पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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अप्तोर्याम विष्णुधर्मोत्तर १.१०९.१४( पृथु के अप्तोर्याम यज्ञ में सूत की उत्पत्ति का कथन ) aptoryaama आप्तुर्यामस्य सुत्येऽह्नि सूतो जातः परन्तप। सामगेष्वथ गायत्सु अध्वरे वैश्वदेविके॥ मागधश्च समुत्पन्नस्तस्मिन्नेव महाक्रतौ। पृथोस्तवार्थं तौ देवौ चोदितावृषिभिस्तथा॥ ऊचतुस्तौ तदा देवानृषींश्च प्रणतौ स्थितौ। कर्मभिस्तूयते सर्वः कर्म चास्य न विद्महे॥ कर्मणश्चात्यविज्ञानात्स्तोष्यावस्तत्कथं पृथुम्। ऋषय ऊचुः। अस्मत्प्रभावविज्ञातौ स्तुवतामविचारतः॥ अप्तोर्याम याग के विषय में विष्णुधर्मोत्तर पुराण के इस छोटे से कथन के अनुसार राजा पृथु के अप्तोर्याम याग के सुत्या अह में सूत व मागध नामक पुरुष – द्वय का प्राकट्य हुआ। ऋषियों ने उन दोनों से कहा कि तुम राजा पृथु की स्तुति करो। उन दोनों ने कहा कि हम राजा के गुणों से परिचित नहीं हैं, स्तुति कैसे करें। ऋषियों ने कहा कि अपने मन से विचार कर स्तुति करो। तब उन दोनों ने विचार कर भविष्यकाल में पृथु की स्तुति की कि हमारा राजा पृथु इन – इन गुणों से सम्पन्न होगा। प्रतीत होता है कि यह अप्तोर्याम याग का सार है। अप्तोर्याम याग के प्रातःसवन में उद्गातृगण जिन स्तोत्रों का गान करते हैं, उनका क्रम इस प्रकार निर्धारित किया गया है कि दो समान स्तोत्रों के मध्य में एक गर्भ रूप स्तोत्र को स्थान दिया गया है। इसका निहितार्थ होगा कि गुण अभी गर्भ रूप में हैं जिनको विकसित करना है। इसके अतिरिक्त, पुराण में राजा के रूप में पृथु का नाम लेना अप्तोर्याम याग के एक अन्य रहस्य को उद्घाटित करता है। श्रौतकोश के रचयिता श्री काशीकर की टिप्पणी के अनुसार अप्तोर्याम याग दो प्रकार का होता है – सर्वपृष्ठाप्तोर्याम(क्षत्रिय द्वारा यजनीय) तथा ज्योतिरप्तोर्याम(ब्राह्मण द्वारा यजनीय)। सर्वपृष्ठाप्तोर्याम के भी दो प्रकार होते हैं – बृहत्पृष्ठ व रथन्तरपृष्ठ। श्रौतकोश में बृहत्पृष्ठ का अनुसरण करके अप्तोर्यामयाग की विधि दी गई है। यह सम्भव है कि पृथु के नाम का निर्देश बृहत् को ध्यान में रखकर ही किया गया हो। अप्तोर्याम आश्वलायन श्रौत सूत्र ६.७.७ के भाष्य के अनुसार यदि अग्निष्टोम के तृतीय सवन में सोम का अतिरेक हो तो उक्थ्य क्रतु करे, यदि उक्थ्य क्रतु में सोम का अतिरेक हो तो षोडशी यज्ञ करे, यदि षोडशी में सोम का अतिरेक हो तो अतिरात्र करे, यदि अतिरात्र में सोम का अतिरेक हो तो अप्तोर्याम करे। यहां अतिरेक से तात्पर्य उस सोम से हो सकता है जिसका परिष्कार एक विधि-विशेष के अन्तर्गत संभव नहीं हो पाया है। उसके परिष्कार के लिए उच्चतर स्तर के परिष्करण की आवश्यकता है। आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.१.१ के अनुसार पशुओं की कामना के लिए षोडशी, प्रजा या पशु की कामना के लिए अतिरात्र का तथा सब कामों की प्राप्ति के लिए अप्तोर्याम अतिरात्र का अनुष्ठान करे। शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.४ में अश्वमेध के अन्तर्गत अभिजित् अतिरात्र, विश्वजित अतिरात्र, महाव्रत अतिरात्र व अप्तोर्याम अतिरात्रों के नाम आए हैं जिनका अलग-अलग नाम वाले राजा सम्पादन करते हैं।
सभी सोमयागों की मूल प्रकृति को ज्योतिष्टोम कहा जाता है। इसमें चार स्तोम होते हैं। सामगान में साम या तृचा के पदों की विशिष्ट प्रकार से पुनरावृत्ति करके स्तोमों का सृजन किया जाता है। स्तोम त्रिवृत्, पञ्चदश, सप्तदश या एकविंश आदि प्रकार के होते हैं। उदाहरण के लिए, तीन पदों वाले गायत्री मन्त्र की यदि तीन बार पुनरावृत्ति की जाए तो उससे त्रिवृत् स्तोम बनेगा। पञ्चदश स्तोम बनाने के लिए सामगान की पहली आवृत्ति में पहले पद की पुनरावृत्ति 3 बार, दूसरे पद की एक बार, तीसरे पद की एक बार। दूसरी आवृत्ति में पहले पद की पुनरावृत्ति एक बार, दूसरे की तीन बार, तीसरे की एक बार। सामगान की तीसरी आवृत्ति में पहले पद की एक बार, दूसरे पद की एक बार व तीसरे पद की तीन बार पुनरावृत्ति की जाती है। प्रकृति – विकृति वर्गीकरण – ज्योतिष्टोम की प्रकृति अग्निष्टोम है। ज्योतिष्टोम की सात संस्थाएं या अन्त हो सकते हैं और इस प्रकार अग्निष्टोम से 6 और यागों का निर्माण किया जा सकता है। अग्निष्टोम प्रथम संस्था है। अग्निष्टोम वह ज्योतिष्टोम है जिसका अन्त अग्नि देवता के सूक्त से होता है। अग्निष्टोम की तीन विकृतियां होती हैं जिनके नाम उक्थ्य, षोडशी व अतिरात्र (अग्नि) हैं। उक्थ्य एक विकृति है, लेकिन यह वाजपेय याग के लिए प्रकृति के रूप में कार्य करती है, अर्थात् वाजपेय याग के लिए इस विकृति को ही प्रकृति मान लिया जाता है। इसी प्रकार, अत्यग्निष्टोम याग का विकास षोडशी से और अप्तोर्याम याग का विकास अतिरात्रम् से होता है। इस प्रकार ज्योतिष्टोम सात संस्थाओं में विभाजित किया जाता है। यह ध्यान देने योग्य है कि अग्निष्टोम शुद्ध प्रकृति है, जबकि उक्थ्य, षोडशी व अतिरात्र प्रकृति – विकृति हैं(क्योंकि एक ओर वह अग्निष्टोम की विकृति हैं और दूसरी ओर अन्य तीन की प्रकृति हैं)। वाजपेय, अत्यग्निष्टोम व अप्तोर्याम विशुद्ध रूप से विकृति हैं क्योंकि उनसे आगे किसी याग का निर्माण नहीं होता। इनकी विवेचना कौशीतकि ब्राह्मण में की गई है। शस्त्र – आधारित वर्गीकरण – 12वें शस्त्र पर समाप्त होने वाला याग अग्निष्टोम कहलाता है। अग्निष्टोम के 12 शस्त्र व होता ऋत्विजों के तीन अतिरिक्त शस्त्रों(कुल 15 शस्त्र) वाला याग उक्थ्य कहलाता है। इसमें एक और शस्त्र जोड देने पर(कुल 16 शस्त्र) यह षोडशी याग कहलाता है। षोडशी में 13 शस्त्र और जोड देने पर (कुल 29 शस्त्र) यह अतिरात्र याग बन जाता है। वाजपेय में 17 शस्त्र होते हैं और यह षोडशी का एक विस्तार है जिसमें एक शस्त्र अतिरिक्त है। अत्यग्निष्टोम में उक्थ्य(3 शस्त्र) नहीं होता लेकिन इसका अन्त षोडशी शस्त्र पर होता है और इसमें कुल मिलाकर 13 शस्त्र होते हैं। अतिरात्र के विस्तार के रूप में, यदि चार ऋत्विजों में से प्रत्येक के लिए एक शस्त्र और जोड दिया जाता है (कुल 33 शस्त्र) तो यह अप्तोर्याम याग बन जाता है (श्री अवधानी)
*उक्थ्यः षोडशी अतिरात्रो ऽप्तोर्यामश्चाग्निष्टोमस्य गुणविकाराः। उक्थ्येन पशुकामो यजेत, षोडशिना वीर्यकामः, अतिरात्रेण प्रजाकामः पशुकामो वा। अप्तोर्यामेण अतिरात्रेण सर्वान् कामानवाप्नोति। तेषाँ अग्निष्टोमवत्कल्पः। - आप. श्रौ.सू. १४.१.१ ६.११।१ अग्निष्टोमो अत्यग्निष्टोम उक्थः षोळशी वाजपेयो अतिरात्रो अप्तोर्याम इति संस्थाः । (सोम य़ज्ञ पुच्छ ःारियोजन)
९.११।१ यस्य पशवो न उपधरेरन्न् अन्यान् वा अभिजनान् निनीत्सेत सो अप्तोर्यामेण यजेत । (अप्तोर्याम) ९.११।२ माध्यंदिने शिल्प योनि वर्जम् उक्तो विश्वजिता । (अप्तोर्याम) ९.११।३ एकाहेन । (अप्तोर्याम) ९.११।४ गर्भ कारम् चेत् स्तुवीरंस् तथा एव स्तोत्रिय अनुरूपान् । (अप्तोर्याम) ९.११।५ रथन्तरेण अग्रे ततो वैराजेन ततो रथन्तरेण । (अप्तोर्याम) ९.११।६ बृहद् वैराजाभ्याम् वा एवम् एव । (अप्तोर्याम) ९.११।८ श्यैत वैरूपे वा । (अप्तोर्याम) ९.११।९ कालेय रैवते अच्छावाकस्य । (अप्तोर्याम) ९.११।१० साम आनन्तर्येण द्वौ द्वौ प्रगाथाव् अगर्भ कारम् । (अप्तोर्याम) ९.११।११ अतिरात्रस् त्व् इह । (अप्तोर्याम) ९.११।१२ अद्वैपद उक्थ्यश् चेद् वैषुवतम् तृतीय सवनम् । (अप्तोर्याम) ९.११।१३ ऊर्ध्वम् आश्विनाद् अतिरिक्त उक्थ्यानि । (अप्तोर्याम) ९.११।१४ जराबोध तद् विविड्ढि जरमाणः समिध्यसे अग्निना इन्द्रेण आ भात्य् अग्निः क्षेत्रस्य पतिना वयम् इति परिधानीया युवम् देवा क्रतुना पूर्व्येण इति याज्या । (अप्तोर्याम) ९.११।१५ यद् अद्य कच् च वृत्रहन्न् उद् घेद् अभि श्रुता मघमानो विश्वाभिः प्रातर्यावाणा क्षेत्रस्य पते मधुमन्तम् ऊर्मिम् इति परिधानीया युवाम् देवास् त्रय एकादशास इति याज्या । (अप्तोर्याम) ९.११।१६ तम् इन्द्रम् वाजयामसि महान् इन्द्रो य ओजसा नूनम् अश्विना तम् वाम् रथम् मधुमतीरोषधीर् द्याव आप इति परिधानीया पनाय्यम् तद् अश्विना कृतम् वाम् इति याज्या । (अप्तोर्याम) ९.११।१८ अतो देवा अवन्तु न इति वा अनुरूपस्य उत्तमा । (अप्तोर्याम) ९.११।१९ ईळे द्यावा पृथिवी उभा उ नूनम् दैव्या होतारा प्रथमा पुरोहित इति परिधानीया अयम् वाम् भागो निहितो यजत्र इति याज्या । (अप्तोर्याम) ९.११।२० यदि न अधीयात् पुराणाम् ओकः सख्यम् शिवम् वाम् इति चतस्रो याज्याः । (अप्तोर्याम) ९.११।२१ तद् वो गाय सुते सचा स्तोत्रम् इन्द्राय गायत त्यम् उ वः सत्रासाहम् सत्रा ते अनु कृष्टय इति वा स्तोत्रिय अनुरूपाः । (अप्तोर्याम) ९.११।२२ अपरिमिताः परः सहस्रा दक्षिणाः । (अप्तोर्याम) ९.११।२३ श्वेतश् च अश्वतरीर् अथो होतुर् होतुः । (अप्तोर्याम) १० १०।१० ज्योतिर् गौर् आयुर् अभिजिद् विश्वजिन् महा व्रतम् सर्व स्तोमो अप्तोर्यामो वा । (अश्वमेध) *चतुर् आहावान्य् अप्तोर्यामस्य अतिरिक्त उक्थानि । पशवो वा उक्थानि । चतुष्टया वै पशवः । अथो चतुष्पादाः पशूनाम् एव आप्त्यै । - कौशीतकि ब्राह्मणम् 30.9.13 *<४.३.१८> (२७.१८) अप्तोर्याम्णि गर्भकारं शंसति ॥ - वैतान श्रौत सूत्र *प्रजापतिः पशून् असृजत । ते ऽस्मात् सृष्टाः पराञ्च आयन् । तान् अग्निष्टोमेन नाप्नोत् । तान् उक्थ्येन नाप्नोत् । तान् षोडशिना नाप्नोत् । तान् रात्रिया नाप्नोत् । तान्त् संधिना नाप्नोत् । सो ऽग्निम् अब्रवीत् । इमान् म ईप्सेति । तान् अग्निस् त्रिवृता स्तोमेन नाप्नोत् । स इन्द्रम् अब्रवीत् । इमान् म ईप्सेति । तान् इन्द्रः पञ्चदशेन स्तोमेन नाप्नोत् । स विश्वान् देवान् अब्रवीत् । इमान् म ईप्सतेति । तान् विश्वे देवाः सप्तदशेन स्तोमेन नाप्नुवन् । स विष्णुम् अब्रवीत् । इमान् म ईप्सेति । तान् विष्णुर् एकविम्̐शेन स्तोमेनाप्नोत् । वारवन्तीयेनावारयत । इदं विष्णुर् विचक्रम इति व्यक्रमत । यस्मात् पशवः प्र प्रेव भ्रम्̐शेरन् । स एतेन यजेत । यद् आप्नोत् । तद् अप्तोर्यामस्याप्तोर्यामत्वम् । एतेन वै देवा जैत्वानि जित्वा । यं कामम् अकामयन्त तम् आप्नुवन् । यं कामं कामयते । तम् एतेनाप्नोति । - तै.ब्रा. 2.7.14.1 *अप्तोर्याम : प्रजापति से दूर गए पशु अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, रात्रि, संधि से नहीं आए। त्रिवृत् स्तोम, पञ्चदश, सप्तदश से नहीं आए। विष्णु द्वारा एकविंश से आए। वारवन्तीयेन अवारयत्। - तै.ब्रा. २.७.१४.१ *प्रजापतिः पशूनसृजत तेऽस्मात् सृष्टा अपाक्रामंस्तानग्निष्टोमेन नाप्नोत् तानुक्थैर्नाप्नोत् तान् षोडशिना नाप्नोत् तान् रात्र्या नाप्नोत् तान् सन्धिना नाप्नोत् तानाश्विनेन नाप्नोत् तानग्निमब्रवीदिमान्म ईप्सेति तानग्निस्त्रिवृता स्तोमेन जराबोधीयेन साम्ना नाप्नोत् तानिन्द्रमब्रवीदिमान्म ईप्सेति तानिन्द्रः पञ्चदशेन स्तोमेन सत्त्रासाहीयेन साम्ना नाप्नोत् तान् विश्वान् देवानब्रवीदिमान्म इप्सतेति तान् विश्वे देवाः सप्तदशेन स्तोमेन मार्गींयवेण साम्ना नाप्नुवंस्तान् विष्णुमब्रवीदिमान्म ईप्सेति तान् विष्णुरेकविंशेन स्तोमेनाप्नोद् वारवन्तीयेनावारयतेदं विष्णुर्विचक्रम इति व्यक्रमत । यस्मात् प्र प्रेव पशवो भ्रंशेरन् स एतेन यजेत। एतेन वै देवा जैत्वानि जित्वा यं यं काममकामयन्त तं तमाप्नुवन् यं कामं कामयते तमेतेनाप्नोति। तदप्तोर्याम्नोऽप्तोर्यामत्वम् – तां.ब्रा. 20.3.2-5 *एते एव पूर्वे अहनी अप्तोर्यामोऽतिरात्रस्तेन हैतेन क्रैव्यऽईजे पाञ्चालो राजा क्रिवय इति ह वै पुरा पञ्चालानाचक्षते तदेतद् गाथयाभिगीतम् अश्वं मेध्यमालभत क्रिवीणामतिपूरुषः। पाञ्चालः परिवक्रायां सहस्रशतदक्षिणमिति – मा.श. 13.5.4.7
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः । उस्रा इव स्वसराणि ॥ - ऋ. १,००३.०८ आ वां श्येनासो अश्विना वहन्तु रथे युक्तास आशवः पतङ्गाः । ये अप्तुरो दिव्यासो न गृध्रा अभि प्रयो नासत्या वहन्ति ॥ १,११८.०४ आ वां रथं युवतिस्तिष्ठदत्र जुष्ट्वी नरा दुहिता सूर्यस्य । १,११८.०५ यज्ञेन गातुमप्तुरो विविद्रिरे धियो हिन्वाना उशिजो मनीषिणः । अभिस्वरा निषदा गा अवस्यव इन्द्रे हिन्वाना द्रविणान्याशत ॥ २,०२१.०५ इन्द्राग्नी तविषाणि वां सधस्थानि प्रयांसि च । युवोरप्तूर्यं हितम् ॥ ३,०१२.०८ अग्निं यन्तुरमप्तुरमृतस्य योगे वनुषः । विप्रा वाजैः समिन्धते ॥ ३,०२७.११ शतक्रतुमर्णवं शाकिनं नरं गिरो म इन्द्रमुप यन्ति विश्वतः । वाजसनिं पूर्भिदं तूर्णिमप्तुरं धामसाचमभिषाचं स्वर्विदम् ॥ ३,०५१.०२ अप्तूर्ये मरुत आपिरेषोऽमन्दन्निन्द्रमनु दातिवाराः । तेभिः साकं पिबतु वृत्रखादः सुतं सोमं दाशुषः स्वे सधस्थे ॥ ३,०५१.०९ वैसर्जन होमः - इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । अपघ्नन्तो अराव्णः ॥ ९,०६३.०५ वृषणं धीभिरप्तुरं सोममृतस्य धारया । मती विप्राः समस्वरन् ॥ ९,०६३.२१ आ सोता परि षिञ्चताश्वं न स्तोममप्तुरं रजस्तुरम् । वनक्रक्षमुदप्रुतम् ॥ ९,१०८.०७
अथ योऽयमेतर्ह्यग्निः स भीषा निलिल्ये सोऽपः प्रविवेश तं देवा अनुविद्य सहसैवाद्भ्य आनिन्युः सोऽपोऽभितिष्ठेवावष्ठ्यूता स्थ या अप्रपदनं स्थ याभ्यो वो मामकामं नयन्तीति तत आप्त्याः सम्बभूवुस्त्रितो द्वित एकतः - १.२.३.[१] ।त इन्द्रेण सह चेरुः । यथेदं ब्राह्मणो राजानमनुचरति स यत्र त्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रं विश्वरूपं जघान तस्य हैतेऽपि वध्यस्य विदाञ्चक्रुः शश्वद्धैनं त्रित एव जघानात्यह तदिन्द्रोऽमुच्यत देवो हि सः॥ त उ हैत ऊचुः । उपैवेम एनो गच्छन्तु येऽस्य वध्यस्यावेदिषुरिति किमिति यज्ञ एवैषु मृष्टामिति तदेष्वेतद्यज्ञो मृष्टे यदेभ्यः पात्रीनिर्णेजनमङ्गुलिप्रणेजनं निनयन्ति॥ त उ हाप्त्या ऊचुः । अत्येव वयमिदमस्मत्परो नयामेति कमभीति य एवादक्षिणेन हविषा यजाताऽइति तस्मान्नादक्षिणेन हविषा यजेताप्त्येषु ह यज्ञो मृष्ट आप्त्या उ ह तस्मिन्मृजते योऽदक्षिणेन हविषा यजते॥ ततो देवाः । एतां दर्शपूर्णमासयोः दक्षिणामकल्पन्यदन्वाहार्यं नेददक्षिणं हविरसदिति तन्नाना निनयति तथैभ्योऽसमदं करोति तदभितपति तथैषां शृतं भवति स निनयति त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वेति पशुर्ह वा एष आलभ्यते यत्पुरोडाशः॥ - मा.श्. 1.2.3.2-5
आज्यभागाभ्यामेव । सूर्याचन्द्रमसावाप्नोत्युपांशुयाजेनैवाहोरात्रे आप्नोति पुरोडाशेनैवार्धमासावाप्नोतीत्यु हैक आहुः । तदु होवाचासुरिः । आज्यभागाभ्यामेवातो यतमे वा यतमे वा द्वे आप्नोति उपांशुयाजेनैवातो ऽहोरात्रे आप्नोति पुरोडाशेनैवातोऽर्धमासावाप्नोति सर्वं म आप्तमसत्सर्वं जितं सर्वेण वृत्रं हनानि सर्वेण द्विषन्तं भ्रातृव्यं हनानीति तस्माद्वा एतावत्क्रियत इति – मा.श. 1.6.3.26
वैसर्जन होमः -- अथाप्तवे द्वितीयामाहुतिं जुहोति । जुषाणोऽ अप्तुराज्यस्य वेतु स्वाहेत्येष उ हैवैतदुवाच रक्षोभ्यो वै बिभेमि यथा माऽन्तरा नाष्ट्रा रक्षांसि न हिनसन्नेवं मा कनीयांसमेव वधात्कृत्वाऽतिनयत स्तोकमेव स्तोको ह्यप्तुरिति तमेतत् कनीयांसमेव वधात्कृत्वाऽत्यनयन्त्स्तोकमेव स्तोको ह्यप्तू रक्षोभ्यो भीषा तस्मादप्तवे द्वितीयामाहुतिं जुहोति – मा.श. 3.6.3.8 अप्तुः – सूक्ष्म रूपः सोमः। अन्तरा – प्रणयनकाले मध्यमार्गे शालामुखीय हविर्द्धानयोरन्तराले – सायण भाष्य
वपा पशुपुरोडाशः । तत्षष्टिः षष्टिर्मासस्याहोरात्राणि तन्मासमाप्नोति मास आप्त ऋतुमाप्नोत्यृतुः संवत्सरं तत्संवत्सरमग्निमाप्नोति ये च संवत्सरे कामा अथ यदतो ऽन्यद्यदेव संवत्सरेऽन्नं तत्तत् – मा.श. 6.2.2.35 इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो योऽकामो निष्काम आत्मकाम आप्तकामो भवति न तस्मात्प्राणा उत्क्रामन्त्य – मा.श. 14.7.2.8 अथो द्वयं वा इदं सर्वं स्नेहश् चैव तेजश् च अथ तद् अहोरात्राभ्याम् आप्तम् स्नेहतेजसोर् आप्त्यै – गो.ब्रा. 2.5.3 ता यद् आप्त्वायच्छद् अतो वा अप्तोर्यामा अथो प्रजा वा अप्तुर् इत्य् आहुः प्रजानां यमन इति हैवैतद् उक्तं ता बर्हिः प्रजा अश्नायेरन् तर्हि हैतैन यजते - गोपथ ब्रा. 2.5.9 उपो षु जातम् अप्तुरम् इति प्रजाकामः प्रतिपदं कुर्वीत। उपेव वा आत्मन् प्रजया पशुभिः प्रजायते। एताम् एवापरेद्युः प्रतिपदं कुर्वीत। अप्तुरम् इति ह्य् अस्या आप्त्वा श्रेयांसं वसीयान् आत्मना भवति। - जै.ब्रा. 1.90 तान् आश्विनेन क्रतुना पर्यगृह्णात्। तेषां परिगृहीतानां यथा क्षुद्रा मत्स्या अक्ष्योर् अक्ष्य् अतिशीयेरन्न् एवम् एव ये क्षुद्राः पशव आसुस् ते अतिशेरुः। तान् अकामयताप्त्वैनान् आत्मन् यच्छेयम् इति। स एतान्य् उपरिष्टाद् रात्रेश् चत्वारि स्तोत्राण्य् अपश्यत्। तैर् अस्तुत। तैर् एवैनान् आप्त्वात्मन्य् अयच्छत्। यद् आप्त्वात्मन्य् अयच्छत् तस्माद् अप्तोर्यामः। यद् व् एवाप्तश इव सोमस्य प्रभावयन् नन्वैतस्माद् अप्तोर्यामः॥जै.ब्रा 2.110॥
अथैतद्दशममहराप्तस्तोममाप्तच्छन्द आप्तविभक्तिकमनिरुक्तं प्राजापत्यम् – तां.ब्रा. 4.8.7 आप्त्य १. अथैनम् (इन्द्रम् ) अस्यां ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि साध्याश्चाऽऽप्त्याश्च देवाः- - अभ्यषिञ्चन - - - राज्याय । ऐ ८,१४ । ४. साध्याश्च त्वाप्त्याश्च देवाः पाङ्क्तेन च्छन्दसा त्रिणवेन स्तोमेन शाक्वरेण साम्नाऽऽरोहन्तु तानन्वारोहामि राज्याय । ऐ ८,१२ । । ५. साध्याश्चाप्त्याश्च पारमेष्ठ्याय (आदित्यमभ्यषिञ्चन्त )। जै २,२५।। ६. साध्याश्चाप्त्याश्च पारमेष्ठ्याय ( वरुणमभ्यषिञ्चन्त ) । जै ३,१५२ ।। ७. साध्याश्चाप्त्याश्चातिच्छन्दसे समभरन् । तां ते प्राविशन् (मृत्योरात्मनो गुप्त्यर्थम् )। तान् सा (अतिच्छन्दाः) अछादयत् । जै १,२८३ । । ८. तं विजिग्यानं सर्वे देवा अभितस् समन्तं पर्यविशन् - वसवः पुरस्ताद्, रुद्रा दक्षिणत, आदित्याः पश्चान्, मरुत उत्तरतो, विश्वे देवा उपरिष्टात्, साध्याश् चाप्त्याश् चाधस्ताद्, अभितो ऽङ्गिरसः।। जै २, १४२ ।। ज्योति अप्तोर्याम सोमयागः, गार्गेयपुरम्, कर्नूल, 20जनवरी 2015 8.00 प्रातः से 6.00 सायं -- नादस्वरम्, वेद पारायणम्, अनुज्ञा प्रार्थना, श्री गणपति पूजा, स्वस्ति पुण्याह वाचनम्, सोम संकल्पम्, उदक शान्तिः, सोम प्रवाक वरणम्, सोम निवेदनम्, ऋत्विक् वरणम्, मधुपर्कम्, अग्नि स्थापनम्, उखा संभरणम्, वायव्य पशु यागम्, प्रवर्ग्य संभरणम्, नान्दी श्राद्धम्, सोम परिवेषणम्, सोम पूजनम्, कूष्माण्ड होमम्, दीक्षणीय यागम्, यजमान क्षुरकर्म, अप्सु दीक्षा, तीर्थ स्नानम्, दीक्षा होमम्, दीक्षा ग्रहणम्, उखा पात्रे अग्नि प्रज्वलनम्, विष्णु क्रमणम्, आसन्द्याम् उख्याग्नि स्थापनम्, मुष्टीकरणम्, व्रत ग्रहणम्। 21 जनवरी 8.00 प्रातः से 6.00 सायं – आरुणकेतुक अग्नि स्थापनम् होमं च। नादस्वरम्, वेदपारायणम्, व्रतदोहम्, सोमपूजनम्, विष्णुक्रमणम्, वात्सप्री उपस्थानम्, व्रत पानम्, वेद स्वस्ति। 22 जनवरी 8.00 प्रातः से 6.00 सायं – ऋतुप्रैषाः, मैत्रावारुणी आमिक्षा, नादस्वरम्, वेदपारायणम्, उदयप्रैषम्, व्रतदोहम्, सोम पूजनम्, विष्णुक्रमणम्, उख्याग्नि समिन्धनम्, व्रतपानम्, वेद स्वस्ति। 23 जनवरी 8.00 प्रातः से 6.00 सायं -- नादस्वरम्, वेदपारायणम्, उदयप्रैषम्, व्रतदोहम्, सोमपूजनम्, विष्णुक्रमणम्, वात्सप्री उपस्थानम्, देव यज्ञ गमनम्, अग्नि स्थापनम्, गार्हपत्यचितिकरणम्, गार्हपत्यचितौ उख्याग्निस्थापनम्, नैर्ऋतीष्टकोपधानम्, प्रायणीयेष्टि, अप्तोर्याम महावेदि मानम्, सोमक्रयणम्, आतिथ्येष्टि,श्येनचिति अग्निमानम्, हलकर्षणम्, चतुर्दश ओषधि निवपनम्, ओषधी प्रोक्षणम्, सिकता निवपनम्, व्रत प्रदानम्, अवान्तरदीक्षा, उदय प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्य आह्वानम्, प्रथमचितीष्टका प्रणयनम्, श्वेताश्व पूजनम्, प्रथम चिति प्रस्तारम्, कृष्णाश्व पूजनम्, सायं प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, व्रत प्रदानम्। 24 जनवरी 8.00प्रातः से 6.00 सायं -- नाद स्वरम्, वेद पारायणम्, उदय प्रैषम्, उदय प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, श्वेताश्व पूजनम्, द्वितीय चिति प्रस्तारम्, कृष्णाश्व पूजनम्, व्रत प्रदानम्, सायं प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सु्ब्रह्मण्या आह्वानम्, व्रत प्रदानम्। 25 जनवरी 8.00 प्रातः से 6.00 सायं -- नादस्वरम्, वेदपारायणम्, उदय प्रैषम्, उदय प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, श्वेताश्व पूजनम्, तृतीय चिति प्रस्तारम्, कृष्णाश्व पूजनम्, व्रत प्रदानम्, सायं प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, व्रत प्रदानम्। 26 जनवरी(रथ सप्तमी) 8.00प्रातः से 6.00 सायं -- नादस्वरम्, वेदपारायणम्, उदय प्रैषम्, उदय प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, श्वेताश्व पूजनम्, चतुर्थचिति प्रस्तारम्, कृष्णाश्व पूजनम्, व्रत प्रदानम्, सायं प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, व्रत प्रदानम्। 27 जनवरी 8.00 प्रातः से 6.00 सायं -- नादस्वरम्, वेदपारायणम्, उदय प्रैषम्, उदय प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, श्वेताश्व पूजनम्, पंचम चिति पृष्ठ प्रारम्भम्, व्रत प्रदानम्, सायं प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, व्रत प्रदानम्। 28 जनवरी 7.00 प्रातः से 3.30 प्रातः -- नादस्वरम्, वेदपारायणम्, उदयप्रैषम्, उदय प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, पंचमी चिति शेष याज्ञश्येनी चिति प्रस्तारम्, कृष्णाश्व पूजनम्, चित्याभिमर्शनम्, मध्याह्न प्रवर्ग्यम्, उपसदम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, संचित कर्म, अजाक्षीरेण शतरुद्र धारा, चिति परिषेचनम्, मण्डूक मार्जनम्, सामोपस्थानम्, प्रवर्ग्योद्वासनम्, वैश्वकर्मण होमम्, अग्नि प्रणयनम्, वैश्वानरेष्टि, मारुत होमम्, वसोर्धारा, ब्रह्मौदनम्, वाजप्रसवीय होमम्, यजमानाभिषेकम्, राष्ट्रभृत होमम्, अध्वर्यु दक्षिणा प्रदानम्, सदो – हविर्धान – धिष्ण्य निर्माणम्, यजमान व्रत प्रदानम्, अग्नीषोमीय यागम्, अग्नि मन्थनम्, सुब्रह्मण्या आह्वानम्, वसतीवरी ग्रहणम्, देवसुवा यागम्, यजमान व्रत प्रदानम्, सवनीयार्थम् इध्माबर्हि आहरणम्। 29 जनवरी 6.00प्रातः से 3.30 प्रातः – प्रवर्ग्यम्, ग्रह पात्रासादनम्, प्रातरनुवाकम्, सोमाभिषवम्, अंशु अदाभ्य ग्रह होमम्, प्रातःसवनम्, सोमाभिषवम्, ग्रह ग्रहणम्, बहिष्पवमान स्तुतिः, सवनीय यागम्, प्रथम आज्य शस्त्रम्, प्रथम आज्य स्तोत्रम्, प्रउग शस्त्रम्, द्वितीय आज्य स्तोत्रम्, मैत्रावरुण शस्त्रम्, तृतीय आज्यस्तोत्रम्, ब्राह्मणाच्छंसी शस्त्रम्, चतुर्थ आज्य स्तोत्रम्, अच्छावाक् शस्त्रम्, प्रातःसवनस्य समाप्तिः। माध्यन्दिन सवनारम्भम् – महाभिषवम्, ऋग्वेद पवमान पारायणम्, ग्रह ग्रहणम्, माध्यन्दिन पवमान स्तोत्रम्, दधिग्रह यागम्, माध्यन्दिन पुरोडाश यागम्, माध्यन्दिन सवनीय यागम्, ऋत्विक् दक्षिणा, मरुत्वतीय शस्त्रम्, माहेन्द्र स्तोत्रम्, निष्कैवल्य शस्त्रम्, प्रथम उक्थ्य स्तोत्रम्, प्रथम उक्थ्य शस्त्रम्, द्वितीय उक्थ्य स्तोत्रम्, द्वितीय उक्थ्य शस्त्रम्, तृतीय उक्थ्य स्तोत्रम्, तृतीय उक्थ्य शस्त्रम्, माध्यन्दिन सवन समाप्ति। तृतीय सवनारम्भम् – आदित्य ग्रह यागम्, महाभिषवम्, आर्भव पवमान स्तोत्रम्, तृतीय सवनीय यागम्, वैश्वदेव शस्त्रम्, सौम्य चरु यागम्, यज्ञायज्ञीय स्तोत्रम्, आग्निमारुत शस्त्रम्, उक्थ्य पर्याय स्तोत्रम्, उक्थ्य पर्याय शस्त्रम्, उक्थ्य पर्याय यागम्, सूर्यास्तमय काले षोडशी स्तोत्रम्, षोडशी शस्त्रम्, षोडशी ग्रह यागम्, प्रथम रात्रि पर्याय स्तोत्रम्, प्रथम रात्रि पर्याय शस्त्रम्, प्रथम रात्रि पर्याय यागम्, द्वितीय रात्रि पर्याय स्तोत्रम्, द्वितीय रात्रि पर्याय शस्त्रम्, द्वितीय रात्रि पर्याय यागम्, तृतीय रात्रि पर्याय स्तोत्रम्, तृतीय रात्रि पर्याय शस्त्रम्, तृतीय रात्रि पर्याय यागम्, आश्विन् पुरोडाश निर्वपणम्, 30 जनवरी 4 प्रातः – आश्विन स्तोत्रम्, आश्विन शस्त्रम्, आश्विन यागम्, अप्तोर्याम प्रथम स्तोत्रम् – शस्त्रम्, आग्नीय यागम्, अप्तोर्याम द्वितीय स्तोत्रम् – शस्त्रम्, ऐन्द्र यागम्, अप्तोर्याम तृतीय स्तोत्रम् – शस्त्रम्, वैश्वदेव यागम्, अप्तोर्याम चतुर्थ स्तोत्रम् – शस्त्रम्, महाविष्णुयागम्। 9.00 प्रातः – अवभृथार्थम् तीर्थगमनम्, अवभृथ यागम्, अवभृथम्, उदयनीयेष्टि, मैत्रावरुणीय आमिक्षा यागम्। 12.00 सायं – सौत्रामणी यागम्, अवभृथम्, 6.00 सायं – आरुणकेतुक दीक्षा ग्रहणम् 31 जनवरी 8.00 प्रातः -- आरुणकेतुक दीक्षा उत्सर्जनम्, आरुणकेतुक चयनारम्भम्, चयनांग आग्नावैष्णवीष्टि। 1 फरवरी 8 प्रातः – आरुणकेतुक चयनम्( 5 चितियों पर 6 प्रकार के जलों द्वारा 1000 पात्रों द्वारा सिंचन), अग्नि प्रणयनम्, आरुणकेतुक यागम्, मैत्रावरुण आमिक्षा यागम्, वैश्रवण यागम्, महाग्निचयनपूर्वक अप्तोर्याम सम्पूर्णम्। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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