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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

Home Page

Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

अहिर्बुध्न्य

टिप्पणी : अहिर्बुध्न्य का सामान्य रूप में अर्थ नदियों के जल के अधोतल में स्थित अहि या सर्प से किया जाता है। पुराणों के अनुरूप ही, ऐतरेय ब्राह्मण ३.३६ में उल्लेख है कि अहिर्बुध्न्य को गार्हपत्य अग्नि बनाया जा सकता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१.५ में उल्लेख है कि अहिर्बुध्न्य का उपयोग अभिसिञ्चित सोम को शुद्ध करने के लिए अथवा पार्थिव स्तर को सोम की प्राप्ति हेतु शुद्ध करने के लिए किया जा सकता है(अजस्यैकपदः पूर्वे प्रोष्ठपदाः । वैश्वानरं परस्ताद्वैश्वावसवमवस्तात् । अहेर्बुध्नियस्योत्तरे । अभिषिञ्चन्तः परस्तादभिषुण्वन्तोऽवस्तात् ।)। इसी कथन के सायण भाष्य में कहा गया है कि जो ऊर्जा अभी तक शरीर के पालन-पोषण में लगी थी, उसका उपयोग आरोहण के लिए किया जा सकता है। ज्योतिष ग्रन्थ से प्राप्त संकेत के अनुसार अहिर्बुध्न्य शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की जा सकती है कि वह अहि जिसे बुध रूपी बोध प्राप्ति के मार्ग में स्थापित किया जा सकता है। ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में अहिर्बुध्न्य से शान्त होने की प्रार्थना की गई है।

प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.

इस प्रसंग में अन्तरिक्ष को वह अन्तश्चेतना कहना उचित होगा जिसे विभिन्न दृष्टियों से आत्मा, पुरुष, ब्रह्म आदि भी कहा गया है। इस अन्तश्चेतना के दो ध्रुव हैं - एक सगर (अहि) और दूसरा अहिर्बुध्न्य अथवा "सगर सुमेक। अहंकार-रूप अहि या वृत्र ही वह सगर है जिसके बुध्न से आपः प्रवाहित होने की बात ही प्रकारान्तर से इन्द्र द्वारा होने वाला वृत्र-वध कहा जाता है। जिस बुध्न को आवृत्त करके वृत्र दिव्य आपः के प्रवाह को रोक देता है उसी को वह सगर का बुध्न कहा गया जिससे आपः प्रवाहित करने के लिए इन्द्र की अभ्यर्थना आवश्यक समझी जाती है। अहंकार-रूप अहि से उत्पन्न होने वाला गर (विष) ही इस अन्तरिक्ष नामक अन्तश्चेतना को सगर" बना देता है। दिव्य आपः के प्रवाहित होने से सगर का यह 'गर' दूर हो जाता है और वह सगर अहि से बदलकर अहिर्बुध्न नामक देव हो जाता है। । दूसरे शब्दों में, वृत्र-वध होने से आपः, सूर्य, उषा आदि की मुक्ति हो जाती है। - वेदों में अन्तरिक्ष के पर्याय (अध्याय ८) -अरुणा शुक्ला।

 

अतः सगर नामक रौद्र अनीक (काण्व. ५.८.५) का भी उल्लेख मिलता है और यदि रौद्र भाव को उस विष का वाचक मानें जिस अर्थ में 'गर' शब्द को लौकिक संस्कृत में लिया गया है, तो सगर सुमेक' की तुलना उस अहिर्बुध्न्य से कर सकते हैं जो अहि होने से विष को धारण करते हुए भी वैदिक देवों में गिना जाता है ।१ तदनुसार, मैत्रायणी संहिता का यह वचन विशेष रूप से द्रष्टव्य है - "सगरोऽसि विश्ववेदा, ऋतधामासि स्वर्ज्योतिरसि, समुद्रोऽसि विश्वव्यचा, अजोऽसि एकपादः अहिरसि बुध्न्यः कव्योऽसि कव्यवाहनो रौद्रेणानीकेन पाहि मा अग्ने, पिप्रहि मा, नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीः२ इसका तात्पर्य है कि सगर नामक अन्तरिक्ष- चेतना वही अग्नि है जो रुद्र तथा अहिर्बुध्न्य - रूप में शत्रुसंहारक गर (विष) को छिपाए हुए है, तो वही अपने स्वर्ज्योति, समुद्र, ऋतधाम और कव्यवाहन- रूप में अपनी पालक शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है । एक मन्त्र में जब अग्नि को, महत् रूप (वर्प) के बुध्न से, समर्थ ज्ञानिजन (सूरयः ) बाहर लाते कहे गए हैं ३, तो उसके तीन आयामों का इस प्रकार वर्णन किया गया है४-

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१. सूर्यकान्त; देवशास्त्र, पृ० १७४-१७५

२. मै १.२.१२.

३.निर्यदीं बुध्नान्महिषस्य वर्पस, ईशानासः शवसा क्रन्त सूरयः ।

ऋ. १.१४१.३

४. पृक्षो वपुः पितुमान्नित्य आ शये, द्वितीयमा सप्तशिवास मातृषु।

तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे, दशप्रमतिं जनयंत योषणः ।।

ऋ. १.१४१.२

 

 

 

1-पितुमान् वपुः जहां नित्य अग्नि सुषुप्त है (प्रथम रूप) है।

२-सप्त शिवा माताओं (सप्त व्याहृतियों) में स्थित द्वितीय रूप ।

३- दश प्रमतियों (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों ) में तृतीय रूप।

इन तीनों स्तरों पर अज्ञानान्धकार रूप "गर' की थोड़ी बहुत छाया भी जब तक रहती है तब तक इन स्तरों की चेतना को "सगरा' नामक रात्रि कहा जाता है।१ यही सगर नामक अग्नि अथवा रात्रि उस सगर अन्तरिक्ष का क्षेत्र २ है जिसमें अहंकारजन्य प्रजाओं की भरमार होती है। इसके रहते इन्द्र की विजय नहीं हो सकती, क्योंकि अहंकार-रूप अहि अथवा वृत्र का जब तक यहां राज्य है तब तक तज्जन्य गर (विष) रहेगा ही ।

वृत्र-वध करने वाली इन्द्र-विजय के लिए सगर के ही बुध्न से दिव्य प्राण-रूप आपः की धाराएं चाहिए। यह तभी सम्भव होगा जब हमारी गिराएं (गॄ विज्ञाने से निष्पन्न)  कही जाने वाली विज्ञान शक्तियां अपने प्रजनन कार्य की प्रखरता को छोड़कर (अनिशित सर्गा) सगर के बुध्न से आपः (दिव्य प्राणों) को प्रेरित करें जिससे इन्द्र की शक्ति प्रदीप्त हो और वह अपनी शक्तियों द्वारा द्यावापृथिवी नामक चेतना-युग्म को वैसे ही स्तंभित कर दें जैसे रथ की धुरी (अक्ष) रथचक्रों को स्तंभित करती है। ३ बुध्न से आने वाले ये दिव्य आपः ही वे अभीष्ट "अप्य ' हैं जिनके द्वारा अहंकार-रूप अहि देवत्व ग्रहण करके अहिर्बुध्न्य हो जाता है और जिससे युक्त रोदसी-युग्म का भी कष्ट निवारण हो जाता है।४ अहिर्बुध्न्य के आविर्भाव का अर्थ है अहि (वृत्र)

 

1. सगरा रात्रिः माश. १. ७.२. २६

२. प्रजाभिः सगरः काठ. ३५. १५

३.इन्द्राय गिरो अनिशितसर्गा अपः प्रेरयं सगरस्य बुध्नात्।

यो अक्षेणेव चक्रिया शचीभिर्विष्वक् तस्तम्भ पृथिवीमुतद्याम।। ऋ. १०.८९.४

४. तु. नू रोदसी अहिना बुध्न्येन स्तुवीत देवी अप्येभिरिष्टेः।

समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप व्रन।। ऋ. ४.५५.६

 

 

से होने वाली हिंसा का अभाव। अतः अहिर्बुध्न्य से प्रार्थना है कि वह हमें हिंसक को पुनः समर्पित न करे १ तथा अर्चनीय दिव्य आपः द्वारा हमें अभीष्ट रयि प्रदान २ करे। जब भी दुरित, अनृत और पाप से मुक्ति के लिए याचना की जाती है, तो अहिर्बुध्न्य से विशेष प्रार्थना होती है कि वह हमारी पुकार को सुने।३ हिंसा से बचाने वाला, यज्ञ सफल करने वाला और शम् प्रदान करने वाले देव अहिर्बुध्न्य हैं । ४ एक सूक्त में अनेक देवों का नामोल्लेख करते हए सब देवों के बुध्नों (मूलों) में विराजमान होने को अहिर्बुध्न्य से प्रार्थना की गई है

सचा यत् सादि एषाम् अहिर्बुध्नेषु बुध्न्यः। ऋ. १०. ९३.५

इस विवेचन से स्पष्ट है कि सगर नामक अन्तरिक्ष उस अन्तश्चेतना का नाम है जो अहंकारजन्य काम-क्रोधादि के गर (विष) से युक्त है। इसी को 'सगरा' रात्रि भी कहा गया है । इसका अन्त तभी होगा जब बुध्न से दिव्य आपः अथवा नदियां प्रवाहित होने लगेंगी। इन आपः रूप जल से रहित चेतना को ही धन्व कहा गया है। अतः अहिर्बुध्न्य से सब देवों के बुध्नों में विराजमान होने तथा अश्विनौ एवं मित्रावरुणौ से उस महाधन (आपः) को देने की प्रार्थना होती है जो दुरितों को ऐसे अतिक्रान्त करते हैं जैसे जल धन्व(मरुभूमि) को। इस प्रकार धन्व अथवा दुरित-ग्रस्त व्यक्तित्व में ''आपः'' लाने

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१. मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धात् ऋ. ५. ४१.१६

२. तन्नोऽहिर्बुध्न्यो अद्भिरर्कैस्तत्पर्वतस्तत्सविता चनो धात्। ऋ. ६.४९.१४

३. उ नोऽहिर्बुध्न्य शृणोतु ऋ.६.५०.१४; ७.३८.५; १०.६४.४; १०.६६.११; १०.९२.१२

४. मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धान्मा यज्ञो अस्य स्रिधदृतायोः॥ऋ. ७.०३४.१७

शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः। ऋ. ७.३५. १३

५. महः स रायः एषतेऽति धन्वेव दुरिता ऋ. १०. ९३.६

 

का अर्थ है सगर (अहि) को अहिर्बुध्न्य में परिणत करना । इसी को प्रकारान्तर से वृत्र-वध द्वारा आपः की मुक्ति कहा जाता है।

सगर का पौराणिक आख्यान

पौराणिक आख्यान में, वेद का वृत्रघ्न इन्द्र एक सगरविरोधी के रूप में चित्रित किया गया है । आख्यान इस प्रकार है। सगर एक राजा है जिसके साठ हजार पुत्र हैं । राजा अश्वमेध यज्ञ करना चाहता है। उसके पुत्र अश्व लेकर जाते हैं, तो एक रात इन्द्र घोड़े को चुरा लेता है और उसे ले जाकर पाताल लोक में कपिलमुनि के आश्रम में बांध देता है। सगर-पुत्रों को नारद से पता चलता है कि अश्व पाताल लोक में है, तो सगर-पुत्र पृथिवी को खोद खोद कर पाताल जाने का प्रयत्न करते हैं । इसके फलस्वरूप जो पृथिवी में बृहदाकार गड्ढे बन गए वही सगरजन्य होने से "सागर' कहे गए। जब सगर-पुत्र पाताल लोक में पहुंचे, तो उन्होंने कपिलमुनि को अश्व-चोर समझकर उन पर प्रहार करना प्रारंभ किया। इससे मुनि के तप में विघ्न पड़ा और उन्होंने जब क्रोध करके सगर-पुत्रों की ओर देखा, तो वे सब भस्म हो गए ।

भस्म होने के पश्चात् वे सब प्रेत होकर सभी प्रजाओं को त्रस्त करने लगे । इनको प्रेत-योनि से मुक्त कराके स्वर्ग भजने के लिए सगर की कई पीढ़ियों तक स्वर्ग से गंगा नदी को लाने के लिए तप किया जाता रहा । अन्त में सगर-वंशी भगीरथ को सपलता मिली। शिवजी की जटाओं से गंगा ब्रह्मा जी के कमण्डल में आई और वहां से वह देवसरिता तीनों लोकों में गई। पाताल में गंगा-जल के स्पर्श से सगर-पुत्रों का प्रेतयोनि से छुटकारा हो गया और वे स्वर्ग पहुंच गए।

 

 

 

गंगा नदी को भगीरथ लाए, अतः उसका नाम भागीरथी हुआ। आज तक इस कथा को ऐतिहासिक घटना मानकर पौराणिक पण्डित इसको सुनाते हैं, परन्तु यदि इसके वैदिक आधार को देखा जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह रोचक आख्यान बीज-रूप में सगरबुध्न से प्रेरित किए जाने वाले आपः में विद्यमान है ।

अन्तरिक्ष के दो ध्रुव

दूसरे शब्दों में, अन्तरिक्ष नामक चेतना के दो ध्रुव माने गए हैं । एक सगर अग्नि अहि है और दूसरा अहिर्बुध्न्य। सगर अहि होते हुए भी उसके बुध्न में आपः ' नामक अन्तरिक्ष विद्यमान रहता है । इसी आपः को शिव की जटाओं में निहित गंगा के रूप में कल्पित किया गया है । जिस प्रकार पौराणिक आख्यान में गंगा को अवतीर्ण करने के लिए घोर और लम्बे तप की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार वेद-मन्त्र में सगर के बुध्न से आपः को बाहर लाने के लिए ऐसी गिराओं १की आवश्यकता हुई जो संकल्पविकल्पात्मक मानस-सर्ग को क्षीण कर देती है ! जिस अहंकार-रूप अहि के क्रोधादिजन्य गर (विष) के कारण चेतना सगर' अन्तरिक्ष बनती है वह 'रजसः बुध्नं को आवृत करके सोता रहता है २ जिसके कारण आपः नामक अंतरिक्षचेतना का मार्ग अवरुद्ध रहता है और उसके अभाव में चेतना को धन्व ( मरुभूमि) अन्तरिक्ष कहा जाता है। इस धन्व-रूप अन्तरिक्ष-चेतना को आर्द्र करने वाले आपः (चेतनाधाराएं) तभी प्रवाहित होते हैं जब इन्द्र वृत्र-वध करता है ३। पौराणिक आख्यान में इसी बात को गंगावतरण द्वारा सगर-पुत्रों का उद्धार कहा जाता है।

 

१. ऋ. १०. ८९.४

२. ऋ. १. ५२.६

३. ऋ. ४ . १ ७.१ -२

- वेदों में अन्तरिक्ष पर्यायों का प्रतीकवाद (अध्याय २) – अरुणा शुक्ला

 

- वेदों में अन्तरिक्ष पर्यायों का प्रतीकवाद (अध्याय २) – अरुणा शुक्ला

 

आवसथ्योपरि टिप्पणी पठनीया अस्ति।

ऋग्वेदे सार्वत्रिकरूपेण अहिर्बुध्न्यस्य संबन्धं श्रोत्रेण सह कथितमस्ति (यथा - अहिर्बुध्न्य उत नः शृणोतु (७.०३८.०५), अहिः शृणोतु बुध्न्यो हवीमनि (१०.०६४.०४), अहिर्बुध्न्यः शृणवद्वचांसि मे (१०.०६६.११), हिः शृणोतु बुध्न्यो हवीमनि (१०.९२.१२)। चाक्षुषोपनिषदि अहिर्बुध्न्यः उपनिषदस्य ऋषिः अस्ति, यस्य अभीप्सा पुण्डरीकसदृशयोः चक्षुषोः अस्ति। प्रश्नमस्ति – अहिर्बुध्न्यस्य वैशिष्ट्यं श्रोत्रेषु अस्ति, अथवा चक्षुषु। आधुनिक चिकित्साशास्त्रानुसारेण, सर्पस्य मुखे या लालाग्रन्थिः भवति, तस्याः मूलं तस्य चक्षुषोः पृष्ठे भवति एवं अयं विषं जनयति, विषग्रन्थिः अप्यस्ति। मेरुदण्डधारिजीवेषु लालाग्रन्थ्याः मूलं श्रोत्रयोः अधोभागे भवति। यदि लालासंबन्धि कोपि व्याधिः संजायते, तदा श्रोत्रस्य अधोभागे शोथः संजायते। चक्षुषः अश्रुग्रन्थ्याः मूलं कुत्र भवति, न ज्ञातम्। डा. फतहसिंहः वक्ति स्म यत् चक्षुषोः एवं श्रोत्रयोः मूलं एकमेव अस्ति। देहे ग्रन्थीनां ये मूलाः सन्ति, तेषां सन्धिः मूलधारातः विच्छिन्ना अस्ति। विशिष्टासु दशासु ग्रन्थीनां मूलानां सन्धिः मुख्यधारा सह भवितुं शक्यते। यदा सन्ध्याः सर्जनं भवति, तदा ऊर्जायाः प्रवाहः पादतः शिरसि भवति। यदा प्रवाहः अवरुद्धं भवति, तदा ग्रन्थ्याः मूले शोथः, व्याधिः भवति। ऊर्जायाः मुख्यधारायां प्रवाहे अहिर्बुध्न्यस्य किं योगदानमस्ति। उत्तरभाद्रपदानक्षत्रस्य संदर्भे तैत्तिरीय ब्राह्मणस्य कथनमस्ति - अहेर्बुध्नियस्योत्तरे अभिषिञ्चन्तः परस्तादभिषुण्वन्तोऽवस्तात्  - तै १.५.१.५। अभिषवनं, विषस्य अपनयनं अहेर्बुध्न्यस्य योगदानमस्ति। केन प्रकारेण, अन्वेषणीयः। कर्मकाण्डे आवसथ्य खरः, यस्य देवता अहिर्बुध्न्यः अस्ति, पयोग्रहस्य एवं पशुश्रपणस्य स्थानमस्ति। पशुश्रपणतः तात्पर्यं अचेतनमनसः रूपान्तरणं चेतनमनसि कर्तव्यं अस्ति। यः सभ्याग्निखरः भवति, तत्र भोजनस्य निषेधं भवति। आवसथ्याग्निखरे अशनस्य अनुमतिः अस्ति, किन्तु केवलं ब्राह्मणाय। अयमन्नं न सुरा अस्ति, न सोमः, अपितु पयः अस्ति। सुरायाः स्थानं गार्हपत्य अग्निः अस्ति, सोमस्य आहवनीयम्।

 

 

 

 

उत नोऽहिर्बुध्न्यो मयस्कः शिशुं न पिप्युषीव वेति सिन्धुः।

येन नपातमपां जुनाम मनोजुवो वृषणो यं वहन्ति॥ १.१८६.०५

उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्न्योऽज एकपादुत।

त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधेऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि॥ २.०३१.०६

नू रोदसी अहिना बुध्न्येन स्तुवीत देवी अप्येभिरिष्टैः।

समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप व्रन्॥ ४.०५५.०६

कथा दाशेम नमसा सुदानूनेवया मरुतो अच्छोक्तौ प्रश्रवसो मरुतो अच्छोक्तौ।

मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धादस्माकं भूदुपमातिवनिः॥ ५.०४१.१६

तन्नोऽहिर्बुध्न्यो अद्भिरर्कैस्तत्पर्वतस्तत्सविता चनो धात्।

तदोषधीभिरभि रातिषाचो भगः पुरंधिर्जिन्वतु प्र राये॥ ६.०४९.१४

उत नोऽहिर्बुध्न्यः शृणोत्वज एकपात्पृथिवी समुद्रः।

विश्वे देवा ऋतावृधो हुवानाः स्तुता मन्त्राः कविशस्ता अवन्तु॥ ६.०५०.१४

अब्जामुक्थैरहिं गृणीषे बुध्ने नदीनां रजस्सु षीदन्॥ ७.०३४.१६

मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धान्मा यज्ञो अस्य स्रिधदृतायोः॥ ७.०३४.१७

शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।

शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपा॥ ७.०३५.१३

अभि ये मिथो वनुषः सपन्ते रातिं दिवो रातिषाचः पृथिव्याः।

अहिर्बुध्न्य उत नः शृणोतु वरूत्र्येकधेनुभिर्नि पातु॥ ७.०३८.०५

कथा कविस्तुवीरवान्कया गिरा बृहस्पतिर्वावृधते सुवृक्तिभिः।

अज एकपात्सुहवेभिर्ऋक्वभिरहिः शृणोतु बुध्न्यो हवीमनि॥ १०.०६४.०४

समुद्रः सिन्धू रजो अन्तरिक्षमज एकपात्तनयित्नुरर्णवः।

अहिर्बुध्न्यः शृणवद्वचांसि मे विश्वे देवास उत सूरयो मम॥ १०.०६६.११

उत स्य न उशिजामुर्विया कविरहिः शृणोतु बुध्न्यो हवीमनि ।
सूर्यामासा विचरन्ता दिविक्षिता धिया शमीनहुषी अस्य बोधतम् ॥१०.९२.१२

उत नो नक्तमपां वृषण्वसू सूर्यामासा सदनाय सधन्या।

सचा यत्साद्येषामहिर्बुध्नेषु बुध्न्यः॥ १०.०९३.०५

अग्निमारुतशस्त्रम् -- अहिम् बुध्न्यम् शंसति । अग्निर् वा अहिर् बुध्न्यः । तम् एतया उज्ज्वलयति । अथो धिष्ण्यान् एव एतया अनुशंसति । - कौ १६.७

अहिर्बुध्न्यो भुवनस्य रक्षिता – काठसंक ६०.७

सप्रथ सभां मे गोपाय ये च सभ्याः सभासदः तानिन्द्रियावतः कुरु सर्वमायुरुपासताम् अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय यमृषयस्त्रैविदा विदुः ऋचः सामानि यजू षि सा हि श्रीरमृता सताम् - तै १.२.१.२६

सा चतुर्थमुदक्रामत् तत्प्रजापतिः पर्यगृह्णात् सप्रथ सभां मे गोपायेति सा पञ्चममुदक्रामत् तत्प्रजापतिः पर्यगृह्णात् अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपायेति अग्नीन्वाव सा तान्व्यक्रमत - तै १.१.१०.३

सप्रथ सभां मे गोपायेत्याह सभामेवैतेनेन्द्रि य स्पृणोति अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपायेत्याह मन्त्रमेवैतेन श्रिय स्पृणोति - तै १.१.१०.५

अजस्यैकपदः पूर्वे प्रोष्ठपदाः वैश्वानरं परस्ताद्वैश्वावसवमवस्तात् अहेर्बुध्नियस्योत्तरे अभिषिञ्चन्तः परस्तादभिषुण्वन्तोऽवस्तात्  - तै १.५.१.५

तासु वा अहिना बुध्न्येन परोक्षात्तेजोऽदधादेष ह वा अहिर्बुध्न्यो यदग्निर्गार्हपत्योऽग्निनैवासु तद्गार्हपत्येन परोक्षात्तेजो दधाति तस्मादाहुर्जुह्वदेवाजुह्वतो वसीयानिति - ऐ ३.३६

प्रोष्ठपदा नक्षत्रम् अज एकपाद् देवता प्रोष्ठपदा नक्षत्रम् अहिर् बुध्नियो देवता - तैसं ४.४.१०.३,

प्रोष्ठपदा नक्षत्रं, अहिर् बुध्योषि देवता, प्रोष्ठपदा नक्षत्रं, अज एकपाद्देवता - मै २.१३.२०

अस्याश्वक्षुषी विद्यायाः अहिर्बुध्न्य ऋषिः । गायत्री छन्दः । सूर्योदेवता - -चाक्षुषोपनिषत्

प्रौष्ठपद्यामिन्द्रयज्ञः १
पायसमैन्द्रं श्रपयित्वाऽपूपांश्चापूपैः स्तीर्त्वाऽऽज्यभागाविष्ट्वाऽऽज्याहुतीर्जुहोतीन्द्रायेन्द्राण्या अजायैकपदेऽहिर्बुध्न्याय प्रौष्ठपदाभ्यश्चेति –पारस्करगृह्यसूत्रम् २.१५.

अयं पितॄणामग्निरवाड्ढव्या पितृभ्य आ तं पूर्वः परिगृह्णाम्यविषं नः पितुं करदिति दक्षिणाग्निम् अजस्रं त्वा सभापाला विजयभागं समिन्धताम् । अग्ने दीदाय मे सभ्य विजित्यै शरदः शतमिति सभ्यम् अन्नमावसथीयमभिहराणि शरदः शतम् आवसथे श्रियं मन्त्रमहिर्बुध्नियो नियच्छत्वित्यावसथ्यम् - आपश्रौसू ४.२.

अग्ने गृहपतेऽहे बुध्न्य परिषद्य दिवः पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाल्लोकं विन्द यजमानाय। - आपश्रौसू ५.१२.२

उपस्थानम् -- सप्रथ सभां मे गोपायेन्द्रियं भूतिवर्धनम् विश्वजनस्य छायां तां ते परिददाम्यहमिति सभ्यम् अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय श्रियं च यशसा सह अहये बुध्नियाय मन्त्रं श्रियं यशः परिददाम्यहमित्यावसथ्यम् - आपश्रौसू ५.१८.२

निरुप्तं हविरुपसन्नमप्रोक्षितं भवति । अथ सभाया मध्येऽधिदेवनमुद्धत्यावोक्ष्याक्षान्न्युप्याक्षेषु हिरण्यं निधाय समूह्य व्यूह्य प्रथयित्वा निषसाद धृतव्रत इति मध्येऽधिदेवने राजन्यस्य जुहोति । आवसथे परिषदो मध्ये हिरण्यं निधाय मन्त्रवत्या हिरण्ये जुहोति प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् । यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिर इति । उत नोऽहिर्बुध्न्यः शृणोत्वज एकपात्पृथिवी समुद्रः । विश्वे देवा ऋतावृधो न्हुवानाः स्तुता मन्त्राः कविशस्ता अवन्तु न इत्युक्त्वा शतमक्षान्यजमानाय प्रयच्छन्नाह व्रीहिभ्यो गां दीव्यताहिंसन्तः परूंषि विशसतेति  संप्रैषवत्कुर्वन्ति ।  कृतं यजमानो विजिनाति । तया यज्जयन्ति तदन्नं संस्कृत्य सभासद्भ्य उपहरन्ति । आवसथे भुञ्जते । - आपश्रौसू ५.१९.४

अजोऽस्येकपादिति शालामुखीयम् अहिरसि बुध्निय इति प्राजहितम् - आपश्रौसू ११.१५.१

उत नोऽहिर्बुध्न्यः शृणोत्वज एकपादिति वा वैश्वदेव्यामृचि शस्यमानायाम् आपश्रौसू १३.१६.

सप्रथसभां मे गोपायेन्द्रियं भूतिवर्धनम् । विश्वजनस्य छायां तां ते परिददाम्यहमिति स प्रथ सभां मे गोपाय ये च सभ्याः सभासदः। तानिन्द्रियावतः कुरु सर्वमायुरुपासतामिति सभ्यमहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय श्रियं च यशसा सह । अहये बुध्नियाय मन्त्रं श्रियै यशः परिददाम्यहमित्यावसथ्यं पञ्चधाऽग्नीन्व्यक्रामद्विराट्सृष्टा प्रजापतेः ।
ऊर्ध्वारोहद्रोहिणी योनिरग्नेः प्रतिष्ठितिरिति सर्वान् । यत्रास्मै ॥ १६ ।। शतमक्षान्प्रयच्छति तेषु कृतं विजित्य सभासद्भ्यः प्रयच्छति ते यज्जयन्ति तदुभयमन्न स्कृत्य ब्राह्मणान्भोजयति । - हिरण्यकेशिश्रौसू ६.५.१६

शुनासीरौ नः प्रमुमूतु जिह्मसौ तौतौ पितृभ्यो ददतु स्तनौ शुभौ । तौ पूर्वजौ कृणुतामेकपादजः प्रतिष्ठानौ सर्वकामाभयाय च ॥ सर्वार्थाय कृणोमि कर्मसिद्धये गविष्टुतायानेककारिणे नमः । सोऽहिर्बुध्न्यः कृणुतामुत्तरौ शिवौ प्रतिष्ठानौ सर्वकामाभयाय च ॥ अथर्वपरिशिष्ट ,४०.५

प्रजापतिः । चन्द्रमाः । सोमः । इन्दुः । अदितिः । धेनवः । अहिर्बुध्न्य इति निपातभाञ्जि ॥ - अथर्वपरि. ४८,१३८

सप्रथ सभां मे गोपाय । ये च सभ्याः सभासदः । तानिन्द्रियावतः कुरु । सर्वमायुरुपासतामिति सभ्यम् अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय । यमृषयस्त्रयिविदा विदुः । ऋचः सामानि यजूँ षि । सा हि श्रीरमृता सतामित्यावसथीयम् – बौश्रौसू २.१८.२२

सप्रथ सभां मे गोपायेति सभ्यम् अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपायेत्यावसथीयं सोऽपरिमितं प्रवसति – बौश्रौसू ३.१४.१३

सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेस्तेजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्रस्येन्द्रियेण मित्रावरुणयोर्वीर्येण मरुतामोजसा क्षत्राणां क्षत्रपतिरस्यति दिवस्पायसवित्यथोर्ध्वा धाराः समुन्मृष्टे समाववृत्रन्नधरागुदीचीरहिं बुध्नियमनु संचरन्तीस्ताः पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठे नावश्चरन्ति स्वसिच इयाना इत्य् – बौश्रौसू १२.११.७

अहिराहन्ति मेघान्स एति वा तेषु मध्यमः। योऽहिः स बुध्न्यो वुध्ने हि णोऽन्तरिक्षेऽभिजायते॥बृहद्देवता ५.१६६

बद्धाः अस्मिन् धृताः आपः [ इति वा ] । तस्य एषा भवति । तन्निवासात् । बुध्नम् अन्तरिक्षम् । यः अहिः सः बुध्न्यः । इदम् अपि इतरत् बुध्नम् एतस्मात् एव ।
बुध्नम् अन्तरिक्षम् । अप्सुजम् उक्थैः अहिं गृणिषे बुध्ने नदीनां रजस्सु [ उदकेषु ] सीदन् । अब्जाम् उक्थैः अहिं गृणीषे बुध्ने नदीनां रजःसु सीदन् । बद्धाः अस्मिन् धृताः प्राणाः इति । निरुक्तः १०.४४

मा नः अहिः बुध्न्यः रिषे धात् मा यज्ञः अस्य स्रिधत् ऋतायोः । तस्य एषा भवति । अजः च एकपात् पृथिवी च समुद्रः च सर्वे च देवाः । अपि च नः अहिः बुध्न्यः शृणोतु । विश्वे देवाः ऋतावृधः हुवानाः स्तुताः मन्त्राः कविशस्ताः अवन्तु । उत नः अहिः बुध्न्यः शृणोतु अजः एकपात् पृथिवी समुद्रः । मन्त्राः कविशस्ताः । । निरुक्तः १२.३३