पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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अनु ऋग्वेदे ५.३१.४ कथनमस्ति यत् अनवः इन्द्राय रथस्य तक्षणं कुर्वन्ति –
अनवस्ते रथमश्वाय तक्षन्त्वष्टा वज्रं पुरुहूत द्युमन्तम् । अस्याः ऋचायाः महत्त्वं अनेन कारणेन अस्ति यत् कर्मकाण्डे अस्याः विनियोगं हविर्द्धानशकटस्य उपस्थाने अस्ति। तत्र निर्मितसाम्नः संज्ञा श्लोकानुश्लोके अस्ति। अत्र अनवः किमस्ति। वैदिकनिघण्टु मध्ये अनवः, यदवः, पूरवः आदि नामानां वर्गीकरणं मनुष्यनामसु कृतमस्ति एवं अनेन कारणेन सायणभाष्ये अनवः शब्दस्य अर्थं मनुष्याः कृतमस्ति। शकटस्य संज्ञा अपि अनः अस्ति एवं ये अनसः वाहौ स्तः, तेषां संज्ञा अनड्वाहौ स्तः। पुराणेषु अनुः ययातेः चतुर्णां पुत्राणां एकः अस्ति यः स्वयौवनस्य स्थान्तरणं न स्वीकरोति। तदा ययातिः तं शपति यत् सः अग्निप्रस्कन्दनपरः भविष्यति - प्रजाश्च यौवनप्राप्ता विनशिष्यन्त्यनो तव। अग्निप्रस्कन्दनपरस्त्वं चाप्येवं भविष्यसि।। - महाभारतम् आदि ८५.२४ अत्र अग्निप्रस्कन्दनस्य किमर्थः भवितुं शक्यते। यथोपरि कथितमस्ति, एकः श्लोकः अस्ति, अन्यः अनुश्लोकः। अनुश्लोकः प्राणस्य स्तरे प्रतिध्वनिः अस्ति। प्रतिध्वनिः मूलध्वन्यां क्षीणं करोति, अयमभिप्रायः। पुराणेषु कथनमस्ति यत् अनुः असुराणां संगीताचार्य तुम्बुरोः सखा अस्ति ( विष्णुपुराणम् ४.१४.१३)। नारायणीयम् ग्रन्थे कथनमस्ति - अनसा बहुलेन वल्लवानां मनसा चानुगतोऽथ वल्लभानाम् ।(७३६) अत्र बल्लवाशब्दः गोपिकासूचकः अस्ति, वल्लभा प्राणप्रियतमानां। कर्मकाण्डे, हविर्यज्ञे अन्नस्य वहनं शकटेन भवति। यदा शकटः गन्तव्यस्थले आयाति, तदा क्रमिकरूपेण एकैकस्य अनड्वाहस्य शकटतः विलगनं कुर्वन्ति। सोमयागे, यत्र हविषः स्थाने सोमस्य उपयोगं भवति, तत्र ऋत्विजः एव अनड्वाहाः भवन्ति। शकटयोः एकस्य उपयोगं मुख्यतः शोधितसोमस्य भण्डारणार्थं एवं द्वितीयस्य उपयोगं सोमस्य शोधनाय भवति। यथा उपस्थानस्य साम्नः संज्ञा श्लोकानुश्लोके अस्ति, प्रत्यक्षरूपेण हविर्द्धानशकटाभ्यां न कुत्रापि श्लोकानां ध्वनिः श्रूयते। अयं प्रतीयते यत् सोमस्य शोधनकाले ऋत्विजः येषां मन्त्राणां उच्चारणं कुर्वन्ति, तेषां गणना श्लोकानुश्लोकेषु भवति। पुराणेषु ये अनुसंज्ञकाः पुरुषविशेषा सन्ति, तेषु एकः विलोम्नः पुत्रः अस्ति एवं आनकदुन्दुभेः पिता अस्ति(विष्णुपुराणम् ४.१४.१३)। अयं संभवमस्ति यत् आनकदुन्दुभेः परोक्षसंज्ञा अनु भवेत्। टिप्पणी : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान यह सब अन्/अन्न के रूप हैं(शतपथ ब्राह्मण १४.४.३.१०)। इन अनों की शरीर अग्नि में आहुति होने से एक दूसरे का जन्म होता है। पुराणों के अनुसार अनु को जरावस्था में सम्यक् अग्निहोत्र की चिन्ता है। ययाति द्वारा अनु को जरावस्था में अग्निहोत्र कर्म के नष्ट होने के शाप का अभिप्राय यह हो सकता है कि किसी अवस्था में प्राण-अपान का यह आहुति क्रम समाप्त हो जाता हो और केवल शुद्ध अन् प्राण शेष बचता हो। ऋग्वेद में कईं स्थानों पर ययाति-पुत्रों के नामों का उल्लेख है। ऋग्वेद में अनु एकवचन में तथा बहुवचन(आनवः) में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद ८.७४.४ में ज्येष्ठ आनव अग्नि का उल्लेख है। ऋग्वेद ५.३१.४ में अनवः इन्द्र के लिए रथ का तक्षण करते हैं( अनः रथ या गाडी को भी कहते हैं और वैदिक साहित्य में अनड्वान् शब्द प्रयुक्त हुआ है)। ऋग्वेद ७.१८.१३ में इन्द्र आनवों के गय धन को तृत्सु को दे देता है। वैदिक निघण्टु में आनवः मनुष्य नामों के अन्तर्गत परिगणित है। प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई. अनः, अनड़वाहौ और अनड़वाह मानवव्यक्तित्व की वैदिक गवेषणा - डाँ श्रद्धा चौहान (गवेषणा प्रकाशन, जोधपुर, २००४ ई.)
सूर्या का उक्त आरोहावरोह जिस 'अन' द्वारा होता है वह मूलतः वही अन नामक शक्ति प्रवाह है, जो स्थूलस्तर पर प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान में रूपान्तरित होता है और सूक्ष्म-स्तरों पर 'मनस्मय अनः' कहा जाता है(अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम् ॥-ऋ. १०.८५.१२) (शौ १०.७.३५)। यह 'मनस्मय अनः' अपेक्षाकृत स्थिर भी हो सकता है और सतत चंचल भी रह सकता है। अतः अनः' को जब 'अनट्' रूप में कल्पित किया गया, तो उसमें 'अन्' तथा 'अत्' धातुओं का योग मानकर 'अन्' से अपेक्षाकृत स्थिरता की सम्भावना और 'अत्' से सातत्यगमन का प्रावधान कर लिया गया। इस प्रकार प्रथम से सत्यं तथा द्वितीय से ऋतम् की ओर संकेत कर दिया गया। ऋतम् और सत्यम् के चक्रों पर चलने वाली इस अनट् को वहन करने वाला 'अनड्वह' कहा गया। ब्राह्मणग्रन्थों(श ७.३.२.१) के अनुसार अग्नि अथवा वह्नि ही अनड्वान् है। निस्संदेह अग्नि आत्मा के ज्ञानपरक पक्ष का प्रतीक होने से सत्य और ऋत का बोध कराने वाला वाहक हो सकता है। अथर्ववेद के प्राण सूक्त (11.6(4).13) में जब 'प्राणो अनड़वान्' की घोषणा होती है(प्राणापानौ व्रीहियवावनड्वान् प्राण उच्यते । यवे ह प्राण आहितोऽपानो व्रीहिरुच्यते ॥), तो उससे अग्नि प्राण (जैउ.ब्रा ४.११.१.११)126 ही अभिप्रेत समझना चाहिये। इस प्रसंग में अथर्ववेद का अनड्वान् सूक्त127 विशेष रूप से विचारणीय है, क्योंकि वहाँ व्यष्टिगत आत्मा (इन्द्र) ही अपने वर्णात्मक रूप की दृष्टि से अग्नि है, जबकि 'वह' नामक प्रवाही शक्ति पक्ष से 'सोम' अभिप्रेत प्रतीत होता है। (शौ ४.११.७)128 सोम रेतस् माना गया129 है। इसलिये यहाँ इन्द्र ही 'रूप' के द्वारा अग्नि, सोम के द्वारा (वहेन) प्रजापति, परमेष्ठी तथा विराट् होकर क्रमशः विश्वानर, वैश्वानर तथा अनड्वान् रूप में पहुँचता है। इस प्रकार वह सम्पूर्ण सृष्टि को सुदृढ़ करके धारण करता है : -- इन्द्रो रूपेणाग्नि: वहेन प्रजापतिः परमेष्ठी विराट् । विश्वानरे अक्रमते, वैश्वानरे अक्रमतानडुहि अक्रमत्।। शौ.4.11.7 अनड्वान के मध्य भाग में उक्त 'वह' (प्रवाही रेतस्) स्थित है और समान मात्रा में "प्राचीन' एवं 'प्रत्यक' रूप में क्रमशः आरोह-अवरोह करने वाला है।(शौ ४.११.८)130 आरोहण करने वाला प्राण पूर्वोक्त 'मनस्मय अनः' को सूक्ष्म देह की ओर आकर्षित करता है, तो अवरोहण करने वाला प्राण उसे स्थूल देह की ओर। इसी दृष्टि से पहले सूक्ष्म और स्थूलदेहगत प्राण को सूर्या के 'मनस्मय अनः' के दो 'अनड्वाहौ' माना गया है। अपने ऊर्ध्वगामी और अधोगामी रूप में यह अनड्वान् युग्म है, जो अपने प्रथम रूप में लोकसृष्टि करता है और द्वितीय से प्रजा-सृष्टि का साधन बनता है। जो अनड्वान् से सप्तलोकों का दोहन करता है, वह सप्तर्षिवत् लोकसृष्टि तथा प्रजासृष्टि के ज्ञान को प्राप्त कर सकता है :-- यो वेदानडुहो दोहान् सप्तानुपदस्वतः । प्रजां च लोकं चाप्नोति तथा सप्तऋषयो विदुः ।। शौ. 4.11.9 अनड्वान् के उक्त पक्षों के विषय में एक अन्य कल्पना भी प्राप्त होती है, तदनुसार ऊर्ध्वगामी पक्ष अनड़वान् है, जो अवसाद (सेदिम) को नीचे की ओर धकेल देता है और अधोगामी पक्ष 'इरा' नामक उर्वरा भूमि (प्रेरक शक्ति) का कर्षण करने वाला 'कीनाश' (कृषक) है। ये दोनों ही श्रम द्वारा व्यक्तित्व के लिये उपयोगी अन्न (कीलाल) को उगाते हैं।(शौ ४.११.१०)131 इस प्रकार, अनड्वान् के दोनों पक्ष अन्नमय से हिरण्ययकोश पर्यन्त द्वादश अन्नदाताओं का रूप ग्रहण कर लेते हैं जिन्हें दानार्थक 'रा' धातु से निष्पन्न रात्रिनाम देकर प्रजापति की द्वादश रात्रियाँ कहा जाता है-- रात्रि भी ऐसी जिसका साक्षात्कार करना ही 'अनडुह व्रत' माना गया है :-- द्वादश वा एता रात्रीर्व्रत्या आहुः प्रजापतेः। तत्रोप ब्रह्म यो वेद तद् वा अनुडुहो व्रतम् ।। शौ. 4.11.11 ब्रह्मज्ञान की ज्योति प्रदान करने वाले इन द्वादश अनड़वह पक्षों को रात्री कहना तो केवल काव्योचित चमत्कार या विनोद-मात्र है अतः इन्हीं को द्वादश दिन कहकर कर्मकाण्ड में, द्वादश-व्रत के रूप में, 'द्वादशाह' नामक सत्र का विधान भी है तथा उसे 'सत्राणाम् वर्ष्म',(जै २.३८८)132 'ज्येष्ठ यज्ञ',133(ऐ ४.२५) प्रजापति यज्ञ14 अथवा स्वयं प्रजापति 135(जै ३.३७२) ही माना गया है। सूक्त के अन्तिम मन्त्र में स्पष्टतः कहा गया है कि इस अनड्वान् को जो व्यक्ति सायं, प्रातः तथा माध्यन्दिन में दुहता है और फिर उन सब दोहों को समाधि में संयत करता है वही उस अविनाशी के दोहनों का मर्म समझता है :-- दुहे सायं दुहे प्रातर्दुहे माध्यंदिनं परि। दोहा ये अस्य संयंति तान् विद्यानुपदस्वतः।। शौ. 4.11.12 वस्तुतः यह अनड्वान् इन्द्र परमेश्वर ही है, जो स्वयं 'सुप्रजाः' होकर ऊपर (उदारे) अतिदूरस्थ लोक में स्थित रहते हुए भी मनुष्यों के भीतर देदीप्यमान 'तप्तघर्म' (आतप) के रूप में जन्म लेकर गतिशील है। इस अनड्वान् का ज्ञाता न तो संसरण करता है और न फल भोगता है -- इन्द्रो जातो मनुष्येषु अन्तर्घर्मस्तप्तश्चरति शोशुचानः । सुप्रजाः सन्त्स उदारे न सर्षद् यो नाश्नीयादनडुहो विजानन् ।। शौ.4.11.3 ज्ञानी पुण्यात्मा के सुकृत लोक में वह अनड्वान् (परमेश्वर) दूध दुहता है, ऊपर से पवमान पर्जन्य उसके लोक को आप्यायित कर देते हैं: अनड्वान् दुहे सुकृतस्य लोक ऐनं प्यायति पवमानः पुरस्तात् । यह पवमान पर्जन्य तथा उसका दोह एवं ऊधस् क्या है, इस समस्या का समाधान मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार है:-- पर्जन्यो धारा मरुत ऊधो अस्य यज्ञः पयो दक्षिणा दोहो अस्य ।। शौ.4.11.4 अर्थात् पवमान पर्जन्य की धारायें मरुतः हैं। इन धाराओं में प्रवाहित होने वाला पयस् वह दक्षता या शक्ति (दक्षिणा) है जिसे इसका 'दोह' कहा जाता है, परन्तु इस समस्त आप्लावनशील दोहन का स्रोत (ऊधस्) वस्तुतः वह यज्ञ है जिसे यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही श्रेष्ठतम कर्म माना गया है और जिसे ब्राह्मणग्रन्थों ने द्वादशाह नामक ज्येष्ठयज्ञ अथवा प्रजापतियज्ञ कहा है। मनुष्य में जन्मे या अवतरित उक्त अविनाशी अनड्वान् की इस व्याख्या के आलोक में ही इस सूक्त के उस सारांश को हृदयंगम करना संभव है, जो प्रथम मन्त्र में इस प्रकार अभिव्यक्त है:-- अनड्वान् दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्वन्तरिक्षम् । अनड्वान् दाधार प्रदिशः षडुर्वीरनड्वान् विश्वं भुवनमा विवेश ।। शौ.4.11.1 वह अनड्वान् 'विश्वम् भुवनम्' में प्रविष्ट है; पृथिवी और द्यौ को ही नहीं 'उरु अन्तरिक्ष' तथा छह उर्वी प्रकृष्ट दिशाओं को भी धारण किये हुये है। मानवव्यक्तित्व की वैदिक गवेषणा - डाँ श्रद्धा चौहान (गवेषणा प्रकाशन, जोधपुर, 342008)
अनडुह १. अग्निरेष यदनड्वान् । माश ७,३,२,१। २. अनडुहा क्रीणाति, वह्नयेवास्य क्रीणाति । मै ३,७,७ । ३. अनडुहो वै पयस्तण्डुला असा (असौ [क.]) आदित्योऽनड्वान् । काठ ६,३; क ४,२ । ४. अनड्वाञ्च मे धेनुश्च मे (यज्ञेन कल्पताम्) । तैसं ४,७, १०,२ । ५. अनड्वान् नेष्टुः (दीयते)। मै ४,४,८। ६. अनड्वान् वयः, पङ्क्तिश्छन्दः । तैसं ४,३,५,१; मै २,८,२; काठ १७,२ । ७. अनड्वान् वै सर्वाणि वयांसि पशूनाम् । मै ३,७,४ । ८. अनड्वाहः पङ्क्त्यै (दीयन्ते)। मै ३,१३,१८ । ९. ऐन्द्राग्न एकादशकपाल: (+ऋषभोऽनड्वान् दक्षिणा काठ १५,१]) । काठ ९,५। १०. धेन्वै वा एतद्रेतो यदाज्यमनडुहस्तण्डुलाः। तैसं २,२,९,४ । ११. मिथुनं वा एतद्यद् घृतं च तण्डुलाश्च, धेन्वा घृतं पयो ऽनडुहस्तण्डुलाः। काठ १०, १। १२. वह्निर्वा अनड्वान् । तैसं २,२,१०,५, ६,१,१०,२; तै १,१,६,१०, १.८,२,५ । १३. वोढाऽनड्वान् (आजायताम् ) । तैसं ७,५, १८,१। १४. श्येत इव ह्येष (सूर्यः) उद्यंश्चास्तं च यन्भवति तस्माच्छ्येतोऽनड्वान्दक्षिणा । माश ५,३, १,७। अनड्वाहमग्नीधे (ददाति) तैसं १.८.१८.१, तै १.८.२.५ ७; अनड्वानध्वर्यवे (देयः), वह्न्येव यज्ञस्यावरुन्द्धे – काठ ८.८ आग्नावैष्णव एकादशकपालः अनड्वान् वामनो दक्षिणा – काठ १५.१ आग्नेयो वा अनड्वान् – माश ७.३.२.१६, १३.८.४.६ शकट उत गाव इवादन्त्युत वेश्मेव दृश्यते । उतो अरण्यानिः सायं शकटीरिव सर्जति ॥-१०,१४६.०३ गामङ्गैष आ ह्वयति दार्वङ्गैषो अपावधीत् । वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते ॥-१०,१४६.०४ पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्तां अष्टावरिधायसो गाः । सुबन्धवो ये विश्या इव व्रा अनस्वन्तः श्रव ऐषन्त पज्राः ॥ - १,१२६.०५ दिवश्चिद्घा दुहितरं महान्महीयमानाम् । उषासमिन्द्र सं पिणक् ॥ ४,०३०.०९ अपोषा अनसः सरत्सम्पिष्टादह बिभ्युषी । नि यत्सीं शिश्नथद्वृषा ॥ - ४,०३०.१० एतदस्या अनः शये सुसम्पिष्टं विपाश्या । ससार सीं परावतः ॥ ४,०३०.११ अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोनः । त्रैवृष्णो अग्ने दशभिः सहस्रैर्वैश्वानर त्र्यरुणश्चिकेत ॥ ५,०२७.०१ मनो अस्या अन आसीद्द्यौरासीदुत च्छदिः । शुक्रावनड्वाहावास्तां यदयात्सूर्या गृहम् ॥ - १०,०८५.१० ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः । श्रोत्रं ते चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः ॥ - १०,०८५.११ शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः । अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम् ॥ १०,०८५.१२
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