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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

Home Page

Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

अरण्य

टिप्पणी : अरण्य शब्द की शास्त्रीय निरुक्ति इस प्रकार कर सकते हैं कि अर्यते मृगैः, जिसमें मृग विचरण करते हों । सामान्य अर्थों में रण्य का अर्थ है जिससे आनन्द प्राप्त किया जा सकता हो, अथवा जिसे आनन्ददायक बनाया जा सकता हो । अरण्य अर्थात् जहां से आनन्द की प्राप्ति न हो सकती हो । अथर्ववेद के कुछ मन्त्रों में पृथिवी पर ग्राम्य व आरण्य क्षेत्रों का उल्लेख आया है और दोनों ही प्रकार के क्षेत्रों को शान्तिदायक बनाना आवश्यक है । आध्यात्मिक रूप में इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि निर्विकल्प समाधि की अवस्था अरण्य है । वहां से इन्द्रियों को आनन्द  की प्राप्ति नहीं होती । इसके विपरीत ग्राम अवस्था है जहां आनन्द की प्राप्ति हो सकती है । रण धातु शब्दे, शब्द करने के अर्थ में है । डा. फतहसिंह का विचार है कि निर्विकल्प समाधि से व्युत्थान पर क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध प्रकट होते हैं और इसी के अनुसार आकाश, वायु, आपः, अग्नि, भूमि आदि महाभूतों की सृष्टि होती है । डा. फतहसिंह के अनुसार जब जैन मतावलम्बियों में एकसंज्ञी जीव, द्विसंज्ञी जीव आदि का उल्लेख आता है तो आध्यात्मिक रूप में उसका अर्थ यही लिया जाना चाहिए कि साधक समाधि से क्रमिक व्युत्थान कर रहा है और उसे क्रमिक रूप से संज्ञाएं प्राप्त हो रही हैं । तैत्तिरीय संहिता ६.५.११.२ में उल्लेख है कि पराचीन पात्रों से उस लोक की प्राप्ति होती है, जबकि पुनः प्रयुज्यमान पात्रों से इस लोक की । पराचीन पात्र आरण्यक पशुओं से सम्बन्धित  हैं, जबकि पुनः प्रयुज्यमान पात्र ग्राम्य पशुओं से । पराची शब्द को समझ लेना चाहिए । सूर्य प्राची दिशा में उदित होता है, पराची दिशा में अस्त होता है । अतः यह कहना चाहिए कि अरण्य अस्त होने की अवस्था है । सारी इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो सकती हैं ( तैत्तिरीय संहिता १.६.७.३ का कथन है कि इन्द्रिय विकल्प से आरण्य है, इन्द्रिय को ही आत्मा में धारण करते हैं -  आरण्यस्याश्नाति । इन्द्रियम् वा आरण्यम् इन्द्रियम् एवात्मन् धत्ते ) । तैत्तिरीय संहिता २.५.११.२ में होता? द्वारा वाम पाद बहिर्वेदी में रखा जाता है जबकि दक्षिण पाद अन्तर्वेदी में । इससे ग्राम्य व आरण्य दोनों प्रकार के पशुओं की प्राप्ति होती है ।

           ऋग्वेद की ऋचाओं में विभिन्न उपायों द्वारा रणत्व प्राप्ति के उल्लेख आते हैं, जैसे मरुतों से ( ऋ. ७.५७.५, १.८५.१०), उक्थों से, अर्थात् सोए हुए प्राणों को स्तुतियों द्वारा जगाने से ( ऋ. ८.१६.२, ८.३४.११, १.१०.५), गायों से ( ऋ. ६.२८.१, ५.५३.१६, १०.२५.१), नामों द्वारा प्राणों को जगाने से ( ऋ. ६.१.४), वृक्षों से ( ऋ. ८.४.२१), सोम से ( ऋ.९.९६.९, १०.१४८.३) आदि । सायण भाष्य में रण धातु को प्रायः रमण के अर्थों में लिया गया है ।

          वैदिक ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि ग्राम में रहकर यज्ञों आदि द्वारा साधना करने पर मनुष्य पितृयान मार्ग द्वारा स्वर्गलोक की यात्रा करता है, जबकि अरण्य में वास कर श्रद्धा व सत्य द्वारा साधना करने पर वह देवयान मार्ग द्वारा स्वर्गलोक की यात्रा करता है ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण १४.९.१.१८ या बृहदारण्यक उपनिषद ६.१.१८) । ऋग्वेद ६.२४.१० के अनुसार अरण्य के कष्टों से बचने का उपाय मा अर्थात् माया से विपरीत अमा होना है । छान्दोग्य उपनिषद ८.५ में नीचे के दो लोकों को अर और ण्य कहा गया है । इनसे ऊपर तीसरे देवलोक में ब्रह्मा की अपराजिता पुरी है । वहां आनन्द ही आनन्द है । इस पुरी में पहुंचने से पूर्व ब्रह्मचर्य द्वारा अर और ण्य रूपी दो अर्णवों को जानना पडता है, तभी तीसरे पुर की प्राप्ति हो  सकती है । बृहदारण्यक उपनिषद ६.२.१, छान्दोग्य उपनिषद ५.१०.१ तथा मुण्डकोपनिषद १.२.११ के अनुसार जो पुरुष अरण्य में जाकर श्रद्धा व तप आदि की उपासना करते हैं, वह देवयान मार्ग से ऊर्ध्वलोकों की यात्रा करते हैं । इसके विपरीत जो मनुष्य ग्राम में रह कर इष्टापूर्त्त आदि यज्ञों द्वारा उपासना करते हैं, वह पितृयान मार्ग द्वारा ऊर्ध्व लोकों की यात्रा करते हैं । अथवा, इसे ऐसे भी कहा गया है कि ग्राम्य पशुओं से इस लोक की प्राप्ति होती है जबकि आरण्यक पशुओं से उस लोक की ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण  ३.९.३.१, १३.२.४.१ ) । शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.१९ आदि में सौत्रामणी यज्ञ के संदर्भ में उल्लेख है कि ग्राम्य पशु पयोग्रह हैं जबकि आरण्यक पशु सुराग्रह हैं । ग्राम्य पशुओं को पयोग्रह कहने से तात्पर्य यह है कि पयः सोम का अंश है और ग्राम्य पशुओं में पयः की उत्पत्ति होती है । अतः ग्राम्य पशु पयोग्रहा हैं । सुरा की उत्पत्ति अन्न से होती है और अन्न की पराकाष्ठा अन्नाद्य अन्नों को उत्पन्न करने में है ।

          वैदिक साहित्य में अरण्य के संदर्भ में जो मुख्य कल्पना की गई है, वह सात ग्राम्य पशुओं, सात आरण्यक पशुओं व सात छन्दों ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ३.८.४.१६, तैत्तिरीय संहिता ६.३.७.५, ७.२.२.१) के रूप में की गई है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.५.५, ५.४.९.२ व ७.३.४.१ आदि में ७ ग्राम्य ओषधियों व ७ आरण्यक ओषधियों का उल्लेख है । सात ग्राम्य व सात आरण्यक पशुओं के नाम कौन से हैं, यह विभिन्न संदर्भों में अलग - अलग हो सकता है । सात ग्राम्य पशुओं में प्रायः अज, अवि गौ, अश्व व पुरुष यह पांच बनते हैं । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.३३ - ३६ में ग्राम्य पशु पुरुष के समकक्ष मायु/किम्पुरुष को कहा गया है, अश्व के समकक्ष आरण्यक पशु गौर को, गौ के समकक्ष गवय, अवि के समकक्ष उष्ट्र और अजा के समकक्ष शरभ । कहा गया है ग्राम्य पशुओं के अमेध्य भाग से गौर, गवय आदि पशुओं की उत्पत्ति हुई । जैमिनीय ब्राह्मण २.२६६ में अश्वमेध के संदर्भ में अरण्य में वीर्य से आरण्यक पशुओं की उत्पत्ति का कथन है । ललाट से सिंह, उर से शार्दूल, उदर से द्वीपी, अक्षि से अपाष्ठिहौ?, कर्णों से अश्वकर्णौ, केसर से ऋक्षों व ऋक्षीकाओं, लोम से दूर्वा, अनूक से शिशुमारों, वाल से अश्ववालों, सक्थि से क्रौञ्च, अण्डों से वराह द्वय, वक्त्र से चक्रवाक्, वनिष्ठु से उद्र?, गुदा से अहि, अजगर, कुष्ठिका से वर्तक, शफों से शल्यक, शकृतपिण्ड से कूश्मा, उवध्य से उर्वारु, श्यामाक से लोहितक आदि की उत्पत्ति हुई । शतपथ ब्राह्मण १२.७.१.८ के अनुसार प्रजापति के ओज का मूत्र द्वारा स्रवण होने पर वृक की, ऊवध्य? से मन्यु का स्रवण होने पर व्याघ्र की, लोहित से सह का स्रवण होने पर सिंह की उत्पत्ति हुई । शतपथ ब्राह्मण ९.३.२.२४ के अनुसार आरण्यक पशु प्रजापति के अवाङ्ग प्राण हैं । गौ शब्द पर टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर यह स्पष्ट किया गया है कि साम भक्ति में अज सूर्योदय से पूर्व की अवस्था, अवि उदय के पश्चात् की अवस्था, गौ मध्याह्न काल की अवस्था, अश्व सायंकाल और पुरुष अस्त/निधन का प्रतिनिधित्व करते हैं । साम के आधार पर इन्हें हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन कहा जा सकता है । पुराणों में प्रायः उल्लेख आते हैं कि जब एक साधक किसी विशेष उद्देश्य से तप करने बैठता है तो पहले की तप की अवस्था होती है । यह हिंकार/अज अवस्था हो सकती है । इसके पश्चात् इष्टदेव का प्राकट्य होता है । यह प्रस्ताव की, अवि की अवस्था हो सकती है । फिर साधक अपने इष्टदेव की स्तुति करता है । यह उद्गीथ की, गौ की अवस्था हो सकती है । फिर साधक इष्टदेव से वर प्राप्त करता है । यह अश्व की, प्रतिहार की अवस्था हो सकती है । अरण्य की स्थिति में इन अवस्थाओं का रूपान्तरण आरण्यक पशुओं के रूप में किस प्रकार होगा, यह अन्वेषणीय है । ताण्ड्य ब्राह्मण २३.१३.२ के अनुसार द्वादशाह यज्ञ द्वारा वायु द्वारा आरण्यक पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त किया जाता है (एताभिर्वै वायुरारण्यानां पशुनामाधिपत्यं गच्छन्ति य एता उपयन्ति)। शतपथ ब्राह्मण ८.४.३.१५ के अनुसार २५ से स्तुति करने पर आरण्य पशुओं की उत्पत्ति हुई जिनका अधिपति वायु था । शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.२० इत्यादि के अनुसार आरण्य पशु अघला देवता के रूप हैं । आरण्यक पशुओं में ही रुद्र की हेति को धारण किया जाता है । तैत्तिरीय संहिता ५.१.४.२, ५.२.९.५ इत्यादि के अनुसार ग्राम्य पशुओं की अथवा अन्य किसी प्रकार की अशुचि को आरण्यक पशुओं में स्थापित किया जाता है । तैत्तिरीय संहिता २.१.१०.२ के अनुसार गोमृग पशु न ग्राम्य है, न आरण्य । तैत्तिरीय संहिता ६.६.४.५ व तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.१०.३ में रुद्र के संदर्भ में आखु को रुद्र का पशु कहा गया है । इससे रुद्र देव न तो ग्राम्य पशुओं की हिंसा करता है, न आरण्यक पशुओं की । सोमयाग में यूप से ग्राम्य पशुओं को बांधा जाता है, इतर यूपों से आरण्यक पशुओं को ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.१९.२) । कहा गया है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.८.३, शतपथ ब्राह्मण १३.२.४.३ ) कि आरण्यक पशुओं का पर्यग्निकरण करने के पश्यात् उन्हें मुक्त कर दिया जाता है जिससे हिंसा न हो । शतपथ ब्राह्मण ३.७.२.३ में यूप को पृथिवी में गर्त में रखते समय कहा जाता है कि यह तेरा पृथिवी में लोक है । आरण्य तेरे पशु हैं(एष ते पृथिव्यां लोक आरण्यस्ते पशुरिति)

          ग्राम्य व आरण्यक ओषधियों के रूप में शतपथ ब्राह्मण १२.७.२.९ में व्रीहि, श्यामाक, गोधूम, कुवल, उपवाक, बदर, यव, कर्कन्धु, शष्प, तोक्म आदि का उल्लेख है । जर्तिल ग्राम्य व आरण्य दोनों  है ( शतपथ ब्राह्मण ९.१.१.३) । शतपथ ब्राह्मण ११.१.७.२ के अनुसार ग्राम्य ओषधि के सेवन से पुरोडाश के मेध का भक्षण होता है, आरण्यक ओषधि के भक्षण से बर्हि के मेध का, वानस्पत्य ओषधि  के सेवन से इध्म के मेध का ।

           गोपथ ब्राह्मण १.४.२३ के अनुसार यदि अविद्वान् द्वादशाह यज्ञ करेगा तो उसे भूख, प्यास आदि आरण्यक कष्ट सताएंगे । ऋग्वेद ६.२४.१० के अनुसार अरण्य के कष्टों से बचने का उपाय मा अर्थात् माया से विपरीत अमा होना है । अरण्य में जाकर उदुम्बर के नीचे वास करने का निर्देश है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.१८३) । इसका कारण यह है कि क्षुधा का कारण मनुष्य के स्व का क्षीण होना है । इस स्व की प्राप्ति या तो ग्राम्य ओषधियों से हो सकती है, या ऊर्क से, ऊर्ज से । उदुम्बर को ऊर्ज कहा गया है । साहित्य में ऐसा माना गया है कि उदर में उदुम्बर की स्थापना से क्षुधा शान्त हो जाती है ( द्र. उदुम्बर पर टिप्पणी ) । ऋग्वेद १०.१४६ सूक्त की देवता अरण्यानी अर्थात् महत् अरण्य है । तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार यदि अरण्य में वास पर भय हो रहा हो तो इस सूक्त के जप से दूर हो जाता है ।

         

          ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५ में हरिश्चन्द्र का पुत्र रोहित अरण्य में भाग जाता है और जब जब भी वह ग्राम में लौटने का प्रयत्न करता है तो इन्द्र उसको उपदेश देकर पुनः अरण्य में भेज देता है । इस प्रकार रोहित ६ संवत्सर पर्यन्त अरण्य में भ्रमण करता है । इन्द्र द्वारा प्रदत्त उपदेश महत्त्वपूर्ण है । पहले संवत्सर में अरण्य चारण से श्री का सम्पादन, दूसरी बार पापों का नाश, आत्मा फलग्रहि तीसरी बार भग( भाग्य, भगवान्) का जाग्रत होना, चौथी बार कृतयुग आदि चार युगों का दर्शन, कलि का शयन और कृतयुग की प्राप्ति, पांचवी बार मधु व स्वादिष्ट उदुम्बर की प्राप्ति होती है । इसके पश्चात् शुनःशेप के यज्ञपशु बनने का वर्णन है । ताण्ड्य ब्राह्मण १६.६.२ में रोहित को पशुओं में भूयिष्ठ कहा गया है । यहां अरण्य में तीन बार वास से सर्वश्रेष्ठ अन्न की प्राप्ति कही गई है ।  ब्राह्मण ग्रन्थों में रोहित को ( कर्मों के फल का? ) बीज कहा गया है । उसकी सहायता से इन्द्र सात स्वर्ग लोकों पर आरोहण करता है (ऐतरेय ब्राह्मण ५.१०) ।

          जैमिनीय ब्राह्मण १.११२ के अनुसार साम गान के बीच में जो अनभिस्वरित गान है, वह अरण्य है - एतद् ध वै साम्नो ऽन्तर् अरण्यं यत् प्रस्तुतम् अनभिस्वरितम् आदीयते॥

          सामवेद के दो भाग हैं - ग्रामगेय व अरण्यगेय । अतः सामवेद के मूल भाव को समझने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि ग्राम और अरण्य शब्दों को सम्यक् रूप से समझा जाए । वाल्मीकि रामायण के सात काण्डों में से तीसरा काण्ड अरण्य काण्ड है । आध्यात्मिक दृष्टि से, अयोध्या काण्ड रूपी ग्राम के पश्चात् अरण्यकाण्ड को स्थान देने के पीछे क्या रहस्य है और अरण्य काण्ड में जिन कथाओं को स्थान दिया गया है, उनके पीछे क्या प्रयोजन है इस काण्ड की विषय वस्तु में शरभङ्ग मुनि का राम के दर्शन से मुक्त होना, विराध राक्षस का वध, राम आदि का सुतीक्ष्ण व अगस्त्य मुनियों के आश्रमों में गमन, पञ्चवटी में वास, शबरी मिलन, शूर्पणखा का आगमन, खर व दूषण आदि राक्षसों का वध, सुवर्ण मृग ग्रहण करने की चेष्टा, रावण द्वारा सीता का हरण, जटायु द्वारा रावण का प्रतिकार, कबन्ध राक्षस का वध आदि हैं । अरण्य शब्द को समझने की पराकाष्ठा यही हो सकती है कि वाल्मीकि रामायण के अरण्य काण्ड की कथाओं का रहस्य समझ में आ जाए । काण्ड के प्रारम्भ में राम व लक्ष्मण द्वारा विराध राक्षस का वध होता है । यह आरण्यक पशुओं को लादकर ले जा रहा है । ब्राह्मण ग्रन्थों में जहां सिंह, व्याघ्र आदि पशु एक एक ही हैं, विराध तीन सिंह, चार व्याघ्र, २ वृक, १० पृषत् मृग आदि ढो रहा है । यह जव का पुत्र है तथा तुम्बुरु गन्धर्व का शापित रूप है । अथर्ववेद में आता है - सं श्रुतेन गमेमहि, मा श्रुतेन विराधिषि, अर्थात् हम सम्यक् श्रुति के अनुसार आचरण करें और मा अर्थात् माया द्वारा जो श्रुत है, उसके साथ विराध करे । यह विराध राधा, आह्लादिनी शक्ति का ही रूप है । यह संगीतराज तुम्बुरु है । यह सामगान के बीच अनभिस्वरित अरण्य है - एतद् ध वै साम्नो ऽन्तर् अरण्यं यत् प्रस्तुतम् अनभिस्वरितम् आदीयते॥ ( जैमिनीय ब्राह्मण १.११२)। राम द्वारा सुतीक्ष्ण व अगस्त्य मुनियों के आश्रमों में जाने की व्याख्या जैमिनीय ब्राह्मण २.४२३ के आधार पर की जा सकती है । इस वर्णन के अनुसार सामों में रथन्तर व बृहत् साम क्षत्र हैं ( अन्य सामों में वैरूप, वैराज, शक्वरी व रेवती का नाम आता है ) । क्षत्र ही अरण्य का अतिनेता है । क्षत्रिय ही अरण्य में जाकर चोर, व्याघ्र आदि का वध करता है । अरण्य काण्ड में सुतीक्ष्ण व अगस्त्य रथन्तर व बृहत् साम के प्रतीक हो सकते हैं । शूर्पणखा खण्डित मानवी शक्ति, दिति की प्रतीक है ( दिति: शूर्पम्, अदिति: शूर्पग्राही - अथर्ववेद ) । खर राक्षस शर अथवा क्षर का प्रतीक हो सकता है ( काण्ड के प्रारम्भ में शरभङ्ग मुनि की मुक्ति के संदर्भ में यदि शरभङ्ग को क्षरभङ्ग के रूप में लिया जाए तो व्याख्या की जा सकती है ) । मारीच द्वारा सुवर्ण मृग रूप धारण करने को इन्द्रियों द्वारा द्रष्ट मृगमरीचिका प्रतीक कह सकते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार मृग का वास स्थान अरण्य ही है । ब्राह्मण ग्रन्थों में पृथिवी में स्वयं द्वारा कर्षण करके बनाई गई रेखा को सीता कहते हैं । इस सीता में बीजों का वपन किया जाता है । रावण द्वारा इस सीता के हरण से क्या तात्पर्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । अध्यात्म में पृथिवी से तात्पर्य अपनी देह लिया जाता है । इसके अतिरिक्त, जटायु, त्रिशिरा, कबन्ध, शबरी आदि के प्रतीकार्थ अन्वेषणीय हैं ।

          जैमिनीय ब्राह्मण २.४२३ में रथन्तर व बृहत् सामों को क्षत्र कहने का कथन महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि गवामयन सोमयाग में एक मास में ६ - ६ दिनों की पुनरावृत्ति की जाती है । पहली ४ पुनरावृत्तियों को अभिप्लव षडह कहा जाता है । इनके द्वारा देवगण तेजी से छलांग लगाकर प्रगति करते हैं । अभिप्लव षडह में प्रति दिन बारी - बारी से रथन्तर व बृहत् सामों की पुनरावृत्ति होती है । पांचवी पुनरावृत्ति पृष्ठ्य षडह कहलाती है । इस पुनरावृत्ति के ६ दिनों में सामों का क्रम रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज, शक्वरी व रेवती होता है । अङ्गिरस गण इस पृष्ठ्य षडह द्वारा धीरे - धीरे प्रगति करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.१३४ में बृहद् - रथन्तर द्वारा निधन को अरण्य में रखकर ग्राम में आने का उल्लेख है । अरण्य का वह भाग स्वकृत इरिण हुआ, ऐसा उल्लेख है - बृहद्रथन्तरे यद् असृज्येतां ताभ्यां भीषा प्रजाः पशव उदवेपन्त। ते आत्मानम् एव पर्यैक्षेतां किं नु नाव् इदं क्रूरम् इवात्मनो यस्माद् भीषा प्रजाः पशव उदवेपिषतेति। ते निधने एवापश्यताम्। ते अरण्ये निधाय ग्रामम् अभ्यवैताम्। तद् एव स्वकृतम् इरिणम् अभवत्। ।  

          सोमयाग में एक दिन में तीन सवनों में कृत्यों का निष्पादन किया जाता है । इन तीन सवनों से पूर्व प्रातःकाल बहिष्पवमान नामक कृत्य का सम्पादन होता है जिसमें सामवेदी ऋत्विज प्रायः (उत्तरवेदी में महावेदी/अग्नि के खर के समीप ) चात्वाल नामक स्थान पर बैठकर सामगान करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.८३ व १.८९ का कथन है बहिष्पवमान नामक यह स्तुति अरण्य में की जाती है । बहिष्पवमान अरण्य का रूप है । बहिष्पवमान का आध्यात्मिक रूप में क्या अर्थ है, यह अन्वेषणीय है । जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार बहिष्पवमान द्वारा बीज रूपी वीर्य का सिंचन होता है, अथवा बहिष्पवमान  उस दिन के शेष कृत्यों के लिए बीज रूप बनता है ।

संदर्भ

*स वा आरण्यमेवाश्नीयात्। या वा आरण्या ओषधयः यद्वा वृक्ष्यम्। - - - - - श.ब्रा. १.१.१.१०

*वरुणप्रघासपर्व : सा(पत्नी) दक्षिणेऽग्नौ जुहोति - यद्ग्रामे यदरण्ये - - - - यत्सभायां यदिन्द्रिये - श.ब्रा. २.५.२.२५

*तं(यूपं) निदधाति। एष ते पृथिव्यां लोकः आरण्यास्ते पशुः। - श.ब्रा. ३.७.२.३

*सप्त वै छन्दांसि - सप्त ग्राम्याः पशवः सप्तारण्याः तानेवैतदुभयान्प्रजनयति - श.ब्रा. ३.८.४.१६

*इमं मा हिंसीरेकशफं पशुम्। - - - - गौरमारण्यमनु ते दिशामि - श.ब्रा. ७.५.२.३३

*घृतं दुहानां अदितिं जनाय - - - - गवयं आरण्यमनु ते दिशामि - श.ब्रा. ७.५.२.३४

*त्वष्टुः प्रजानां प्रथमं जनित्रम्। - - - अग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन्। - - - -उष्ट्रमारण्यमनु ते दिशामि - श.ब्रा. ७.५.२.३५

*अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकात् - - - सोऽअपश्यज्जनितारमग्ने - - - - शरभमारण्यमनु ते दिशामि - श.ब्रा. ७.५.२.३६

*पंचविंशत्याऽस्तुवत। - - - आरण्याः पशवोऽसृज्यन्त - श.ब्रा. ८.४.३.१५

*जर्तिल ग्राम्य व आरण्य दोनों - श.ब्रा. ९.१.१.३

*यदि ग्राम्या ओषधीरश्नाति, पुरोडाशस्य मेधमश्नाति। यद्यारण्या ओषधीरश्नाति, बर्हिषो मेधमश्नाति। यदि वानस्पत्यमश्नाति, इध्मस्य मेधमश्नाति - श.ब्रा. ११.१.७.२

*यदि अन्य ओषधि न हों तो आरण्य ओषधियों से जुहुयात्। यदि आरण्य न हों तो वानस्पत्य से। यदि वानस्पत्य न हों तो आपः से। - श.ब्रा. ११.३.१.३

*गन्धर्वों द्वारा पुरूरवा को अग्नि देना। पुरूरवा द्वारा अग्नि को अरण्य में रख कर कुमार के साथ ग्राम में आना। अग्नि का अश्वत्थ व शमी में रूपान्तरित होना। - सोऽरण्य एवाग्निं निधाय कुमारेणैव ग्राममेयाय पुनरैमीत्येत्तिरोभूतं योऽग्निरश्वत्थं तं या स्थाली शमीं तां  - श.ब्रा. ११.५.१.१३

*व्रीहि, श्यामाक, गोधूम, कुवल, उपवाक, बदर, यव, कर्कन्धु, शष्प, तोक्म,- उभयमेव ग्राम्यं चान्नमारण्यं चावरुन्धे - श.ब्रा. १२.७.२.९

*ग्राम्या वै पशवः पयोग्रहाः। आरण्याः सुराग्रहाः - श.ब्रा. १२.७.३.१९

*अघलायै देवतायै रूपम्। यदेते घोरा आरण्याः पशवः। - - - -आरण्येष्वेव पशुषु रुद्रस्य हेतिं दधाति - श.ब्रा. १२.७.३.२०

*सौत्रामणी में अवभृथ : यत् ग्रामे यदरण्ये। यत् सभायाम् यदिन्द्रिये। - श.ब्रा. १२.९.२.३

*ग्राम्य पशुओं से इस लोक की प्राप्ति, आरण्यकों से उस लोक की। - श.ब्रा. १३.२.४.१

*अश्वमेधः :- तदाहुः - अपशुर्वा एष यदारण्यः। नैतस्य होतव्यम्। यत् जहुयात्। क्षिप्रं यजमानमरण्यं मृतं हरेयुः। अरण्यभागा ह्यारण्याः पशवः। यन्न जुहुयात्। यज्ञवेशसं स्यात्। पर्यग्निकृतानेवोत्सृजति। - - - - - श.ब्रा. १३.२.४.३

*पुरुषमेध : उत्तरनारायण द्वारा आदित्य का उपस्थान कर अनपेक्षमाण होकर अरण्य को जाए। मनुष्यों के लिए तिर होता है - श.ब्रा. १३.६.२.२०

*एतद्वै परमं तपः। यं प्रेतमरण्यं हरन्ति - बृहदारण्य उपनिषद ५.११.१

*ये चामी अरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते। ते ऽर्चिरभिसम्भवन्ति। अर्चिषो अहः - श.ब्रा. १४.९.१.१८, बृहदारण्यक ६.१.१८

*आखुस्ते पशुरिति। न ग्राम्यान्पशून्हिनस्ति। नाऽऽरण्यान्। - तै.ब्रा. १.६.१०.३

*स्वयंकृता वेदिर्भवति। स्वयंदिनं बर्हिः। स्वयंकृत इध्मः। - - - - तस्माद्राज्ञामरण्यमभिजितम् - तै.ब्रा. १.७.३.८

*योऽरण्येऽनुवाक्यो गणं। तं मध्यत उपदधाति। ग्राम्यैरेव पशुभिरारण्यान्पशून्परिगृह्णाति - तै.ब्रा. १.७.७.३

*यं ब्राह्मणं विद्यां विद्वांसं यशो नर्च्छेत्। सो ऽरण्यं परेत्य। दर्भस्तम्बमुद्ग्रथ्या ब्राह्मणं दक्षिणतो निषाद्य। चतुर्होतॄन्व्याचक्षीत। - तै.ब्रा. २.२.१.४

*(सरस्वती) मा त्वत्क्षेत्राण्यरणानि गन्म - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.३.२

*संज्ञानं नः स्वैः। संज्ञानमरणैः। - तै.ब्रा. २.४.४.६

*अवभृथ मन्त्राः :- यद्ग्रामे यदरण्ये। यत्सभायां यदिन्द्रिये। यच्छूद्रे यदर्ये। एनश्चकृमा वयं। - - - - तै.ब्रा. २.६.६.२

*वनस्पतिभ्यः स्वाहेति वनस्पतिहोमाञ्जुहोति। आरण्यस्यान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै - तै.ब्रा. ३.८.१७.५

*यूपेषु ग्राम्यान्पशून्नियुंजति। आरोकेष्वारण्यान्धारयति। पशूनां व्यावृत्त्यै। - तै.ब्रा. ३.८.१९.२

*अश्वमेधः :- यदारण्यै: संस्थापयेत्। व्यवस्येतां पितापुत्रौ व्यध्वानः क्रामेयुः। विदूरं ग्रामयोर्ग्रामान्तौ स्याताम्। ऋक्षीकाः पुरुषव्याघ्राः परिमोषिणं आव्याधिनीतस्करा अरण्येष्वाजायेरन्। अपशवो वा एते। यदारण्याः। - - - - ग्राम्यैः संस्थापयन्ति - तै.ब्रा. ३.९.१.३

*अस्मै लोकाय ग्राम्याः पशव आलभ्यन्ते। अमुष्मा आरण्याः। - तै.ब्रा. ३.९.३.१

*पर्यग्निकृतमारण्यानुत्सृजन्त्यहिंसायै - तै.ब्रा. ३.९.३.३

*पर्यग्निकृतं पुरुषं चाऽऽरण्यांश्चोत्सृजन्त्यहिंसायै। उभौ वा एतौ पशू आलभ्येते। यश्चावमो यश्च परमः - तै.ब्रा. ३.९.८.३

*तदाहुः। अपशवो वा एते। यदजावयश्चाऽऽरण्याश्च। एते वै सर्वे पशवः यद्गव्या इति - तै.ब्रा. ३.९.९.२

*वैश्वसृजचयनम् : यावन्तो ग्राम्याः पशवः सर्वे। आरण्याश्च ये। सर्वास्ताः। - तै.ब्रा. ३.१२.६.४

*अरण्यम् इव वा एते यन्ति ये बहिष्पवमानं सर्पन्ति - जै.ब्रा. १.८३

*यद्बहिष्पवमानं अरण्ये स्तुवन्ति तस्माद् आरण्याः पशवो ऽरण्ये सचन्ते - जै.ब्रा. १.८९

*यो वै साम्नो ऽन्तर् अरण्यम् अवति सर्वज्यानिं वा जीयते प्र वा मीयते। एतद् ध वै साम्नो ऽन्तर् अरण्यं यत् प्रस्तुतम् अनभिस्वरितम् - जै.ब्रा. १.११२

*बृहद् रथन्तर द्वारा निधन को अरण्य में रखकर ग्राम में आना। वह स्वकृतम् इरिण् अभवत्- जै.ब्रा. १.१३४

*अरण्य में पिपासा पर त्रित की कथा - जै.ब्रा. १.१८४

*अग्निष्टोम : स्तुवते हैनेन स्वा स्तुवते अरणा - जैमिनीय ब्राह्मण १.२४०

*अर्कपुष्प। अन्नं वा अर्कः। तस्यैतत् पुष्पं यद् आरण्यम्। तद् ध्य् अरण्ये जायते - जै.ब्रा. २.१४

*(अरण्य में उदुम्बर में वास करे) या न ग्रामे नारण्ये वसेद् निषादेषु हैव ता वसेत् - जै.ब्रा. २.१८३

*अश्वमेध : - - - - अपि ह स्मारण्ये वीर्याण्य् उपजायन्ते। ललाट से सिंह, उर से शार्दूल, उदर से द्वीपी, अक्षि से अपाष्ठिहौ, कर्ण से अश्वकर्णौ, केसर से ऋक्षा ऋक्षीका, लोम से दूर्वा, अनूक से शिंशुमारः, वाल से अश्ववालाः, सक्थि से क्रौञ्च, अण्ड से वराहौ, वक्त्र से चक्रवाक्, वनिष्ठ - उद्र, गुद - अहि अजगर, कुष्ठिका - वर्तक, शफ - शल्यक, शकृत पिण्ड - कूश्मा, ऊवध्य - उर्वारु, तंतिसन्तदूलः, श्यामाको लोहितकम् - जै.ब्रा. २.२६६

*क्षत्रं वा एते साम्नां यद्बृहद्रथन्तरे। क्षत्रिय उ वा अरण्यस्यातिनेता - जै.ब्रा. २.४२३

*अर्यो नोऽसि भर्ता नो ऽसीति हैनं स्वाश् चारणाश् चोपासते - जै.ब्रा. ३.३५७

*यदनाश्वानुपवसेत् पितृदेवत्यः स्यादारण्यस्याश्नातीन्द्रियं वा आरण्यं इन्द्रियमेवात्मन् धत्ते - तै.सं. १.६.७.३

*यद्ग्राम्यानुपवसति तेन ग्राम्यानवरुन्द्धे यदारण्यस्याश्नाति तेनारण्यान् यदनाश्वानुपवसेत् पितृदेवत्यः स्यादारण्यस्याश्नातीन्द्रियं वा आरण्यम् इन्द्रियमेवाऽऽत्मन् धत्ते। - - - -आपोऽश्नाति - तै.सं. १.६.७.३

*गोमृग पशु न ग्राम्य न आरण्य - तै.सं. २.१.१०.२

*७ ग्राम्य पशु, ७ आरण्य, ७ छन्द - तै.सं. २.४.६.२

*वाम पाद बहिर्वेदी में, दक्षिण पाद अन्तर्वेदी में। इससे ग्राम्य व आरण्य पशुओं की प्राप्ति - तै.सं. २.५.११.२

*किक्किटाकार से ग्राम्याः पशवः रमन्ते प्राऽऽरण्याः पतन्ति - तै.सं. ३.४.३.५

*अयं ते योनिर्ऋत्विय इत्यरण्योः समारोहयति एष वा अग्नेर्योनिः - तै.सं. ३.४.१०.४

*यदि अरण्योः समारूढो नश्येद् उदस्याग्निः सीदेत् पुनराधेयः स्यात इति या ते अग्ने यज्ञिया तनूस्तयेह्या रोहेत्यात्मन्त्समारोहयते यजमानो वा अग्नेर्योनिः - तै.सं. ३.४.१०.५

*पञ्चविंशत्याऽस्तुवताऽऽरण्याः पशवोऽसृज्यन्त वायुरधिपतिः - तै.सं. ४.३.१०.२

*यद्ग्राम्याणां पशूनां चर्मणा (मृदं) संभरेद् ग्राम्यान्पशून्छुचार्पयेत् , कृष्णाजिनेन संभरत्यारण्यानेव पशून् शुचाऽर्पयति - तै.सं. ५.१.४.२

*क्षेत्रकर्षण : चतुर्दशभिर्वपति सप्त ग्राम्या ओषधयः सप्तारण्याः - तै.सं. ५.२.५.५

*यत्पशुशीर्षाण्युपदधाति अमुमारण्यमनु ते दिशामीत्याह ग्राम्येभ्य एव पशुभ्य आरण्यान्पशूञ्छुचमनुत्सृजति तस्मात् समावत्पशूनां प्रजायमानानां आरण्याः पशव कनीयांसः शुचा हि ऋताः - तै.सं. ५.२.९.५

*वाजप्रसवीय : सप्त ग्राम्या ओषधयः सप्त आरण्याः - तै.सं. ५.४.९.२

*पदसंग्रहण : सप्त ग्राम्याः पशवः सप्तारण्याः सप्त छन्दांसि - तै.सं. ६.१.८.१

*सामिधेनी : सप्त ग्राम्याः पशवः सप्त आरण्याः सप्त छन्दांसि - तै.सं. ६.३.७.५

*पराचीन पात्रों से अमुं लोक की जय, पुनः प्रयुज्यमान पात्रों में इस लोक की। पराचीन से आरण्या पशवः - तैत्तिरीय संहिता ६.५.११.२

*आखुस्ते पशुरिति ब्रूयान्न ग्राम्यान्पशून्हिनस्ति नाऽऽरण्यान् - तै.सं. ६.६.४.५

*सप्तरात्र : ७ ग्राम्या पशवः, ७ आरण्याः, सप्त छन्दांसि - तै.सं. ७.२.२.१

*चतुर्दशरात्र : ७ ग्राम्या ओषधयः सप्तारण्याः - तै.सं. ७.३.४.१

*व्याघ्रेणारण्यान्पशून् - तै.सं. ७.३.१४.१

*उक्थ रारणत् - ऋ. १.१०.५

*गावो रणन्त - ऋग्वेद १.५३.१६, १०.२५.१

*रण्यानि मरुता - ऋ. १.८५.१०

*रण्यति मर्तेषु - ऋ. ५.१८.१

*ब्रह्माणि रण्यथः - ऋ. ५.७४.३

*नामानि रणयन्त - ऋ. ६.१.४

*रणाः निषदि - ऋ. ६.२७.१

*गावो रणयन्तु - ऋ. ६.२८.१

*मरुतो रणन्त - ऋ. ७.५७.५

*स्तोतृ रण्यस्य - ऋ. ८.२.४२

*वृक्षाश्चिन्मे अभिपित्वे अरारणुः । - ऋ. ८.४.२१

*उक्थानि रण्यन्ति - ऋ. ८.१६.२

*उक्थेषु रणया - ऋ. ८.३४.११

*रण्या बाहू - ऋ. ८.७७.११

*उक्थेषु रणयामसि - ऋ. ८.९२.१२

*रण्यः सोम - ऋ. ९.९६.९

*सख्ये रणयन् - ऋ. १०.८८.२

*रणयन्त सोम - ऋ. १०.१४८.३

 

Ranya in Sanskrit means that which can be made pleasing, enjoyable. And Aranya or wild is one which is not, or which can not be made pleasant. The pleasant one is represented in vedic literature by village animals while the non – pleasant one is represented by wild animals. On the earth, both village and wild are equally important. In spirituality, the wild one may the state of absolute trance, which does not give any pleasure to our senses. On the other hand, the village state may the state of returning back from the trance. While returning, one gradually regains his senses like sound, taste, form etc. This concept of Araya is supported by other statements of vedic literature. Aranya is the state of sunset, where all senses become introvert. The opposite of this is the village state which can be aroused by awakening the sleeping praanic forces, by name, by prayers etc.

          There is a universal statement in vedic literature that by performing penances in a village through sacrifices etc. gradually leads to the abodes of pitris, the manes, while performing penances in wild through faith and truth directly leads to the abode of gods . There is one statement that the word Aranya is made of two parts – ara and nya. These represent two abodes. There is a third abode of Brahman which is above these two and it is full of immense pleasure. Only when the lower two are perfected by celibacy, then only one can reach the third one.

          Village animals lead to conquering of this world of humans, while wild animals lead to conquering of the world of gods. Village animals retain soma in the form of milk, while wild animals retain the best of food or cereals. Village as well as wild animals have been divided into 7 categories. Village animals may be goat, sheep, cow, horse, man etc. The spiritual meaning of these is described in Veda Study - Cow. Goat, sheep etc. are different stages of rising of sun inside oneself. The corrupt forms of these village animals have been given the forms of wild animals.

          It is difficult to sustain the troubles in wild. It has been ordained to sit under a Udumbara tree so that difficulties like hunger do not arise. Wild animals are not sacrificed in a yaga. These are only sanctified by fire and then left free.

          There is a famous anecdote that Rohita, the son of king Harishchandra fled to wilds to escape the sacrifice by his father for the sake of gods. He keep wandering in the wild for 6 years and during each year, he gathers some special traits. At the end of sixth year, he is able to get Udumbara and honey.

          The present veda study can be considered successful only when it is able to explain the proper placement of different stories of Aranya Kaanda of Vaalmeeki Raamaayana. In this section, lord Rama meets  different sages, Shabari of mean caste. He annihilates few demons. He loses his consort Sita to    demon Raavana. All these stories are supposed to be explained by proper understanding of the veda study of Aranya/wild. The first basis of understanding is that there are two vedic weapons of a warrior with which he has to go to the wild to conquer it. These are called Rathantara and Brihat, or contraction and expansion. In minute sense, this can be taken to mean as going introvert and extrovert in a sequential manner( According to modern sciences, for two conjugate terms, there is a limit how each of them can be compressed and expanded. The multiplication of the two should remain constant). There are certain yagas which go according to this order. 

And most important, Saama veda consists of two parts – that which is to be sung in village and one which is to be sung in wild. This study should help that riddle also.