पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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आयु टिप्पणी : शतपथ ब्राह्मण ४.३.४.२४ तथा ५.१.५.२८ इत्यादि में बार-बार उल्लेख आता है कि अमृत आयु हिरण्य है, अतः हिरण्य दान से आयु की प्राप्ति होती है। अयस् शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है कि सृष्टि के ९ स्तरों में से तीन स्तर अश्मा, अयः और हिरण्य हैं। इनमें अयः स्तर के हिरण्य का विकास अर्य और आयु के रूप में होता है(अथर्ववेद १८.३.२३)। इसके अतिरिक्त, अयः से पहले अश्मा स्तर के हिरण्य का उल्लेख भी आयु प्राप्ति के लिए किया गया है(अथर्ववेद २.१३.४, ५.१०.१ तथा शतपथ ब्राह्मण ९.२.३.१६)। अथर्ववेद ५.२८.६ तथा १९.२६.१ में अग्नि, सोम व आपः से उत्पन्न तीन प्रकार के हिरण्यों से आयु प्राप्ति का उल्लेख है। वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यौ से आयु प्राप्ति का उल्लेख है। इन तीनों की कल्पना धेनुओं के रूप में की गई है जो क्रमशः अग्नि, वायु व आदित्य रूपी वत्सों के लिए आयु रूपी दुग्ध देती हैं(अथर्ववेद ४.३९.२)। साधना में अग्नि, वायु व आदित्य के स्तरों पर आयु की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसका वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र उल्लेख आता है। तीनों स्तरों पर परम लक्ष्य ज्योति की प्राप्ति होना है। अग्नि के स्तर पर यह ज्योति तप द्वारा तमस् का नाश करके प्राप्त होती है(अथर्ववेद ७.६३.१)। इस ज्योति का नाम वैश्वानर अग्नि है जो संवत्सर का रूप है(तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.८.७, अथर्ववेद ६.४७.१)। अथर्ववेद १२.२.४५ में अग्नि से सुगार्हपत्य रूप धारण करके आयु प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। गोपथ ब्राह्मण २.२.१९ में आयु के संदर्भ में अग्नि को उपद्रष्टा? कहा गया है। अन्तरिक्ष के स्तर पर वायु अथवा प्राणों का विकास प्राण, अपान तथा व्यान रूप में किस प्रकार हो सकता है तथा उनसे किस-किस गुण की प्राप्ति हो सकती है, इसका वर्णन अथर्ववेद १५.१५.१ में व्रात्य काण्ड के अन्तर्गत किया गया है। लेकिन शतपथ ब्राह्मण १०.२.६.१९ इत्यादि के अनुसार प्राण अध्रुव हैं। आयु प्राप्ति के लिए उनको ध्रुव करने की आवश्यकता है। कर्मकाण्ड में प्राणों की ही प्रतीक स्वयमातृण्णा इष्टकाओं(ऐसी ईंटें जिनमें स्वाभाविक रूप से छेद हो) को गार्हपत्य अग्नि चयन की पांच चितियों/तहों में मध्य में एक के ऊपर एक रखते हैं(शतपथ ब्राह्मण ८.७.३.११, ७.६.१.१५)। यहां यह उल्लेखनीय है कि स्टेला क्रामरिश ने अपनी पुस्तक हिन्दू टैम्पिल्स में यह संभावना प्रकट की है कि मन्दिरों में इष्टदेव की प्रतिमा की स्थापना स्वयमातृण्णा इष्टकाओं पर ही होती है। स्वयमातृण्णा इष्टका के दोनों ओर आयु की प्रतीक विकर्णी नाम इष्टकाओं की स्थापना करते हैं। शतपथ ब्राह्मण ४.२.३.१ में आत्मा को अनिरुक्त प्राण कहा गया है जिसे आयु कहा गया है और जिसको ग्रहण करने के लिए स्थाली नामक यज्ञपात्र की आवश्यकता होती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१.५ के अनुसार विभिन्न प्रकार के दुग्धों की प्राप्ति के लिए विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार की स्थालियों की आवश्यकता होती है, जैसे आदित्य स्थाली, उक्थ स्थाली, आग्रयण स्थाली। मनुष्य स्तर पर आयु रूपी दुग्ध प्राप्ति के लिए ध्रुवा स्थाली की आवश्यकता होती है। इस संदर्भ में पुराणों में उर्वशी – पुरूरवा कथा के अन्तर्गत पुरूरवा द्वारा गन्धर्वों से उर्वशी के स्थान पर आयु व स्थाली की प्राप्ति, स्थाली का शमी वृक्ष के गर्भ में स्थित अश्वत्थ वृक्ष में रूपान्तरित होना, पुरूरवा द्वारा शमी व अश्वत्थ वृक्षों से अधरारणि व उत्तरारणियों का निर्माण तथा उनके मन्थन से अग्नि को प्रकट करना, स्व शरीर की अरणि रूप में कल्पना करना तथा अग्नि को सर्वप्रथम गार्हपत्य, दक्षिण व आहवनीय अग्नियों में त्रेधा विभाजित करना उल्लेखनीय है। यह ध्रुव स्थाली की समुचित व्याख्या है। आकाश में आदित्य वत्स के स्तर पर ज्योति की प्राप्ति संभवतः चन्द्रमा के रूप में होती है। गोपथ ब्राह्मण २.२.१९ में आदित्य को अनुख्याता? कहा गया है। वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आयु, विश्वायु, सर्वायु, अत्यायु आदि शब्दों का उल्लेख आता है। पुराणों में उर्वशी-पुरूरवा कथा में भी पुरूरवा के पुत्रों के रूप में आयु, विश्वायु, शतायु, गतायु, दृढायु आदि का उल्लेख आता है। डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार विश्व शब्द चेतना को बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी करने के अर्थ में आता है, जबकि सर्व शब्द चेतना को बहिर्मुखी करने के अर्थ में आता है। अग्नि के स्तर पर मुख्य रूप से विश्व आयु की प्राप्ति होती है। पितरों, पितामहों आदि से भी विश्वायु की प्राप्ति होती है(तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.३.३)। पुरोडाश तथा अग्नीषोम से भी विश्वायु की प्राप्ति का उल्लेख है(शतपथ ब्राह्मण १.२.२.७, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.७.१०)। जैमिनीय ब्राह्मण २.४३३ के अनुसार विश्वायु रथन्तर साम है जो अग्नि के स्तर पर होता है, समायु वामदेव्य साम है जो वायु के स्तर पर होता है, सर्वायु बृहत् साम है जो आदित्य के स्तर पर होता है, आयु गायत्र साम है जो चन्द्रमा के स्तर पर होता है, अत्यायु यज्ञायज्ञीय साम है जो विद्युत के स्तर पर होता है। अत्यायु के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण २.२५८ द्रष्टव्य है। अत्यायु आदित्य का दिन रूपी सत्य पद है। इसके विपरीत, रात्रि के अनृत पद को पृश्नि कहा गया है। सारी साधना केवल पृश्नि पद के लिए ही है। शतायु के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १३.२.१.६ में पुरुष को शतायु तथा आत्मा को उससे परे १०१वीं कहा गया है जिसे आयुओं में प्रतिष्ठित करना होता है। शतपथ ब्राह्मण ४.२.३.१ के अनुसार जो ध्रुव आयु है, वही आत्मा है। तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.४.६ के अनुसार अश्विनौ देवगण ने अङ्गों को आत्मा में धारण किया?, जबकि सरस्वती ने आत्मा को अङ्गों से पूर्ण किया। ऐसा करके उन्होंने शतमान आयु आदि की प्राप्ति की। इसी प्रकार का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.१६ में भी है जहां शरीर को प्राणों से और प्राणों को शरीर द्वारा धारण करते हैं। सर्वायु के संदर्भ में, ताण्ड्य ब्राह्मण २०.१६.१ में सर्वायु के लक्षण कहे गए हैं --जब प्राण गायत्र हो जाए, चक्षु त्रैष्टुभ तथा श्रोत्र जागत हो जाएं। शतपथ ब्राह्मण ११.८.३.७ में कुमार के लिए सर्वायु की प्राप्ति के लिए पांच दिशाओं में प्राण, अपान आदि के भरण करने का उल्लेख है। अथर्ववेद २०.१२९.१ सूक्त में ऐतश प्रलाप द्वारा सर्वायु की प्राप्ति का उल्लेख है। वात्सप्री सूक्त(ऋग्वेद १०.४५) को भी सर्वायु प्राप्ति कारक कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण तथा ताण्ड्य ब्राह्मण में ६ दिनों के गुणकों के रूप में षडह, द्वादशाह, अष्टादशाह आदि का विस्तृत वर्णन है जिनके प्रथम तीन दिनों की संज्ञा ज्योति, गौ व आयु है। इसके पश्चात् क्रम गौ, आयु व ज्योति है(ऐतरेय ब्राह्मण ४.१५)। ताण्ड्य ब्राह्मण ४.८.१, १६.३.७ व २०.१२.१ इत्यादि के अनुसार ज्योति और गौ रूपी दिन का आयुरूपी अतिरात्र से मिथुन होता है जिससे प्रजा की उत्पत्ति होती है। अतिरात्र में प्रजा की उत्पत्ति का निहितार्थ इष्टदेव की मूर्ति का प्रकट होना हो सकता है। पुरूरवा के पुत्र आयु की पत्नी इन्दुमती के संदर्भ में, ऋग्वेद ८.४८.४, ९.६२.२०, ९.६३.१७, ९.६६.२३ तथा ९.९३.५ में उल्लेख आता है कि इन्दु आयु की प्राप्ति कराता है, जबकि आयु इन्दु का मार्जन करती है। आयु-पुत्र नहुष के संदर्भ में ऋग्वेद १.३१.११ की ऋचा विचारणीय है जहां अग्नि को नहुष का विश्पति रूपी प्रथम आयु कहा गया है। नह धातु बन्धन के अर्थ में आती है। बन्धनों अथवा पाशों के खुलने से आयु की प्राप्ति का वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक उल्लेख है(उदाहरण के लिए, अथर्ववेद १६.८.४)। उर्वशी –पुत्र आयु के लिए ऋग्वेद ४.२.१८ तथा ५.४१.१९ ऋचाओं के अर्थ विचारणीय हैं। पुराणों व महाभारत वनपर्व १९२ में परीक्षित राजा द्वारा मण्डूकराज आयु की कन्या सुशोभना प्राप्त करने की कथा के संदर्भ में, ऋग्वेद ३.७.१ तथा १०.६५.८ में परीक्षितों(अर्थात् परितः बिखरे हुए प्राणों) को पितरों की संज्ञा दी गई है। तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.३.३ में पितरों, पितामहों तथा प्रपितामहों से पवित्र करने और विश्वायु प्राप्त करने की कामना की गई है। दूसरी ओर, दीर्घ आयु से पितरों के लिए स्वधा की प्राप्ति होती है(अथर्ववेद १२.३.३२)। इस प्रकार आयु द्वारा परिरक्षित का कल्याण और परिक्षित द्वारा आयु का कल्याण पौराणिक कथा में दर्शाया गया है। शाप द्वारा आयु के मण्डूक राजा बनने के संदर्भ में, मण्डूक प्राण हैं जो पर्जन्य वृष्टि की कामना करते हैं(मैत्रायणी संहिता ३.१४.२, शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.२१)। प्राणों का आयु में रूपान्तरित होने का तथ्य ब्राह्मणों में सार्वत्रिक रूप से वर्णित है। परिक्षित के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.३ के कथन का अर्थ विचारणीय है जहां ज्योति, गौ व आयु अतिरात्रों को पारिक्षिती कहा गया है। प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् ।
प्र य आरुः शितिपृष्ठस्य धासेरा मातरा विविशुः सप्त वाणीः ।
आ यूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद्देवानां यज्जनिमान्त्युग्र ।
भि न इळा यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु । शं नो भव हृद आ पीत इन्दो पितेव सोम सूनवे सुशेवः । सखेव सख्य उरुशंस धीरः प्र ण आयुर्जीवसे सोम तारीः ॥ऋ ८.४८.४॥ आ त इन्दो मदाय कं पयो दुहन्त्यायवः । देवा देवेभ्यो मधु ॥ऋ ९.६२.२०॥ एह्यश्मानमा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः । कृण्वन्तु विश्वे देवा आयुष्टे शरदः शतम् ॥शौअ २.१३.४॥ पृथिवी धेनुस्तस्या अग्निर्वत्सः । सा मेऽग्निना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम् । आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ॥२॥ अन्तरिक्षे वायवे समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथान्तरिक्षे वायवे समनमन्न् एवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥३॥ अन्तरिक्षं धेनुस्तस्या वत्सः । सा मे वायुना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम् । आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ॥४॥ दिव्यादित्याय समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथा दिव्यादित्याय समनमन्न् एवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥५॥ द्यौर्धेनुस्तस्या आदित्यो वत्सः । सा म आदित्येन वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम् । आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ॥६॥ दिक्षु चन्द्राय समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथा दिक्षु चन्द्राय समनमन्न् एवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥७॥ दिशो धेनवस्तासां चन्द्रो वत्सः । ता मे चन्द्रेण वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहामायुः प्रथमं प्रजां पोसं रयिं स्वाहा ॥शौ ४.३९.८॥
त्रेधा जातं जन्मनेदं हिरण्यमग्नेरेकं प्रियतमं बभूव सोमस्यैकं हिंसितस्य परापतत्।
अपामेकं वेधसां रेत आहुस्तत्ते हिरण्यं त्रिवृदस्त्वायुषे ॥६॥
यदग्ने तपसा तप उपतप्यामहे तपः । प्रियाः श्रुतस्य भूयास्मायुष्मन्तः सुमेधसः ॥१॥ भूम्यां देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरंकृतम् । भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः । सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ॥शौ १२.१.२२॥
जीवानामायुः प्र तिर त्वमग्ने पितॄणां लोकमपि गच्छन्तु ये मृताः ।
आ यूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद्देवानां जनिमान्त्युग्रः । मर्तासश्चिदुर्वशीरकृप्रन् वृधे चिदर्य उपरस्यायोः ॥शौअ १८.३.२३॥ अग्नेः प्रजातं परि यद्धिरण्यममृतं दध्रे अधि मर्त्येषु । य एनद्वेद स इदेनमर्हति जरामृत्युर्भवति यो बिभर्ति ॥१॥ यद्धिरण्यं सूर्येण सुवर्णं प्रजावन्तो मनवः पूर्व ईषिरे । तत्त्वा चन्द्रं वर्चसा सं सृजत्यायुष्मान् भवति यो बिभर्ति ॥२॥ आयुषे त्वा वर्चसे त्वौजसे च बलाय च । यथा हिरण्यतेजसा विभासासि जनामनु ॥३॥ यद्वेद राजा वरुणो वेद देवो बृहस्पतिः । इन्द्रो यद्वृत्रहा वेद तत्त आयुष्यं भुवत्तत्ते वर्चस्यं भुवत्॥शौ १९.२६.४॥ ज्योतिर्गौरायुरिति स्तोमेभिर्यन्त्ययं वै लोको ज्योतिरन्तरिक्षं गौरसौ लोक आयुः – ऐब्रा. ४.१५
गौश्चायुश्च स्तोमौ भवतः स गायत्रीं संपद्यते प्राणो गायत्र्यायुरेष आयुश्चैवास्मिन् प्राणं चोभे समीची दधाति – तांब्रा. १६.३.५
अथ यस्य ज्योतिरुक्थ्यः पूर्वमहर्भवत्यायुरतिरात्र उत्तरम् यो वै सदस्यान् गन्धर्वान् वेद न सदस्याम् आर्तिम् आर्छति सदः प्रस्रप्स्यन् ब्रूयाद् उपद्रष्ट्रे नम इति अग्निर् वै द्रष्टा तस्मा उ एवात्मानं परिददाति सर्वम् आयुर् एति न पुरा जरसः प्रमीयते य एवं वेद सदः प्रसृप्य ब्रूयाद् उपश्रोत्रे नम इति वायुर् वा उपश्रोता तस्मा उ एवात्मानं परिददाति सर्वम् आयुर् एति न पुरा जरसः प्रमीयते य एवं वेद सदः प्रसर्पन् ब्रूयाद् अनुख्यात्रे नम इति आदित्यो वा अनुख्याता तस्मा उ एवात्मानं परिददाति सर्वम् आयुर् एति न पुरा जरसः प्रमीयते य एवं वेद सदः प्रसृप्तो ब्रूयाद् उपद्रष्ट्रे नम इति ब्राह्मणो वा उपद्रष्टा तस्मा उ एवात्मानं परिददाति सर्वम् आयुर् एति न पुरा जरसः प्रमीयते य एवं वेद – गोब्रा २.२.१९ अयं ह वा अस्यैषोऽनिरुक्त आत्मा यदुक्थ्यः । सोऽस्यैष आत्मैवात्मा ह्ययमनिरुक्तः प्राणः सोऽस्यैष आयुरेव तस्मादनया गृह्णात्यस्यै हि स्थाली भवति स्थाल्या ह्येनं गृह्णात्यजरा हीयममृताजरं ह्यमृतमायुस्तस्मादनया गृह्णाति – माश ४.२.३.[१] अन्नाद्वा अशनाया निवर्तते पानात्पिपासा श्रियै पाप्मा ज्योतिषस्तमोऽमृतान्मृत्युर्नि ह वा अस्मादेतानि सर्वाणि वर्तन्तेऽप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति य एवं वेद तदेतदमृतमित्येवामुत्रोपासीतायुरितीह प्राण इति हैक उपासते प्राणोऽग्निः प्राणोऽमृतमिति वदन्तो न तथा विद्यादध्रुवं वै तद्यत्प्राणस्तं ते विष्याम्यायुषो न मध्यादिति ह्यपि यजुषाभ्युक्तं तस्मादेनदमृतमित्येवामुत्रोपासीतायुरितीह तथो ह सर्वमायुरेति – माश १०.२.६.[१९] ईश्वरो वा एषः पराङ्प्रदघोर्यः पराचीराहुतिर्जुहोति नैकशतमत्येति यदेकशतमतीयादायुषा यजमानं व्यर्धयेदेकशतं जुहोति शतायुर्वै पुरुषः।आत्मैकशतः। - माश १३.२.१.६ एते एव पूर्वे अहनी ज्योतिरतिरात्रस्तेन भीमसेनमेते एव पूर्वे अहनी गौरतिरात्रस्तेनोग्रसेनमेते एव पूर्वे अहनी आयुरतिरात्रस्तेन श्रुतसेनमित्येते पारिक्षितीयास्तदेतद्गाथयाभिगीतं पारिक्षिता यजमाना अश्वमेधैः परोऽवरम् अजहुः कर्म पापकं पुण्याः पुण्येन कर्मणेति -माश १३.५.४.[३] तां मनुष्या ध्रुवस्थाल्यायुरदुह्रन् । यद्ध्रुवस्थाली भवति । आयुरेव तया यजमान इमां दुहे । तैब्रा १.४.१.५ पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः । पुनन्तु मा पितामहाः । पुनन्तु प्रपितामहाः । पवित्रेण शतायुषा । पुनन्तु मा पितामहाः । - तैब्रा २.६.३.३ अङ्गान्यात्मन्भिषजा तदश्विना । आत्मानमङ्गैः समधात्सरस्वती ।इन्द्र स्य रूपꣳ शतमानमायुः । चन्द्रे ण ज्योतिरमृतं दधाना । - तैब्रा २.६.४.६ तद् धास्या एतत् सत्यं पदं यद् अहः। तद् एतद् अत्यायु नाम। स यो हास्य एतद् अत्यायु नाम पदं वेदात्य् एवान्यान् प्रजया पशुभि श्रिया कीर्त्यायुषा भवति॥जैब्रा 2.258॥ आयुर् वै गायत्रं, विश्वायू रथन्तरं, समायुर् वामदेव्यं, सर्वायुर् बृहद्, अत्यायुर् यज्ञायज्ञीयम्। आयुष्मन्तो ह भवन्त्य् एनया तुष्टुवानाः। - जैब्रा २.४३३ आयति- प्राणो वा आयतिः। गो २, २, ३ । आयव- मासा आयवाः । काठ २२, ६। आयवन्- ऋतवा आयवानः । मै ३, ४, ४ ॥ [°वन्- अब्द- ३ द्र.] । आयवस्- अब्द- २ द्र. ॥ आयास्य- आयास्य-द्र. । आयु १. उर्वशी वाऽ अप्सराः पुरूरवा पतिरथ यत्तस्मान्मिथुनादजायत तदायुः । माश ३, ४,१,२२ । २. पुरूरवा वा ऐड उर्वशीमविन्दत देवीं, तस्या आयुरजायत । मै १, ६, १२ । ३. माता वा उर्वश्यायुर्गर्भः । काठ २६, ७; क ४१, ५। ४. विदेदग्निर्नभो नामाग्ने ऽ अङ्गिर आयुना नाम्नेहि इति। माश ३,५, १, ३२ । आयुत (ईषद्विलीनसर्पिस्-) १. आयुतं गन्धर्वाणाम् । काठ २३, १।। २. आयुतं पितॄणाम् ( सुरभि ) । ऐ १, ३ । आयुवान- आयुवाना इव हि मरीचयः प्लवन्ते । माश ९, ४, १, ८ ॥ आयुस् १. अग्निरायुः ...ब्रह्मायुः... यज्ञ आयु:.... अमृतमायुः। मै २, ३, ४ । २. अन्नमु वाऽआयुः । माश,९,२,३,१६। ३. अमृतमायुर्हिरण्यम् । माश ३,८,२,२७, ४,५,२,१०, ६,१,६ । ४. अमृतेनैवाऽऽयुरात्मन् धत्ते । तैसं ३,३,४,३ । ५. असावायुः (द्यौः) । तैसं ७,२,४,२ (तु. काठ ३३,३; ऐ ४,१५)। ६. असावुत्तम (लोकः = स्वर्लोकः) आयुः (स्तोमः)। तां ४,१, ७। ७. आयुः पुरस्तादाह । तैआ ५,४,७ । ८. आयुः प्राणः (र्जगती ।तैसं ७,५,१,५])। तैसं ३, ३,४,३, ६,६,१०,३; ७,५,१,५ । ९. आयुर् (+वै ।तैसं.) घृतम् । तैसं २,३,२,२; मै २,३,५; काठ ११,८,२१,७ ॥ १०. आयुर् (+वै [काठ.; मै ४,६,६) ध्रुवः। मै ४,५,९;६,६; काठ २८,१; क ४४,१। ११. आयुर्वा उद्गाता । आयुः क्षत्तसंगृहीतारः। तै ३,८,५,४ । १२. आयुर्वा उष्णिक् । ऐ १,५; ऐआ १,१,३, ३,८ । १३. आयुर्वा एष यद्वायुः। ऐआ २,४,३; ऐउ १,३,१० । १४. आयुर्वायव्या (इष्टका)। मै ३, ३,१। १५. आयुर् (+वै माश.] ) विकर्णी (इष्टका) । तैसं ५,३,७,३; माश ८,७,३,११ । १६. आयुर्वीर्यꣳ हिरण्यम् । मै १,७,५; काठ ९,२; क ८,५। १७. आयुर्वै गायत्रम् ( सहस्रम् । तै. ) । जै १,२९२; तै ३,८,१५,३; १६,२ । १८. आयुर्वै परमः कामः । काठ ३७,१६, काठसंक ७२:४। १९. आयुर्वै (हि ! काठ.; क ४८, १४, माश.]) हिरण्यम् । मै २, १,७, ४, ४, २, ४, काठ ११,८; क ४५,७, ४८,१४; तै १,८,९,१; माश ४, ३, ४, २४ । २०. आयुषः प्राणꣳ सन्तनु । काठ ३९, ८ । २१. आयुषा वै (एकाहेन) देवा असुरानायुवताऽऽयुते भ्रातृव्यं य एवं वेद । तां १६,३, २। २२. आयुषे हिङ्कुरु.... इति पुरस्तादार्भवस्य पवमानस्य वदेत् । मै ४,२,४ । २३. आयुस्ते ध्रुवः (महः) पातु। मै ४,८,७ । २४. आयुस्संवत्सरः । मै ४,६,८; काठ १०,४,११,८ । २५. आयुस्स्वयमातृण्णा (इष्टका) । काठ २१,३ । २६. उत्तमꣳ ह्यायुः । मै ३,३,१। २७. चक्षुरसि श्रोत्रं नाम धातुराधिपत्य आयुर्मे दाः । तैसं ३,३,५,१। २८. जरा वै देवहितमायुः । मै १,७,५; काठ ९,२; क ८,५ । २९. तद्धापि छायां पर्यवेक्षेतात्मनोऽप्रणाशाय। अथो सर्पिषोरक्ष्योरादधीत चक्षुष आप्यायनाय । तदपि विज्ञानमासाद् । य आत्मानं न परिपश्येदपेतासुस्स स्यात् । तस्मात्सत्यादप्याज्यं भूय आनीय पर्येवात्मानं दिदृक्षेत सर्वस्यायुषोऽवरुद्ध्यै । जै १,१६७ । ३०. ध्रुवमसि पृथिवीं दृꣳह (+ आयुर्देहि प्राणं देहि [काठ., क.]) । मै १,१,८, ४,१,८; काठ १, ७ क १,७। ३१. ध्रुवम् (ग्रहमवकाशयति) आयुषे मे वर्चीदा वर्चसे पवस्व । माश ४,५,६,३ । ३२. न मधु होतव्यमायुर्वै मध्वायुरग्नौ प्रदध्यात् प्रमायुकस्स्यात् । काठ ११,२ । ३३. प्र चन्द्रमास्तिरति दीर्घमायुः । तैसं २,४,१४,१ । ३४. प्राणो वा आयुः (+ यावद्यस्मिन्छरीरे प्राणो वसति तावदायुः [शांआ., कौउ. )। ऐ २,३८; शांआ ५,२; कौउ ३,२।। ३५. भद्रं न आयुः शरदो असच्छतम् । काठसंक ६१:२ । ३६. माषकमण्डलुꣳ शूद्राय ( ददाति), आयुस्तेन परिक्रीणाति । काठ ३७, १॥ ३७. य एवं विद्वान्स्यान्न मृण्मये भुञ्जीत तथा हास्यायुर्न रिष्येत तेजश्च । आ १। ३८. यच्छतमायुष्टत् । जै २, ४७ ।। ३९. यज्ञेनास्मा ( यजमानाय ) आयुर्दधाति,..... सर्वे वा एते (ऋत्विजः) अस्मै चिकित्सन्ति । मै २, ३, ५। ४०. यज्ञो मे आयुर्दधातु काठ ५, ३ । ४१. यज्ञो वा आयुः । जै १,७०, तां ६, ४, ४ । ४२. यदग्नये शुचये ( निर्वपति ), आयुरेवास्मिन् (ज्योगामयाविनि) तेन दधात्युत यदीतासुर्भवति जीवत्येव । तैसं २, २, ४, ३ । ४३. यद्धिरण्यं ददात्यायुस्तेन वर्षीयः कुरुते । मै ४, ८, ३; गो २, ३, १९ । ४४. यावदायुस्तावान् प्राणः । मै ४, ६, ६ ।। ४५. या सुरूपा ताꣳ श्यामा, ताꣳ श्येनी, तां कृष्णा । तत्प्रजापतिरुदाजतायुर्नाम रूपं पशूनाम् । आयुष्मान् भवति य एवं वेद । मै ४, २,४ । ४६. यो वै प्राणः स आयुः । माश ५,२,४,१० । ४७. वरुण आयुः, संवत्सरो हि वरुणः, संवत्सरो ह्यायुः । काश ५, १, ४,६। ( तु. माश ४,३,४,१०,२,४,४। ४८. वायोरायुषाऽऽयुष्मान् भूयासम् । काठ ५,५॥ ४९. विष्णोश्च यज्ञस्यान्तस्तयोरहं देवयज्ययाऽऽयुःप्रतिष्ठां गमेयम् । काठ ५,३ । ५०. शतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवन्ति । ऐआ २, २, १ । ५१. स (प्रजापतिः) एवास्मिन् (यजमाने) आयुर्दधाति । तैसं २,३, २,१ । ५२. सर्वꣳ ह्यायुः । काश ५,२,४,२ । ५३. सुगं नु पन्थां प्रदिशन् विभाहि ज्योतिष्म देह्यजरं न आयुः (अग्ने)। काठ २,१५॥ [युस अग्नि- १५७; १५८, २१७, २८४, ३४७; अग्निहोत्र- १६; अनुष्टुभ्-६; अमावस्या- २ अमृत- २,१२,१३, अशन- ५ द्र.] । आयुर्दा- आयुर्दा अग्ने हविषो जुषाणो घृतप्रतीको घृतयोनिरेधि । घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रमभि रक्षतादिमम् (यजमानम् )। तैसं १,३,१४,४-५; ३,३,८,१; तैआ २,५,१ (तु. मै ४,१२, ४, काठ ११,१३)। आयुष्काम १. पौरुमीढं दक्षोणिधनमायुष्कामः कुर्वीत । जै १,१५१ । २. प्राजापत्यं चरुं निर्वपेच्छतकृष्णलं घृत आयुष्कामः । काठ ११,४ । आयुष्कृत्- एते वै देवा आयुष्मन्तश्चायुष्कृतश्च यदिमे प्राणाः । मै २,३,५ । आयुष्मत्- अग्नि- ३; १९ द्र। |