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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

Home Page

Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

The word Anasuuyaa can be interpreted in more than one ways. One interpretation can be on the basis of un - asuuyaa. In vedic literature, word suuyaa is used in connection with god Savitaa who can give initial impulses for performing a task. It is prayed before performing a work that let god Savitaa implore us for performing such and such work. Asuuyaa means which does not provide such impulses, where such impulses are absent. And when un - asuuyaa is said, it may mean that this is some state which normally does not give any impulse, but it is not totally inactive. It can give also. Anasuuyaa is the wife of sage Atri. Atri means one who is beyond the the traits of Satva, Raja and Tamas. All the three deities of these qualities - Vishnu, Brahmaa and Mahesha want to get Anasuuyaa but she denies their advances and instead begets them as her sons. This implies that Anasuuyaa is some force which can or can not give impulses for initial manifestation. Her husband Atri also can be taken to be some state before manifestation. In sprituality, this manifestation can be taken as coming down from trance.

    The second interpretation of word Anasuuyaa can be done on the basis of un - asuryaa. Asurya is the name for night, and also for goddess Sarasvati. Night is the un - manifested state. Un - asurya can be said to be a semi- manifested state. This fact can be used to interpret the story of letting the sun rise by Anasuuyaa . The third interpretation can be on the basis of ana- suuyaa. Ana  is the word for praana, life force and  suuyaa means to implore. So the power which implores the praanas can be called Anasuuyaa. On the basis of one upanishadic text, it can be said that Anasuuyaa is not confined only to unmanifested or manifested or semi - manifested states. She is beyond these three. She is the fourth state which is the fourth state of devotion where there is no difference between inside and outside.

First published : 1994 AD

अनसूया

टिप्पणी : अनसूया शब्द की निरुक्ति कईं प्रकार से की जा सकती है वैदिक साहित्य में तथा यज्ञ कार्य में सविता देव से प्रार्थना की जाती है कि वह हमें अमुक कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करे ( सवितु: प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोः हस्ताभ्यां इति ) अनसूया शब्द का सन्धि विच्छेद अन् - असूया के रूप में किया जा सकता है असूया - जो कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं करती अन् - असूया का अर्थ होगा कि यद्यपि सामान्य परिस्थितियों में वह कार्य के निष्पादन की प्रेरणा नहीं देती, लेकिन फिर भी पूर्ण रूप से निष्क्रिय नहीं है अनसूया की प्राप्ति के लिए ब्रह्मा, विष्णु महेश तीनों देव प्रयत्न करते हैं लेकिन अनसूया उनको अस्वीकार कर देती है । उल्टे उनको अपन पुत्र बना लेती है ब्रह्मा, विष्णु महेश रजोगुण, सत्त्वगुण तमोगुण के देवता हैं । सृष्टि होने के लिए इन तीन गुणों की आवश्यकता पडती है अध्यात्म में यह सृष्टि समाधि अवस्था से व्युत्थान हो सकता है अनसूया अत्रि ऋषि की पत्नी है अत्रि तीनों गुणों से परे की अवस्था हो सकती है

          यदि अनसूया की निरुक्ति अन् - असुर्या रूप में की जाती है तो असुर्या रात्रि को कहते हैं ( मैत्रायणी संहिता .. तथा ..) सरस्वती को भी असुर्या कहते हैं ( ऋग्वेद .९६.) रात्रि अव्यक्त पक्ष है अन् - असुर्या को अर्ध - अव्यक्त पक्ष कहा जा सकता है यह तथ्य पुराणों में अनसूया द्वारा सूर्य को उदित करने के रूप में प्रतिपादित किया जा सकता है अन प्राणों को भी कहते हैं । अतः अनसूया का अर्थ प्राणों को प्रेरित करने वाल/ न करने वाला भी हो सकता है शाण्डिल्य उपनिषद . में दिए गए वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अनसूया निष्कल, सकल अथवा सकल - निष्कल ब्रह्म तक सीमित नहीं रहती वह तो भक्ति की तुरीयावस्था है वही अत्रि, तीनों से परे की अवस्था है

          पुराणों में राजा बाहु की कथा के संदर्भ में राजा बाहु में असूया वृत्ति की विद्यमानता का उल्लेख है जिसकी व्याख्या प्रजा से द्वेष के रूप में, स्वयं को प्रजा से श्रेष्ठ समझने के रूप में की गई है लेकिन इस संदर्भ में भी असूया शब्द की उचित व्याख्या प्रेरित करने वाला ही होगी

प्रथम प्रकाशन - १९९४ ई.

 

अत्रि – अनसूया कथा के माध्यम से एकीकृत मन की शक्ति का चित्रण

-    राधा गुप्ता

अयोध्याकाण्ड में वर्णित (सर्ग 117, 118, 119) अत्रि – अनसूया कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

    चित्रकूट को छोडकर राम जब लक्ष्मण और सीता के साथ अत्रि मुनि के आश्रम में पहुँचे, तब अत्रि मुनि ने उनका सत्कार किया और अपनी पत्नी अनसूया के महत्त्व का वर्णन करते हुए यह आदेश दिया कि अनसूया स्नेहपूर्वक सीता को हृदय से लगाएँ तथा सीता भी आदरपूर्वक अनसूया के पास चली जाएँ।

    अनसूया वृद्धावस्था क कारण शिथिल हो गई थी और उनके समस्त अंग निरन्तर काँप रहे थे। सीता ने महाभागा अनसूया को प्रणाम किया और उनका कुशल समाचार पूछा। अनसूया ने पति का अनुसरण करने वाली सीता के प्रति हर्ष का अनुभव करते हुए यह उपदेश किया कि प्रत्येक स्त्री को पति का ही अनुसरण करना चाहिए। सीता ने अनसूया के वचनों का समादर किया और अनसूया ने सीता से एक वर माँगने के लिए कहा। सीता ने जब परस्पर मिलन को ही सब कुछ मानकर कुछ भी लेना नहीं चाहा, तब सीता की निर्लोभता से प्रसन्न हुई अनसूया ने उन्हें प्रेमोपहार के रूप में दिव्य वस्त्र और आभूषणादि प्रदान किए । अनसूया के पूछने पर सीता ने अपना जन्म से लेकर स्वयंवर तक का सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदित किया, जिसे सुनकर अनसूया प्रसन्न हुई और सीता को दिव्य वस्त्राभूषण धारण करने के लिए प्रेरित किया। सीता दिव्य वस्त्राभूषणों को धारण करके जब राम के सम्मुख गई, तब राम अनसूया द्वारा किए गए सीता के सत्कार से बहुत प्रसन्न हुए और रात्रि विश्राम करके प्रातःकाल अत्रि मुनि से विदा लेकर दण्डकारण्य में चले गए।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा को समझने के लिए प्रतीकों को समझना उपयोगी होगा।

1.     अत्रि मुनि – अत्रि शब्द अ तथा त्रि नाम दो वर्णों के योग से बना है। अ का अर्थ है – नहीं तथा त्रि का अर्थ है – इच्छा(भाव), ज्ञान और क्रिया रूपी तीन शक्तियाँ। जब तक मनुष्य की चेतना मनोमय कोश तक सीमित रहती है, तब तक ये तीन शक्तियाँ पृथक – पृथक् रूप में विद्यमान रहती हैं परन्तु जब चेतना मनोमय कोश से ऊपर उठक विज्ञानमय कोश में पहुँचती है, तब यही तीनों शक्तियाँ परस्पर मिलकर एकाकारता को प्राप्त हो जाती हैं। अतः मन की वह उच्च स्थिति अत्रि है, जहाँ तीनों शक्तियाँ पृथक् – पृथक् विद्यमान नहीं रहती। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि इच्छा(भाव), ज्ञान तथा क्रिया रूप तीन शक्तियों का एकीकरण ही अत्रि है क्योंकि मन की इस एकाकार स्थिति में मनुष्य जैसा सोचता है, समझता है – वैसा ही करता भी है।

2.     अनसूया – अनसूया शब्द अन् और असूया नामक दो शब्दों के मेल से बना है। अन् का अर्थ है – नहीं तथा असूया का अर्थ है – ईर्ष्या। अतः अनसूया शब्द का एक सामान्य सा अर्थ बनता है – एक ऐसी शक्ति जो ईर्ष्या में न हो। परन्तु अत्रि मुनि के संदर्भ में असूया शब्द असूर्या शब्द का एक छिपा हुआ स्वरूप प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है – रात्रि अर्थात् अज्ञान। अन् शब्द का योग हो जाने पर अनसूर्या(अनसूया) का अर्थ होता है – एक ऐसी शक्ति  जो अज्ञान में न हो अर्थात् जो अज्ञान की स्थिति में विद्यमान न रहती हो। इच्छा(भाव), ज्ञान तथा क्रिया रूप तीन शक्तियों का एकीकरण तब तक सम्भव नहीं हो पाता जब तक मनुष्य अज्ञान में विद्यमान रहता है। अज्ञान में रहते हुए मनुष्य जैसा सोचता है अथवा समझता है, वैसा करता नहीं है। सरल रूप में ऐसा भी कह सकते हैं कि उसके मन – वचन तथा कर्म में कभी एकरूपता नहीं बन पाती। इसके विपरीत, ज्ञान में स्थित होने पर स्थिति एकदम विपरीत हो जाती है। अब मनुष्य जैसा सोचता है अथवा समझता है, वैसा करता भी है। अतः अत्रि – अनसूया के रूप में यह संकेत किया गया है कि एकीकृत मन के साथ सदा विद्यमान रहने वाली एकीकरण की यह शक्ति केवल ज्ञान से सम्बन्ध रखती है, अज्ञान से नहीं। चूंकि एकीकृत मन के साथ सदा विद्यमान रहने वाली यह ज्ञानशक्ति बहुत पुरानी है, इसलिए कथा में अनसूया को वृद्धा के रूप में चित्रित किया गया है।

3.     अनसूया द्वारा स्त्री को पति के अनुसरण का उपदेश-

पौराणिक साहित्य में प्रकृति (मन – बुद्धि – इन्द्रियादि) को स्त्री के रूप में तथा पुरुष (आत्मा) को पति के रूप में चित्रित किया गया है। प्रकृति जड है, पुरुष चेतन। पुरुष के निर्देश को ग्रहण करके ही जड प्रकृति क्रियाशील होती है और यथोचित दिशा में प्रवृत्त रहती है। उदाहरण के लिए – पुरुष(आत्मा) के निर्देशन में रहकर मन श्रेष्ठ विचारों की रचना करता है, आँख नामक ज्ञानेन्द्रिय श्रेष्ठ के दर्शन में समर्थ होती है अथवा हाथ नामक कर्मेन्द्रिय ग्रहण आदि कार्यों को यथायोग्य रूप में सम्पन्न करती है। अतः अनसूया द्वारा स्त्री को पति के अनुसरण के उपदेश के रूप में यह संकेत किया गया है कि इच्छा(भाव), ज्ञान और क्रिया का एकीकरण (सोचना, समझना तथा तदनुसार जीना) तब तक सम्भव नहीं है जब तक प्रकृति (मन – बुद्धि – इन्द्रियादि) पुरुष (आत्मा) के निर्देश का अनुसरण न करे। पुरुष के निर्देश का अनुसरण न करने वाली अर्थात् पुरुष (आत्मा) के निर्देश को ग्रहण न करने वाली बहिर्मुखी प्रकृति उच्छृंखल होती है और तब इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया का एकीकरण सम्भव नहीं होता।

4.     अनसूया द्वारा सीता को दिव्य वस्त्र एवं आभूषणादि प्रदान करना –

वस्त्र शब्द आवरण को तथा आभूषण शब्द गुणों को इंगित करता है। सीता सर्वत्र पवित्र प्रकृति अर्थात् पवित्र सोच की प्रतीक है। प्रस्तुत कथन द्वारा यह संकेत किया गया है कि आत्मज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य जब अपनी शुद्ध सोच को सोच तक सीमित न रखकर आचरण में उतार लेता है, तब एकीकरण की शक्ति (अनसूया) ही उस शुद्धता को एक ऐसा सुदृढ आवरण प्रदान कर देती है कि विपरीत परिस्थिति में भी वह शुद्धता मलिन नहीं होती। उदाहरण के लिए – जब मनुष्य यह सोचता है कि उसे सत्य बोलना है और सोच व समझ के आधार पर वह सत्य ही बोलने लगता है, तब एकीकरण की शक्ति उसकी सत्यता को ऐसा सुदृढ आवरण प्रदान कर देती है कि मनुष्य विषम परिस्थिति में भी सत्य से विचलित नहीं होता। कथा में संकेत किया गया है कि व्यवहार में उतरकर अत्यन्त सुदृढ हुई शुद्धता विश्वसनीयता, सम्मान और आकर्षण जैसे श्रेष्ठ गुणों से भी विभूषित हो जाती है जिसे अनसूया द्वारा सीता को दिव्य वस्त्र एवं आभूषणादि प्रदान करने के रूप में चित्रित किया गया है।

5.     कथा में कहा गया है कि राम चित्रकूट को छोडकर अत्रि मुनि के आश्रम पर आए और फिर अत्रि से भी विदा लेकर दण्डकारण्य में चले गए।

चित्रकूट का अर्थ है – कूट चित्त अर्थात् अवचेतन मन और दण्डकारण्य (दण्ड – क – अरण्य) का अर्थ है – किसी भी दूसरे को दिखाई न देने वाला वह मानसिक कर्म जो कर्मफल का प्रमुख हेतु होता है। प्रस्तुत कथन से दो संकेत किए गए हैं। पहला संकेत यह है कि स्वस्वरूप की सही पहचान अर्थात् आत्मज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य (राम) ही अपने उस कूट चित्त पर ध्यान देता है जिसमें जन्मों – जन्मों की यात्रा में संचित किए हुए ढेरों संस्कार विद्यमान हैं। दूसरा संकेत यह है कि आत्मज्ञान में स्थित हुए मनुष्य का मन ही इच्छा(भाव), ज्ञान और क्रिया की एकाकारता में स्थित होता है, इसलिए वही अपने उस मानसिक कर्म (मानसिक सोच) पर ध्यान देता है जो नूतन संस्कारों के निर्माण का (कर्मफल के निर्माण का) प्रमुख कारक तत्त्व है। तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञानी मनुष्य के ध्यान का तीर दोनों ओर होता है। उस चित्त की ओर, जहाँ संस्कार संग्रहीत हो चुके हैं तथा उस मानसिक कर्म की ओर जो अब नूतन संस्कारों के निर्माण का प्रधान हेतु है।

कथा का अभिप्राय

     मनुष्य के मन की दो शक्तियाँ हैं। एक है – संश्लेषण और दूसरी है – विश्लेषण। संश्लेषण शक्ति जहाँ बिखरे हुए को, अलग – अलग किए हुए को जोडने का काम करती है, वहीं विश्लेषण शक्ति जुडे हुए को, बंधे हुए को तोड देती है, पृथक् – पृथक् कर देती है। अतः एक शक्ति जोडती है, तो दूसरी तोडती है। प्रस्तुत कथा में वर्णित अत्रि मुनि नामक पात्र संश्लेषण शक्ति से जुडे हुए एकीकृत मन का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है क्योंकि अत्रि(अ – त्रि) मुनि का अर्थ ही है – ऐसा उच्च मन जहाँ तीन तत्त्व पृथक् – पृथक् नहीं रहे हैं अपितु परस्पर मिलकर एकीभूत अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। ये तीन तत्त्व इच्छा(भाव), ज्ञान और क्रिया को इंगित करते प्रतीत होते हैं क्योंकि इन्हीं तीनों तत्त्वों की पृथक् – पृथक् रूप में विद्यमानता जहाँ मनुष्य के मन को निम्नस्तरीय बना देती है, वहीं इन्हीं तीनों तत्त्वों की एकीकृत अवस्था मनुष्य के मन को ऊँचा उठा देती है। उदाहरण के लिए – केवल इच्छा, केवल ज्ञान अथवा केवल क्रिया में स्थित हुआ मनुष्य कभी भी किसी बडे लक्ष्य को नहीं पा सकता परन्तु इन्हीं तीनों तत्त्वों – इच्छा(भाव), ज्ञान तथा क्रिया के एकत्व में स्थित हुआ मनुष्य बडे से बडे लक्ष्य को भी निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है।

     कथा संकेत करती है कि स्वस्वरूप की सही पहचान अर्थात् आत्मज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य इस एकीकृत मन से सदा संयुक्त होता है जिसे कथा में राम और अत्रि मुनि के मिलन के रूप में दर्शाया गया है।

     इस एकीकृत मन के साथ संश्लेषण या एकीकरण की जो शक्ति सदा विद्यमान रहती है, उसे ही कथा में अत्रि – पत्नी अनसूया के रूप में चित्रित किया गया है। चूंकि यह शक्ति ज्ञान से सम्बन्ध रखती है, अज्ञान से नहीं, इसलिए इस अनसूया नाम देना सर्वथा उचित ही है। अनसूया शब्द अनसूर्या (अन – असूर्या) शब्द का छिपा हुआ स्वरूप है। असूर्या शब्द रात्रि अर्थात् अज्ञान का वाचक है और अन् का योग होने पर इसका अर्थ होता है – अज्ञान में नहीं अर्थात् एक ऐसी शक्ति जो अज्ञान अवस्था में विद्यमान नहीं होती।

     एकीकरण शक्ति की इस ज्ञानस्वरूपता को संकेतित करने के लिए ही कथा में कहा गया है कि अनसूया सदा उन स्त्रियों का सम्मान करती है जो अपने पति का ही अनुसरण करें। पौराणिक साहित्य में स्त्री और पुरुष शब्द कभी भी स्त्रीलिंग या पुल्लिंग के वाचक नहीं रहे। यहाँ स्त्री शब्द प्रकृति अर्थात् मन, बुद्धि, इन्द्रियादि को तथा पुरुष शब्द आत्मा को इंगित करता है। प्रकृति (मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि) जड है और सेवकस्वरूप है। इसके विपरीत, आत्मा(पुरुष) चेतन है और स्वामी स्वरूप है। आत्मा (पुरुष) के निर्देशन में रहकर ही प्रकृति (मन, बुद्धि, इन्द्रियादि) यथोचित रूप से सभी कार्यों को सम्पन्न करती है और यथोचित दिशा में गतिमा होती है। आत्म – निर्देशन के अभाव में उच्छृंखल और स्वच्छन्द हुई पुरकृति दिशाहीन हो जाती है। अतः उपर्युक्त कथन द्वारा यह संकेत किया गया है कि मनुष्य की प्रकृति सदैव मनुष्य (आत्मा ) के निर्देशन में रहकर काम करे। इच्छा(भाव), ज्ञान और क्रिया में एकत्व या एकीकरण इसके बिना सम्भव ही नहीं है।

     एकीकृत मन के साथ सदा विद्यमान रहने वाली यह ज्ञानशक्ति (अनसूया) मनुष्य को किस प्रकार से लाभान्वित करती है – यह बताने के लिए ही कथा में कहा गया है कि अनसूया ने सीता को प्रेमोपहार के रूप में दिव्य वस्त्र एवं आभूषणादि प्रदानकिए। प्रस्तुत कथन द्वारा यह संकेत किया गया है कि ज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य जब अपनी शुद्ध सोच को सोच तक सीमित न रखकर व्यवहार के स्तर पर उतार देता है, तब एकीकरण की शक्ति ही जीवन – व्यवहार में उतरी हुई उस शुद्धता को एक सुदृढ आवरण प्रदान कर देती है और सुदृढ बनी हुई शुद्धता फिर विश्वसनीयता, सम्मान और आकर्षण जैसे श्रेष्ठ गुणओं को धारण कर लेती है। अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है कि जीवन – व्यवहार का आचरण ही वह कसौटी है जिस पर उतरकर शुद्धता न केवल सुदृढ हो जाती है, अपितु कंचन स्वरूप होकर आकर्षित भी करती है।

     सार रूप में यह कहा जा सकता है कि जहाँ आत्मज्ञान है, वहाँ एकीकृत मन अवश्य विद्यमान है। जहाँ एकीकृत मन विद्यमान है, वहाँ एकीकरण की शक्ति विद्यान है और जहाँ एकीकरण की शक्ति विद्यमान है, वहाँ व्यवहार के स्तर पर उतरी हुई शुद्धता अत्यन्त सुदृढ,विश्वसनीय तथा आकर्षक – सम्मोहक अवश्य होती है।

प्रथम लेखन – 16-7-2015ई.(आषाढ अमावास्या, विक्रम संवत् 2072)