Site hosted by Angelfire.com: Build your free website today!

पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

Home Page

Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

अन्न

टिप्पणी : पुराणों में अन्नदान की महिमा का बहुत अधिक वर्णन किया गया है । किसी वस्तु के दान से पूर्व उसके बारे में दक्षता उत्पन्न करना आवश्यक है, तभी हम दूसरों को देने में समर्थ हो सकते हैं । दक्षता उत्पन्न करने का दूसरा नाम विपश्यना है । ऋग्वेद १०.१२५.४ में कहा गया है कि जो विपश्यना करता है, जो प्राण लेता?, जो ईं अग्नि को सुनता है, वह परमात्मा से अन्न प्राप्त करता है । अन्न की विपश्यना के सम्बन्ध में पुराणों में कहा गया है कि वह हमारे अन्दर २५ तत्त्वों का पोषण करे । ऐसा अनुमान है कि अन्तरिक्ष की सभी ज्योतियां जैसे २७ नक्षत्र अन्न उत्पन्न करने में भागीदार बनते हैं । ओषधियां उन ज्योतियों को ग्रहण करके बीज रूपी अन्न उत्पन्न करती हैं । इस प्रकार ओषधियों की साधना से उत्पन्न अन्न को हम ग्रहण करके तृप्त होते हैं । क्या ऐसा हो सकता है कि हम पार्थिव ओषधियों पर निर्भर न करके स्वयं अपनी साधना से वह उषाएं ग्रहण कर अन्न निर्माण में समर्थ हो सकें ? वैदिक साहित्य में प्रतिपादित अन्न ऐसा ही प्रतीत होता है जिसे साधना द्वारा ही प्राप्त करना है । ऋग्वेद १.१४०.२ में उल्लेख है कि द्विजन्मा त्रिवृत् अन्न प्राप्त करता है । शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.२ में कृषि, वृष्टि व बीज की त्रिवृत् अन्न के रूप में व्याख्या की गई है । शतपथ ब्राह्मण ७.२.२.७ का कथन है कि स्वयं का ही कर्षण करना है । इससे आत्मा में अन्न की प्राप्ति होती है । कृषि द्वारा अन्न की प्राप्ति बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है । कर्षण के लिए हल/सीर की आवश्यकता होगी । अक्ष शब्द की टिप्पणी में यह स्पष्ट किया गया है कि हम अपनी देह के अंगों को ऐसे अक्षों का, रथ के चक्रों के धुरे का रूप दे सकते हैं जिसके एक सिरे पर ब्रह्माण्ड की ऊर्जा प्रवेश करती है और दूसरे सिरे से निकलती है, जैसा कि चुम्बक में होता है । ऐसा अक्ष कृषि के काम में आ सकता है । अपनी चेतना को ही हल बनाना पडता है । ऐसा भी कहा जा सकता है कि अनुकूल परिस्थितियां पाकर चेतना स्वयं हल बन जाती है । इसकी व्याख्या इस प्रकार कर सकते हैं कि मनुष्य की देह में उसके पद पृथिवी से लगातार ऊर्जा का कर्षण कर रहे हैं और उसे शीर्ष भाग तक पहुंचा रहे हैं । लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो गया है कि बाह्य अन्न के अविधिपूर्वक सेवन से यह प्रक्रिया बाधित हो जाती है । यदि हमारे शीर्ष के प्राणों का अपान के साथ या मूलाधार के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए तो इस कर्षण का अनुभव होने लगता है । अनुभवी व्यक्ति अपने पदों द्वारा मीलों दूर से पृथिवी की तरंगें पकडने में समर्थ होते हैं, ऐसा कहा जाता है ।

          शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१७ में उल्लेख आता है कि प्राण के लिए १६ कलाएं अन्न का आहरण करती हैं - लोम, त्वक्, असृक्, मेद, मांस, स्नायु, अस्थि व मज्जा । इनमें से प्रत्येक में २ -२ कलाएं हैं । प्राण सप्तदश प्रजापति है । कहा गया है कि यज्ञ में १६ ऋत्विज १६ कलाओं के रूप होते हैं और आहुतियों द्वारा आहूत रस १७वां अन्न है । शतपथ ब्राह्मण १०.५.२. का कथन है कि आदित्य के संदर्भ में मण्डल अन्न है और मण्डल में स्थित पुरुष अत्ता है । इसी प्रकार पुरुष के संदर्भ में शरीर अन्न है, दक्षिण अक्षि में स्थित पुरुष अत्ता है । यह सब संदर्भ संकेत करते हैं कि कर्षण का कार्य देह में किन - किन स्थानों से सम्पन्न होना है । कर्षण के पश्चात् वृष्टि व बीज वपन का कार्य सम्पन्न होना चाहिए । वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि वृष्टि द्वारा अन्न उत्पन्न होता है, अतः वृष्टि अन्न है । अन्यत्र कहा गया है कि आपः द्वारा अन्न में रस का प्रवेश होता है । बीज वपन के संदर्भ वैदिक साहित्य में अपेक्षाकृत कम प्रतीत होते हैं । शतपथ ब्राह्मण ७.२.४.१७ में प्रश्न उठाया गया है कि बीज वपन आत्मा के कृष्ट प्रदेश में करना है या अकृष्ट क्षेत्र में ( कृष्ट प्रदेश ग्राम्य कहलाता है, अकृष्ट प्रदेश आरण्य ) । कहा गया है कि दोनों प्रदेशों पर ही वपन होना चाहिए । बीज वपन के संदर्भ में पुराणों में राजा कुरु की कथा आती है जो कर्षण करते हुए इन्द्र से संवाद करते हैं । इन्द्र कुरु से पूछता है कि तुम बीज कहां से लाओगे । कुरु का उत्तर है कि मेरे अंग ही बीज का कार्य करेंगे । तब इन्द्र उनके अंगों को अपने चक्र से काट देता है आदि ।

          शतपथ ब्राह्मण ९.३.३.१४ में अन्न को त्रयी विद्या कहा गया है । त्रयी विद्या में स्तोम व यजु, ऋक् व साम तथा बृहत् व रथन्तर का उल्लेख किया गया है ।

           वैदिक साहित्य में स्व पुरुषार्थ से, कृषि आदि से अन्न प्राप्ति के लिए व्रतों का सुझाव दिया गया है । व्रत का अर्थ है कि बाहर से अन्न ग्रहण नहीं करना है, केवल अपने पुरुषार्थ से ही अन्न की प्राप्ति करनी है ( शिवपुराण १.१८.४६ में अन्न का वर्गीकरण पौरुष व प्राकृत रूपों में किया गया है)। सोमयाग में एक विशेष दिन के कृत्यों की संज्ञा महाव्रत है । इस दिन सामवेद के बहुत से स्तोत्रों का गान होता है और फिर वीणा वादन होता है । कहा गया है कि स्तोत्रों के द्वारा अमर्त्य स्तर को अन्न की प्राप्ति करायी जाती है, जबकि गात्र वीणा के वादन द्वारा मर्त्य स्तर को । सामवेद में सामों का गान इस प्रकार होता है जिस प्रकार शास्त्रीय गायन सुनने को मिलता है । एक ही पंक्ति की पुनरुक्ति की जाती है । इसे स्तोम बनाना कहते हैं । पुनरुक्ति कितनी बार की जानी है, यह स्तोम विशेष पर निर्भर करता है । जैमिनीय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति की सभी प्रजाएं उनसे दूर चली गई, एक इन्द्र नहीं गया । तब प्रजापति ने इन्द्र से कहा कि स्तो मे, मेरी स्तुति करो । यही स्तोम है । इससे प्रजापति की क्षुधा की तृप्ति हो गई । इसका तात्पर्य होगा कि क्षुधा का कारण यह है कि हमारे व्यक्तित्व का पालन करने वाली कोई तरंग हमसे दूर चली गई है । उसे वापस लाना है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.३ ८.३.३.६ में प्राणभृद् इष्टकाओं के संदर्भ में पांच दिशाओं में प्राण, अपान, व्यान, उदान व समान वायुओं की तृप्ति हेतु ५ स्तोमों, ५ छन्दों, ५ ऋतुओं, ५ ऋषियों आदि के उल्लेख हैं । इसी से मिलता हुआ वर्णन जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में भी आता है ।

          वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से ( अथर्ववेद ६.७१.१, शतपथ ब्राह्मण ६.८.२.७, ७.५.२.६, ७.५.२.४२ ८.६.२.१ आदि ) पशुओं या ५ पशुओं का उल्लेख अन्न के रूप में आता है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.४.४ में उल्लेख है कि अग्नि महत् के लिए ओषधि - वनस्पतियों की अन्न के रूप में व्यवस्था की गई, वायु महत् के लिए आपः रूपी अन्न की, आदित्य महत् के लिए चन्द्रमा रूपी अन्न की और पुरुष के लिए पशुओं रूपी अन्न की । यह पशु रूपी अन्न क्या है, यह अस्पष्ट है । शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.८, १२.७.३.१७, १२.८.१.२० आदि में सौत्रामणी के संदर्भ में कहा गया है कि सोम पयः है, अन्न सुरा है । पयः की पराकाष्ठा सोमपान में है, सुरा की पराकाष्ठा अन्नाद्य ( अन्नों में सर्वश्रेष्ठ, दधि, घृत व मधु ) प्राप्ति में है । सोम पयोग्रह से सम्बन्धित है, अन्न सुराग्रह से । पशु पयोग्रह हैं ( उनमें पयः की उत्पत्ति होती है ), अन्न सुराग्रह हैं । ग्राम्य पशु पयोग्रहा हैं, आरण्यक पशु सुराग्रहा हैं ।

          वैदिक व पौराणिक साहित्य में अन्न का ग्राम्य व आरण्यक अन्न में वर्गीकरण किया गया है । पौराणिक व्यवस्था के अनुसार व्रत के दिन अन्न का भक्षण न करे । यदि करना ही पडे तो आरण्यक अन्न का सेवन कर ले । शतपथ ब्राह्मण ९.१.१.३ में ग्राम्य व आरण्यक अन्न का उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण ९.३.१.२४ का कथन है कि अरण्य तिर की भांति है, अर्थात् अरण्य के पशु देखते ही तिरोहित हो जाते हैं । इसी प्रकार अवाङ्ग प्राण हैं । ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं कि सात ग्राम्य ओषधियां हैं, सात आरण्य ओषधियां ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.८.१) । शतपथ ब्राह्मण १२.७.२.९ में सौत्रामणि याग के संदर्भ में ग्राम्य व आरण्यक अन्नों के रूप में व्रीहि, श्यामाक, गोधूम, कुवल, उपवाक, बदर, यव, कर्कन्धू, शष्प, तोक्म का नाम आया है ( शतपथ ब्राह्मण १२.९.१. में शष्प को लोम क प्रतीक, तोक्म को त्वक् का, लाजा को मांस का, कारोतर को अस्थि का, मासर को मज्जा का, नग्नहु को लोहित का, पयः को रेतः का व सुरा को मूत्र इत्यादि का प्रतीक कहा गया है ) । बृहदारण्यक उपनिषद १.५.१ में उल्लेख आता है कि प्रजापति ने अपने तप व मेध से सात अन्न उत्पन्न किए । उनमें से एक साधारण अन्न है, दो अन्न देवताओं को दिए, तीन अपने लिए रखे, एक पशुओं को दिया । शतपथ ब्राह्मण ८.३.३.७ में अन्नों का वर्गीकरण निरुक्त व अनिरुक्त अन्नों में किया गया है । इन निरुक्त व अनिरुक्त अन्नों की प्राप्ति के लिए ८ निरुक्त छन्दों व ४? अनिरुक्त छन्दों वाली इष्टकाओं की व्यवस्था दी गई है । कहा गया है कि निरुक्त अन्न में दोष यह है कि यह अन्त वाला है, समाप्त होने वाला है, अनन्त नहीं । अतः निरुक्त व अनिरुक्त दोनों प्रकार के अन्नों की प्राप्ति की आवश्यकता है । शतपथ ब्राह्मण १०.१.१.११ के अनुसार भुक्त अन्न का अमृत भाग नाभि से ऊपर रहता है । मर्त्य भाग नाभि से नीचे रहता है (और मूत्र आदि के रूप में क्षयित होता रहता है)

          शतपथ ब्राह्मण आदि में सार्वत्रिक रूप से उदुम्बर को अन्न कहा गया है ( उदुम्बर शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ) । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.१६ में प्राण, अन्न व ऊर्क् के त्रिक् का उल्लेख है । उदुम्बर का उल्लेख ऊर्क् व अन्न के रूप में साथ - साथ आता है । शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.१२ के अनुसार जो ऊर्क् है, वह मनुष्य का स्व है । जब तक पुरुष का स्व बना रहता है तब तक उसे क्षुधा नहीं सताती । सोमयाग में लगता है कि इस कथन का बहुलता से उपयोग किया गया है । सोमयाग में उत्तरवेदी में पश्चिम दिशा में सदोमण्डप बना होता है जिसमें ऋत्विजगण आसीन होकर गायन आदि करते हैं । इस सदोमण्डप को यज्ञपुरुष का उदर कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.२) । उदर में ही अन्न का ग्रहण होता है । इस सदोमण्डप के मध्य में उदुम्बर काष्ठ का एक स्तम्भ गडा होता है जिसे औदुम्बरी कहते हैं । सामवेदी गण इसी के परितः आसीन होकर सामगान करते हैं । कहा जाता है कि यह स्तम्भ सामवेदियों द्वारा की गई त्रुटियों का संशोधन करता रहता है । एक ओर स्व से, ऊर्क् से युक्त उदर है तो दूसरी ओर शतपथ ब्राह्मण १.६.३.१७ में आसुरी उदर में वृत्र की स्थिति का कथन है

 

 

ज्योति अप्तोर्याम सोमयागस्य अयं चित्रः गार्गेयपुरम्, कर्नूल मध्ये अनुष्ठितस्य ज्योति अप्तोर्याम सोमयागस्य श्री राजशेखरशर्मणः महोदयस्य संग्रहतः उद्धृतमस्ति। अस्मिन् चित्रे उद्गातृगणः औदुम्बर्याः परितः स्थिताः सन्ति।

 

                   वैदिक साहित्य में अन्न और अन्न रस प्राप्ति के उपायों का उल्लेख आता है । अथर्ववेद १९.७.४ के अनुसार आपः देवता वाला पूर्वाषाढा नक्षत्र अन्न में रस प्रदान करता है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.४.१ में वाक् के रूप में अषाढा नामक इष्टका का नाम आया है जो पृथिवी का रूप है । आदित्य स्तोमभागा इष्टकाएं है । आदित्य रस है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.३.२ के अनुसार छन्दस्या इष्टकाएं अन्न हैं और स्तोमभागा इष्टकाएं अन्न रस हैं । शतपथ ब्राह्मण ८.५.२.१ के अनुसार ४० छन्दस्या इष्टकाएं अन्न का कार्य पापरहित होने पर ही करती हैं । योग के ग्रन्थों में उल्लेख है कि जो तालु मूल में स्रवित होने वाले द्रव को जिह्वा का तालुमूल में प्रवेश कराकर पीने में समर्थ होता है, वह पूर्ण: तृप्त हो जाता है । इसी तथ्य का उल्लेख ऋग्वेद ६.४१.३ में है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.५.१२ के अनुसार यावन्मात्र रस ही सारे अन्न का संस्कार कर देता है ।

          ऋग्वेद १.१८७ सूक्त अन्न देवता का है । इस सूक्त में अन्न को वातापी संज्ञा दी गई है और कामना की गई है कि वातापी मोटा - ताजा हो । यह सूक्त अगस्त्य ऋषि का है और अगस्त्य ऋषि की कथा में इल्वल अपने भ्राता वातापी को मेष बनाकर उसे पकाकर ब्राह्मणों को खिलाता है जिससे ब्राह्मणों की मृत्यु हो जाती है । अगस्त्य इस वातापी को खाकर पचा जाते हैं जिससे वह पुनः जीवित नहीं हो पाता । इस संदर्भ में प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान यह वात के रूप हैं और अन्न का कार्य इनका आप्यायन करना, इन्हें मोटा ताजा बनाना है । इस प्रकार आप्यायित प्राणों का यदि सम्यक् उपयोग न हो सकेगा तो यह भोक्ता को मार डालेंगे ।  इस सूक्त में अन्न को पिता की संज्ञा दी गई है । वह पालने वाला है, मारने वाला नहीं, जबकि पार्थिव अन्न पालने व मारने दोनों का कार्य करता है । अन्न को पिता सदृश बनाने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.९.२.२० तथा २.४.३.१ में अन्न के संदर्भ में एक आख्यान आता है कि असुरों ने अन्न का विष से लेपन कर दिया । तब देवों ने आग्रयण इष्टि द्वारा अन्न के विष को दूर किया ( नव सस्य प्राप्त होने पर आग्रयण इष्टि का विधान है ) ।

           शतपथ ब्राह्मण ९.२.१.१२ में दधि, मधु और घृत को परम अन्न, अन्नाद्य कहा गया है । अग्नि के लिए घृत सर्वश्रेष्ठ अन्न कहा जाता है ( ऋग्वेद १०.६९.२) । अथर्ववेद ८.७.१२ में कहा गया है कि गौ घृत रूपी अन्न उत्पन्न करने में समर्थ हो सके, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह ऐसे घास/वीरुध का भक्षण करे जो सर्वांग में मधु से निर्मित हो । ब्राह्मण ग्रन्थों में योग मार्ग के घृत की व्याख्या का प्रयास यह  कह कर किया गया है कि जिस में से सुगन्ध आए, वह घृत है, जिसमें घॄं की ध्वनि उत्पन्न हो वह घृत है । शतपथ ब्राह्मण १२.९.१.१ में सौत्रामणि याग के संदर्भ में उल्लेख आता है कि लोक में जो पुरुष अन्न खाता है, उरु लोक में अन्न उसे खाता है । इसका उपाय परिस्रुत अन्न है जो ब्राह्मण द्वारा अन्नाद्य से उत्पन्न किया जाता है । अन्नाद्य के लिए भविष्य में अलग से टिप्पणी की आवश्यकता है ।

           वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से संवत्सर को अन्न कहा गया है क्योंकि अन्न संवत्सर में उत्पन्न होता है ( शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१ आदि ) । जैसा कि अन्य शब्दों की टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, संवत्सर से तात्पर्य पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा के त्रिक् से लेना चाहिए । बाह्य संवत्सर में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है तो अध्यात्म में हमारी देह सूर्य रूप किसी ज्योतिपुञ्ज की परिक्रमा करती है । सोमयाग में उत्तरवेदी की अग्नि में सोम, घृत आदि की आहुति प्रदान करने के लिए वषट्कार/वौषट् का उच्चारण किया जाता है । कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१४ इत्यादि ) कि वौषट् में वौक् तो सूर्य है और षट् षड्-विध अन्न है । अन्यत्र षट् का निर्वचन ६ ऋतुओं के रूप में किया गया है क्योंकि संवत्सर में ६ ऋतुएं होती हैं । यह संकेत करता है यह मनुष्य व्यक्तित्व के अन्नमय से लेकर हिरण्मय कोष तक सात कोषों की ओर संकेत हो सकता है । सर्वोच्च कोष सूर्य रूप है जिससे नीचे के ६ कोष अन्न ग्रहण करते हैं । शतपथ ब्राह्मण ११.२.४.६ में प्राण को अन्नाद व उदान को अन्नप्रद कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण २.४.२.७ में प्रजापति द्वारा देवों, मनुष्यों आदि के लिए अन्न के वितरण का कथन है । देवों के लिए यज्ञ, अमृत व ऊर्क् अन्न हैं तथा सूर्य ज्योति है ( देवों के लिए यज्ञ अन्न कैसे है, इसकी व्याख्या शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.२ में मिलती है । अन्न प्राप्त होने पर असुरों ने अन्न का भक्षण केवल अपने आप ही किया । देवों ने एक दूसरे के मुख में डाला । अतः यज्ञ उनका अन्न हुआ ) । पितरों के लिए अन्न स्वधा व मनोजव हैं तथा चन्द्रमा ज्योति है । मनुष्यों के लिए अन्न प्रजा, मृत्यु है तथा अग्नि ज्योति है । पितरों को अन्न अमावास्या को चन्द्रमा के क्षीण होने पर ही प्रदान किया जाता है जिससे देवों को चन्द्रमा से अन्न प्राप्ति में व्यवधान न हो । अमावास्या को चन्द्रमा पृथिवी पर ओषधियों आदि में प्रवेश कर जाता है ( यदि चन्द्रमा को मन के निरुक्त व अनिरुक्त, चेतन व अचेतन भाग माना जाए तो अचेतन मन को ओषधियों में प्रयुक्त चन्द्रमा माना जा सकता है ) । पितरों का अन्न स्वधा कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १३.८.१.४) । डा. फतह सिंह के अनुसार जो स्व को धारण करता हो, वह स्वधा है । दूसरी ओर देवों का अन्न स्वाहाकार है ।

          ब्राह्मण ग्रन्थों में अन्न को सार्वत्रिक रूप से विट्/प्रजा की संज्ञा दी गई है ( शतपथ ब्राह्मण ४.३.३.१२ इत्यादि ) । शतपथ ब्राह्मण ३.३.२.८ के अनुसार सोम क्षत्र है, अन्य ओषधियां विट् हैं । अन्न ही क्षत्र की विशः हैं ।

           अथर्ववेद ७.१०६.१ में स्वप्न में भुक्त किसी अन्न का उल्लेख है । अन्न का विभिन्न दिशाओं, स्तरों पर वास्तविक भोक्ता कौन है, इसका वर्णन अथर्ववेद १५.१ में किया गया है । इस भोक्ता को वैदिक साहित्य में अन्नाद कहते हैं । अग्नि अन्नाद है । अन्न को ग्रहण करने के लिए यह आवश्यक है कि अन्नाद या प्राण पूर्ण रूप से विकसित हो । शतपथ ब्राह्मण ८.६.३.५ के अनुसार गार्हपत्य अन्न है, चिति को प्राप्त अग्नि अत्ता है । मैत्रायणी उपनिषद ६.१० में भोक्ता पुरुष और भोज्य प्रकृति का कथन है । शतपथ ब्राह्मण ६.१.२.२५ में अत्ता को क्षत्रिय व अन्न को विशः कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.१७ के अनुसार प्राण पूर्व्य ब्रह्म है, अन्न नम: है । अन्नाद की विस्तृत चर्चा इस टिप्पणी में नहीं की जा रही है । अग्नि के विकास के लिए वैदिक साहित्य में अग्निचयन का विस्तृत वर्णन मिलता है ।

          शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.५ में गवामयन सोमयाग के संदर्भ में कहा गया है कि पृष्ठ्य षडह का तीसरा अह वर्षिष्ठ है, चौथा अह विराट् है, अन्न विराट् है । पांचवां अह प्रथिष्ट है । चतुर्थ अह विराट्, अन्न कैसे बनता है, यह अन्वेषणीय है ।

          वैदिक निघण्टु में अन्न के २८ अन्य रूपों की परिगणना की गई है जिनका निर्वचन होना अभी शेष है ।

          अन्न पर यह टिप्पणी वैदिक ग्रन्थों के बहुत सीमित अवलोकन पर आधारित है । भविष्य में पूर्ण अवलोकन पर आधारित टिप्पणी अपेक्षित है ।

प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.

Before going to the philosophy of cereals as propounded in vedic literature, let us  see the philosophy of cereals in daily life. Why do we need to take food at all? This can be answered in the way that a creature thinks that he is all alone in the world, while the reality is that he is a part of the whole, the collectivity. To fulfill the needs of the whole inside himself, a creature has to take food from outside. When he is taking food, he is supporting the whole universe inside himself.

          All creatures take their food as prescribed by nature for them. But a man has to think about the quality of his food. According to modern sciences, one must have a balance of proteins, carbohydrates, fats and vitamins in his food. The question is – is this prescription is o.k. with spirituality also? In spirituality, there is a neglecting attitude towards proteins. So much that even pulses have been prohibited. This can be explained as follows : Proteins are made up of  elements carbon, hydrogen, nitrogen and oxygen, while carbohydrates are made up of carbon, hydrogen and oxygen . Thus there is an excess element nitrogen in proteins which is connected with gross element earth. Therefore, if one takes excess intake of protein, he is connecting himself with earth. On the other hand, carbohydrates are connected more with gross element sky, airy nature. In spirituality, one has to transcend the earth and reach the heaven.

          The other problem about food in spirituality is decreasing the total quantity of intake of food, just sufficient for living. This can be done only if the intensity of fire inside the stomach can be lessened. There is a guess that if the essence of food like semen is preserved, this lessens the intensity of fire in the stomach. The other method which the mankind has developed over time is to mix the food with saliva of the mouth. For this purpose, efforts are made to take food in dry form so that maximum saliva can be mixed with it.

          Animals can get their necessary food from grass etc., but not man. Modern sciences teach us that there are certain enzymes in the saliva of animals which find out the food hidden between the fibers of grass and then convert it into useful food. The vedic literature answers this question in the way that a sun develops inside us. The more this sun gets developed, the more food will it be able to find out. According to one upanishada, there is a prime inward entity for whom this gross atman is food. When this prime entity gets developed, the gross matter which was tasteless earlier, becomes tasty. In daily life also, we see that when we are hungry, the fire inside the stomach is kindled, even tasteless things become tasty. What is the difficulty in development of this sun inside? According to one sacred text, the situation regarding collection of fine food from the universe before and after being sinless is different. If the sun inside is attached with sins, it will generate poison in the food. This is an open question as yet how the sweet and bitter food is produced on this earth? Some say that God wants to keep the creatures alive, so he has provided them with sweet food also. Some say that those rays of sun which reach the earth after reflection from moon, they create sweet food, while those rays which reach direct, give rise to bitter food.

          There is a ritual called Mahaavrata in Somayaaga. The definition of vrata/fast has been given that on this day of fast, one has to do without gross food, he has to fetch his food directly from the universe. In Mahaavrata ritual or festival, this is done by singing the hymns of Saamaveda at higher level and by making his body a musical instrument at the gross level. The combination of both is necessary.

          Puraanic texts are full of the highness of qualities of donating cereals. But in vedic literature, one can donate a thing when he is able to produce that thing by his efficiency. The other name of efficiency is ‘seeing with a difference’. There is a hymn in Rigveda which says that one who sees with a difference, he is able to get food from God.

          There is a reference in a vedic mantra of a threefold food which can be obtained only by a twice – born Brahmin. What is this threefold food, different texts and people have tried to explain it. One sacred text says that agriculture/to plough the field, rain/watering and seeding are the threefold food which can be achieved only by a twice born, or a person free from sins. To plough a field means to plough our own self. For this an equivalent of plough is required. In vedic literature, an axle, an equipment which is able to concentrate energy forces just like a magnet, can work as a plough. Our own body is a good axle which continuously attracts energy from the universe. Our feet attract energy from the earth. But we are not able to feel it because our body is loaded with external food. In Vipashyana meditation, instructions are given to sharpen our consciousness which can move throughout the body, and then take this consciousness out from the bounds of the body. This is only possible when the praana and apaana get united, in other words, our praana has access to the root portion. It has been stated that there are 16 phases like hair, skin, blood, bones, marrow etc. which attract food for praana or life. The last one is the extract of food which can be attracted by Aahuti only. At another place, it is stated that the mandala/circumference of sun is the food and the man situated inside is the eater. There seem to be less statements how watering has to be done. Similarly, how sowing of seeds has be done, is a subject which has been referred less frequently. A question has been raised whether sowing of seeds has to be done on ploughed field of Aatman only, or on non – ploughed field or both. Regarding sowing, there is an interesting story in puraanas where king Kuru is trying to plough the field and then Indra interferes and asks where are the seeds to sow. The king answers that his body parts are the seeds. Indra cuts his body parts with his chakra.

          Animals have been universally called as food for human being. For fire, herbs are the food, for air waters, for sun, moon is food. What is this food for humans in the form of animals, is not clear. It has been said that milk is Soma while cereals are wine. The extreme elevation of milk is in soma while that of wine in the finest food(which is a trio of curd, butter and honey in vedic literature). Animals are a vessel for preserving milk because they produce milk. Village animals are vessels of milk, while wild animals are vessels of wine.

          The food has been classified in two categories : village and wild. In a fast, it is forbidden to take cereals from outside. If it is at all necessary, one can consume wild cereals. But one shoud be clear what wild means in spirituality. There is one statement that wild is like vanishing of animals. Similar is the situation of lower praanas which get vanished. There is another statement which classified food into visible and nonvisible. The visible is finite one, therefore, one has to get control over both.

          Udumbara tree has been universally called as food. In somayaga, there is a place for sitting and singing by the priests. This is called Sadomandapa. In the middle of this, there is a post made of Udumbara wood. This sadomandapa is symbolic of stomach of the yaga. Stomach is used for storage of food. The property of Udumbara is that it keeps hunger under control. The opposite of it is the demonical stomach.

          Vedic literature universally calls year/samvatsara as food. As stated for other words also, year should be taken to mean as a trio of sun, moon and earth which revolve around each other. In a similar manner, the trio of spirituality can be taken as some source of light in our body, our body and mind. The food is connected with 6 seasons of the year. These seasons receive their energy from the sun. Therfore, it can be said that the highest stage of an individual, his sun, gives power to lower self to produce his own food. The lower self is generally divided into 6 parts. The basis of division may be the decreasing entropy of life.

 

 

संदर्भ

अन्न

अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमी पुनः ।
अन्यस्यासा जिह्वया जेन्यो वृषा न्यन्येन वनिनो मृष्ट वारणः ॥१.१४०.

विश्वं सत्यं मघवाना युवोरिदापश्चन प्र मिनन्ति व्रतं वाम् ।
अच्छेन्द्राब्रह्मणस्पती हविर्नोऽन्नं युजेव वाजिना जिगातम् ॥२.२४.१२

अस्मै तिस्रो अव्यथ्याय नारीर्देवाय देवीर्दिधिषन्त्यन्नम् ।
कृता इवोप हि प्रसर्स्रे अप्सु स पीयूषं धयति पूर्वसूनाम् ॥२.३५.

स्व आ दमे सुदुघा यस्य धेनुः स्वधां पीपाय सुभ्वन्नमत्ति ।
सो अपां नपादूर्जयन्नप्स्वन्तर्वसुदेयाय विधते वि भाति ॥७॥

हिरण्यरूपः स हिरण्यसंदृगपां नपात्सेदु हिरण्यवर्णः ।
हिरण्ययात्परि योनेर्निषद्या हिरण्यदा ददत्यन्नमस्मै ॥१०॥
तदस्यानीकमुत चारु नामापीच्यं वर्धते नप्तुरपाम् ।
यमिन्धते युवतयः समित्था हिरण्यवर्णं घृतमन्नमस्य ॥११॥

अस्मिन्पदे परमे तस्थिवांसमध्वस्मभिर्विश्वहा दीदिवांसम् ।
आपो नप्त्रे घृतमन्नं वहन्तीः स्वयमत्कैः परि दीयन्ति यह्वीः ॥१४॥

उपस्थाय मातरमन्नमैट्ट तिग्ममपश्यदभि सोममूधः ।

प्रयावयन्नचरद्गृत्सो अन्यान्महानि चक्रे पुरुधप्रतीकः ॥३.४८.३

यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥४.२.७
भद्रं ते अग्ने सहसिन्ननीकमुपाक आ रोचते सूर्यस्य ।
रुशद्दृशे ददृशे नक्तया चिदरूक्षितं दृश आ रूपे अन्नम् ॥४.११.१
यस्त्वामग्न इनधते यतस्रुक्त्रिस्ते अन्नं कृणवत्सस्मिन्नहन् ।
स सु द्युम्नैरभ्यस्तु प्रसक्षत्तव क्रत्वा जातवेदश्चिकित्वान् ॥४.१२.१
वद्मा हि सूनो अस्यद्मसद्वा चक्रे अग्निर्जनुषाज्मान्नम् ।
स त्वं न ऊर्जसन ऊर्जं धा राजेव जेरवृके क्षेष्यन्तः ॥६.४.४
नितिक्ति यो वारणमन्नमत्ति वायुर्न राष्ट्र्यत्येत्यक्तून् ।
तुर्याम यस्त आदिशामरातीरत्यो न ह्रुतः पततः परिह्रुत् ॥६.४.५
एष द्रप्सो वृषभो विश्वरूप इन्द्राय वृष्णे समकारि सोमः ।
एतं पिब हरिव स्थातरुग्र यस्येशिषे प्रदिवि यस्ते अन्नम् ॥६.४१.३
यद्दधिषे प्रदिवि चार्वन्नं दिवेदिवे पीतिमिदस्य वक्षि ।
उत हृदोत मनसा जुषाण उशन्निन्द्र प्रस्थितान्पाहि सोमान् ॥७.९८.२
स्वयं चित्स मन्यते दाशुरिर्जनो यत्रा सोमस्य तृम्पसि ।
इदं ते अन्नं युज्यं समुक्षितं तस्येहि प्र द्रवा पिब ॥८.४.१२
सामन्नु राये निधिमन्न्वन्नं करामहे सु पुरुध श्रवांसि ।
ता नो विश्वानि जरिता ममत्तु परातरं सु निरृतिर्जिहीताम् ॥१०.५९.२
कृष्णा यद्गोष्वरुणीषु सीदद्दिवो नपाताश्विना हुवे वाम् ।

वीतं मे यज्ञमा गतं मे अन्नं ववन्वांसा नेषमस्मृतध्रू ॥१०.६१.४
घृतमग्नेर्वध्र्यश्वस्य वर्धनं घृतमन्नं घृतम्वस्य मेदनम् ।
घृतेनाहुत उर्विया वि पप्रथे सूर्य इव रोचते सर्पिरासुतिः ॥१०.६९.२
यो अस्मा अन्नं तृष्वादधात्याज्यैर्घृतैर्जुहोति पुष्यति ।
तस्मै सहस्रमक्षभिर्वि चक्षेऽग्ने विश्वतः प्रत्यङ्ङसि त्वम् ॥१०.७९.५
तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतश्चित्राश्चिकित्र उषसां न केतवः ।
यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमास्ये ॥१०.९१.५
स रुद्रेभिरशस्तवार ऋभ्वा हित्वी गयमारेअवद्य आगात् ।

वम्रस्य मन्ये मिथुना विवव्री अन्नमभीत्यारोदयन्मुषायन् ॥१०.९९.५
दक्षिणाश्वं दक्षिणा गां ददाति दक्षिणा चन्द्रमुत यद्धिरण्यम् ।
दक्षिणान्नं वनुते यो न आत्मा दक्षिणां वर्म कृणुते विजानन् ॥१०.१०७.७
यस्य त्यत्ते महिमानं मदेष्विमे मही रोदसी नाविविक्ताम् ।
तदोक आ हरिभिरिन्द्र युक्तैः प्रियेभिर्याहि प्रियमन्नमच्छ ॥१०.११२.४
विश्वे देवासो अध वृष्ण्यानि तेऽवर्धयन्सोमवत्या वचस्यया ।
रद्धं वृत्रमहिमिन्द्रस्य हन्मनाग्निर्न जम्भैस्तृष्वन्नमावयत् ॥१०.११३.८
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य ।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ॥१०.११७.६
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।

अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥१०.१२५.४
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

 

 

 

*प्र वो वाजा अभिद्यव इति। अन्नं वै वाजाः - मा.श. १.४.१.९

*अन्नं धाय्ये, मुखत इदमन्नाद्यं दध्म इति वदन्तः। तदु तथा न कुर्यात् - मा.श. १.४.१.३७

*प्रयाज ब्राह्मणम् : (क्षुद्र सरीसृप वर्षा में) ईडितमिवान्नमिच्छमानं चरति - तस्माद्वर्षा इडः - मा.श. १.५.३.११

*वृत्र का द्वेधा विभक्त होना। सौम्य चन्द्रमा, असुर्य उदर। वृत्र अन्नाद-- तस्मादाहुर्वृत्र एव तर्ह्यन्नाद आसीत् - मा.श. १.६.३.१७

*सोम राजा देवों का अन्न। अमावास्या में सोम का ओषधियों में प्रवेश - मा.श. १.६.४.५, १.६.४.१५

*अविषं नः पितुं कृणु। अन्नं वै पितुः। - मा.श. १.९.२.२०

*सम्भरण : अपः संभरति। अन्नं वा आपः अन्नं हि वा आपस्तस्माद् यदेमं लोकमाप आगच्छन्ति अथेहान्नाद्यं जायते - मा.श. २.१.१.३

*पूर्णाहुतिः -- स यदग्नये पवमानाय निर्वपति । प्राणा वै पवमानो यदा वै जायतेऽथ प्राणोऽथ यावन्न जायते मातुर्वैव तावत्प्राणमनु प्राणिति यथा वा तज्जात एवास्मिन्नेतत्प्राणं दधाति - २.२.१.[१०] अथ यदग्नये पावकाय निर्वपति । अन्नं वै पावकं तज्जात एवास्मिन्नेतदन्नं दधाति - २.२.१.[११] अथ यदग्नये शुचये निर्वपति । वीर्यं वै शुचि यदा वा अन्नेन वर्धतेऽथ वीर्यं तदन्नेनैवैनमेतद्वर्धयित्वाथास्मिन्नेतद्वीर्यं शुचि दधाति तस्मादग्नये शुचये - २.२.१.[१२]

*यद्धि किं चान्नं गौरेव तदिति - मा.श. २.२.४.१३

*अन्न का वितरण : देवों के लिए - यज्ञो वोऽन्नममृतत्वं व ऊर्ग्वः सूर्यो वो ज्योतिरिति, पितरों के लिए चन्द्रमा ज्योति, मनुष्यों के लिए अग्नि ज्योति। पितरों को चन्द्रमा क्षीण होने पर अन्न की प्राप्ति -- मा.श. २.४.२.१

*एष वै सोमो राजा देवानामन्नं यच्चन्द्रमाः- मा.श. २.४.२.७

*अन्न को निर्विष करने हेतु आग्रयणेष्टि - मा.श. २.४.३.१

*तद्वै पय एवान्नम् । एतद्ध्यग्रे प्रजापतिरन्नमजनयत तद्वा अन्नमेव प्रजा अन्नाद्धि सम्भवन्ति- मा.श. २.५.१.६

*मेखला त्रिवृद् भवति। त्रिवृद्ध्यन्नम्। पशवो ह्यन्नम्। पिता, माता, यज्जायते - तत् तृतीयम् - मा.श. ३.२.१.१२

*औदुम्बर दण्ड। अन्नं वा ऊर्क् उदुम्बर ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै - मा.श. ३.२.१.३३

*क्षत्र सोम, विड अन्य ओषधि। अन्नं वै क्षत्रस्य विट् - मा.श. ३.३.२.८

*औदुम्बरी आसन्दी। अन्नं वा ऊर्क् - - - - - - नाभिदघ्ना भवति। अत्र वा ऽअन्नं प्रतितिष्ठति, अन्नं सोमः। - मा.श. ३.३.४.२७

*औदुम्बरी-- अन्नं वा ऊर्गुदुम्बरः। उदरमेवास्य सदस्तन्मध्यतोऽन्नाद्यं दधाति तस्मान्मध्य औदुम्बरीं मिनोति - मा.श. ३.६.१.२

*यूप का परिव्ययन। अन्नाद्यं दधाति--तस्मादत्रेव परिव्ययत्यत्रेव हीदं वासो भवत्यन्नाद्यमेवास्मिन्नेतद्दधात्यत्रेव हीदमन्नं प्रतितिष्ठति - मा.श. ३.७.१.२०

*पशवो वा अनुयाजाः पयः पृषदाज्यं तत्पशुष्वेवैतत्पयो दधाति तदिदं पशुषु पयो हितं प्राणो हि पृषदाज्यमन्नं हि पृषदाज्यमन्नं हि प्राणः - मा.श. ३.८.४.८

*अथ सौम्यम् (पशुम्)। अन्नं वै सोमः - मा.श. ३.९.१.८

*अथ सारस्वतम् । वाग्वै सरस्वती वाचैव तत्प्रजापतिः पुनरात्मानमाप्याययत - - वाग्वै सरस्वती। अन्नं सोमः। तस्माद्यो वाचा प्रसामि, अन्नादो भवति - मा.श. ३.९.१.९

*विशो वै मरुतः, अन्नं वै विशः। ऋतवो वा इदं सर्वमन्नाद्यं पचन्ति - मा.श. ४.३.३.१२

*अथ गौः । प्राणमेवैतयात्मनस्त्रायते प्राणो हि गौरन्नं हि गौरन्नं हि प्राणस्तां रुद्राय होत्रेऽददात्- मा.श. ४.३.४.२५

*चरुर्वै देवानामन्नमोदनो हि चरुरोदनो हि प्रत्यक्षमन्नं - मा.श. ४.४.२.१

*अन्नमेव ग्रहः । अन्नेन हीदं सर्वं गृहीतं तस्माद्यावन्तो नोऽशनमश्नन्ति ते नः सर्वे गृहीता भवन्ति - मा.श. ४.६.५.४

*अथैतद्वृषा सोमः । योषा अपो हविर्धानेऽध्येति तस्मान्मिथुनाच्चन्द्रमा जातोऽन्नाद्वै तदन्नं जातं यदद्भ्यश्च सोमाच्च चन्द्रमाश्चन्द्रमा ह्येतस्यान्नं य एष तपति तद्यजमानं चैवैतज्जनयत्यन्नाद्यं चास्मै जनयत्यृचश्च साम्नश्च यजमानं जनयत्यद्भ्यश्च सोमाच्चास्मा अन्नाद्यम् - मा.श. ४.६.७.१२

*देवा ह वै सत्त्रमासत । श्रियं गच्छेम यशः स्यामान्नादाः स्यामेति तेभ्य एतदन्नाद्यमभिजितमपाचिक्रमिषत्पशवो वा अन्नं पशवो हैवैभ्यस्तदपाचिक्रमिषन्यद्वै न इमे श्रान्ता न हिंस्युः कथमिव स्विन्नः सक्ष्यन्त इति - ४.६.९.[१]

त एते गार्हपत्ये द्वे आहुती अजुहवुः । गृहा वै गार्हपत्यो गृहा वै प्रतिष्ठा तदेनान्गृहेष्वेव न्ययच्छंस्तथैभ्य एतदन्नाद्यमभिजितं नापाक्रामत् - - मा.श. ४.६.९.१

*वाजपेय : देवों ने एक दूसरे के मुख में जुहा। यज्ञो हैषामास। यज्ञो हि देवानामन्नम् - मा.श. ५.१.१.२

*प्रजापतिर्वाचस्पतिः। अन्नं वाजः - मा.श. ५.१.१.१६

*विशो वै मरुतः। अन्नं वै विशः। - मा.श. ५.१.३.३

*अन्नं वै प्रजापतिः। पशुर्वा अन्नम् - मा.श. ५.१.३.७

*अन्नं वा एष उज्जयति - यो वाजपेयेन यजते। अन्नपेयं ह वै नामैतद् - यद्वाजपेयम्। - मा.श. ५.१.४.१२

*अन्नं वा ऊर्गुदुम्बरः। ऊर्ग्वै स्वम्। यावद्वै पुरुषस्य स्वं भवति - नैव तावदशनायति - मा.श. ५.३.५.१२

*अत्ता क्षत्रिय, अन्नं विट् - मा.श. ६.१.२.२५

*आयतनमेवैतदग्नये करोति न ह्यनायतने कश्चन रमते अन्नं वा आयतनम्, अन्नम् पशवः - मा.श. ६.२.१.१४

*युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिरिति । प्राणो वै ब्रह्म पूर्व्यं, अन्नं नमः - मा.श. ६.३.१.१७

*तद्यैषु वनस्पतिषूर्ग्यो रस आसीदुदुम्बरे तमदधुस्तयैतदूर्जा सर्वान्वनस्पतीन्प्रति पच्यते तस्मात्स सर्वदार्द्रः सर्वदा क्षीरी तदेतत्सर्वमन्नं यदुदुम्बरः - मा.श. ६.६.३.३

*जायत एष एतद्यच्चीयते स एष सर्वास्मा अन्नाय जायत
एतद्वेकमन्नं यदपरशुवृक्णं तेनैनमेतत्प्रीणाति यदग्ने कानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि सर्वं तदस्तु ते घृतं - मा.श. ६.६.३.५

*अधःशयम् अन्न - एतद्वेकमन्नं यदधःशयं तेनैनमेतत्प्रीणाति यदत्त्युपजिह्विका यद्वम्रो अतिसर्पतीत्युपजिह्विका वा हि तदत्ति वम्रो वातिसर्पति सर्वं तदस्तु ते घृतं--मा.श. ६.६.३.६

*यजमानो यश्चैनं द्वेष्टि यं च द्वेष्टि तमस्मा अन्नं कृत्वाऽपिदधाति - मा.श. ६.६.३.११

*संवत्सरोऽग्निर्यावानग्निर्यावत्यस्य मात्रा तावतैवैनमेतदन्नेन प्रीणाति - - - यदु स्वाहाकारेण - तेनान्नम्। अन्नं हि स्वाहाकारः - मा.श. ६.६.३.१७

*मनसि ह्ययमात्मा प्रतिष्ठितोऽन्नमासञ्जनमन्ने ह्ययमात्मा प्राणैरासक्तः - मा.श. ६.७.१.२१

*अन्नं विशः - मा.श. ६.७.३.७

*अन्नं पशवः - मा.श. ६.८.२.७

*अयमेव स वायुर्योऽयं पवतेऽथ यदस्माद्वीर्यमुदक्रामदसौ स आदित्योऽथ यदस्मादन्नमस्रवद्यदेव संवत्सरेऽन्नं तत्तत् - मा.श. ७.१.२.५

*अथैनं विकृषति । अन्नं वै कृषिरेतद्वा अस्मिन्देवाः संस्करिष्यन्तः पुरस्तादन्नमदधुस्तथैवास्मिन्नयमेतत्संस्करिष्यन्पुरस्तादन्नं दधाति- मा.श. ७.२.२.७

*उभयम्वेतदन्नम् - यद्दर्भाः। आपश्च ह्येता ओषधयश्च। - मा.श. ७.२.३.२

*कृष्ट व अकृष्ट पर वपन। प्राण कृष्ट, आत्मा अकृष्ट -- कृष्टे चाकृष्टे च वपति प्राणांश्च तदात्मानं च भिषज्यति - मा.श. ७.२.४.२३

*बाहुओं द्वारा अन्न - मा.श. ७.४.१.४०

*अन्नं स्वयमातृण्णा (प्राणो स्वयमातृण्णा, इयं स्वयमातृण्णा) - मा.श. ७.४.२.१

*विष्णुरकामयतान्नादः स्यामिति स एते इष्टके अपश्यदुलूखलमुसले - - -- तदेतत्सर्वमन्नं यदुलूखलमुसले उलूखलमुसलाभ्यां ह्येवान्नं क्रियत - मा.श. ७.५.१.१२

*प्राण, अन्न, ऊर्क् का त्रिक् - मा.श. ७.५.१.१६

*प्राण गायत्री, अन्न विष्णु, ऊर्क् उदुम्बर - मा.श. ७.५.१.२१

*दूर्वेष्टका संस्कृत पशु का अन्न - मा.श. ७.५.१.३८

*अन्न सृजन हेतु ५ पशुओं की सृष्टि - मा.श. ७.५.२.६

*अन्न विराड्, अन्न गौ - मा.श. ७.५.२.१९

*पशवो वै छन्दांस्यन्नं पशवोऽन्नमु पशोर्मांसमथ वा एतेभ्यः पशुभ्यो मांसान्युत्क्रान्तानि भवन्ति तद्यच्छन्दस्या उपदधात्येष्वेवैतत्पशुषु मांसानि दधात्य - मा.श. ७.५.२.४२

*यदिमा आप एतानि मांसान्यथ क्व त्वक्क्व लोमेत्यन्नं वाव पशोस्त्वगन्नं लोम - मा.श. ७.५.२.४३

*अन्नं वा अपां पाथः - मा.श. ७.५.२.६०

*प्राणभृतं अन्नं - मा.श. ८.१.१.३

पशवो वै जगत्यन्नं पशवो मध्यं मध्यमा चितिर्मध्यतस्तदन्नं दधाति ता अनन्तर्हिताः प्राणभृद्भ्य उपदधात्यनन्तर्हितं तत्प्राणेभ्योऽन्नं दधात्युत्तरा उत्तरं तत्प्राणेभ्योऽन्नं दधाति - ८.३.३.[४]

* असौ वै लोकः प्रतिमैष ह्यन्तरिक्षलोके प्रतिमित इवास्रीवयश्छन्द इत्यन्नमस्रीवयस्तद्यदेषु लोकेष्वन्नं तदस्रीवयोऽथो यदेभ्यो लोकेभ्योऽन्नं स्रवति तदस्रीवयोऽथातो निरुक्तान्येव छन्दांस्युपदधाति - ८.३.३.[५]

*अन्नं वै स्तोमाः - मा.श. ८.३.३.६

*तृतीया चितिः। निरुक्त व अनिरुक्त छन्द -- स वै निरुक्तानि चानिरुक्तानि चोपदधाति । स यत्सर्वाणि निरुक्तान्युपाधास्यदन्तवद्धान्नमभविष्यदक्षेष्यत हाथ यत्सर्वाण्यनिरुक्तानि परोऽक्षं हान्नमभविष्यन्न हैनदद्रक्ष्यंश्चन निरुक्तानि चानिरुक्तानि चोपदधाति तस्मान्निरुक्तमन्नमद्यमानं न क्षीयते - मा.श. ८.३.३.७

*पञ्चमी चिति। असपत्नेष्टका -- अन्नं पुरीषवती। स योऽस्योपरिष्टात् पाप्माऽऽसीद् - अन्नेन तमपाहत - मा.श. ८.५.१.१६

*पापरहित होने पर ४० छन्दस्येष्टकाएं अन्न रूप में --अथ च्छन्दस्या उपदधाति । एतद्वै प्रजापतिः पाप्मनो मृत्योर्मुक्त्वान्नमैच्छत्तस्मादु हैतदुपतापी वसीयान्भूत्वान्नमिच्छति तस्मिन्नाशंसन्तेऽन्नमिच्छति जीविष्यतीति तस्मै देवा एतदन्नम्प्रायच्छन्नेताश्छन्दस्याः पशवो वै छन्दांस्यन्नं पशवस्तान्यस्मा अच्छदयंस्तानि यदस्मा अच्छदयंस्तस्माच्छन्दांसि - मा.श. ८.५.२.१

*चत्वारिंशदिष्टकाश्चत्वारिंशद्यजूंषि तदशीतिरन्नमशीतिः - मा.श. ८.५.२.१७

*अयमेव स योऽयमग्निश्चीयतेऽथ यत्तदन्नमेतास्ताश्छन्दस्या अथ यः सोऽन्नस्य रस एतास्ता स्तोमभागा - मा.श. ८.५.३.२

एष वै रश्मिरन्नं रश्मिरेतं च तद्रसं च संधायात्मन्प्रपादयते प्रेतिना धर्मणा धर्मं जिन्वेत्येष वै प्रेतिरन्नं प्रेतिरेतं च तद्रसं च संधायात्मन्प्रपादयतेऽन्वित्या दिवा दिवं जिन्वेत्येष वा अन्वितिरन्नमन्वितिरेतं च तद्रसं च संधायात्मन्प्रपादयते तद्यद्यदेतदाह तच्च तद्रसं च संधायात्मन्प्रपादयतेऽमुनाऽदो जिन्वादोऽस्यमुष्मै त्वाऽधिपतिनोर्जोर्जं जिन्वेति त्रेधाविहितास्त्रेधाविहितं ह्यन्नम् - ८.५.३.[३]

*वाग्वा अषाढा रस एष वाचि तद्रसं दधाति तस्मात्सर्वेषामङ्गानां वाचैवान्नस्य रसं विजानाति - - - - इयं वा अषाढाः असावादित्यः स्तोमभागाः - मा.श. ८.५.४.१

*अथैनाः पुरीषेण प्रच्छादयति । अन्नं वै पुरीषं रस एष तमेतत्तिरः करोति तस्मात्तिर इवान्नस्य रसः - मा.श. ८.५.४.४

*तस्मै (अग्नये) देवा एतां श्रियम्प्रायच्छन्नेताश्छन्दस्याः (इष्टकाः) पशवो छन्दांस्यन्नं पशवोऽन्नमु श्रीः। - मा.श. ८.६.२.१

*त्रिवृद्वै पशुः पिता माता पुत्रोऽथो गर्भ उल्बं जरायु अथो त्रिवृद्वा अन्नं कृषिर्वृष्टिर्बीजमेकैवातिच्छन्दा भवति- मा.श. ८.६.२.२

*अष्टगार्हपत्येष्टकोपधानम् -- अन्नं वै गार्हपत्यः, अत्ताऽयमग्निश्चितः - मा.श. ८.६.३.५

*अन्नं वै यजुष्मत्य इष्टका आत्मा लोकम्पृणान्नं तदात्मना परिदधाति- मा.श. ८.७.२.८

स वा आत्मन्नेव । यजुष्मतीरुपदधाति न पक्षपुच्छेष्वात्मंस्तदन्नं दधाति यदु वा आत्मन्नन्नं धीयते तदात्मानमवति तत्पक्षपुच्छान्यथ यत्पक्षपुच्छेषु नैव तदात्मानमवति न पक्षपुच्छानि - ८.७.२.[९]

*मांसं वै पुरीषं मांसेनैवैनमेतत्प्रच्छादयति....प्राणो स्वयमातृण्णा, अन्नं पुरीषम्। प्राणे तदन्नं दधाति तेन सर्वमात्मानं प्रच्छादयति। - मा.श. ८.७.३.२

*सर्वम्वेतदन्नं यन्मण्डूकः, अवका, वेतसशाखा। पशवश्च ह्येताः, आपश्च वनस्पतयश्च। सर्वेणैवैनमेतदन्नेन प्रीणाति - मा.श. ९.१.२.२३

*परम अन्न = परम रूप - मा.श. ९.२.१.१२

*अन्न आयु, अश्मा, पृश्नि - मा.श. ९.२.३.१६

*ग्राम्य व आरण्य अन्न। जर्तिल ग्राम्य व आरण्य दोनों। सप्त हि ता याः प्रतीच्यः स्रवन्ति सोऽस्यैषोऽवाङ्प्राण एतस्य प्रजापतेः सोऽरण्येऽनूच्यो भवति तिर इव तद्यदरण्यं तिर इव तद्यदवाङ्प्राणः - मा.श. ९.३.१.२४

*शिरो वैश्वानरः। शीर्ष्णो वाऽअन्नमद्यते। - - - - प्राणा वै मरुताः। प्राणैरु अन्नमद्यते - मा.श. ९.३.२.४

*अन्नं त्रयी विद्या (स्तोम यजु, ऋक् साम बृहत् रथन्तर) - मा.श. ९.३.३.१४

*अनन्त अन्न - मा.श. ९.३.३.१७

*भुक्त अन्न का अमृत भाग नाभि से ऊपर। मर्त्य भाग नाभि से नीचे - मा.श. १०.१.१.११

*प्राणेन वै देवा अन्नमदन्ति अग्निरु देवानां प्राणस्तस्मात्प्राग्देवेभ्यो जुह्वति प्राणेन हि देवा अन्नमदन्त्यपानेन मनुष्या अन्नमदन्ति तस्मात्प्रत्यङ्मनुष्येष्वन्नं धीयते - मा.श. १०.१.४.१२

*अथ पक्षयोररत्नी उपादधाति पक्षयोस्तद्वीर्यं दधाति बाहू वै पक्षौ बाहुभ्यामु वा अन्नमद्यतेऽन्नायैव तमवकाशं करोति- मा.श. १०.२.२.७

*अथ पुच्छे वितस्तिमुपादधाति प्रतिष्ठायां तद्वीर्यं दधाति प्रतिष्ठा वै पुच्छं हस्तो वितस्तिर्हस्तेन वा अन्नमद्यतेऽन्नायैव तमवकाशं करोति - मा.श. १०.२.२.८

*तीन पञ्चविध हैं - संवत्सर, अग्नि, पुरुष। उनकी पांच विधाएं - अन्न, पान, श्री, ज्योति, अमृत - मा.श. १०.२.६.१६

*अग्नि महत् के लिए ओषधि - वनस्पति अन्न, वायु महत् के लिए आपः अन्न, आदित्य महत् के लिए चन्द्रमा, पुरुष के लिए पशवः। - मा.श. १०.३.४.४

*अर्कमूल अन्न - मा.श. १०.३.४.५

*अन्न यजु। अन्नेन जायते। अन्नेन जवते - मा.श. १०.३.५.६

*यावन्मात्र इवान्नस्य रसः सर्वमन्नमवति - मा.श. १०.३.५.१२

*प्रजापतिं विस्रस्तम् यत्र देवाः समस्कुर्वंस्तमुखायां योनौ रेतोभूतमसिञ्चन्योनिर्वा उखा तस्मा एतत्संवत्सरेऽन्नं समस्कुर्वन्योऽयमग्निश्चितः - मा.श. १०.४.१.१

*षट्-चितिक अन्न - मा.श. १०.४.१.३

*ऊर्क् में क्यम् अन्न। यह अग्निचित है। महान् का अन्न व्रत। ओक् का अन्न थम् - मा.श. १०.४.१.४, १०.४.१.२१

*अग्नि प्रजापति के लिए महाव्रतीय ग्रह द्वारा संवत्सर का अन्न - मा.श. १०.४.१.१२

*वौषट् में वौक् एषः। षट् षट्-विध अन्न - मा.श. १०.४.१.१४

*प्राण के लिए १६ कलाओं द्वारा अन्न का हरण। लोम, त्वक्, असृग्, मेद, मांस, स्नाव, अस्थि, मज्जा। प्राण १७ प्रजापति - मा.श. १०.४.१.१७

*सप्तदश प्रजापति के लिए सप्तदश अन्न का निर्माण। १६ ऋत्विज १६ कला। आहुतियों द्वारा आहूत रस १७वां अन्न - मा.श. १०.४.१.१९

*मण्डल अन्न, मण्डल में पुरुष अत्ता। शरीर अन्न, दक्षिण अक्षि में पुरुष अत्ता - मा.श. १०.५.२.१८

*दिशाओं व रश्मियों में अन्न पुरीष। वही आहुतियां - मा.श. १०.५.४.४

*नक्षत्रों में अन्न पुरीष। वही आहुतियां - मा.श. १०.५.४.५

*छन्दों में अन्न पुरीष - मा.श. १०.५.४.८

*अहोरात्रों में अन्न पुरीष - मा.श. १०.५.४.१०

*आहुति चन्द्रमा, नक्षत्र समिधा - मा.श. १०.५.४.१७

*आदित्यो वा अत्ता। तस्य चन्द्रमा एवाहितय - - -प्राण अत्ता। उसका अन्न आहितयः - मा.श. १०.६.२.४

*अदिति के अदितित्व को जानने से सर्व अन्न - मा.श. १०.६.५.५

*यज्ञो देवानामन्नम् - मा.श. ११.१.८.२

*प्राण अन्नाद, उदान अन्नप्रद - मा.श. ११.२.४.६

*अन्न समिष्टयजुः - मा.श. ११.२.७.३१

*जिह्वा समिधम्। अन्न शुक्रामाहुतिं - मा.श. ११.६.२.९

*होता को अध्वर्यु द्वारा दीक्षा। अग्नि व वाक् होता, अन्न वृष्टि - मा.श. १२.१.१.४

*अन्न उक्थ्य, वीर्यं षोडशी। अन्न व वीर्य से सब कामों की प्राप्ति - मा.श. १२.२.२.७

*गवामयन के अह : (तीसरा अह वर्षिष्ठ, पांचवा प्रथिष्ठ), चतुर्थ अह विराट्, अन्न विराट् - मा.श. १२.२.४.५

*सौत्रामणी : अन्नं वा एतद् ब्राह्मणस्य यत्सोमः। पशवो हि सोम - मा.श. १२.७.२.२

*व्रीहि, श्यामाक, गोधूम, कुवल, उपवाक, बदर, यव, कर्कन्धू, शष्प, तोक्म। ग्राम्य व आरण्य अन्न - मा.श. १२.७.२.९

*अन्नं विराट्। वरुणो अन्नपतिः - मा.श. १२.७.२.२०

*सोम पयः, अन्न सुरा। पयः द्वारा सोमपीथ, सुरा द्वारा अन्नाद्य प्राप्ति - मा.श. १२.७.३.८

*सोम पयोग्रहाः। अन्नं सुराग्रहाः - मा.श. १२.७.३.१७

*पशवो वै पयोग्रहाः, अन्नं सुराग्रहाः। ग्राम्या वै पशवो पयोग्रहाः। आरण्याः सुराग्रहाः। प्राणो वा अन्नं पयः। प्राण एव अन्नाद्येऽन्ततः प्रतितिष्ठन्ति - मा.श. १२.८.१.२०

*पुरस्तात् प्रत्यङ्ङभिषिंचति। पुरस्ताद्धि प्रत्यगन्नमद्यते शीर्षतः। तस्मात् सौत्रामण्येजानस्य सर्वासु दिक्षु अन्नाद्यमरुन्द्धं भवति - मा.श. १२.८.३.१७

*सौत्रामणी : लोक में जो पुरुष अन्न खाता है, उरु लोक में अन्न उसे खाता है। स वा एष परिस्रुतो यज्ञस्तायते। अन्नाद्या वै ब्राह्मणेन परिस्रुत्। स एतस्माद् अन्नाद्यात् जायते। तं हामुष्मिन् लोके ऽन्नं न प्रत्यत्ति - मा.श. १२.९.१.१

*लोम शष्प, त्वक् तोक्मानि, मांसं लाजा, अस्थि कारोतरा, मज्जा मासरम्, रसः परिस्रुत्, नग्नहुर्लोहितम्, रेतः पयः, मूत्रं सुरा, ऊवध्यं वल्कसम्। - मा.श. १२.९.१.

*यद्वै प्राणेनान्मत्ति। तत् व्यानेन व्यानिति। शिश्नेन वा अन्नस्य रसं रेतः सिञ्चति। - मा.श. १२.९.१.१६

*अवभृथ से उदित होकर : प्राणो वै मित्रः। अपानो वरुणः। अन्नमेव पयस्या। मैत्रावरुण्या पयस्यया यजते। प्राण एवान्नाद्येऽन्ततः प्रतितिष्ठति - मा.श. १२.९.२.१२

*अन्नमुक्थ्यः। आत्मातिरात्रः। उक्थ्यावतिरात्रमभितो भवतः। तस्मादयमात्माऽन्नेन परिवृतः। - मा.श. १३.६.१.९

*तस्य यदेषु लोकेषु अन्नम्। तदस्यान्नं मेधः। तद्यदस्यान्नं मेधः। तस्मात् पुरुषमेधः। - मा.श. १३.६.२.१

*अन्नं वा एते पशवः। उदरं मध्यममहः। उदरे तदन्नं दधाति - मा.श. १३.६.२.२

*दशाक्षरा विराट्। विराड् उ कृत्स्नमन्नम् - मा.श. १३.७.१.२

*श्मशान : शवान्न - मा.श. १३.८.१.१

*पितृमेधः :- स्वधा वै शरत्। स्वधा उ वै पितॄणामन्नम् तदेनमन्ने स्वधायां दधाति - मा.श. १३.८.१.४

*घर्मोद्वासनम् : अथास्मिन् पय आनयति। घर्मैतत्ते पुरीषम्। अन्नं वै पुरीषम् - मा.श. १४.३.१.२३

*यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत्पिता। एकमस्य साधारणं द्वे देवानभाजयत्। त्रीण्यात्मनेऽकुरुत। पशुभ्य एकं प्रायच्छत्। - बृहदारण्यक उपनिषद १.५.१

* सा ह वागुवाच यद्वा अहं वसिष्ठास्मि त्वं तद्वसिष्ठोऽसीति ।.... तस्यो मे किमन्नं किं वास इति । यदिदं किञ्चा श्वभ्य आ कृमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नम् ।- बृहदारण्यक उपनिषद ६.१.१४

*पुरुषश्चेता प्रधानान्तस्थः स एव भोक्ता प्राकृतमन्नं भुंक्त इति। तस्यायं भूतात्मा ह्यन्नमस्य कर्ता प्रधानः। तस्मात् त्रिगुणं भोज्यं भोक्ता पुरुषोऽन्तःस्थः। - - - - भोक्ता पुरुषो भोज्या प्रकृति। प्राकृतमन्नं त्रिगुणभेदपरिमाणमत्वा - - - - तस्यात्येवं तिसृष्ववस्थास्वन्नत्वं भवति कौमारं यौवनं जरा परिणामत्ववात्तदन्नत्वम्। स्वं प्रधानस्य व्यक्ततां गतस्योपलब्धिर्भवति तत्र बुद्ध्यादीनि स्वादुनि भवन्ति - मैत्रायण्युपनिषद ६.१०

*परं वा एतदात्मनो रूपं यदन्नमन्नमयो ह्ययं प्राणः। प्राणो वा अन्नस्य रसो मनः प्राणस्य - मैत्रायणी उपनिषद ६.१३

 

 

अन्न

१. तद्यच्छुक्लं तद्वाचो रूपमृचोऽग्नेर्मृत्योः....अथ यत्कृष्णं तदपां रूपमन्नस्य मनसो यजुषः । तद्यास्ता आपोऽन्नं तदथ यन्मनो यजुष्टत्। जैउ , ,, ।।

२. अथो अन्नं निविद इत्याहुः । कौ १५,; ४ ।

३. अदन्ति ह स्म वा एतस्य पुरान्नं यस्यैतानि न हूयन्ते । काठ २३,; क ३५,८ ।

४. अद्भ्यो वा अन्नं जायते । तैआ १, २४,४ ।।

५. अद्यतेऽत्ति च भूतानि । तस्मादन्नं तदुच्यते । तैआ ८,; तैउ २,२।

६. अन्नं याज्या (रश्मिः [माश.J)। कौ १५,,१६,; गो २,,२१; माश ८,, ,३ ।।

७. अन्नं वा अभिवर्तः (अपां पाथः [माश.1)। तैसं ५, ,, ; माश ७, ,,६० ।।

८. अन्नं वा अर्कः (+ तस्यैतत् पुष्पं यदारण्यम् [जै.J)। काठ १०, ; गो २,,; जै २,१४; तां ५, , ; १४, ११,; १५, ,३४ ।

९. अन्नं वा आदित्याः (+अन्नं मरुतोऽन्नं पञ्चविँशोऽन्नमेव दक्षिणतोऽवरुन्द्धे [काठ.J)। --तैसं ५,,,; काठ २१,१।

१०. अन्नं वा आपः (आयतनम् [माश ६,,,१४])। जै १,२९७; तै ३,,,; १७,; माश २,,,; ,,,३७;,,,; तैआ १,२४,४ ।

११. अन्नं वा इडा (इरा [जै.J) । ऐ ८, २६; कौ ३, ; जै १, १७५ ।

१२. अन्नं वा इषः (°षम् कौ..)। ऐआ १, ,; कौ २८,५।

१३. अन्नं वाऽउक्थ्यः (क्थ्यम् (गो.) । गो १,,२०; माश १२,,,७ ।

१४. अन्नं वा ऊर्क् (+ उदुम्बरः [माश.]) । तैसं ५,,,; माश ३,,,३३;,,२७ ।

१५. अन्नं वा ओमा (वै फलम् ।मै.J)। मै ३,,;,; काश २,,,३ ।।

१६. अन्नं वाजः (विट् [तैसं.]) । तैसं ३,,,; माश ५,१,१,१६, ,,,९।

१७. अन्नं विराट् (+तस्माद्यस्यैवेह भूयिष्ठमन्नं भवति स एव भूयिष्ठं लोके विराजति तद्विराजो विराट्त्वम्  ऐ १,५])। तैसं २,,१०,; , ,; काठ ३६, ; काठसंक ५४; कौ ९, ; १२, ; जै १, १३२; १६५; २०४; ३०६; ३३१; , ; १३; तां ४, ,; तै १, ,, ;,,२ ।

१८. अन्नं विशः (वृष्टिः [गो.J) । गो १,,;; माश २,,,८।।

१९. अन्नं वै कम् (गर्भाः [तैसं.J) । तैसं ५,,,; मै ३,,; ऐ ६,२१; गो २, ,३।

२०. अन्नं वै गार्हपत्यः (गिरश्छन्दः (माश ८,,,५]) । माश ८,,,५।

२१. अन्नं वै गौः (गौरीवीतम् [जै.J)। जै १, २१५; तै ३,,,३ ।।

२२. अन्नं वै चतुर्होतारः (चन्द्रमाः [तै..) । मै १,९.७; काठ ९,१५; तै ३,,,४ ।।

२३. अन्नं वै देवा अर्क इति (पृश्नीति [तां १२,१०,२४]) वदन्ति । तां १५,,२३ ।। २४. अन्नं वै दैर्घश्रवसम् (साम) । जै २,१४ । ।

२५. अन्नं वै नृम्णम् (न्यूङ्खः ऐ.; गो.J)। ऐ ५,; ,२९; ३०; ३६; कौ २७,; गो २,,; १२ ।

२६. अन्नं वै पङ्क्तिः (जनित्रम् [तैसं.]) तैसं ५,,,; गो २,,; ऐआ १,,३।।

२७. अन्नं वै पावकम् (°वकः [तैसं.]) । तैसं ५,,,; ,; मै १,,;,,; काठ ८,; माश २,,,७ ।।

२८. अन्नं वै पितु (तुः माश.J)। ऐ ,१३; माश १,,,२०; , ,,१५ ।।

२९. अन्नं वै पूषा (पुरीषम् [माश.J) । तैसं २,,,; कौ १२,; तै १, ,,; , ,२३,; माश ८,,,; ,,२१; १४,,,२३; ।।

३०. अन्नं वै पृश्नि (प्रजापतिः (माश ५,,,७ (तु. ७,,,४); काठसंक.])। तैसं ५, ,,;, ,; मै ३, ,; काठसंक १६; जै २,१४; तै २,,,; माश ८,,,२१ ।

३१. अन्नं वै प्रयाजाः ( प्रेङ्खः । ऐआ.J) । काठ ९,; ऐआ १,,४ ।

३२. अन्नं वै ब्रह्मणः पुरोधा । तां १२,,; १३,,२७; १४,,३८ ।

३३. अन्नं वै भद्रम् (मधु [ऐआ..) । तै १, ,,; ऐआ १,,३ ।।

३४. अन्नं वै मरुतः । तैसं २,,,; तै १,,,;,,;,,३ ।

३५. अन्नं वै यजुष्मत्य इष्टकाः । माश ८,,,८ ।

३६. अन्नं वै याज्या (रथन्तरम् ऐ.) । ऐ ८,; गो २,,२२; ,८ ।

३७. अन्नं वै यावा अन्नं प्रजाः । तैसं ५,,,५।।

३८. अन्नं वैराजम् (वै रूपम् [माश.J) (छन्दः)। माश ९,,,१२; शांआ ११,७ ।।

३९. अन्न वै वयश्छन्दः (वषट्कारः [जै.J)। जै १,११३; माश ८,,,६ ।

४०. अन्नं वै वाजः (वाजपेयः [तै १,,,४])। तैसं २,,,; ,,,; ,,; मै १,११,;; ,, ; ,; काठ १४,; तां १३,,१३; २१; १५,११,१२; १८,,; तै १,,,;; ,,; माश ५,,,; ,,,४।।

४१. अन्नं वै वाजाः (विचक्षणम् [जै..])। जै २,६४; माश १,,,९।।

४२. अन्नं वै विराजः ( विशः [माश.J)। माश ४, , ,१२; , ,, ; , , ,; ऐआ १,,२।

४३. अन्नं वै (+श्रीः [ गो. 3) विराट् । मै १, ,११; ,,; ऐ १,; , ११; ,१९;,२०; गो १,,; ,,१९; जै १,२२९; माश ७,,,१९ ।

४४. अन्नं वै व्यन्ने (वि, अन्ने ) हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि । माश १४,,१३,३।

४५. अन्नं वै व्योम ( व्रतम् । तां., माश. 1)। तैसं ५,,,; जै २,४१०; तां २२,,; माश ७,,,२५ ।

४६. अन्नं वै सप्तदशः (शम्। जै. 1)। मै ३,,१०; क ३१,१४; जै २,; तां २,,; १७,,; १९,११,; २०,१०,; २५,,३ ।।

४७. अन्नं वै सर्वेषां भूतानामात्मा। गो २,,३ ।

४८. अन्न वै सविंशः । काठ २०,१३ ।।

४९. अन्नं वै साम ( सुरूपम् । कौ, ) । कौ १६,; जै २, ३९ ।

५०. अन्नं वै सूदहोहाः । शांआ २,१।

५१. अन्नं वै सोमः । मै ३,१०,; माश ३, , , ; , , ,११ ।।

५२. अन्नं वै स्तोमश्च यजुश्च । मै ३,,२ (तु. माश ९,,,६)।

५३. अन्नं वै स्वयमातृण्णा ( इष्टका )। माश ७,,,१ ।

५४. अन्नं वै स्वाहाकारः (हिङ्कारः [जै.J)। जै १,३१५; माश ९,,,१३ ।।

५५. अन्नं व्रतम् ( श्रुष्टिः [ माश. 1)। तां २३,२७,; माश ७,,,५ ।

५६. अक्ष्णयास्तोमीयादीनामभिधानम् -- अन्नं वै व्योम ।    अन्नम्̇ सप्तदशः ।
अन्नम् एव दक्षिणतो धत्ते  ।    तस्माद् दक्षिणेनान्नम् अद्यते (समिष्टयजुः [माश.J) । तैसं ,,,; ,; जै २, ३०६; माश ११,, , ३० ।।

अन्नं धाता    जातायैवास्मा अन्नम् अपि दधाति     तस्माज् जातो ऽन्नम् अत्ति  
जनित्रम्̇ स्पृतम्̇ सप्तदश स्तोम इत्य् आह ।     अन्नं वै जनित्रम् ॥     अन्नम्̇ सप्तदशः ।     अन्नम् एव दक्षिणतो धत्ते - तै.सं. ५.३.४.१

५७. अन्नं सप्तहोता । स प्राणस्य प्राणः । तैआ ३,,३ ।।

५८. अन्नं सम्मार्जनानि ( सविंशः । तैसं. 1)। तैसं ५,,,; तै ३,,,५।

५९. अन्नं साम्राज्यानामधिपतिः । तैसं ३,,,१ ।।

६०. अन्नं सार्पराज्ञम् ( सावित्री [ गो. 1)। काठ ८,; गो १,१३ ३ ।

६१. अन्नं सोमः ( सुरा । तै.J)। कौ ९,; तां ६,,; तै १,,,; माश ३,,,२८ । ६२. अन्नं ह वै देवानां सोमो राजा । जै १,२३३ ।

६३. प्राणो हि गौरन्नं हि गौरन्नं हि प्राणः। तै ३,,,; माश ,,,२५ ; जैउ ३,,,१३ ।

६४. अन्नं  हि प्राणः ( व्रतम् [माश ६,,,५])। माश २,,,; ,,,; ,,,२५॥

६५. अन्नं हि श्रीः ( स्वाहाकारः [माश.J) । जै १,११७; माश ६,,,१७।।

६६. गवि साम्नो हिंकारं -- अन्नं ह्येवेयं (गौः), यद्धि किञ्चान्नं, गौरेव तदिति । माश ,,,१३ ।।

६७. अन्नं वै विराट् , अन्नं जुहूरर्कोऽग्निः , यज्जुह्वा जुहोति अन्नस्य चार्कस्य चावरुद्ध्यै - मै ,, 

दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु इति असौ वा आदित्यो दिव्यो गन्धर्वोऽन्नं केतोऽन्नपूरन्नं नः पुनातु - माश ,,,१९

६८. अन्नं धाता (आहुतिः [माश.!)। तैसं ५,,,; काठ २१,; माश १२,,,११ ।

६९. अन्नं न निन्द्यात् । तैआ ९,; तैउ ३,७ ।

७०. अन्नं न परिचक्षीत । तैआ ९,; तैउ ३,८ ।

७१. अन्नं नमः (न्यूङ्खः [कौ.])। कौ २२,;; २५,१३; ३०,; माश ६,,,१७ ।

७२. अन्नमर्कः । मै ३,,; ,; १०; काठ १९,; माश ९,,,४।

७३. अन्नमशीतयः (+अन्नेन हीदं सर्वमश्नुते । ऐआ २, , २ ])। माश ९, ,,२१; ऐआ ५,,५।

७४. अन्नमशीतिः ( °मापः [जै.J)। जै ३,११५; माश ८,,,१७ ।

७५. अन्नमिव खलु वै वर्षम् (वृष्टिः )। तैसं ५,,,२ ।

७६. अन्नमिव विभु भूयासम् । ऐआ ५,,१ ।।

७७. अन्नमुक्थानि ( °मुदुम्बरः काठ, क.J)। काठ २५,१०; क ४०,; कौ ११,; १७,७।

७८, अन्नमु वै प्राणाः ( सोमः [जै २,६४])। जै १,२१५ ।

७९. अन्नमु वै रथन्तरम् (श्वस्तनम् [जै १,२१५)। जै १, १३६ ।

८०, अन्नमु श्रीः (वै स्तोभः [जै.])। जै १,३३२; माश ८,,,१ ।

८१. अन्नमृक् (°मृतवः (मै.J)। मै १,,; जै २,३९ ।

८२, अन्नमेतद्यत् स्वरसामानः । जै २,७ ।

८३. अन्नमेव ग्रहः । अन्नेन हीदं सर्वं गृहीतम् । माश ४,,,४ ।।

८४, अन्नमेव दक्षिणतो धत्ते, तस्माद्दक्षिणेनान्नमद्यते । तैसं ५,,,२ ।।

८५. अन्नमेव यजुः । माश १०,,,६ ।

८६. अन्नं पञ्चविंशः । तैसं ५,,,;,; काठ २१,१ ।

८७, अन्नं (+वै [माश ६,,,७]) पशवः । काठ १९, १०; क ३०, ; ऐ ५, १९; जै १,

३०५; ३०६; ,; माश ६,,,१५; , ,,४२।।

८८. अन्नं पुरीषम् (पृश्नि [काठ,J; पृष्ठानि [तां.J)। काठ २१,;; क ३१,१८; तां १९,,माश ८,,,; ,,२ ।।

८९. अन्नं प्रच्छच्छन्दः ( प्रजापतिः । तैआ.])। माश ८, , , ; तैआ ५, ११, ६ ।।

९०, अन्नं प्राणः ( प्रेतिः [माश.3) कौ २५, १३; तै ३, , , ; माश ८, , , ; तैआ ५,१०,५ ।

९१. अन्नं प्राणमन्नमपानमाहुः । अन्नं मृत्युं तमु जीवातुमाहुः । अन्नं ब्रह्माणो जरसं वदन्ति ।। अन्नमाहुः प्रजननं प्रजानाम् । तै २,,,३।।

९२. अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् । तैआ ९,; तैउ ३,२ ।

९३. अन्नं भुजिष्याः । माश ७,,,२१ ।।

९४. अन्नं मरुतः ( मासाः [तैसं.] )। तैसं ५,,,;,,; काठ २१,१ ।

९५. अन्नं मे पुरीष्य ( बुध्य [मै.J) पाहि तन्मे गोपाय। मै १,,१४; काठ ७,३ ।

९६. अन्नं मे पुरीष्य (बुध्य मै.J) अजुगुपस्तन्मे पुनर्देहि। मै १,, १४; काठ ७,३ । ९७. अन्नेन गयः (यज्ञं दाधार)। तै ४,,,१ ।

९८. अन्नेन वैश्यो भद्रो भवति । मै १,,९।

९९, अन्नेन सर्वं प्रतितिष्ठति, अन्नं वै देवयोनिर्भवति, अन्नं वै प्राणानुपसृजति, तस्मादन्नममृतं वदन्ति । काठसंक ७०:५-६ ।।

१००. अन्नेन हीमाः प्रजा विपश्यन्ति । जै २,६४ ।

१०१. अभिशस्यमानं याजयेद्, यस्य वै देवा अन्नमदन्त्यदन्ति तस्य मनुष्या अन्नम् । मै २,,७।

१०२. अम्बरीषे वा अन्नं भ्रियते । तैसं ५,,,४ ।।

१०३. अरत्निमात्राद्धयन्नमद्यते । माश ७,,,१३; १०,,,७ ।

१०४. अर्को (+वै देवानाम् [तैसं २,,,; तै., माश.J) ऽन्नम् । तैसं ५,,,; तै १,,,; माश १२, , ,२।

१०५. अवस्वान् अव्या नाम स्थ पार्थिवास्तेषां व इह (अधरायां दिशि = ध्रुवायां । पृथिव्याम् ]) गृहा अन्नं व इषवः । तैसं ५,,१०,४-५।

१०६. आपश्च पृथिवी चान्नमेतन्मयानि ह्यन्नानि भवन्ति ज्योतिश्च वायुश्चान्नादम् । ऐआ ,,

१०७. आपोऽन्नम्। काठ ८,; २५,; क ३८,; ऐ ६,३० ।।

१०८. आपो वा अन्नम्। ज्योतिरन्नादम्। अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम् । ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिताः । तै ९,; तैउ ३, ८ ।

१०९. आपो वै सूदोऽन्नं दोहः । माश ,,,२१ ।।

११०. भौमीं कृष्णशबलीमालभेतान्नकाम , इयं (पृथिवी) वा अन्नस्य प्रदात्रिका - - - अनन्नं वै चर्म , अनन्नं कृष्णम् । मै ,,

१११. उभाभ्यां हस्ताभ्यामन्नमद्यते (°स्ताभ्यां परिगृह्य पुरुषोऽन्नमत्ति . क. 1)। मै ३,,१०;  क ३१,१४ ।

११२. ऊर्ग् वा उदुम्बरो (+ अन्नम् । जै. 1)। तैसं २,,,; ,,; मै १, ११,; , ,; जै २,१८३; तां ५,,; तै १,, ,१०।

११३. एतदु परममन्नं यद्दधि, मधु, घृतम् । माश ९,,,१२ ।

११४. एतद्वै साक्षादन्नं यद्राजनं ( साम), पञ्चविधं भवति । तां ५,,७।।

११५ अन्नं वा इयम् अन्नाद्येनैवैनँ समर्धयन्ति ऊषैर्घ्नन्ति। एते हि साक्षादन्नं यदूषाः । तैब्रा ,,, ।।

११६. एष वै सोमो राजा देवानामन्नं यच्चन्द्रमाः । माश १,,,; ,,,; ११, ,,४।

११७ ओषधिवनस्पतयोऽन्नम्। प्राणभृतोऽन्नादम् । ओषधिवनस्पतीन्हि प्राणभृतोऽदन्ति । ऐआ २,,१।  

११८. प्रजापते रेतो देवा देवानां रेतो वर्षे वर्षस्य रेत ओषधय ओषधीनां रेतोऽन्नमन्नस्य रेतो रेतः । ऐआ ,, ।।

११९. ओषधीभ्योऽन्नम् । अन्नात् पुरुषः । तैआ ,; तैउ २,१ ।

१२०. क्षीयते वा अमुष्मिंल्लोकेऽन्नम् , इतः प्रदानं ह्यमुष्मिंल्लोके प्रजा उपजीवन्ति । तैसं १,,,४-५ ।

१२१. गर्भाः पञ्चविंश इति दक्षिणतोऽन्नं वै पञ्चविंशः । काठ २०,१३ ।

१२२. चन्द्रमस्यन्नम् । शांआ ६,; कौउ ४,२ ।।

१२३. त एव ( त्रयो लोकाः ) अस्मा अन्नं प्रयच्छन्ति । तैसं २, ,,२ ।

१२४. तत्तदिति वा अन्नम् । ऐआ १,,; ६ ।

१२५. तदन्नं वै विश्वम्प्राणो मित्रम् । जैउ ,,,।।

१२६. तद्वै पय एवान्नम् । एतद्ध्यग्र प्रजापतिरन्नमजनयत  माश २,,,६ ।।

१२७. तपो मे तेजो मेऽन्नम्मे वाङ् मे । तन्मे त्वयि (अग्नौ)। जैउ ३,,, १६ ।

१२८. तस्मात्प्राणेनान्नं गृहीतं यो ह्येव प्राणिति सोऽन्नमत्ति । माश ,,,१७

१२९. तस्मात्प्राणोऽन्नेन गृहीतो यो ह्येवान्नमत्ति स प्राणिति । माश ,,,१६

१३०. तस्मादस्य (तक्ष्णः) अन्नमन्नाद्यम् । मै ,,; काठ १२,१० ।

१३१. तस्मादाहुः सामैवान्नमिति । सा १,,३ ।

१३२. तस्माद्यया कया च विधया बह्वन्नं प्राप्नुयात् । तैआ ९,१०; तैउ ३,१०।।

१३३. तस्या एतस्या अन्नमेवापिधानम् (प्राणरूपायै मानुष्यै विराजे) । जै १,२४६ । १३४. ता अन्नादेव (प्रजाः) सम्भवन्ति तस्माद्वन्नमेव प्रजाः । माश २,,,६ ।

१३५. तावेव (मित्रावरुणौ) अस्मा अन्नं प्रयच्छतः (यजमानाय)। तैसं २,,,२।

१३६. त्रिवृद्ध्यन्नम् । माश ३,,,१२: ७,,२० ।

१३७. त्रिवृद्वाऽअन्नं कृषिर्वृष्टिर्बीजम् । माश ,,, ।।

१३८. त्रेधा विहितं वा इदमन्नमशनं पानं खादः । ऐआ २,,४ (तु. माश ८,,,३) । १३९. अन्नं मे बुध्य पाहि , तन्मे गोपायास्माकं पुनरागमादिति दक्षिणाग्नय एवान्नं परिदाय प्रैति । मै ,,१४

१४०. दक्षिणेन हस्तेनान्नमद्यते (°स्तेन पुरुषोऽन्नमत्ति ! क. 1)। मै ३, , १०; , ; क ३१, १४ ।।

१४१. दारुपात्रेणाहूय तं मनुष्या अदुहुरन्नम् । काठसंक १४०: ९-१० ।

१४२. देवतानां वा एतदन्नं यच्चन्द्रमाः । काठसंक १६:४।।

१४३. द्यावापृथिवी वा अन्नस्येशाते । मै २,,४ ।

१४४. द्रोणचितिं चिन्वीतान्नकामो, द्रोणेन वा अन्नमद्यते । मै ,, ।।

१४५. काम्यचितीनामभिधानम् -- द्रोणचितं चिन्वीतान्नकामो, द्रोणे वा अन्नं भ्रियते । तैसं ,,११,

१४६. द्वयमु ह वा अन्नस्य रूपं यश्चैवाश्नाति, यच्च पिबति । जै २,८ ।

१४७. द्विः संवत्सरस्यान्नं पच्यते । माश ,,,

१४८. नमो अस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येषामन्नमिषवः(अन्तरिक्षे – वाता इषवः, दिवि- वर्षमिषवः) । मै ,,

१४९. न वा ऋत ऊर्जोऽन्नं धिनोति । काठ ८,२ ।।

१५०. अन्नं वै यवा , ऊर्ग् उदुम्बरो , यद्यवमवास्यति , अन्ने वा एतद् ऊर्जं दधाति, न ह्यन्नमृत ऊर्जो धिनोति, नो ह्यूर्गृतेऽन्नाद्धिनोति । मै ,,।।

१५१. नह्यृतेग्व(गु-अ)न्नमस्ति । काश १, ,,१० (तु. माश २, ,,१३)।

१५२. नाभिदघ्ना (आसन्दी) भवति । अत्र (नाभिप्रदेशे) वाऽ अन्नं प्रतितिष्ठत्यन्नं सोम . . .अत्रोऽएव रेतस आशयः । माश ,,,२८

१५३. सद्यो ह जातो वृषभः कनीन इति (ऋ ३.४८.१)..... तत्पञ्चर्चम्भवति पञ्चपदा पङ्क्तिः पङ्क्तिर्वा अन्नम् । ऐ ,२०; ऐआ १,,८ ।

१५४, पङ्क्तिं ह्यन्नम् (°ङ्क्तमन्नम् । तां १२,,९])। तां ५,,७।।

१५५. पात्रेण (पात्रैः [मै.J; °त्रे [तैसं.J) वा अन्नमद्यते । तैसं ५, ,,; मै ३,, ; काठ २१,; क ३१,१९ ।

१५६. पृथिवी वा अन्नम् । आकाशोऽन्नादः । पृथिव्यामाकाशः प्रतिष्ठितः । आकाशे पृथिवी प्रतिष्ठिता । तैआ ९,; तैउ ,।।

१५७. पृथिव्युदपुरमन्नेन विष्टा मनुष्यास्ते गोप्तारोऽग्निर्वियत्तः । तैसं ४,,,१।।

१५८. मारुतम् पृश्निम् आ लभेतान्नकामः । अन्नं वै मरुतः । - - - पृश्निर्भवत्येतद्वा अन्नस्य रूपम् । तैसं ,,,

१५९. प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तैआ ९,; तैउ ,

१६०. सौम्यम् बभ्रुम् आ लभेतान्नकामः - - -बभ्रुर्भवत्येतद्वा अन्नस्य रूपम् । तैसं ,,, ।।

१६१. वैश्वदेवम् बहुरूपम् आ लभेतान्नकामः । वैश्वदेवं वा अन्नम् । - - - बहुरूपं ह्यन्नम् । तैसं ,,,

१६२. किं स्विद् आहुर् भोः सवितुर् वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयः किम् आहुः। ..... वेदांश् छन्दांसि सवितुर् वरेण्यम्  भर्गो देवस्य कवयो ऽन्नमाहुः । गो ,, ३२ ।।

१६३. अन्नं वै व्रतम्। मध्यतो वा अन्नमशितं धिनोति । तद् उ वा आहुर् - अर्धं वा एते ऽन्नाद्यस्यावरुन्धते ये मध्यतस् संवत्सरस्य विषुवति महाव्रतम् उपयन्ति। संवत्सरः कृत्स्नम् अन्नाद्यं पचति।.....चतुर्विंशत्यर्धमासो वै संवत्सरः। अन्नाद्यं पञ्चविंश्य्, अन्नाद्यम् एवैतत् पञ्चविंश्योपधीयते।  जै ,४१०

१६४. मह इत्यन्नम् । अन्नेन वाव सर्वे प्राणी महीयन्ते । तै ७,, ; तैउ १,,३ ।। १६५. प्राची दिक् प्रायच्छन् मद् उदयेत्य् अहश् च सत्यं च।.... मामभ्यपक्रामेति दक्षिणा दिक् (आदित्याय) प्रायच्छद् अन्नं च रथं च । ... उदीची दिक् प्रायच्छद् रूपं च वर्णं च।...प्रतीची दिक् प्रायच्छद् ऋतं च रात्रिं च। जै २.२५

१६६. मेधाय इत्यन्नायेत्येतत् । माश ७, , , ३२ ।।

१६७. मेध्यमन्नम् । काठ १२, ११।।

१६८. यो वै स प्राण एषा सा गायत्र्यथ यत्तदन्नमेष स विष्णुर्देवता । माश , , ,२१ । .

१६९. विष्णुरन्नमेतदात्मसम्मितमेवास्मिन्नेतदन्नं दधाति यदु वाऽआत्मसंमितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति यद्भूयो हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति । माश , , , १४; , ,, ।।

१७०. द्वितीयाचितिः-- यावानाम् भागो ऽसीति     दक्षिणतः ।     मासा वै यावा अर्धमासा अयावास्     तस्माद् दक्षिणावृतो मासाः ।     अन्नं वै यावाः ।     अन्नम् प्रजाः ।     अन्नम् एव दक्षिणतो धत्ते     तस्माद् दक्षिणेनान्नम् अद्यते । ...यस्यान्नवतीर्दक्षिणतोऽत्त्य् अन्नम् आऽस्यान्नादो जायते । यस्य प्रतिष्ठावतीः पश्चात् प्रत्य् एव तिष्ठति यस्यौजस्वतीर् उत्तरत ओजस्व्य् एव भवति ।  तैसं , , , ।।

१७१. यादृगह वा अस्मिंल्लोकेऽन्नं ददाति, तादृगस्यामुष्मिंल्लोकेऽन्नं भवति । जै २, १६० ।

१७२. रथप्रोतं वै दार्भ्यमभ्यशंस सं स्तं कौलकावती अब्रूताम् । तथा त्वा याजयिष्यावो यथा तेऽन्नमत्स्यन्ति । मै २, , ३।।

१७३. रस इव खलु वा अन्नम् । तैसं २, , , ५।

१७४. वराहो वा अस्याम् ( पृथिव्याम् ) अन्नं पश्यति तस्मा इयं ( पृथिवी ) विजिहीते, यद् वराहविहतं भवति, तदेवान्नमवरुन्द्धे । काठ ८, २।।

१७५. वाचेऽन्नम् ( अस्तु )। तैआ ३, १०, ३।।

१७६. विरूपम् (नानारूपम् ) अन्नम् । तां १४, , ८।।

१७७. वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुद्वासयते, न वा एतस्य ब्राह्मणा ऋतायवः पुराऽन्नमक्षन् । तैसं १, , , ; , , , ५।

१७८. वैश्वदेवम् बहुरूपम् आ लभेतान्नकामः । वैश्वदेवं वा अन्नम् । विश्वान् एव देवान्त् स्वेन भागधेयेनोप धावति त एवास्मा अन्नम् प्र यच्छन्ति । अन्नाद एव भवति
बहुरूपो भवति बहुरूपम्̇ ह्य् अन्नम् । । तैसं , ,, ; , , , ; गो १, , २३; तै १, ,, १० ।।

१७९. व्रीहिनान्नानि ( अन्वाभवत्) । काठ ४३, ४ ।।

१८०, पौष्णम्̇ श्यामम् आ लभेतान्नकामः । अन्नं वै पूषा पूषणम् एव स्वेन भागधेयेनोप धावति स एवास्मै अन्नम् प्र यच्छति । अन्नाद एव भवति श्यामो भवति । एतद् वा अन्नस्य रूपम् । । तैसं , , ,

१८१. संवत्सरं ह्यन्नमनुप्रजायते । काठ १०, ३ ।।

१८२. चतुर्दशभिर् वपति     सप्त ग्राम्या ओषधयः सप्तारण्याः ।     उभयीषाम् अवरुद्ध्यै ।     अन्नस्यान्नस्य वपति ।     अन्नस्यान्नस्यावरुद्ध्यै     कृष्टे वपति     कृष्टे ह्य् ओषधयः प्रतितिष्ठन्ति ।     अनुसीतं वपति     प्रजात्यै     द्वादशसु सीतासु वपति     द्वादश मासाः संवत्सरः     संवत्सरेणैवास्मा अन्नम् पचति । तैसं , , ,

१८३. स ( चन्द्रमाः ) आपूर्यमाणोऽमुं लोकं गच्छति । सोऽमुना लोकेन संस्पृश्यान्नं भवति । स यद् अस्य तत्र स्वद्यं तत् स्वद इत्यपोछन्न् इमं लोक आगच्छति। स इमा अप ओषधीः प्रविशति। जै , (तु. माश १, ,,५) ।।

१८४. स एतेन (आदित्य- [= प्राण- 1) रूपेण सर्वा दिशो विष्टोऽस्मि तस्य मे ( इन्द्रस्य ) ऽन्नं मित्रं दक्षिणं तद्वैश्वामित्रमेष तपन्नेवास्मीति होवाच (इन्द्रः )। ऐआ , ,

१८५. सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत्, इति ।......तदपानेनाजिघृक्षत्तदावयत्, इति ।  स एषोऽन्नस्य ग्रहो यद् वायुः । ऐआ , , ; ऐउ १, , १० ।।

१८६. अन्नं सप्तदशवत्यौ । ते यत्सप्तदशवत्यौ भवतः सप्तदशं ह्यन्नं द्वे भवतो द्व्यक्षरं ह्यन्नं ते अनन्तर्हिते पञ्चदशवतीभ्यामुपदधात्यनन्तर्हितं तद्बाहुभ्यामन्नं दधाति बाह्ये पञ्चदशवत्यौ भवतोऽन्तरे सप्तदशवत्यौ बाहुभ्यां तदुभयतोऽन्नं परिगृह्णाति । माश , , , ।।

१८७. सप्तान्नहोमाञ्जुहोति सप्त वा अन्नानि यावन्त्येवान्नानि तान्येवावरुन्धे सप्त ग्राम्या ओषधयः सप्तारण्याः उभयीषामवरुद्ध्यै । तै , , ,

अनिरुक्ताभिः प्रातःसवने स्तुवते अनिरुक्तः प्रजापतिः प्रजापतेराप्त्यै वाजवतीभिर्माध्यन्दिने अन्नं वै वाजः अन्नमेवावरुन्धे शिपिविष्टवतीभिस्तृतीयसवने यज्ञो वै विष्णुः पशवः शिपिः तै , , ,

१८८. सर्वम्वेतदन्नं यद्दधि मधु घृतम् । माश ९, , , ११ ।।

१८९. साम देवानामन्नम् । जै १, ७१; तां ६, , १३ ।।

१९०, सौम्यं ( शान्तिर् [ऐ.1) वा अन्नम् । तैसं २, , , ; ऐ ५, २७; , ३ ।।

अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालं (पुरोडाशं) निर्वपेत् योऽनन्नमद्यात् – काठ १०.३

अग्निना वै देवा अन्नमदन्ति – काठ ८.४

अग्निचितिः-- उदपुरा नामास्यन्नेन विष्टा.....मनुष्यास्ते गोप्तारोऽग्निरधिपतिः – मै २.८.१४

अन्नं वा अग्निहोत्रम्। अन्नाद्यम् एवैतद् अहोरात्रयोर् मुखतो ऽपिधायैतौ पुनर्मृत्यू अतिमुच्यते यद् अहोरात्रे – जै १.६

अन्नं वा अथकारः – जै १.१८६

अग्न्याधानम् -- पाङ्क्तं वा इदँ सर्वम् ।.....अथर्व पितुं मे गोपायेत्याह । अन्नमेवैतेन स्पृणोति। नर्य प्रजां मे गोपायेत्याह प्रजामेवतेन स्पृणोति
शँ स्य पशून्मे गोपायेत्याह.... - तै १.१.१०.४

अन्नं वा अन्धः। - जै १.३०३

अन्न-काम

१. अन्नकामो यजेतैतद्देवत्या ( अन्नदेवत्या ?) वा इमा दिशो, यथादेवतं वा आभ्यो दिग्भ्यो ऽध्यन्नाद्यमवरुन्द्धे । मै ४, ,९ ।

२. एकादशकपालं निर्वपेदन्नकामः । काठ १०, ८।

३. द्रोणचितं चिन्वीतान्नकामः । काठ २१, ; क ३१, १९ ।

४. पौष्णं श्याममालभेतान्नकामः । तैसं २, , , १।

५. विराजाऽन्नकामस्य (परिदध्यात् )। तैसं ६, , , २ ।

अन्न-जीवन

अन्नजीवनं हीदं सर्वम् । माश ७, , , २० ।

अन्न-पति.

१.अन्नपते अन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः । मै २, १०, २ ।

२. वरुणो ऽन्नपतिः । माश १२, ,,२०।।

[ °ति- अग्नि- ८७; १४९:१९१ द्र.]।

अन्नपत्नी

१. अन्नपत्नी तदादित्यः (प्रजापतेस्तनूविशेषः )। ऐ ५, २५ ।

२. असावन्नपत्नी ( द्यौः )। कौ २७, ५।

अन्न-वत्

शरदो ऽहं देवयज्ययान्नवान् वर्चस्वान् भूयासम् । काठ ४, १४ । [वत्- अग्नि- १९१ इ.]।

अन्नवती

१. ओमवती . . अन्नवत्यौ. . .इत्येवैतदाह (ओमा=अन्नम्)। माश १, , , ४ ।

२. या अन्नवतीस्ता दक्षिणतः ( उपदधाति ), भाऽस्यान्नादो जायते य एवं वेद । काठ २१,१।

अन्नाद

१. इन्द्रतन्वाख्या इष्टकाः -- ऋग्भिरन्नादः ( इन्द्रः )। तैसं , , ,

२. पश्च पृथिवी चान्नमेतन्मयानि ह्यन्नानि भवन्ति ज्योतिश्च वायुश्चान्नादमेताभ्यां हीदं सर्वमन्नमत्ति आवपनमाकाश आकाशे हीदं सर्वं समोप्यत । ऐआ , , ।।

३. तेषां ( प्राणभृताम् ) य उभयतोदन्ताः पुरुषस्यानु विधां विहितास्ते ऽन्नादा अन्नमितरे पशवस्तस्मात्त इतरान् पशूनधीव चरन्त्यधीव ह्यन्ने ऽन्नादो भवति । ऐआ , ,

४. प्रजापतिर्वै देवानामन्नादो वीर्यवान् । तै ३, , , १ ।

५.ऽथ यदिमाः प्रजा अशनमिच्छन्तेऽस्मा एवैतद्वृत्रायोदराय बलिं हरन्ति  - - स यो हैवमेतं वृत्रमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति । माश , ,,१७

[ °,दा- अग्नि- १४९;१९२;३४९; ३५०; अन्न- ११७ इ.]।

अन्नादी

इयं (पृथिवी ) वा अन्नादी (प्रजापतेस्तनूविशेषः)। कौ २७, ५।

अन्नादन

यदन्नादनं स तित्तिरिः । तैसं , , ,