो जुषस्व सं ते शस्तिर्देववाता जरेत॥ ४.००३.१५ एभिर्नो अर्कैर्भवा नो अर्वाङ्स्वर्ण ज्योतिः। अग्ने विश्वेभिः सुमना अनीकैः॥ ४.०१०.०३ स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमर्कैर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तोः। अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ॥ ४.०१६.०४ को वामद्या करते रातहव्य ऊतये वा सुतपेयाय वार्कैः। ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत्॥ ४.०४४.०३ प्र पस्त्यामदितिं सिन्धुमर्कैः स्वस्तिमीळे सख्याय देवीम्। उभे यथा नो अहनी निपात उषासानक्ता करतामदब्धे॥ ४.०५५.०३ मही द्यावापृथिवी इह ज्येष्ठे रुचा भवतां शुचयद्भिरर्कैः। यत्सीं वरिष्ठे बृहती विमिन्वन्रुवद्धोक्षा पप्रथानेभिरेवैः॥ ४.०५६.०१ देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरुक्षमाणे। ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरर्कैः॥ ४.०५६.०२ ऊर्णम्रदा वि प्रथस्वाभ्यर्का अनूषत। भवा नः शुभ्र सातये॥ ५.००५.०४ नवग्वासः सुतसोमास इन्द्रं दशग्वासो अभ्यर्चन्त्यर्कैः। गव्यं चिदूर्वमपिधानवन्तं तं चिन्नरः शशमाना अप व्रन्॥ ५.०२९.१२ तुभ्येदेते मरुतः सुशेवा अर्चन्त्यर्कं सुन्वन्त्यन्धः। अहिमोहानमप आशयानं प्र मायाभिर्मायिनं सक्षदिन्द्रः॥ ५.०३०.०६ अनवस्ते रथमश्वाय तक्षन्त्वष्टा वज्रं पुरुहूत द्युमन्तम्। ब्रह्माण इन्द्रं महयन्तो अर्कैरवर्धयन्नहये हन्तवा उ॥ ५.०३१.०४ वृष्णे यत्ते वृषणो अर्कमर्चानिन्द्र ग्रावाणो अदितिः सजोषाः। अनश्वासो ये पवयोऽरथा इन्द्रेषिता अभ्यवर्तन्त दस्यून्॥ ५.०३१.०५ स त्वं न इन्द्र धियसानो अर्कैर्हरीणां वृषन्योक्त्रमश्रेः। या इत्था मघवन्ननु जोषं वक्षो अभि प्रार्यः सक्षि जनान्॥ ५.०३३.०२ प्र वो वायुं रथयुजं कृणुध्वं प्र देवं विप्रं पनितारमर्कैः। इषुध्यव ऋतसापः पुरंधीर्वस्वीर्नो अत्र पत्नीरा धिये धुः॥ ५.०४१.०६ उप व एषे वन्द्येभिः शूषैः प्र यह्वी दिवश्चितयद्भिरर्कैः। उषासानक्ता विदुषीव विश्वमा हा वहतो मर्त्याय यज्ञम्॥ ५.०४१.०७ पुरुद्रप्सा अञ्जिमन्तः सुदानवस्त्वेषसंदृशो अनवभ्रराधसः। सुजातासो जनुषा रुक्मवक्षसो दिवो अर्का अमृतं नाम भेजिरे॥ ५.०५७.०५ धायोभिर्वा यो युज्येभिरर्कैर्विद्युन्न दविद्योत्स्वेभिः शुष्मैः। शर्धो वा यो मरुतां ततक्ष ऋभुर्न त्वेषो रभसानो अद्यौत्॥ ६.००३.०८ आ सूर्यो न भानुमद्भिरर्कैरग्ने ततन्थ रोदसी वि भासा। चित्रो नयत्परि तमांस्यक्तः शोचिषा पत्मन्नौशिजो न दीयन्॥ ६.००४.०६ त्वां हि मन्द्रतममर्कशोकैर्ववृमहे महि नः श्रोष्यग्ने। इन्द्रं न त्वा शवसा देवता वायुं पृणन्ति राधसा नृतमाः॥ ६.००४.०७ यस्ते यज्ञेन समिधा य उक्थैरर्केभिः सूनो सहसो ददाशत्। स मर्त्येष्वमृत प्रचेता राया द्युम्नेन श्रवसा वि भाति॥ ६.००५.०५ शतैरपद्रन्पणय इन्द्रात्र दशोणये कवयेऽर्कसातौ। वधैः शुष्णस्याशुषस्य मायाः पित्वो नारिरेचीत्किं चन प्र॥ ६.०२०.०४ तव ह त्यदिन्द्र विश्वमाजौ सस्तो धुनीचुमुरी या ह सिष्वप्। दीदयदित्तुभ्यं सोमेभिः सुन्वन्दभीतिरिध्मभृतिः पक्थ्यर्कैः॥ ६.०२०.१३ यस्ता चकार स कुह स्विदिन्द्रः कमा जनं चरति कासु विक्षु। कस्ते यज्ञो मनसे शं वराय को अर्क इन्द्र कतमः स होता॥ ६.०२१.०४ इम उ त्वा पुरुशाक प्रयज्यो जरितारो अभ्यर्चन्त्यर्कैः। श्रुधी हवमा हुवतो हुवानो न त्वावाँ अन्यो अमृत त्वदस्ति॥ ६.०२१.१० त्वं कविं चोदयोऽर्कसातौ त्वं कुत्साय शुष्णं दाशुषे वर्क्। त्वं शिरो अमर्मणः पराहन्नतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन्॥ ६.०२६.०३ तं वो धिया परमया पुराजामजरमिन्द्रमभ्यनूष्यर्कैः। ब्रह्मा च गिरो दधिरे समस्मिन्महाँश्च स्तोमो अधि वर्धदिन्द्रे॥ ६.०३८.०३ पथस्पथः परिपतिं वचस्या कामेन कृतो अभ्यानळर्कम्। स नो रासच्छुरुधश्चन्द्राग्रा धियंधियं सीषधाति प्र पूषा॥ ६.०४९.०८ तन्नोऽहिर्बुध्न्यो अद्भिरर्कैस्तत्पर्वतस्तत्सविता चनो धात्। तदोषधीभिरभि रातिषाचो भगः पुरंधिर्जिन्वतु प्र राये॥ ६.०४९.१४ एवा नपातो मम तस्य धीभिर्भरद्वाजा अभ्यर्चन्त्यर्कैः। ग्ना हुतासो वसवोऽधृष्टा विश्वे स्तुतासो भूता यजत्राः॥ ६.०५०.१५ स्तुषे नरा दिवो अस्य प्रसन्ताश्विना हुवे जरमाणो अर्कैः। या सद्य उस्रा व्युषि ज्मो अन्तान्युयूषतः पर्युरू वरांसि॥ ६.०६२.०१ इदा हि त उषो अद्रिसानो गोत्रा गवामङ्गिरसो गृणन्ति। व्यर्केण बिभिदुर्ब्रह्मणा च सत्या नृणामभवद्देवहूतिः॥ ६.०६५.०५ प्र चित्रमर्कं गृणते तुराय मारुताय स्वतवसे भरध्वम्। ये सहांसि सहसा सहन्ते रेजते अग्ने पृथिवी मखेभ्यः॥ ६.०६६.०९ या विश्वासां जनितारा मतीनामिन्द्राविष्णू कलशा सोमधाना। प्र वां गिरः शस्यमाना अवन्तु प्र स्तोमासो गीयमानासो अर्कैः॥ ६.०६९.०२ बृहस्पतिः समजयद्वसूनि महो व्रजान्गोमतो देव एषः। अपः सिषासन्स्वरप्रतीतो बृहस्पतिर्हन्त्यमित्रमर्कैः॥ ६.०७३.०३ स सुक्रतुर्यो वि दुरः पणीनां पुनानो अर्कं पुरुभोजसं नः। होता मन्द्रो विशां दमूनास्तिरस्तमो ददृशे राम्याणाम्॥ ७.००९.०२ एवेदिन्द्रं वृषणं वज्रबाहुं वसिष्ठासो अभ्यर्चन्त्यर्कैः। स नः स्तुतो वीरवद्धातु गोमद्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥ ७.०२३.०६ एष स्तोमो मह उग्राय वाहे धुरीवात्यो न वाजयन्नधायि। इन्द्र त्वायमर्क ईट्टे वसूनां दिवीव द्यामधि नः श्रोमतं धाः॥ ७.०२४.०५ नू रोदसी अभिष्टुते वसिष्ठैर्ऋतावानो वरुणो मित्रो अग्निः। यच्छन्तु चन्द्रा उपमं नो अर्कं यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥ ७.०३९.०७ नू रोदसी अभिष्टुते वसिष्ठैर्ऋतावानो वरुणो मित्रो अग्निः। यच्छन्तु चन्द्रा उपमं नो अर्कं यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥ ७.०४०.०७ वि नः सहस्रं शुरुधो रदन्त्वृतावानो वरुणो मित्रो अग्निः। यच्छन्तु चन्द्रा उपमं नो अर्कमा नः कामं पूपुरन्तु स्तवानाः॥ ७.०६२.०३ तमा नो अर्कममृताय जुष्टमिमे धासुरमृतासः पुराजाः। शुचिक्रन्दं यजतं पस्त्यानां बृहस्पतिमनर्वाणं हुवेम॥ ७.०९७.०५ महान्तं महिना वयं स्तोमेभिर्हवनश्रुतम्। अर्कैरभि प्र णोनुमः समोजसे॥ ८.०१२.२३ तमर्केभिस्तं सामभिस्तं गायत्रैश्चर्षणयः। इन्द्रं वर्धन्ति क्षितयः॥ ८.०१६.०९
यस्मा अर्कं सप्तशीर्षाणमानृचुस्त्रिधातुमुत्तमे पदे ।
तुरण्यवो मधुमन्तं घृतश्चुतं विप्रासो अर्कमानृचुः । स प्रत्नथा कविवृध इन्द्रो वाकस्य वक्षणिः। शिवो अर्कस्य होमन्यस्मत्रा गन्त्ववसे॥ ८.०६३.०४ आदू नु ते अनु क्रतुं स्वाहा वरस्य यज्यवः। श्वात्रमर्का अनूषतेन्द्र गोत्रस्य दावने॥ ८.०६३.०५ इन्द्रे विश्वानि वीर्या कृतानि कर्त्वानि च। यमर्का अध्वरं विदुः॥ ८.०६३.०६ योद्धासि क्रत्वा शवसोत दंसना विश्वा जाताभि मज्मना। आ त्वायमर्क ऊतये ववर्तति यं गोतमा अजीजनन्॥ ८.०८८.०४ यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय। तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उत द्याम्॥ ८.०८९.०५ तत्ते यज्ञो अजायत तदर्क उत हस्कृतिः। तद्विश्वमभिभूरसि यज्जातं यच्च जन्त्वम्॥ ८.०८९.०६ इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः। अर्कमर्चन्तु कारवः॥ ८.०९२.१९ इयं या नीच्यर्किणी रूपा रोहिण्या कृता। चित्रेव प्रत्यदर्श्यायत्यन्तर्दशसु बाहुषु॥ ८.१०१.१३ प्रजा ह तिस्रो अत्यायमीयुर्न्यन्या अर्कमभितो विविश्रे। बृहद्ध तस्थौ भुवनेष्वन्तः पवमानो हरित आ विवेश॥ ८.१०१.१४ आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे। अर्कस्य योनिमासदम्॥ ९.०२५.०६ आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे। अर्कस्य योनिमासदम्॥ ९.०५०.०४ सम्यक्सम्यञ्चो महिषा अहेषत सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन्। मधोर्धाराभिर्जनयन्तो अर्कमित्प्रियामिन्द्रस्य तन्वमवीवृधन्॥ ९.०७३.०२ प्र ते धारा मधुमतीरसृग्रन्वारान्यत्पूतो अत्येष्यव्यान्। पवमान पवसे धाम गोनां जज्ञानः सूर्यमपिन्वो अर्कैः॥ ९.०९७.३१ सोमं गावो धेनवो वावशानाः सोमं विप्रा मतिभिः पृच्छमानाः। सोमः सुतः पूयते अज्यमानः सोमे अर्कास्त्रिष्टुभः सं नवन्ते॥ ९.०९७.३५ शूषेभिर्वृधो जुषाणो अर्कैर्देवाँ अच्छा रघुपत्वा जिगाति। मन्द्रो होता स जुह्वा यजिष्ठः सम्मिश्लो अग्निरा जिघर्ति देवान्॥ १०.००६.०४ ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कैः। आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाङ्सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्भिः॥ १०.०१५.०९ विभिद्या पुरं शयथेमपाचीं निस्त्रीणि साकमुदधेरकृन्तत्। बृहस्पतिरुषसं सूर्यं गामर्कं विवेद स्तनयन्निव द्यौः॥ १०.०६७.०५ उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव घोषाः। गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्यर्का अनावन्॥ १०.०६८.०१ आप्रुषायन्मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः। बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद॥ १०.०६८.०४ यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद्बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः। दद्भिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधीँरकृणोदुस्रियाणाम्॥ १०.०६८.०६ सोषामविन्दत्स स्वः सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि। बृहस्पतिर्गोवपुषो वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार॥ १०.०६८.०९ रथानां न येऽराः सनाभयो जिगीवांसो न शूरा अभिद्यवः। वरेयवो न मर्या घृतप्रुषोऽभिस्वर्तारो अर्कं न सुष्टुभः॥ १०.०७८.०४ शतधारं वायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते हविः। ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति संगमे ते दक्षिणां दुहते सप्तमातरम्॥ १०.१०७.०४ नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम्। न ऋते त्वत्क्रियते किं चनारे महामर्कं मघवञ्चित्रमर्च॥ १०.११२.०९ घर्मा समन्ता त्रिवृतं व्यापतुस्तयोर्जुष्टिं मातरिश्वा जगाम। दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवाः सहसामानमर्कम्॥ १०.११४.०१ प्रेन्द्राग्निभ्यां सुवचस्यामियर्मि सिन्धाविव प्रेरयं नावमर्कैः। अया इव परि चरन्ति देवा ये अस्मभ्यं धनदा उद्भिदश्च॥ १०.११६.०९ श्रुधी हवमिन्द्र शूर पृथ्या उत स्तवसे वेन्यस्यार्कैः। आ यस्ते योनिं घृतवन्तमस्वारूर्मिर्न निम्नैर्द्रवयन्त वक्वाः॥ १०.१४८.०५ त्वमिन्द्र सजोषसमर्कं बिभर्षि बाह्वोः। वज्रं शिशान ओजसा॥ १०.१५३.०४ प्रत्यञ्चमर्कमनयञ्छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन्॥ १०.१५७.०५
राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वर: ।
१. शतरुद्रीयहोमाभिधानम् -- अङ्गिरसः सुवर्गं लोकं यन्तो ऽ जायां घर्मं प्रासिञ्चन्त्सा शोचन्ती पर्णं परा ऽ जिहीत सोऽर्को ऽभवत् , तदर्कस्याकत्वम् । तैसं ५, ४, ३, ३ ।। २. अर्कश्चक्षुस्तदसौ सूर्यः (+ यत्ते शुक्र शुक्रं धाम, शुक्रा तनूश्शुक्रं ज्योतिरजस्रं, यत्ते ऽनाधृष्टं नामानाधृष्य तेन त्वादधे, वर्चो में यच्छ [काठ.J) । काठ ७,१४; तै १,१,७,२। ३. अर्कश्च मे सूर्यश्च मे ( यज्ञेन कल्पताम् ) । तैसं ४, ७, ९ १ ।
४.
अथार्काश्वमेधयोः
संततीर्जुहोति । अयं वा अग्निरर्कोऽसावादित्योऽश्वमेधस्तौ सृष्टौ
नानैवास्तां तौ देवा एताभिराहुतिभिः
समतन्वन्त्समदुधुस्तथैवैनावयमेताभिराहुतिभिः संतनोति संदधाति -
९.४.२.[१८] ५. आदित्यो [इयं ( पृथिवी [काठ.)] वा ऽ अर्कः । काठ १०,८; माश १०, ६, २, ६ ।। ६. शतरुद्रीयम् -- अर्कपर्णेन जुहोति । एतस्य वै देवस्याशयादर्कः समभवत्स्वेनैवैनमेतद्भागेन स्वेन रसेन प्रीणाति- माश ९, १, १, ९ । ७. दीर्घतमसोऽर्को भवत्यन्नं वा अर्कोऽन्नाद्यस्यावरुध्यै। तां १५, ३, ३४ ।। ८, प्राणो वा अर्कः । माश १०, ४, १, २३; ६, २, ७ ।। ९. वेत्थार्कमिति पुरुषं हैव तदुवाच । वेत्थार्कपर्णेऽ इति कर्णौ हैव तदुवाच वेत्थार्कपुष्पे ऽ इत्यक्षिणी हैव तदुवाच वेत्थार्ककोश्याविति नासिके हैव तदुवाच वेत्थार्कसमुद्भावित्योष्ठौ हैव तदुवाच वेत्थार्कधाना इति दन्तान्हैव तदुवाच वेत्थार्काष्ठीलामिति जिह्वां हैव तदुवाच वेत्थार्कमूलमित्यन्नं हैव तदुवाच । माश १०, ३, ४, ५। १०. स एष एवार्को य एष ( सूर्यः) तपति माश १०, ४, १, २२।। ११. स एषोऽग्निरर्को यत्पुरुषः । माश १०,३,४,५ ॥ अग्निमुपदिशन् वाचायमर्क इति। जै १.२५ अग्निर्वाऽअर्कः – माश २.५.१.४, १०.६.२.५, ऐआ १.४.१ अयं वाऽअग्निरर्कः – माश ८.६.२.१९, ९.४.२.१८, शांआ१.४ अर्कोऽअग्निः – मै ३.१.१, ३.२.४, काठ १९.१, क २९.८ अर्को ज्योतिस्तदयमग्निः मै १.६..२ अर्को वा अग्निः तैसं. ५.५.६.३ अर्को वा एष यद् अग्निः - तैसं. ५.३.४.६ न्य१न्या अर्कमभितो विविश्र इति ता इमाः प्रजा अर्कमभितो निविष्टा इममेवाग्निम्– ऐआ २.१.१ अङ्गिरसो वै स्वर्यन्तोऽजायां घर्मं प्रासिञ्चन् , सा शोचन्ती पर्णं परामृशत् , सोऽर्कोऽभवत् , यदर्कपर्णेन जुहोति , अर्केण वा एतदर्कमवयजति– मै ३.३.४, काठ २१.६, क ३१.२१ अन्तं वा एष गतो यो निरुद्धो, ऽन्तोऽर्को, ऽन्तो ऽश्वमेधः। अन्तेनैवास्मा अन्ते कल्पयति - - - अन्तो वा एषा ऋद्धीनां यज्जनः – मै २.२.९ अन्नं वा अर्कः - काठ १०.८, गो २.४.२, तां ५.१.९, १४.११.९, १५.३.३४ अथार्कपुष्पम् -- अन्नं वा अर्कः। तस्यैतत् पुष्पं यद् आरण्यम्। तद् ध्य् अरण्ये जायत -- आरण्यस्यैवान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै।– जै २.१४ अर्कपुष्पं भवति। अन्नं वै देवा अर्क इति वदन्ति रसमस्य पुष्पामिति सरसमेवान्नाद्यमवरुन्धेऽर्कपुष्पेण तुष्टुवानः– तां १५.३.२३ अन्नमर्कः मै ३.१.२, ३.२.४, ३.२.१०, काठ १९.१, माश ९.१.१.४ अर्को वा अग्निर् अर्को ऽन्नम् अन्नम् एवाव रुन्द्धे– तैसं ५.५.६.३, तै १.१.८.६, माश १२.८.१.२
नैवेह किं चनाग्र आसीत्
मृत्युनैवेदमावृतमासीदशनाययाशनाया हि मृत्युस्तन्मनोऽकुरुतात्मन्वी
स्यामिति सोऽर्चन्नचरत्तस्यार्चत आपोऽजायन्तार्चते वै स होवाच बुडिल आश्वतराश्विर् वैयाघ्रपद्यो ऽर्काश्वमेधाव् इत्य् एव सम्राड् अहम् अग्निहोत्रं जुहोमि। अन्नं ह्य् एतद् देवानां यद् अर्को ऽश्वो मेधो मेध्य इति। तं होवाच वैयाघ्रपद् को ऽर्कः को ऽश्वो मेधो मेध्य इति। अग्निम् उपदिशन् वाचायम् अर्क इत्य् असाव् अश्वो मेधो मेध्य इत्य् आदित्यम्। सो ऽहम् अमुम् अश्वं मेधं मेध्यं अस्मिन्न् अर्के सायं जुहोमीमम् अर्कम् अमुष्मिन्न् अश्वे मेधे मेध्ये प्रातर् जुहोमि। एताव् एव मा तद् गमिष्यतो यत्र सर्वे कामाः। एतौ मे पुनर्मृत्युम् अपजेष्यत इति। सुहुतम् इति ह प्रशस्योवाच यो ह किल मह्यम् अग्निहोत्र इतिं च गतिं च ब्रूयात् तस्मा अहं वरं दद्याम् इति। ते होचुर् न न्वै वयम् अग्निहोत्र इतिं च गतिं चानूचिमह त्वम् अस्मभ्यम् अग्निहोत्र इतिं च गतिं च ब्रूहि वयं तुभ्यं पृथक् पञ्च वरान् दद्म इति। अग्निम् उपदिशन् वाचेयम् इतिर् इत्य् असौ गतिर् इत्य् आदित्यम्। - जै. १.२५ अर्क-पर्ण- यदर्कपर्णेन जुहोत्यर्केण वा एतदर्कमेव यजति । मै ३, ३, ४ ( तु. काठ २१, ६)। अर्क-पुष्प १. असावादित्यो ऽर्कपुष्पम् । शांआ १, ४ । २. अन्नं वै देवा अर्क इति वदन्ति रसमस्य पुष्पमिति सरसमेवान्नाद्यमवरुन्धे ऽ र्कपुष्पेण (साम्रा) तुष्टुवानः । तां १५, ३, २३ ।। अर्क-वत्-> अर्कवती- एषेन्द्रस्यान्त्या तनूर्यार्कवती । काठ १०, ८ ।। । १० घर्मः, अर्कः, शुकः, ज्योतिः, सूर्य इति ।
अर्काश्वमेध १. इयं (पृथिवी ) वा अर्काऽसा ( द्यौः ) अश्वमेधः । काठ १०, ९ । २. इन्द्रायार्काश्वमेधवते पुरोडाशम् एकादशकपालं निर् वपेद् यम् महायज्ञो नोपनमेत् । एते वै महायज्ञस्यान्त्ये तनू यदर्काश्वमेधौ । तैसं २, २, ७, ५।। ३. ओजो (प्राणापानौ) बलं वा एतौ देवानां यदर्काश्वमेधौ । तै ३, ९, २१, ३ । । अर्काअश्वमेध-वत्- इन्द्रायार्काश्वमेधवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् । तैसं २,२,७,५।। अर्क्य १. अन्नं वा अर्क्यम् । काठ ३०, ५ ।। २. अर्चते वै मे कमभूदिति तदेवार्क्यस्यार्कत्वम् । माश १०,६,५,१।।
स एष एवार्कः
योऽयमग्निश्चितस्तस्यैतदन्नं क्यमेष सौम्योऽध्वरस्तदर्क्यं यजुष्ट एष एव
महांस्तस्यैतदन्नं व्रतं तन्महाव्रतं सामत एष उ एवोक्तस्यैतदन्नं थं
तदुक्थमृक्तस्तदेतदेकं सत्त्रेधाख्यायते स एतेनान्नेन सहोर्ध्व उदक्रामत्स
यः स उदक्रामदसौ स आदित्योऽथ येन तेनान्नेन सहोदक्रामदेष स चन्द्रमाः - माश
१०.४.१.[२१] ४. स एष एवार्कः । यमेतमत्राग्निमाहरन्ति तस्यैतदन्नं क्यं योऽयमग्निश्चितस्तदर्क्यं यजुष्टः । माश १०,४,१,४।। अचिस् १. अजस्रेण भानुना दीद्यतमित्यजस्रेणार्चिषा दीप्यमानमित्येतत् । माश६,४,१,२।। २ ऊर्ध्वा शुक्रा शोचींष्यग्नेरित्यूर्ध्वानि ह्येतस्य ( अग्नेः ) शुक्राणि शोचींष्यर्चींषि भवन्ति । माश ६, २,१,३२। । ३. परिवृङ्ग्धि हरसा माभिमंस्था इति पर्येनं वृङ्ग्ध्यर्चि। मैनं हिंसीरित्येतत् (हरः = अर्चिः) । माश ७, ५,२,१७ ।। ४. सप्त हस्तास इति सप्त छन्दांसि तस्मात् सप्तार्चिषः । काठसंक २५: २-३ । |