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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

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Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

आषाढ

आषाढ कृष्ण एकादशी

योगिनी एकादशी व्रत

 

आषाढ कृष्ण एकादशी की कथा इस प्रकार दी गई है कि हेममाली यक्ष अपनी पत्नी से विनोद में व्यस्त होने के कारण कुबेर को मालाओं का भरण नहीं कर पाया जिसके कारण कुबेर ने उसे शाप दे दिया कि पृथिवी पर जाकर जन्म लो और कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो जाओ। पृथिवी पर कुष्ठ रोग से ग्रस्त हेममाली की भेंट मार्कण्डेय मुनि से हो गई जिन्होंने कुष्ठ रोग के निवारणार्थ योगिनी एकादशी व्रत करने का निर्देश दिया। ऐसा करने से हेममाली का कुष्ठ दूर हो गया और मनुष्य योनि से उद्धार भी हो गया।

योगिनी एकादशी व्रत आषाढ कृष्ण एकादशी

इस कथा की विवेचना के संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि अषाढा नक्षत्र के क्या लक्षण हैं। अषाढा नक्षत्र के दो भाग हैं पूर्वाषाढा व उत्तराषाढा। पूर्वाषाढा के विषय में कहा गया है कि - अपां पूर्वा अषाढाः ।  वर्चः परस्तात् समितिर् अवस्तात् ।  अर्थात् पूर्वाषाढा नक्षत्र आपः से, जल से, पुण्य के जल से सम्बन्धित है। इस नक्षत्र में वर्चः, ब्रह्मवर्चस ऊपर से आता है जबकि पृथिवी पर उस वर्चस को ग्रहण करने के लिए समिति की स्थिति बनानी आवश्यक है। समिति को अदिति, अखण्डित शक्ति भी कह सकते हैं। डा. फतहसिंह के अनुसार एक सभा की स्थिति है जिसमें सभी सदस्यों के विचार अलग अलग रहते हैं। समिति में सबके विचार एक जैसे होते हैं। पुराणों में लगता है कि समिति को ६४ योगिनियों का रूप दिया गया है। प्रकृति जैसी भी है, जहां भी है, उसे एक योगिनी का, सिद्धा का रूप दे देना है जिससे वह अधिक से अधिक प्राण शक्ति को अपने अन्दर भर सके। इस कार्य के लिए पुराणों में मार्कण्डेय ऋषि को बीच में लाया गया है। मार्कण्डेय के पिता का नाम मृकण्डु है। पुराणों में कहा गया है कि तपोरत मृकण्डु के शरीर से मृग अपने शरीर को खुजाकर अपनी खुजली दूर करते थे, अतः उसका नाम मृकण्डु हो गया। लेकिन मृकण्डु की निरुक्ति का दूसरा पक्ष भी है। मृकण्डु में मृ मृत्यु का और कण्डु खुजली का सूचक है। भौतिक पृथिवी पर हमें जो भी खुजली होती है काम, क्रोध, लोभ आदि, वह सब मृत्यु की खुजलियां हैं। इन खुजलियों को पहचान कर इन्हें बृहत्तर रूप देना है, इन्हें योगिनियां बनाना है। तभी पृथिवी पर समिति बन सकेगी।

प्रथम लेखन ९-६-२०१५ई.(आषाढ कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् २०७२)

आषाढ शुक्ल एकादशी

आषाढ शुक्ल एकादशी के संदर्भ में वामन द्वारा बलि के राज्य के ध्वंस की कथा आती है जिसमें वामन  बलि को राज्य से च्युत करने के पश्चात् चार मास के लिए सो गए।
 

आषाढ पूर्णिमा

आषाढ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। लोकव्यवहार में इस पूर्णिमा पर अपने अपने गुरु का सम्मान किया जाता है। आषाढ शुक्ल देवशयनी एकादशी को वामन भगवान् की पूजा की जाती है। इस दिन अदिति व कश्यप-पुत्र वामन ने बलि के यज्ञ को भंग कर दिया था और उसके पश्चात् चार मास के लिए सो गए थे। वामन का अर्थ है कि हम विराट स्थिति तक तो नहीं पहुंचे हैं, लेकिन अपने मन का अतिक्रमण करके मन से ऊपर विज्ञान से जुडना सीख गए हैं। अतः पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा कहा गया है। व्यास का अर्थ है विस्तृत।  डा. फतहसिंह का कथन है कि वास्तविक गुरु कोई बाहर का गुरु नहीं है, अपितु हमारा विज्ञानमय कोश है। अपने कार्यों को करने के लिए हमें अपने विज्ञानमय कोश से निर्देश मिलते रहने चाहिएं। इस पूर्णिमा के लक्षणों को जैमिनीय ब्राह्मण ३.३८६ के इस कथन के आधार पर समझा जा सकता है कि आषाढ पूर्णिमा द्वादशाह नामक सोमयाग का चतुर्थ अह है। चतुर्थ अह का दूसरा नाम वैराज भी है। इससे पहले तृतीय अह का नाम वैरूप था। वैरूप का अर्थ है कि हमारे जीवन में देवों और असुरों को परस्पर मिलकर चलना पड रहा है जिसके कारण देवों का रूप विकृत हो गया है। अब आषाढ मास में देवों ने असुरों को निकाल कर बाहर खडा कर दिया है और कह दिया है कि अब हम तुम्हारा अस्तित्व सहन नहीं करेंगे। इस कारण इसका नाम अषाढ रखा गया। चतुर्थ अह का लक्षण है ओज, सह, बल। ओ से, ओंकार से जन्मा हुआ बल ओज कहलाता है। पहले अपनी सारी शक्ति को संचित करना है, कुम्भक करना है, समाधि में जाना है। फिर उस संचित शक्ति का एक छोटा सा भाग जीवन की रक्षा हेतु नीचे की ओर खोल देना है। इससे शरीर के निचले कोशों को जो शक्ति मिलेगी, उसको सह, बल आदि नाम दिए जाते हैं। सह अर्थात् सह अस्तित्व, विश्वेदेवों की स्थिति। जिस मास की पूर्णिमा का जो नाम होता है, उस पूर्णिमा को चन्द्रमा उसी नक्षत्र के निकट रहता है। आषाढ पूर्णिमा के वर्तमान संदर्भ में, इस तिथि को चन्द्रमा या तो पूर्वाषाढा नक्षत्र पर होगा या उत्तरषाढा पर। पूर्वाषाढा नक्षत्र का लक्षण है वर्चः परस्तात्, समिति अवस्तात्। अर्थात् जब हमारी उच्चतर चेतना से ब्रह्मवर्चस प्राप्त होगा तो निचले स्तर की चेतना समिति बन जाएगी, उसमें परस्पर संघर्ष नहीं होगा।  उत्तराषाढा नक्षत्र में विश्वेदेवों की प्रतिष्ठा की जाती है।  विश्वेदेवों का अर्थ है कि अब हमारे प्राणों में परस्पर संघर्ष नहीं हो रहा है। वह एक दूसरे को सहयोग कर रहे हैं।

विश्वेषां देवानाम् उत्तराः । अभिजयत् परस्ताद् अभिजितम् अवस्तात् ।  - तै.ब्रा. १.५.१.४

भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध की कथाओं को भी आषाढ पूर्णिमा को समझने का माध्यम बनाया जा सकता है। जैसे पृथु की कथा। पृथु के जन्म से पहले उसके पिता वेन का राज्य है जिसमें अहंकार की प्रतिष्ठा है। ऋषिगण उसका हनन करके पृथु को उत्पन्न करते हैं। पृथु सारी पृथिवी (अपनी चेतना का प्रतीक) को समतल बनाता है और उसे एक गौ का रूप देता है जो सारे ब्रह्माण्ड के प्राणियों के लिए दुग्ध प्रदान करने में समर्थ है।

आषाढ पूर्णिमा से कोकिला व्रत आरम्भ किया जाता है जिसका समापन श्रावण पूर्णिमा पर किया जाएगा। इस व्रत में कोकिल या कोयल की अर्चना की जाती है अर्थात् अपनी वाक् को, आचरण को कोकिल जैसा मृदु स्वरूप देने का प्रयत्न किया जाता है।

प्रथम लेखन ९-६-२०१५ई.(आषाढ कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् २०७२)

 

टिप्पणी : शब्दकोशों में शतपथ ब्राह्मण ७.४.२.३३ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.२.८ आदि में दी गई अषाढ/आषाढ शब्द की निरुक्ति का उल्लेख किया जाता है जिसके अनुसार जब देवों ने यज्ञ में असुरों की उपस्थिति को सहन करना अस्वीकार कर दिया, वही अषाढा नक्षत्र है। आषाढ शुक्ल देवशयनी एकादशी को वामन भगवान् की पूजा की जाती है। इस दिन अदिति व कश्यप-पुत्र वामन ने बलि के यज्ञ को भंग कर दिया था और उसके पश्चात् चार मास के लिए सो गए थे। इसके अतिरिक्त, आषाढ पूर्णिमा का नाम व्यास पूर्णिमा तथा गुरु पुर्णिमा है। पुराणों के यह आख्यान ब्राह्मण ग्रन्थों में की गई अषाढ शब्द की निरुक्तियों की समुचित व्याख्या करते हैं। शतपथ ब्राह्मण ६.५.३.१ इत्यादि के अनुसार यह पृथिवी पूर्वा अषाढा बन सकती है। शतपथ ब्राह्मण ७.४.२.३४ आदि के अनुसार वाक् अषाढा बन सकती है। शतपथ ब्राह्मण ८.५.४.१ के अनुसार हमारे शरीर में जिह्वा वाक् का प्रत्यक्ष स्थान है। जिह्वा रस का आस्वादन कर सकती है। रस तब उत्पन्न होता है जब जिह्वा में आदित्य प्रतिष्ठित होता है। यह वाक् का भौतिक , स्थूल रूप है। हमारे अंग-अंग में विद्यमान सूक्ष्म वाक् भी रस का आस्वादन करने में समर्थ है। यह तब हो सकता है जब इस वाक् में हृदय और मन की प्रतिष्ठा हो जाए। तब इस वाक् का नाम अषाढा होगा। अषाढा अर्थात् अखाडा, अखण्ड शक्ति। वही अखण्ड शक्ति अदिति कहलाएगी। इसी तथ्य को शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.७ में इस प्रकार कहा गया है कि कूर्म वृषा है और अषाढा योषा/पत्नी है। कूर्म अर्थात् कश्यप जो रस है, सूर्य है, प्राणों का रूप है। इसे धारण करने वाली अषाढा है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१.४ में पूर्वाषाढा नक्षत्र के चरित्र का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वर्चः परस्तात्, समिति अवस्तात्। अर्थात् ऊपर से जब ब्रह्मवर्चस की वर्षा हो तो उसे ग्रहण करने के लिए समिति, अखण्ड शक्ति अषाढा की आवश्यकता होती है। अषाढा का अदिति और कूर्म का कश्यप से तादात्म्य तो स्पष्ट है, लेकिन वामन कहां से आ गया? इसका उत्तर शतपथ ब्राह्मण ७.४.२.३५ के आधार पर खोजा जा सकता है जहां प्राणों को वाम/सुन्दर और वाक् को वामभृत् अर्थात् वाम का भरण करने वाली कहा गया है। यह वाम ही पुराणों का वामन हो सकता है।

     आषाढ मास की व्यास पूर्णिमा के संदर्भ में ऋग्वेद ७.२०.३ में इन्द्र के अषाळह और व्यास विशेषण उल्लेखनीय हैं। व्यास अर्थात् विस्तीर्ण चेतना। जैमिनीय ब्राह्मण ३.३८६ में उल्लेख है कि १२ दिन के द्वादशाह नामक यज्ञ में, जिसका प्रत्येक दिन संवत्सर के एक मास का प्रतीक है, आषाढ पूर्णिमा चतुर्थ दिवस का प्रतीक है। चतुर्थ दिवस की व्याख्या के रूप में भागवत पुराण का चतुर्थ स्कन्ध मननीय है जिसकी मुख्य कथाएं हैं : दक्ष के यज्ञ भंग की कथा, ध्रुव का आख्यान, पृथु द्वारा पृथिवी का दोहन आदि, पुरञ्जन उपाख्यान और अन्त में प्रचेताओं की कथा।

     अषाढा नक्षत्र को पूर्वा और उत्तरा दो भागों में विभाजित करने का निहितार्थ अन्वेषणीय है। काशकृत्स्न धातु पाठ के अनुसार अषाढा की व्युत्पत्ति अष धातु से हुई है जो दीप्ति और आदान के अर्थों में प्रयुक्त होती है। इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद की ऋचाओं में इन्द्र के साथ अषाळह विशेषण जोडने का निहितार्थ भी अन्वेषणीय है।

प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.

 

संदर्भ

अषाळ्हं युत्सु पृतनासु पप्रिं स्वर्षामप्सां वृजनस्य गोपाम् ।

भरेषुजां सुक्षितिं सुश्रवसं जयन्तं त्वामनु मदेम सोम ॥- ,०९१.२१

अषाळ्हं शत्रुभिरनभिभवनीयं, सहे साडः स इति षत्वम् - सायण

अषाळ्हो अग्ने वृषभो दिदीहि पुरो विश्वाः सौभगा संजिगीवान् ।

यज्ञस्य नेता प्रथमस्य पायोर्जातवेदो बृहतः सुप्रणीते ॥ - ,०१५.०४

तमु ष्टुहि यो अभिभूत्योजा वन्वन्नवातः पुरुहूत इन्द्रः ।

अषाळ्हमुग्रं सहमानमाभिर्गीर्भिर्वर्ध वृषभं चर्षणीनाम् ॥ - ,०१८.०१

इन्द्रमेव धिषणा सातये धाद्बृहन्तमृष्वमजरं युवानम् ।

अषाळ्हेन शवसा शूशुवांसं सद्यश्चिद्यो वावृधे असामि ॥ - ,०१९.०२

युध्मो अनर्वा खजकृत्समद्वा शूरः सत्राषाड्जनुषेमषाळ्हः ।

व्यास इन्द्रः पृतनाः स्वोजा अधा विश्वं शत्रूयन्तं जघान ॥७.२०.३

हवं त इन्द्र महिमा व्यानड्ब्रह्म यत्पासि शवसिन्नृषीणाम् ।

आ यद्वज्रं दधिषे हस्त उग्र घोरः सन्क्रत्वा जनिष्ठा अषाळ्हः ॥ - ,०२८.०२

इमा रुद्राय स्थिरधन्वने गिरः क्षिप्रेषवे देवाय स्वधाव्ने ।

अषाळ्हाय सहमानाय वेधसे तिग्मायुधाय भरता शृणोतु नः ॥ - ,०४६.०१

अषाळ्हमुग्रं पृतनासु सासहिं यस्मिन्महीरुरुज्रयः ।

सं धेनवो जायमाने अनोनवुर्द्यावः क्षामो अनोनवुः ॥ - ,०७०.०४

अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्जं देव्युत्तरा आ वहन्तु ।

अभिजिन् मे रासतां पुण्यमेव श्रवणः श्रविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम् ॥४॥ - १९.७.४

अषाल्हमुग्रं पृतनासु सासहिं यस्मिन् महीरुरुज्रयः ।

सं धेनवो जायमाने अनोनवुर्द्यावः क्षामो अनोनवुः ॥१९॥ - २०.९२.१९

 

स एतामष्टागृहीतामाहुतिमजुहोत्तां हुत्वेमामष्टधाविहितामषाढामपश्यत्पुरैव सृष्टां सतीम् - ६.३.१.१

 

*तस्या एतस्या अषाढां पूर्वां करोति । इयं वा अषाढेयमु वा एषां लोकानां प्रथमाऽसृज्यत तामेतस्या एव मृदः करोत्येषां ह्येव लोकानामियं महिषी करोति महिषी हीयं तद्यैव प्रथमा वित्ता सा महिषी मा.श. ६.५.३.१

 

अथाषाढामुपदधाति । इयं वा अषाढेमामेवैतदुपदधाति तां पूर्वार्ध उपदधाति प्रथमा हीयमसृज्यत सा यदषाढा नाम । देवाश्चासुराश्चोभये प्राजापत्या अस्पर्धन्त ते देवा एतामिष्टकामपश्यन्नषाढामिमामेव तामुपादधत तामुपधायासुरान्त्सपत्नान्भ्रातृव्यानस्मात्सर्वस्मादसहन्त यदसहन्त तस्मादषाढा तथैवैतद्यजमान एतामुपधाय द्विषन्तम्भ्रातृव्यमस्मात्सर्वस्मात्सहते यद्वेवाषाढामुपदधाति । वाग्वा अषाढा वाचैव तद्देवा असुरान्त्सपत्नान्भ्रातृव्यानस्मात्सर्वस्मादसहन्त तथैवैतद्यजमानो वाचैव द्विषन्तं भ्रातृव्यमस्मात्सर्वस्मात्सहते वाचमेव तद्देवा उपादधत तथैवैतद्यजमानो वाचमेवोपधत्ते - सेयं वामभृत् । प्राणा वै वामं यद्धि किं च प्राणीयं तत्सर्वं बिभर्ति तेनेयं वामभृद्वाग्घ त्वेव वामभृत्प्राणा वै वामं वाचि वै प्राणेभ्योऽन्नं धीयते तस्माद्वाग्वामभृत् त एते सर्वे प्राणा यदषाढा । तां पूर्वार्ध उपदधाति पुरस्तात्तत्प्राणान्दधाति तस्मादिमे पुरस्तात्प्राणास्तान्नान्यया यजुष्मत्येष्टकया पुरस्तात्प्रत्युपदध्यादेतस्यां चितौ नेत्प्राणानपिदधानीति - ७.४.२.[३२]

 यत्प्रजा विश्वज्योतिर्वागषाढाऽथ कस्मादन्तरेणऽर्तव्ये उपदधातीति.......अषाढासि सहमानेति । असहन्त ह्येतया देवा असुरान्त्सहस्वारातीः सहस्व पृतनायत

इति यथैव यजुस्तथा बन्धुः सहस्रवीर्यासि सा मा जिन्वेति सर्वं वै सहस्रं सर्ववीर्यासि सा मा जिन्वेत्येतत्सादयित्वा सूददोहसाधिवदति तस्योक्तो बन्धुः - ७.४.२.[३९]

*दक्षिणतोऽषाढायै वृषा वै कूर्मो योषाऽषाढा दक्षिणतो वै वृषा योषामुपशेते मा.श. ७.५.१.६

*प्राणो वै कूर्मः वागषाढा प्राणो वै वाचो वृषा प्राणो मिथुनम्   मा.श. ७.५.१.७

 पशुरेष यदग्निः । सोऽत्रैव सर्वः कृत्स्नः संस्कृतस्तस्यावाङ्प्राणः स्वयमातृण्णा श्रोणी द्वियजुः पृष्टयो रेतःसिचौ कीकसा विश्वज्योतिः ककुदमृतव्ये ग्रीवा अषाढा  शिरः कूर्मो ये कूर्मे प्राणा ये शीर्षन्प्राणास्ते ते - ७.५.१.[३५]

 ता अषाढायै वेलयोपदधाति । वाग्वा अषाढा रस एष वाचि तद्रसं दधाति तस्मात्सर्वेषामङ्गानां वाचैवान्नस्य रसं विजानाति
यद्वेवाषाढायै । इयं वा अषाढाऽसावादित्य स्तोमभागा अमुं तदादित्यमस्यां प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापयति यद्वेवाषाढायै । इयं वा अषाढा हृदयं स्तोमभागा अस्यां तद्धृदयं मनो दधाति तस्मादस्यां हृदयेन मनसा चेतयते सर्वत उपदधाति सर्वतस्तद्धृदयं मनो दधाति तस्मादस्यां सर्वतो हृदयेन मनसा चेतयते - ८.५.४.[१]

 अथ यजुष्मत्यः  दर्भस्तम्बो लोगेष्टकाः पुष्करपर्णं रुक्मपुरुषौ स्रुचौ स्वयमातृण्णा दूर्वेष्टका द्वियजू रेतःसिचौ विश्वज्योतिर्ऋतव्ये अषाढा कूर्म उलूखलमुसले उखा पञ्च पशुशीर्षणि पञ्चदशापस्याः पञ्च छन्दस्याःः - १०.४.३.[१४]

 ऊर्ध्वो वा एष एतच्चीयते  यद्दर्भस्तम्बो लोगेष्टकाः पुष्करपर्णं रुक्मपुरुषौ स्रुचौ स्वयमातृण्णा दूर्वेष्टका द्वियजू रेतःसिचौ विश्वज्योतिर्ऋतव्ये अषाढा कूर्मोऽथ हास्यैतदेव प्रत्यक्षतमां शिरो यश्चितेऽग्निर्निधीयते तस्मान्न निरूहेत् - १०.५.५.[१०]

 *ताम् (इष्टकां देवाः) उपधायासुरान्त्सपत्नान् भ्रातृव्यानस्मात्सर्वस्मादसहन्त यदसहन्त तस्मादषाढा मा.श. ७.४.२.३३

*वाग् अषाढा मा.श. ६.५.३.४, ७.५.१.७

*वाग् वा अषाढा मा.श. ७.४.२.३४, ८.५.४.१

अपां पूर्वा अषाढाः ।
वर्चः परस्तात् समितिर् अवस्तात् ।
विश्वेषां देवानाम् उत्तराः ।
अभिजयत् परस्ताद् अभिजितम् अवस्तात् ।  - तै.ब्रा. १.५.१.४

अभिजित्_ नाम नक्षत्रम् । उपरिष्टाद् अषाढानाम् ।अवस्ताच्छ्रोणायै   - १.५.२.३
यन् न_असहन्त । तद् अषाढाः ।  - १.५.२.८
त्वँ सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूः। .......अषाढं युत्सु पृतनासु पप्रियम् ।  - २.४.३.८

अषाढं युत्सु, त्वम्̐ सोम क्रतुभिः, । - २.८.३.१

तमु ष्टुहि यो अभिभूत्योजाः वन्वन्नवातः पुरुहूत इन्द्रः अषाढम् उग्रम्̐ सहमानम् आभिः ।गीर्भिर्वर्ध वृषभं चर्षणीनाम् - २.८.५.८ (ऋ. ,०१८.०१)

अषाढाय सहमानाय मीढुषे । २.८.६.८

अषाढाय सहमानाय मीढुषे ।
इन्द्राय ज्येष्ठा मधुमद् दुहाना । ३.१.२.२

या दिव्या आपः पयसा संबभूवुः या अन्तरिक्ष उत पार्थिवीर्याः यासामषाढा अनुयन्ति कामम् ता न आपः शँ स्योना भवन्तु - ३.१.२.३

याश्च कूप्या याश्च नाद्याः समुद्रि याः याश्च वैशन्तीरुत प्रासचीर्याः यासाम् अषाढा मधु भक्षयन्ति । ता न आपः शम्̐ स्योना भवन्तु ।
तन् नो विश्वे उपशृण्वन्तु देवाः । तद् अषाढा अभि संयन्तु यज्ञम् । तन् नक्षत्रं प्रथतां पशुभ्यः । कृषिर् वृष्टिर् यजमानाय कल्पताम् ।
शुभ्राः कन्या युवतयः सुपेशसः । कर्मकृतः सुकृतो वीर्यावतीः । विश्वान् देवान् हविषा वर्धयन्तीः । अषाढाः कामम् उपयान्तु यज्ञम् । - तैब्रा. ३.१.२.४

*या दिव्या आपः पयसा संबभूवः। या अन्तरिक्ष उत पार्थिवीर्याः। यासामषाढा अनुयन्ति कामम्। ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥ याश्च कूप्या याश्च नाद्याः समुद्रियाः। याश्च वैशन्तीरुत प्रासचीर्याः। यासामषाढा मधु भक्षयन्ति। ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥ तन्नो विश्वे उपशृण्वन्तु देवाः। तदषाढा अभिसंयन्तु यज्ञम्। तन्नक्षत्रं प्रथतां पशुभ्यः। कृषिर्वृष्टिर्यजमानाय कल्पताम्॥ शुभ्राः कन्या युवतयः सुपेशसः। कर्मकृतः सुकृता वीर्यावती। विश्वान्देवान्हविषा वर्धयन्तीः। अषाढाः काममुपयान्तु यज्ञम्॥ - तै.ब्रा. ३.१.२.२

आपो वा अकामयन्त    समुद्रं  काममभिजयेमेति    ता एतमद्भ्योऽषाढाभ्यश्चरुं निरवपन्न्    ततो वै ताः समुद्रं  काममभ्यजयन्    समुद्र  वै काममभिजयति    एतेन हविषा यजते    चैनदेवं वेद    सोऽत्र जुहोति    अद्भ्यः स्वाहाऽषाढाभ्यः स्वाहा    समुद्राय स्वाहा कामाय स्वाहा    अभिजित्यै स्वाहेति  -- तै.ब्रा. ३.१.५.४

 

विश्वे वै देवा अकामयन्त    अनपजय्यं जयेमेति    एतं विश्वेभ्यो देवेभ्योऽषाढाभ्यश्चरुं निरवपन्    ततो वै तेऽनपजय्यमजयन्न्    अनपजय्यँ  वै जयति    एतेन हविषा यजते    चैनदेवं वेद    सोऽत्र जुहोति    विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहाऽषाढाभ्यः स्वाहा    अनपजय्याय स्वाहा जित्यै स्वाहेति  --तैब्रा ३.१.५.५

*विश्वेषां देवानामुत्तराः (अषाढाः) तै.ब्रा. १.५.१.४, ३.१.२.४

     पूर्वाषाढा Reflecting the divine, उत्तराषाढा Cosmic unity

स होवाचाषाढ आम् आरुणे यत् सहैव ब्रह्मचर्यम् अचराव सहान्वाब्रवीवह्य् अथ केनेदं त्वम् अस्मान् अत्यनूचिषे। .........अथ होचुर् अषाढं सावयसं यत् त्वं शार्कराक्षाणां वाव ग्रामण्य् एवासि केन त्वम् इदं प्रापिथेति। स होवाच धूर्ष्व् एवाहं तद् उपास इति। किं त्वं तद् धूर्षूपास्स इति। जातम् इति। य आसां जातम् उपास्ते किं स भवतीति । यत्रैव सजातो भवति तद् ग्रामणीर् भवतीति। एवम् एव त्वम् असीति होचुः॥-जैब्रा १.२७१

 

*अथ होवाचाषाढस् सावयसो जगतीम् एवाहं भूमानं प्रजातिं उपासं जै.ब्रा. १.२७२

*अषाढा पौर्णमासश् (द्वादशाहस्य) चतुर्थं अह जै.ब्रा. ३.३८६

प्रवत्स्यतो यजमानस्य अग्न्युपस्थानमन्त्राः दर्शपूर्णमासाङ्ग मन्त्राश्च
 - नमो ऽग्नये ऽप्रतिविद्धाय नमो ऽनाधृष्टाय नमः सम्राजे । अषाढो अग्निर् बृहद्वया विश्वजित् सहन्त्यः श्रेष्ठो गन्धर्वः ॥  - तै.सं. १.५.१०.१


स्वयमातृण्णादीष्टकोपधानम् - अषाढाऽसि सहमाना सहस्वारातीः सहस्वारातीयतः
सहस्व पृतनाः सहस्व पृतन्यतः सहस्रवीर्या  असि सा मा जिन्व ॥ - तै.सं. ४.२.९.२

 

*ऽषाढा नक्षत्रम् आपो देवताऽषाढा नक्षत्रं विश्वे देवा देवता तै.सं. ४.४.१०.२, काठ.सं. ३९.१३