पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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अपान यथा वाचस्पत्यम् मध्ये लिखितमस्ति, अपानशब्दस्य निरुक्तिः सार्वत्रिकरूपेण अपानयति अपसारयति मूत्रादि इति कृतमस्ति। किन्तु अथर्ववेदे १५.१६.७ अपानस्य येषां सप्तावस्थानां उल्लेखमस्ति, तत् संकेतं ददाति यत् यदि अपानस्य व्ययं मूत्रादेः अपसरणे न भवेत्, तर्हि अस्य विकासः अन्येषु क्षेत्रेषु भवितुं शक्यते। शतपथब्राह्मण १४.६.९.[२७] अनुसारेण अपानः प्राणस्य प्रतिष्ठा अस्ति एवं व्यानः अपानस्य। देवानां व्यापारः प्राणोपरि आधृतः अस्ति, किन्तु प्राणस्य आधारं नास्ति। तस्याधारः अपानः अस्ति। ऋग्वेदे २.३५ एवं १०.३० सूक्तयोः देवता अपांनपात् अस्ति। किं अपानशब्दस्य विस्तारं अपांनपातं यावत् कर्तुं शक्यन्ते ? लौकिकरूपे नपात् शब्दस्य तात्पर्यं पौत्र अथवा नप्ता अर्थे अस्ति। किन्तु शुक्लयजुर्वेद १९.५६ स्य उव्वट-महीधर भाष्ये नपातशब्दस्य अर्थं न – पत्यते इति देवयानमार्गं कृतमस्ति। सामान्यतः, वैदिकवाङ्मये आपः शब्दस्य तात्पर्यं पुण्यार्जनेन कृतमस्ति। किन्तु अयं सर्वविदितमस्ति यत् यदा पुण्यानां क्षयं भवति, तदा स्वर्गात् पतनं भवति। अतएव, अपसः, पुण्यानां पतनहीना स्थितिः केन प्रकारेण लब्धुं शक्यते। कर्मकाण्डे सोमयागस्य आरम्भे अपोनप्त्रीया इष्टिः भवति यत्र पूर्वस्मिन् दिवसे गृहीतस्य एवं सद्यःगृहीतस्य अपस्योः प्रयोगं भवति।
टिप्पणी : अथर्ववेद ७.५५.५ तथा ११.६.१४ के अनुसार प्राण और अपान दो अनड्वाह (बैलगाडी के बैल) हैं जिनमें प्राण यव है और अपान व्रीहि(चावल) है। अथर्ववेद ७.५५.५ में कामना की गई है कि दोनों अनड्वाह व्रज में जाकर बैठ जाएं। कर्मकाण्ड में इसका स्वरूप यह है कि अध्वर्यु नामक ऋत्विज सोमलता को गाडी में ढोकर यज्ञवेदी स्थल तक लाता है और फिर बैलों को एक-एक करके जल्दी से गाडी से अलग करता है(प्रतीकात्मक रूप में यह गाडी मन की अथवा ओंकार की गाडी हो सकती है)। पुराणों में शिव के गण नन्दी को अनड्वाह कहा जाता है। नन्दी अर्थात् आनन्द प्रदान करने वाला। नन्दी का स्वरूप इस प्रकार का है कि वह एक भी हो सकता है और दो भी। इस प्रकार प्राण और अपान दोनों अनड्वाह आनन्द प्रदान करने वाले हैं। अथर्ववेद ११.६.१४ में प्राण और अपान के यव और व्रीहि नामकरण के संदर्भ में डा. फतहसिंह का विचार है कि चेतना के विज्ञानमय कोश से जुडने पर स्थिति यव जैसी होती है जो एक होकर भी दो होता है, जबकि व्रीहि अवस्था सर्वोच्च आनन्दमय कोश या हिरण्यय कोश से जुडने की स्थिति है(तुलनीय : महाभारत शान्ति पर्व में अपान के अक्ष व प्राण के युग होने का उल्लेख)। सामान्य व्यवहार में ऐसा माना जाता है कि अन्दर को जाता हुआ श्वास प्राण है और बाहर को निकलता हुआ श्वास अपान का रूप है। लेकिन योगवासिष्ठ और उपनिषदों में यह स्पष्ट किया गया है कि प्राण की गति बहिर्मुखी है, जबकि अपान की अन्तर्मुखी। प्राण बृहत् है, अपान रथन्तर(ताण्ड्य ब्राह्मण ७.६.१२ व ७.६.१७)। शतपथ ब्राह्मण १.४.३.३ में इसी तथ्य को प्राणों को प्रवान और अपान को ऐतवान रूप देकर प्रदर्शित किया गया है। अतः यह उपयुक्त प्रतीत होता है कि अन्दर जाते हुए श्वास को अपान और बहिर्मुखी श्वास को प्राण कहा जाए। पुराणों और उपनिषदों में सार्वत्रिक रूप से अपान की स्थिति गुदा प्रदेश में कही गई है(अमृतनादोपनिषद ३६) जहां रहकर वह मल-मूत्र आदि का निस्सारण करता रहता है। गुदा का अर्थ स्थान विशेष न लेकर मूलाधार चक्र मानना चाहिए जिसकी व्याप्ति सारे श्रोणि और पाद प्रदेश में होती है। योगकुण्डलिनी उपनिषद १.४२ का कहना है कि अपान प्राण की प्रवृत्ति अधोमुखी होती है, अर्थात् उसकी सारी शक्ति शरीर से मल के निष्कासन में लग जाती है। यदि साधक अपने भोजन को सूक्ष्म बना ले तो यह अपान प्राण ऊपर उठने लगता है। वह्नि मण्डल(नाभि चक्र?) में इसके प्रवेश करने पर वहां एक दीर्घ अग्निशिखा प्रकट होती है। यह प्राण का उष्ण स्वरूप हो सकता है। इस वह्नि शिखा के शरीर में फैलने पर सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जाग उठती है। अन्नपूर्णोपनिषद ५.२६ तथा मुक्तिकोपनिषद २.५१ में अपान और प्राण द्वारा कुम्भक अवस्था प्राप्त करने का वर्णन है जो योगवासिष्ठ के वर्णन के अनुरूप है। अन्नपूर्णोपनिषद में अपान को चन्द्रमा तथा प्राण को सूर्य का रूप दिया गया है। अपान और प्राण के मिलन की कईं अवस्थाएं हो सकती हैं। जिस कुम्भक अवस्था में अपान का अस्त हो जाए और प्राण का उदय न हो उसे कलाकलंक से रहित चित्त/चन्द्रमा(अमावास्या?) कहा गया है। प्राण के अस्त होने तथा अपान के उदय न होने के क्षण की स्थिति को पूर्णावस्था(पूर्णिमा?) कहा गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.५.१३ तथा जैमिनीय ब्राह्मण २.३९४ में प्राण को पूर्णिमा तथा अपान को अमावास्या से सम्बद्ध किया गया है। अमावास्या का अर्थ होता है अपरिमित चेतनावस्था को प्राप्त करना, जबकि पूर्णिमा का अर्थ है परिमित चेतना की पूर्णावस्था को प्राप्त करना। प्रश्नोपनिषद ४.३ में अपान के स्वरूप की व्याख्या उसे गार्हपत्य कह कर की गई है। शतपथ ब्राह्मण ११.८.३.६ में प्राण का सम्बन्ध प्राची/पूर्व दिशा से तथा अपान का प्रतीची/पश्चिम दिशा से कहा गया है। प्रतीची दिशा वरुण की, सत्य और अनृत के बीच विवेक की, शत्रुओं के नाश की दिशा है। यज्ञ कर्म में पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि और पूर्व दिशा में आहवनीय अग्नि की स्थापना की जाती है। गार्हपत्य अग्नि के समीप यजमान-पत्नी तथा प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज बैठते हैं, जबकि आहवनीय अग्नि के समीप स्वयं यजमान तथा अध्वर्यु नामक ऋत्विज बैठते हैं। ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१८.४, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.४ तथा प्राणाग्निहोत्र उपनिषद ४ में अपान को प्रतिप्रस्थाता कहा गया है। इसी तथ्य को तैत्तिरीय संहिता ५.३.४.२, शतपथ ब्राह्मण ८.४.२.६ तथा १२.९.२.१२ में प्राण को मित्र और अपान को वरुण से सम्बद्ध करके स्पष्ट किया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.३.१ में प्राण को मित्र से सम्बन्धित प्रातःसवन और अपान को वरुण से सम्बन्धित सायंसवन कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण १.२७९ में प्राणों को देवयश और अपानों को मनुष्ययश से सम्बद्ध किया गया है। अतः अपान के स्वरूप को समझने के लिए गार्हपत्य अग्नि के स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है। गार्हपत्य का अर्थ है अपने गृह का पति या स्वामी बनना, गृह में शत्रुओं के प्रवेश को रोकना। इसके पश्चात् उस गृह को देवों के निवास के योग्य बनाना। मनुष्य स्तर पर जितनी उपलब्धियों की कल्पना की जा सकती है, उस सबकी पूर्ति अपान वायु की सिद्धि से होनी चाहिए। यज्ञ कार्य में गार्हपत्य अग्नि पर उस हवि को पकाया जाता है जिसे बाद में आहवनीय अग्नि पर देवों को अर्पित किया जाना है। इसके अतिरिक्त, गार्हपत्य के समीप स्थित प्रतिप्रस्थाता ऋत्विज यजमान-पत्नी(जो यज्ञ में वेदी/शरीर का रूप होती है) को दसों दिशाओं में व्याप्त होने वाली चेतना को धारण करने वाली बनाता है, उसे उत्तरवेदी में स्थापित करता है। अपान का कार्य केवल गार्हपत्य अग्नि तक ही सीमित नहीं है। अग्निचयन कर्म के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १०.१.४.२ में आहवनीय अग्नि की ६ चितियों में से प्रथम चिति का सम्बन्ध प्राण से, द्वितीय चिति का अपान से, तृतीय का व्यान आदि से जोडा गया है। प्राण की चिति के साथ अस्थियों के भीतर स्थित मज्जा को सम्बद्ध किया गया है, अपान की चिति के साथ अस्थियों को, व्यान की चिति के साथ मांस को आदि-आदि। द्वितीय चिति का विस्तार शतपथ ब्राह्मण ८.२.१.१ में दिया गया है। इस चिति के लिए अश्विनौ देवगण अध्वर्यु ऋत्विज का कार्य करते हैं। इस संदर्भ में अस्थि शब्द का अर्थ स्थूल अर्थों में अस्थि न लेकर यदि अस्तित्व, चेतना की अस्तित्व मात्र स्थिति, विस्तीर्ण चेतना से लिया जाए तो अपान और अस्थि के सम्बन्ध की व्याख्या संभव हो जाती है(जैमिनीय ब्राह्मण १.६१ तथा देवीभागवत पुराण में प्राण को गार्हपत्य तथा अपान को आहवनीय कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है)। ऐसा प्रतीत होता है कि चेतना की विस्तीर्ण अवस्था/कुण्डलिनी शक्ति को वैदिक साहित्य में सार्पराज्ञी नाम दिया गया है(ऋग्वेद १०.१८९.२, अथर्ववेद ६.३१.२ व २०.४८.५ इत्यादि)। अथर्ववेद १५.१६.१ में अपान के ७ स्तरों का उल्लेख है – पौर्णमासी, अष्टका, अमावास्या, श्रद्धा, दीक्षा, यज्ञ और दक्षिणा(इनमें पौर्णमासी और अमावास्या का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। यज्ञ में श्रद्धा यजमान-पत्नी का रूप होती है जिसे प्रतिप्रस्थाता ऋत्विज दीक्षित करता है)। गोपथ ब्राह्मण १.१.३९ तथा १.२.१६ में भी यही उल्लेख है। जहां ७ प्राणों की प्रवृत्ति दूर जाने की होती है(प्रवत), ७ अपानों की प्रवृत्ति निकट आने(परावत) की होती है। कहा गया है (ऐतरेय ब्राह्मण २.४०) कि प्राणों को दूर जाने से अपान ही रोकता है। अपान प्राण के लिए अन्न बन जाता है, अपान का भक्षण करने के लालच में प्राण टिका रहता है। शतपथ ब्राह्मण १०.१.४.१२ के अनुसार मनुष्य अपान द्वारा अन्न का भक्षण करते हैं, जबकि देवता गण प्राण अग्नि द्वारा। अथर्ववेद ११.३.२९ के अनुसार कठिनाई यह है कि यदि पूर्व में ओदन का भक्षण किया जाता है तो प्राण मेरा त्याग करते हैं, यदि पश्चिम् में ओदन का प्राशन किया जाता है तो अपान मेरा त्याग करते हैं। इसलिए अच्छा यही है कि ओदन ही ओदन का प्राशन करे। ओदन उदान प्राण का रूप होता है। सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है। नारद पुराण में अपान को व्यान-पुत्र व प्राण का पिता कहने के संदर्भ में, नारद पुराण में वंश का आरम्भ समान से होता है और प्राण पर समाप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण १४.६.९.२७ के अनुसार आत्मा की प्रतिष्ठा प्राण में होती है, प्राण की अपान में, अपान की व्यान में, व्यान की उदान में, उदान की समान में। इस तथ्य के व्यावहारिक रूप की व्याख्या अपेक्षित है। गोपथ ब्राह्मण १.५.५ में इस शृङ्खला का आरम्भ १५ मुहूर्तों से होता है और १५ कृत्वों(?) वाले उदानो पर समाप्त होता है। अमृतनादोपनिषद ३६ में प्राण आदि के रंगों/वर्णों के वर्णन के संदर्भ में प्राण के रक्त वर्ण के मध्य में अपान के इन्द्रगोपसमवर्ण मण्डल, उसके अन्दर समान का मण्डल, उसके अन्दर उदान का, उसके अन्दर अपान के अर्चि-सम मण्डल का उल्लेख है। इस मण्डल का भेदन करके मूर्द्धा पर जाने से मृत्यु पर विजय होती है। तैत्तिरीय आरण्यक ७.७.१ में प्राण, व्यान, अपान आदि के अधिभूत, अध्यात्म और अधिदेव रूपों का वर्णन किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में एक ओर तो प्राण और अपान के सम्बन्ध का वर्णन आता है तो दूसरी ओर प्राण, अपान और व्यान के सम्बन्ध का वर्णन आता है। ऐतरेय ब्राह्मण २.४ के अनुसार प्राणापानौ तो दैवी होता-द्वय हैं, प्राण-अपान और व्यान तीन देवियां हैं(तिस्रो देव्यः)। जैमिनीय ब्राह्मण २.४२ में प्रश्न उठाया गया है कि यह मर्त्य पुरुष किससे जीता है – प्राण से या अपान से। इसका उत्तर दिया गया है कि न यह प्राण से जीता है, न अपान से, यह व्यान से जीता है। व्यान ही अध्यक्ष है।ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से उपांशु-अन्तर्याम ग्रह का वर्णन किया गया है(जैमिनीय ब्राह्मण २.३७, शांखायन ब्राह्मण १२.४, ऐतरेय ब्राह्मण २.२१, तैत्तिरीय संहिता ६.४.६.४)। इनमें प्राणों को उपांशु कहा गया है तथा अपान को अन्तर्याम। व्यान उपांशु सवन अर्थात् सोम को शुद्ध करने के पत्थर हैं। उपांशु सवन की क्रिया प्रातःसवन में की जाती है। जैमिनीय ब्राह्मण २.३७ के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि समाधि से व्युत्थान की अवस्था, सूर्य के उदित होने की अवस्था उपांशु है जिसे शुद्ध करना होता है, जबकि समाधि की अवस्था अपान अथवा अन्तर्याम। शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१ में अपान के स्थान पर उदान का उल्लेख है। तैत्तिरीय संहिता ७.३.१२.१ में प्राण, अपान और व्यान को अन्न, कृषि और वृष्टि से सम्बद्ध किया गया है जिसमें क्रम विचारणीय है। साथ ही इन्हें पिता, पुत्र व पौत्र भी कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण २.२९ तथा गोपथ ब्राह्मण २.३.७ के अनुसार प्राण, अपान और व्यान को यजमान में ऋतुओं द्वारा स्थापित करना होता है। चार ऋतुओं(ऋतुभिः) द्वारा अपान की स्थापना की जाती है। इसके ऊपर २ ऋतु(ऋतुना, एक वचन) द्वारा व्यान की स्थापना की जाती है। दूसरी ओर ६ ऋतु(ऋतुना) द्वारा प्राण की स्थापना की जाती है। व्याख्या अपेक्षित है। प्राण, अपान, व्यान आदि के सम्बन्ध में एक तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि यह सब शब्द अन के रूप हैं(शतपथ ब्राह्मण १०.४.३.१०)। डा. फतहसिंह का विचार है कि यह अन कोई अव्यक्त अवस्था है जिसका प्राकट्य प्राण, अपान आदि के रूप में होता है। शतपथ ब्राह्मण १०.४.३.१० के अनुसार जो शब्द है, वही वाक् है जो यज्ञ के अन्त में प्रकट होती है। यह न प्राण है, न अपान, न व्यान, न उदान, न समान, यह तो अन है। हो सकता है कि यह अपान की सातवीं अवस्था दक्षिणा से सम्बन्धित हो। जैमिनीय ब्राह्मण १.२७५ के अनुसार वाक् अनुष्टुप् छन्द वाली होती है जिसके द्वारा अपान को धारण किया जाता है तथा उसका नियन्त्रण किया जाता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०.८.३ तथा ३.११.५.३ के अनुसार जो यज्ञ के अन्त/केतु के रूप में मन्द्र अभिभूति होती है, वही वाक् है। उसमें प्राण की स्थिति ऐसी है जैसे जागता हुआ लेकिन अन्धा। अपान की स्थिति ऐसी है जैसे क्रन्दन करता हुआ लेकिन बधिर। हो सकता है अपान की यह स्थिति उदान प्राण कीअनुपस्थिति को दर्शाती हो क्योंकि श्रोत्र का सम्बन्ध उदान प्राण से होता है। चक्षु बिना हाथ वाला है। मन बिना पैर वाला है जो संकेत है कि यह मन की चंचलता से हीन स्थिति का वर्णन है। अन्यत्र शतपथ ब्राह्मण ८.१.३.६ में इष्टिका स्थापना के संदर्भ में अपानभृत इष्टिका को चक्षुभृत भी कहा गया है। शांखायन ब्राह्मण १७.७ में प्राण को उद्गाता ऋत्विज, अपान को प्रस्तोता, व्यान को प्रतिहर्ता आदि कहा गया है। ताण्डय ब्राह्मण १.१०.६ तथा जैमिनीय ब्राह्मण १.११५ में स्तुति का सम्बन्ध अपान से जोडा गया है। शतपथ ब्राह्मण ११.२.७.२७ में दर्श-पूर्णमास यज्ञ के संदर्भ में कहा गया है कि यज्ञ के अन्त में जो अनुयाज कर्म होते हैं, वह अपान का रूप होते हैं। अनुयाजों को छन्द कहा गया है। यज्ञ के प्रारम्भ में प्रयाज कर्म होता है जो प्राणों का रूप है। ऐतरेय आरण्यक में प्राण, अपान आदि से दैवी वीणा की रचना की गई है जिसमें प्राण स्पर्श वर्णों/व्यञ्जनों(क आदि) का रूप, अपान ऊष्माण व्यञ्जनों(श,ष,स आदि) तथा व्यान स्वरों(अ, आ आदि) का रूप हैं। स्पर्श व्यञ्जन पृथिवी, अग्नि व ऋग्वेद का प्रतिनिधित्व करते हैं, ऊष्माण व्यञ्जन अन्तरिक्ष, वायु व यजुर्वेद का, स्वर दिवःलोक, आदित्य तथा सामवेद का। कूर्म पुराण आदि में प्राण से दक्ष व अपान से क्रतु ऋषि आदि की उत्पत्ति के कथन के संदर्भ में यही कथन तैत्तिरीय संहिता २.५.२.४ में भी उपलब्ध है। भागवत पुराण में नाभि से अपान के प्राकट्य के उल्लेख के संदर्भ में ऐतरेय आरण्यक २.४.२ में भी इसी प्रकार का वर्णन आया है। नाभि अग्नि चक्र का स्थान है। हो सकता है कि अपान का मूलाधार से कर्षण करने पर यह नाभि में अधिष्ठित हो जाता हो। अमृतनादोपनिषद ३६ में प्राण का स्थान हृदय में, अपान का गुदा में, समान का नाभि में, उदान का कण्ठ में तथा व्यान का सर्वत्र कहा गया है। प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई. संदर्भ
*प्र
विषतं प्राणापानावनड्वाहाविव व्रजम् ।
*प्राणापानौ व्रीहियवावनड्वान् प्राण उच्यते ।
अपानति प्राणति पुरुषो गर्भे अन्तरा ।
*योऽस्य
प्रथमोऽपानः सा पौर्णमासी ॥१॥ *ताम् (इळां) उपाह्व इति होवाच या प्राणेन देवान् दधार व्यानेन मनुष्यान् अपानेन पितॄन् । तैसं १,७,२,१ । *अपानो जगती (नियुत् । तैसं.)। तैसं. २,१,१,२; मै ३,४,४; काठ २१,१२ । *प्राणो वै दक्षोऽपानः क्रतुः । तैसं २,५,२,४ । *अग्नीषोमौ निर् अक्रामताम् प्राणापानौ वा एनं तद् अजहिताम् प्राणो वै दक्षो ऽपानः क्रतुस् तस्माज् जञ्जभ्यमानो ब्रूयात् । मयि दक्षक्रतू इति प्राणापानाव् एवात्मन् धत्ते सर्वम् आयुर् एति स देवता वृत्रान् निर्हूय वार्त्रघ्नꣳ हविः पूर्णमासे निर् अवपत् । घ्नन्ति वा एनम् पूर्णमास आ । अमावास्यायाम् प्याययन्ति तस्माद् वार्त्रघ्नी पूर्णमासे ऽनूच्येते वृधन्वती अमावास्यायाम् । - तैसं २.५.२.४ *पुरस्ताद् वै नाभ्यै प्राण उपरिष्टाद् अपानः । । तैसं ३,४,१, ४ । *स्तोमभागा इष्टकाः-- अधिपतिर् असि प्राणाय त्वा प्राणं जिन्व यन्ताऽस्यपानाय त्वाऽपानं जिन्व । तैसं ४,४, १,३ । *अपानो रथन्तरम् (वरुणः ।तैसं., माश.]) । तैसं ५,३,४,२; तां ७,६,१४, १५; माश ८, ४, २,६, १२,९,२,१२ । *यन्तेत्यपानम् (असृजत) । तैसं ५,३,६,२ । *धिष्णियाभिधानम्-- नाभिर् वा एषा यज्ञस्य यद् होता । ऊर्ध्वः खलु वै नाभ्यै प्राणो ऽवाङ् अपानः । यद् अध्वर्युः प्रत्यङ् होतारम् अतिसर्पेद् अपाने प्राणं दध्यात् प्रमायुकः स्यात्- तैसं ६,३,१,५। *अनूयाजकथनम्— घ्नन्ति वा एतत् पशुं यत् संज्ञपयन्त्य् ऐन्द्रः खलु वै देवतया प्राण ऐन्द्रो ऽपान ऐन्द्रः प्राणो अङ्गेअङ्गे नि देध्यद् इत्य् आह प्राणापानाव् एव पशुषु दधाति । तैसं ६,३,११,२। * प्राणो व्यानो ऽपानो वषट् स्वाहा नमः । अन्नं कृषिर् वृष्टिर् वषट् स्वाहा नमः । पिता पुत्रः पौत्रो वषट् स्वाहा नमः । - तैसं ७.३.१२.१ *अग्निहोत्रम् -- प्राणाय त्वा इति समिधम् अभ्यादधाति। अपाने ऽमृतम् अधां स्वाहा इति जुहोति। जै १,१४ । *बहिर्वै सन्तं प्राणमुपजीवन्त्यन्तः सन्तमपानम् । जै १,३७, ३९४ । *तम् उ हैके तत एव प्रत्यञ्चम् आहरन्ति। प्राणो वै गार्हपत्यो ऽपान आहवनीयः। संविदानौ वा इमौ प्राणापानाव् अन्नम् अत्त इति वदन्तः। - जै १,६१ *ऽथ कस्मात् पवमाना अस्तोत्रियप्रतिपद इति। स ब्रूयात् प्राणा वै पवमानाः प्राणा उ पावमान्यः। तद् यत् पवमानान् पावमानीभिर् एवानुप्रतिपद्येरन् पराञ्च एव प्राणान् निर्मृज्युर् इति। तान् यद् अनुष्टुभानुप्रतिपद्यन्ते - वाग् वा अनुष्टुप्। वाच्य् अपानो नियतः -- वाचैव तद् अपानं दधार । जै १, २७५ *अभ्यावर्त्ता मनुष्ययशसम् । ते ह तेऽपाना एव । जै १,२७९ । *प्राणापानाव् उपांश्वन्तर्यामौ। उदिते ऽन्यं जुह्वत्य् अनुदिते ऽन्यम्। बहिर् वै सन्तं प्राणम् उपजीवन्त्य् अन्तस् सन्तम् अपानम्। तद् यद् उदिते ऽन्यं जुह्वत्य् अनुदिते ऽन्यं, बहिस् सन्तं प्राणम् उपजीवामान्तस् सन्तम् अपानम् इति। - जैब्रा २.३७ *तद् ध क्रतुजिज् जानकिर् इयपिं सौमापं पप्रच्छ - प्राणेन स्वी(3)द् अपानेना(3) अस्मिञ् जीवति मर्त्यः। तद् ब्रूतात् संगतेभ्यः कुरूणां ब्राह्मणेभ्य इति। स होवाचेहैवाहं त्वां प्रतिवक्ष्यामीति। तं ह प्रत्युवाच - न प्राणेन नापानेन। अस्मिञ् जीवति मर्त्ये व्यानो ऽध्यक्षः – जैब्रा २.४२ *अथो आहुः - पौर्णमासीर् एवोत्सृज्या इति। प्राणभाजना वै पौर्णमास्य्, अपानभाजनामावास्या। बहिर् वै सन्तं प्राणम् उपजीवन्त्य्, अन्तस् सन्तम् अपानम्। तद् यत् पौर्णमासीर् उत्सृजन्ते, बहिस् सन्तं प्राणम् उपजीवामान्तस् सन्तम् अपानम् इति। - जैब्रा २.३९४ *प्रव इति प्राणो वै प्रवान्प्राणमेवैतया समिन्द्धेऽग्न आयाहि वीतय इत्यपानो वा एतवानपानमेवैतया समिन्द्धे – माश १.४.३.३ *अपानो वा ए(आ-इ)तवान् । माश १,४,३,३ । *प्राणेन वै देवा अन्नमदन्ति अग्निरु देवानां प्राणस्तस्मात्प्राग्देवेभ्यो जुह्वति प्राणेन हि देवा अन्नमदन्त्यपानेन मनुष्या अन्नमदन्ति तस्मात्प्रत्यङ्मनुष्येष्वन्नं धीयतेऽपानेन हि मनुष्या अन्नमदन्ति। माश १०,१,४,१२ ।
*प्राणा
वै प्रयाजाः।
अपाना अनुयाजास्तस्मात्प्रयाजाः प्राञ्चो हूयन्ते तद्धि प्राणरूपम् *प्रत्यञ्चोऽनुयाजाः (हूयन्ते), तदपानरूपम् । माश ११, २, ७,२७ । *तं (पशुं संज्ञप्तं) प्राची दिक् प्राणेत्यनुप्राणत्प्राणमेवास्मिंस्तददधात्तं दक्षिणादिग्व्यानेत्यनुप्राणद्व्यानमेवास्मिंस्तददधात्तं प्रतीची दिगपानेत्यनुप्राणदपानमेवास्मिंस्तददधात्तमुदीची दिगुदानेत्यनुप्राणदुदानमेवास्मिंस्तददधात्तमूर्ध्वा दिक्समानेत्यनुप्राणत्समानमेवास्मिंस्तददधात्तस्मादु पुत्रं जातमकृत्तनाभिं पञ्च ब्राह्मणान्ब्रूयादित्येनमनुप्राणितेति । माश ११,८,३,६ *अपानो यजमानः (याज्या [माश.) । माश १४,६,१,१२; ष २,६ । *अपानेन हि गन्धाञ्जिघ्रति । माश १४,६, २,२ ।
*कस्मिन्नु
त्वं चात्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति।
प्राण इति कस्मिन्नु प्राणः प्रतिष्ठित *तस्माद्बहु किंच किंचाऽपानेन जिघ्रति । जैउ १,१८,५,५ । *अथ यः सोऽपान आसीत् स बृहस्पतिरभवत्। यदस्यै वाचो बृहत्यै पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः। अथ यस्स प्राण आसीत्स प्रजापतिरभवत् स एष पुत्री प्रजावानुद्गीथो यः प्राणः तस्य स्वर एव प्रजाः – जै.उ.ब्रा. २.१.२.५ *स (अयास्य आङ्गिरस) प्राणेन देवान्देवलोकेऽदधादपानेन मनुष्यान्मनुष्यलोके व्यानेन पितॄन्पितृलोके हिङ्कारेण वज्रेणास्माल्लोकादसुराननुदत । जैउ २,३,२,३ । *एत्यपानस्तदसौ (द्यु-) लोकः । जैउ २,३,३,५ । *तदसौ वा आदित्यः प्राणोऽग्निरपान आपो व्यानो दिशस्समानश्चन्द्रमा उदानः - जैउ ४,११,१,९ । *देवस्य सवितुः प्रातः प्रस्वः प्राणः । वरुणस्य सायमासवोऽपानः । यत्प्रतीचीनं प्रातस्तनात् । प्राचीनꣳ संगवात् । ततो देवा अग्निष्टोमं निरमिमत..... । तैब्रा १, ५,३,१ । *प्राणो वा अग्निहोत्रस्याश्रावितम् । अपानः प्रत्याश्रावितम् । मनो होता । चक्षुर्ब्रह्मा । निमेषो वषट्कारः - तै २,१,५,९ *ऋषभं वाजिनं वयम् । पूर्णमासं यजामहे । स नो दोहताꣳ सुवीर्यम् । रायस्पोषꣳ सहस्रिणम् । प्राणाय सुराधसे । पूर्णमासाय स्वाहा । अमावास्या सुभगा सुशेवा । धेनुरिव भूय आप्यायमाना । सा नो दोहताꣳ सुवीर्यम् । रायस्पोषꣳ सहस्रिणम् । अपानाय सुराधसे । अमावास्यायै स्वाहा । - तैब्रा ३.७.५.१३ *अधिपतिरसि प्राणाय त्वा प्राणान् जिन्व सवितृप्रसूता बृहस्पतये स्तुत । धरुणोऽस्यपानाय त्वापानान् जिन्व सवितृप्रसूता बृहस्पतये स्तुत – तांब्रा १.१०.६ *ताण्ड्य ब्राह्मण ७.६.१२ *प्राणो बृहत् तस्माद्बहिर्णिधनानि भजते बहिर्हि प्राणोऽपानो रथन्तरं तस्मादन्तर्णिधनानि भजतेऽन्तर्ह्यपानः । तां ७,६,१४ *अधिपतिना प्राणाय प्राणं जिन्व, धरुणेनापानायापानं जिन्व। मै २,८,८ । *अपानेन नासिकाम् (प्रीणामि)। मै ३,१५,२ *पवित्रं वितन्वन्ति प्राणापानयोर्विधृत्यै , उपयामगृहीतो गृह्यते , अपानेन वै प्राणो धृतः, प्राणस्य धृत्यै । मै ४,५,६ । *प्रस्तोता [कौ., गो.) । कौ १७,७; गो २,५,४; *अपानादन्तरिक्षलोकं (प्रजापतिः प्रावृहत् ) । कौ ६,१० । *अन्तर्याम- कौ १२.४ *षड् ऋतुना इति यजन्ति । प्राणम् एव तद् यजमाने दधति । चत्वार ऋतुभिर् इति यजन्ति । अपानम् एव तद् यजमाने दधति । द्विर् ऋतुना इत्य् उपरिष्टात् । व्यानम् एव तद् यजमाने दधाति । कौ १३,९ । *मन एव ब्रह्मा प्राण उद्गाता अपानः प्रस्तोता व्यानः प्रतिहर्ता......अथ यत् प्रस्तोता प्रस्तौति । अपानम् एव तत् प्राणैः संदधाति । अथ यत् प्रतिहर्ता प्रतिहरति । व्यानम् एव तत् प्राणैः संदधाति । - कौ. ब्राह्मण १७.७ *अपाङ्प्राङेति स्वधया गृभीत इत्यपानेन ह्ययं यतः प्राणो न पराङ्भवति, इति । अमर्त्यो मर्त्येना सयोनिरित्येतेन हीदं सर्वं सयोनि मर्त्यानि हीमानि शरीराणीँ३ अमृतैषा देवता, । ऐआ २,१,८ । *वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन् – ऐआ २.४.२ *प्राणमनु प्रेङ्खस्वेति प्राञ्चं प्रेङ्खं प्रणयति व्यानमन्वीङ्खस्वेति तिर्यञ्चमपानमन्वीङ्खस्वेत्यभ्यात्मम्, इति । भूर्भुवः स्वरिति जपति, इति । प्राणाय त्वेति प्राञ्चमेव व्यानाय त्वेति तिर्यञ्चमपानाय त्वेत्यभ्यात्मम्, इति । ऐआ ५,१,४ । *नाभिर्वा एषा यज्ञस्य यद्धोतोर्ध्वं नाभ्याः प्राणोऽवाचीनमपानोऽपाने प्राणं दध्यात् प्रमीयेत। काठ २६,१; क ४०,४ । *उपांशु-अन्तर्यामग्रहौ -- स्वंकृतोऽसीत्यपानमेव स्वं कुरुत उर्वन्तरिक्षं वीहीत्यन्तरिक्षदेवत्यो ह्येष एतर्हि विश्वेभ्य इन्द्रियेभ्य इति देवेषु चैव मनुष्येषु चापानं दधाति मनस्त्वाष्ट्विति मनसा ह्यपानो धृत। काठ २७,२; क ४२,२ । *ऽधिपतिरसि प्राणाय त्वा प्राणं जिन्वेति प्राणमेवावरुन्द्धे धरुणोऽस्यपानाय त्वापानं जिन्वेत्यपानमेवावरुन्द्धे। काठ ३७,१७ । *आयुषः प्राणँ संतनु प्राणाद्व्यानँ संतनु व्यानादपानँ संतन्वपानाच्चक्षुस्संतनु चक्षुषश्श्रोत्रँ संतनु श्रोत्राद्वाचँ संतनु वाच आत्मानँ संतन्वात्मनः.... । काठ ३९, ८ । १४. अपाने निविश्यामृतं हुतम् । तैआ १०,३६,१। १५. अपाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । तैआ १०,३३,१ । १७. अपाने वैद्युतम् (प्रजापतिरावेशयत् ) । शांआ ११,१। २२. स यन्ता विप्र एषामिति शंसत्यपानो वै यन्ताऽपानेन ह्ययं यतः प्राणो न पराङ्भवत्यपानमेव तत्संभावयत्यपानं संस्कुरुते।। ऐ २,४० । २३. अपानो हृदये (प्रतिष्ठितः)। शांआ ११, ६। २६. अहरेव प्राणो रात्रिरपानः । ऐआ २, १, ५। अनुयाज- काठ १२.२, कौ ७.१, १०.३, माश ११.२.७.२७ १; ३७. नाभ्या अपानः (निरभिद्यत), अपानान्मृत्युः । ऐआ २,४, १; ऐउ १, १,४ । ४०. भुव इत्यपानः । तैआ ७,५,३; तैउ १,५,३ । ४२. मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशत् । ऐआ २,४,२; ऐउ १,२,४ । ४३. यजूंषि वै ब्रह्मणोऽपानः । काठसंक ४:२। स यत् पूर्वम् आचामति सप्त प्राणांस् तान् एतेनास्मिन्न् आप्याययति या ह्य् एमा बाह्याः शरीरान् मात्रास् तद् यथैतद् अग्निं वायुम् आदित्यं चन्द्रमसम् अपः पशून् अन्यांश् च प्रजास् तान् एतेनास्मिन्न् आप्याययति। आपो ऽमृतम् स यद् द्वितीयम् आचामति सप्तापानांस् तान् एतेनास्मिन्न् आप्याययति या ह्य् एमा बाह्याः शरीरान् मात्रास् तद् यथैतत् पौर्णमासीम् अष्टकाम् अमावास्यां श्रद्धां दीक्षां यज्ञं दक्षिणास् तान् एतेनास्मिन्न् आप्याययति – गोब्रा १.१.३९ प्राणापानौ वै दैव्या होतारा प्राणापानावेव तत्प्रीणाति प्राणापानौ यजमाने दधाति तिस्रो देवीर्यजति प्राणो वा अपानो व्यानस्तिस्रो देव्यस्ता एव तत्प्रीणाति – ऐब्रा २.४ ३१. बहिष्पवमाने धूर्गानम् -- या प्रथमा तामायच्छन्निव गायेदायत इव ह्ययमवाङ् प्राणः ॥२०॥ या द्वितीया तां घोषिणीमिव गायेद्घोषीव ह्ययमपानः॥२१॥ या तृतीया तामुद्यच्छन्निव गायेदुद्यत इव ह्ययं उदानः॥२२॥ ...... ष २,२। अध्वर्यु- ष २.७
पु० अपानयति अपसारयति मूत्रादि अप + आ + नीड अपसारयति अधोऽनिति गच्छति वा अप + अन--अच् वा १ मूत्रादेरधो नयनशीले, गुह्यदेशस्थे, “अधोनयन- त्यपानस्तु आहारञ्च नृणा पुन” तित्युक्तलक्षणे “मूत्रशुक्रवहोवायुरपान इति कीर्त्त्यते” इत्युक्तलक्षणे च वायौ । “प्राणोऽपानव्यानसमान इत्येतेत् सर्वं प्राण” इति वृ० “अपनयनात् मूत्रपुरीषादेरपानोऽधोवृत्तिर्वावुः नाभि- स्थान” इति मा० “अथ योऽस्य प्रत्यङ्शुषिः सोऽपान” इति छा० उ० । “अथ योऽस्य प्रत्यङ्शुषिः पश्चिमदिक्थो वायुविशेषः स मूत्रपुरीषाद्यन्नथोऽनितीत्यपान” इति भा० “यद्वै प्राणिति स प्राणः यदपानिति सोऽपान इति” छा० उ० । “यद्वै पुरुषः प्राणिति मुखनासिकाभ्यां वायुं बहिर्निस्सारयति स प्राणाख्यो वायुर्वायुवृत्तिविशेषः यदपानित्यपश्यमिति ताभ्यामेव मुखनासिकाभ्याम् अन्तराकर्षति वायुः सोऽपानोऽपानाख्या वृत्तिरिति” भा० । पदार्थादर्शे तु पूर्व्वोक्तैव निरुक्तिर्दर्शिता यथा अपानयत्यपानोऽयमाहारं च मलार्पितम् । “शुक्रं मूत्रं तथोत्सर्गमपानस्तेन मारुतः । इन्द्रगोपप्रभाकाशः सन्ध्याजलदसन्निभः ॥ स च मेढ्रे च पायौ च ऊरुवङ्क्षण जानुषु । जङ्घोदरे कृकाट्याञ्च नाभिमूले च तिष्ठती” ति योगार्णवः । “प्राणापानान्तरे देवी वाग्वै नित्यं प्रति- ष्ठतीति” महा० भा० “प्राणापानौ समौ कृत्वा नासा- भ्यन्तरचारिणा” विति गीता । अप + अन--भावे घञ् । २ अपानक्रियायाम् वहिर्गतायाः ३ प्राणवृत्तेरन्तः प्रवेशने पु० “प्रजाभ्योऽपानायेति” ता० ब्रा० । “अपानः वहिर्गतायाः प्राणवृत्तेरन्तःप्रवेशनमपाननं तेन हि वायुः शरीरे नीयते अपानेन, यतः “प्राणो न पराभवतीति” श्रुत्यन्तरमिति” ता० भा० । आधारे घञ् ४ गुह्यस्थाने पु० । - वाचस्पत्यम्
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