पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Anapatya to aahlaada only) by Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.) Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa etc.) Apashakuna - Abhaya (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.) Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.) Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha, Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.) Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.) Arishta - Arghya (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.) Arghya - Alakshmi (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.) Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.) Avasphurja - Ashoucha (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.) Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.) Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.) Ashvamedha - Ashvinau (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.) Ashvinau - Asi (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.) Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.) Astra - Ahoraatra (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.) Aa - Aajyapa (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya, Aaditya/sun etc.) Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.) Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.) Aayurveda - Aavarta (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.) Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.) Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )
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आज्य टिप्पणी : आज्य शब्द का मूल अञ्जु धातु प्रतीत होती है। काशकृत्स्न धातु पाठ में इस धातु का उपयोग व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु में कहा गया है। अञ्जु धातु से अञ्जन शब्द बना है जिसका अर्थ लिया जा सकता है कि अब कोई भी किरण बाहर नहीं निकल रही है, अर्थात् पूर्णतः अन्तर्मुखी स्थिति हो गई है। लेकिन यह अर्थ अञ्जु धातु के अर्थों के विपरीत जाता है। यह अञ्जु की पूर्व अवस्था हो सकती है। आंखों में लगाने के लिए भी अञ्जन का प्रयोग किया जाता है जिससे हो सकता है कि चक्षु सत्य का दर्शन करने लगते हों। आज्य की एक निरुक्ति आ-ज्योति, अर्थात् ज्योति से पूर्ण अवस्था हो सकती है। यह अञ्जन से अगली स्थिति हो सकती है। ऐतरेय ब्राह्मण २.३६ में आज्य की निरुक्ति आ-जय, सब ओर से जय के रूप में की गई है। पुराणों में सार्वत्रिक रूप से यज्ञवराह को आज्यनासा कहा गया है। हमें अपनी नासिका के बारे में जो ज्ञान आधुनिक विज्ञान के माध्यम से प्राप्त हुआ है, वह यह है कि नासिका में स्टेम कोशिकाओं की संख्या सबसे अधिक होती है। जब जुकाम आदि किसी कारण से श्वेत कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं तो स्टेम कोशिकाएं तुरन्त उनकी पूर्ति कर देती हैं। अब यह विचारणीय है कि क्या आज्य को इन्हीं स्टेम कोशिकाओं का रूप कहा जा सकता है? आज्य के विषय में कहा गया है(शतपथ ब्राह्मण १.३.२.६, १.८.३.२४) कि सोम और पुरोडाश आदिष्ट हैं जबकि आज्य अऩादिष्ट है, अर्थात् आज्य का उल्लेख किसी देवता-विशेष के लिए नहीं किया जा सकता। यह एक समष्टि स्थिति है, व्यष्टि नहीं। हमारे शरीर में स्टेम कोशिकाएं भी अनादिष्ट हैं, प्रायः किसी एक अंग की स्टेम कोशिकाओं को दूसरे अंग में रोपित किया जा सकता है। कहा जाता है कि जब स्त्री के गर्भ में वीर्य का निषेक करने पर जीव का जन्म होता है, उस वीर्य का एक अंश ही स्टैम कोशिकाओं के रूप में विकसित होता है। लेकिन अथर्ववेद १३.१.५३ में वर्षा के रूप में आज्य की कल्पना की गई है जिससे पृथिवी पर पर्वत, ओषधि आदि उत्पन्न होते हैं। आज्य की एक विशेषता शतपथ ब्राह्मण में यह बताई गई है कि आज्य मैत्र है, घृत वारुण है। आज्य पयः के ऊपर स्वयंमथित रूप में उत्पन्न होता है जबकि घृत की प्राप्ति के लिए मन्थन रूपी परिश्रम करना पडता है। मित्र स्थिति वह स्थिति है जहां हमारे व्यक्तित्व में कोई भी तनाव नहीं रह गया है, पुरुष और प्रकृति दोनों एक दूसरे के मित्र बन गए हैं, पुरुष प्रकृति का उपभोग बलात्कार द्वारा नहीं करना चाहता(द्र. पद्म पुराण में गीता के द्वितीय अध्याय का माहात्म्य)। पयः का जनन ऐसी ही स्थिति का द्योतक है। हमारे व्यक्तित्व का जितना प्रतिशत तनाव से मुक्त होगा, उतना ही प्रतिशत आज्य उत्पन्न हो सकेगा, यह कहा जा सकता है। फिर घृत उत्पन्न करने के लिए हमें अपने पापों का नाश करना पडेगा। यह वरुण की स्थिति होगी। यदि पयः और आज्य दोनों ही तनाव से मुक्त स्थितियों के द्योतक हैं तो दोनों में क्या अन्तर है? शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.४ के अनुसार पयः आहुतियां ऋचाओं की द्योतक हैं जबकि आज्य आहुतियां यजु की। व्यावहारिक रूप में क्या अन्तर है, यह अन्वेषणीय है। याज्ञिक कर्मकाण्ड में आहुतियों आदि में आज्य का उपयोग सार्वत्रिक रूप से किया जाता है। भौतिक दृष्टि से आज्य को विलीन-सर्पि अवस्था वाला घृत कहा जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से आज्य क्या होता है, इसका स्पष्ट संकेत काठक संहिता २४.७ में किया गया है कि चूंकि अज ने इसे जाना, अतः इसका नाम आज्य है। अज अर्थात् हमारी इन्द्रियों से विचार, काम, क्रोध आदि किसी भी विकार का जन्म नहीं होता (पयः के संदर्भ में ऐसी स्थिति नहीं है। महाभारत आश्व० ९२ ॥ ४१-४६(९५.३) में एक कथा आती है कि जमदग्नि की परीक्षा लेने के लिए धर्म ने पयः में क्रोध रूप में प्रवेश किया और फिर शाप को प्राप्त होकर नकुल बने)। अथर्ववेद ९.५.३८ अजौदन सूक्त के अनुसार इस अज अवस्था को पकाकर पांच ओदनों का, उदान प्राणों का विकास करना होता है। इसके पश्चात् आज्य का विकास होता होगा। शतपथ ब्राह्मण १३.१.१.१ तथा तैत्तिरीय संहिता ५.७.३.४ के अनुसार आज्य का उपयोग ब्रह्मौदन को पकाने के लिए किया जाता है और उससे जो शेष बचता है, उसका आगे और उपयोग किया जाता है। शतपथ ब्राह्मण ११.३.१.१ में अग्निहोत्र के संदर्भ में आज्य को सत्य कहा गया है, अर्थात् अग्निहोत्र सत्य है अथवा असत्य, इसकी परीक्षा आज्य के प्रकट होने से की जा सकती है। सत्य का एक अर्थ हो सकता है द्यूत से मुक्त होने की स्थिति, कोई घटना चांस बनकर घटित न हो, वह कार्य-कारण के घेरे में दिखाई दे। फिर तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.५.३ में प्रश्न उठाया गया है कि यदि अग्निहोत्र का सत्य आज्य है, यदि अन्य हवियों का अभिघारण आज्य द्वारा किया जाता है तो आज्य का सत्य क्या है? उत्तर दिया गया है कि आज्य का सत्य चक्षु रूपी आज्यभाग हैं। चक्षुओं द्वारा देखे जाने पर ही किसी घटना को सत्य कहा जा सकता है। यह अन्वेषणीय है कि देह में चक्षुओं के निर्माण में स्टेम कोशिकाओं की क्या भूमिका है। यह भी संभव है कि यहां चक्षु कहने से तात्पर्य यह हो कि चक्षुओं के अन्दर कोई ज्योति उत्पन्न होती है जिसके उत्पन्न होने पर चक्षुओं द्वारा देखने के लिए बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं पडती। चक्षु अपने ही प्रकाश से देखते हैं। शिवपुराण में आज्य अवेक्षण के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.३.१.१८ में यजमान-पत्नी द्वारा अदब्ध चक्षु से आज्य अवेक्षण का उल्लेख द्रष्टव्य है। दर्श-पूर्णमास यज्ञ के संदर्भ में मुख्य रूप से आरम्भ में ५ प्रयाज नामक इष्टि, उसके पश्चात् २ आज्य भाग, फिर इडा कर्म और उसके पश्चात् अनुयाज नामक कर्म होता है। कहा गया है कि पांच प्रयाज साधना में क्रमशः प्रकट होने वाली पांच ऋतुओं वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और स्वाहा के प्रतीक हैं(शतपथ ब्राह्मण १.५.३.९)। यह ऐसे है जैसे शीर्ष भाग में पांच प्राणों के रूप में एक मुख, दक्षिण नासिका व सव्य नासिका, दक्षिण कर्ण व सव्य कर्ण स्थित हैं। प्रयाज कर्म में आज्य के उपयोग द्वारा इन प्राणों की पुष्टि करनी होती है। अथवा ऋतुओं को ही आज्य के रूप में ग्रहण किया जाता है। प्रयाज कर्म आत्मोन्मुखी होने का क्रमिक प्रयास है। प्रयाज कर्म के पश्चात् आज्य-भाग नामक कृत्य होता है । कहा गया है कि आज्य भाग कर्म इस प्रकार है जैसे शीर्ष में चक्षुओं की स्थापना की जाती है। इसी प्रकार आग्नेय व सौम्य नामक २ आज्य भाग भी यज्ञ के चक्षु हैं। इनमें अग्नि के चक्षु से यजमान देवलोक को देखता है और सोम के चक्षु से पितृलोक को(तैत्तिरीय संहिता २.६.२.१, शतपथ ब्राह्मण १.६.३.३९)। चक्षु रूपी अग्नीषोमीय आज्यभागों की स्थापना के पश्चात् मेध रूपी पुरोडाश की हवि दी जाती है जिसका वर्णन अलग से किया जाएगा। प्रयाज और आज्य भागों को पुराणों में गंगा और यमुना के बीच स्थित प्रयाग तीर्थ के आधार पर समझा जा सकता है। ऐसा अनुमान है कि उपरोक्त दर्शपूर्ण मास यज्ञ की चरम अवस्था आज्यभाग रूपी चक्षुओं की स्थापना के पश्चात् पुरोडाश और आज्य के मिथुन की स्थापना है। विष्णुपुराण में इसी स्थिति की ओर संकेत करते हुए विष्णु को पुरोडाश और लक्ष्मी को आज्य का रूप कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण १.६.३.२४ से ऐसा संकेत मिलता है कि पुरोडाश अर्धमासों और आज्य अहोरात्रों के प्रतीक हैं। कर्मकाण्ड में पुरोडाश स्थापना के स्थान पर पहले आज्य से लेपन किया जाता है और फिर पुरोडाश की स्थापना के पश्चात् पुरोडाश पर आज्य का लेपन किया जाता है। और केवल पुरोडाश ही नहीं, यज्ञ में अन्य बहुत से ऐसे अवसर हैं जहां इसी प्रकार किया जाता है। जैसे यूप स्थापना के समय अवट/गड्ढे में आज्य की आहुति दी जाती है और फिर यूप स्थापना के पश्चात् यूप पर आज्य लगाया जाता है(शतपथ ब्राह्मण ३.६.४.१५, ३.७.१.१०)। कहा गया है कि इससे यूप में वर्धन करने की शक्ति का विकास हो जाता है। पुराणों में विष्णु को पुरोडाश तथा लक्ष्मी को आज्य कहना संभवतः पुरोडाश और आज्य का पुरुष और प्रकृति में विभाजन करने का संकेत है। शतपथ ब्राह्मण १.२.२.४ के अनुसार यज्ञ की आत्मा का आधा भाग आज्य है और आधा भाग हवि/पुरोडाश। इन दोनों के मिलन से ही पूरी आत्मा बनती है। कहा गया है कि आज्य की आहुति उपांशु दी जाती है, जबकि पुरोडाश की उच्च स्वर से(शतपथ ब्राह्मण १.६.३.२६)। जैमिनीय ब्राह्मण २.२८७ के अनुसार पुरोडाश योनि है तो आज्य रेतस् है। लेकिन शतपथ ब्राह्मण ११.४.२.१५? के अनुसार दधि और पुरोडाश के मिथुन होने पर ही गर्भ संभव होता है। यह उल्लेखनीय है कि पौर्णमास यज्ञ में आज्य व पुरोडाश द्वारा अग्नीषोम देवता को हवि दी जाती है, जबकि दर्श/अमावास्या यज्ञ में इन्द्राग्नि देवता के लिए दधि व पुरोडाश की हवि दी जाती है। तैत्तिरीय संहिता २.६.३.३ में प्रश्न उठाया गया है कि पुरोडाश के नीचे व ऊपर आज्य का लेप क्यों किया जाता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि जैसे अक्ष के ऊपर व नीचे आज्य न लगाने से वह नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार पुरोडाश भी है । पुरोडाश के ऊपर व नीचे के पृष्ठ द्यावापृथिवी के प्रतीक होते हैं । सोमयाग में प्रातःसवन में आज्य स्तोत्र तथा आज्य शस्त्र होते हैं। पहले आज्यस्तोत्र का गायन होता है और उसके पश्चात् स्तोत्र विशेष के शस्त्र का उच्चारण किया जाता है। पहला स्तोत्र इसका अपवाद है। पहले होता का शस्त्र पाठ होता है, फिर स्तोत्र और उसके पश्चात् प्रउग शस्त्र। उसके पश्चात् दूसरा आज्यस्तोत्र, फिर मैत्रावरुण शस्त्र, फिर तीसरा आज्यस्तोत्र, उसके पश्चात् ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज का शस्त्र। फिर चतुर्थ आज्यस्तोत्र, उसके पश्चात् अच्छावाक् नामक ऋत्विज का आज्यशस्त्र। ब्राह्मण ग्रन्थों(ऐतरेय ब्राह्मण २.३६, ताण्ड्य ब्राह्मण ७.२.१) में इसे आजि—संग्राम या होड की संज्ञा दी गई है। प्रथम आज्यस्तोत्रम्(रथन्तरपृष्ठे) अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि॥ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्य॥ स नः पृथु श्रवाय्यमच्छा देव विवाससि। बृहदग्ने सुवीर्यम्॥ गान विधि हुम्। अग्न आयाहिवीतयोम्। ओमो ओओओओओओओ २ ओओओओओओ१२१२॥ हुम् आ२॥ ओओ॥ आ३४५॥(१) तन्त्वासमिद्भिरङ्गिरोम्॥ ओमोओओओओओओओ२ ओओओओओओ १२१२॥ हुम् आ२॥ ओओ॥ आ ३४५॥(2) सनःपृथुश्रवायियोम्॥ ओमोओओओओओओओ२ओओओओओओ१२१२॥हुम् आ२॥ ओओ॥आ345॥(३) द्वितीय आज्य स्तोत्रम्(रथन्तरपृष्ठे) आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम्। मध्वा रजा ँसि सुक्रतू॥ उरुश ँसा नमोवृधा मह्ना दक्षस्य राजथः॥ द्राघिष्ठाभिः शुचिव्रता॥ गृणाना जमदग्निना योनावृतस्य सीदतम्। पात ँ सोममृतावृधा॥ तृतीय आज्य स्तोत्रम्(रथन्तरपृष्ठे) आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम्। एदं बर्हिः सदो मम॥ आ त्वा ब्रह्मयुजा हरी वहतामिन्द्र केशिना। उप ब्रह्माणि नः शृणु॥ ब्रह्माणस्त्वा युजा वय ँ सोमपामिन्द्र सोमिनः। सुतावन्तो हवामहे॥ चतुर्थ आज्यस्तोत्रम्(रथन्तरपृष्ठे) इन्द्राग्नी आ गत ँ सुतं गीर्भिर्नभो वरेण्यम्। अस्य पातं धियेषिता॥ इन्द्राग्नी जरितुः सचा यज्ञो जिगाति चेतनः। अया पातमिम ँ सुतम् इन्द्रमग्निं कविच्छदा यज्ञस्य जूत्या वृणे। ता सोमस्येह तृम्पताम्॥ उपरोक्त चार स्तोत्र रथन्तर पृष्ठ हेतु हैं। बृहत्पृष्ठ के स्तोत्र इनसे भिन्न हैं। प्रश्न यह उठता है कि आज्य स्तोत्रों के अनुष्ठान से क्या तात्पर्य सिद्ध होता है? ऐसा अनुमान है कि आज्य स्तोत्र चार दिशाओं में फैलने की प्रक्रिया हैं(इसके विपरीत स्थिति ऊर्ध्व – अधो दिशा में गमन की होती है)। जैसा कि स्वर्गीय डा. फतहसिंह ने अपने लेखों में ध्यान दिलाया है, पूर्व दिशा ज्ञान की, दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्त करने की, पश्चिम दिशा पाप नाश की व उत्तरदिशा आनन्द की दिशाएं हैं। होता ऋत्विज की स्थिति पूर्व दिशा में ज्ञान प्राप्त करने जैसी है। मैत्रावरुण ऋत्विज की स्थिति दक्षिण दिशा में दक्षता प्राप्त करने जैसी है(द्र. आज्यस्तोत्र में दक्ष शब्द)। होता सत्य है तो मैत्रावरुण ऋत। ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज की स्थिति पश्चिम् दिशा में होनी चाहिए। लेकिन इसका प्रमाण देना होगा। ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज को उज/ओज कहा गया है(ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१८.१)। ओज का अर्थ है उ से जन्मा हुआ। ओंकार में उ अक्षर से तात्पर्य धारण करने से, कुम्भक करने से लिया जाता है। अ से ग्रहण और म से विसर्जन होता है। पहले पृथिवी सूर्य की ऊर्जा को धारण करती है, फिर अपने अन्दर से वनस्पतियों आदि को निकालती है, विसर्जन करती है। ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज के आज्य स्तोत्र में इन्द्र के रथ में केशी हरि-द्वय के जुडने का भी उल्लेख है। ऐसी ही स्थिति तब होती है जब सोमयाग के अन्त में उन्नेता नामक ऋत्विज द्रोणकलश को अपने सिर पर रखकर द्रोणकलश से अग्नि में सोम की आहुति देता है। द्रोणकलश का मुख ऊँ के आकार का होता है। कहा गया है कि ऋक् और साम इन्द्र के दो हरी हैं जो इन्द्र के रथ का वहन करते हैं। इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि हमारे अपने रथ के हरी कौन से हैं? कहा गया है कि क्षुधा, तृष्णा आदि हमारे रथ के हरी हैं। हरियों में से एक के ऋक् होने से तात्पर्य हो सकता है कि किसी कार्य को करने से पहले ही उसके स्वरूप का पूर्वाभास हो जाना। साम से तात्पर्य हो सकता है कि हम सम अवस्था में हैं, क्षुधा-तृष्णा हमें प्रभावित नहीं करती। चौथे ऋत्विज अच्छावाक् का देवता इन्द्राग्नि है। अच्छावाक् का अर्थ है जब हमारे अन्दर से शुभ वाक् निकलने लगे। क्या अच्छावाक् का स्थान उत्तर दिशा में हो सकता है? अच्छावाक् को ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१८.१ में यश कहा गया है। यश को यक्ष के आधार पर समझा जा सकता है। साधना में यक्ष यश का पूर्व रूप हो सकता है। यक्ष के विषय में शतपथ ब्राह्मण ११.२.३.५ में कहा गया है कि रूप और नाम ही ब्रह्म के महत् यक्ष हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि अच्छावाक् ऋत्विज का कार्य नाम और रूप के दर्शन करना, किसी घटना के बाह्यतम रूप की अनुभूति करना है। यह उत्तर दिशा कही जा सकती है। सोमयाग में चार आज्यस्तोत्रों का स्पष्टीकरण भागवत पुराण के एक श्लोक के आधार पर भी किया जा सकता है। श्लोक यह है – ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री कृपा उपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥ अर्थात् जो ईश्वर से प्रेम, ईश्वर के आधीन रहने वालों से मैत्री, बालिशों या फैले हुओं पर कृपा और द्वेष रखने वालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भक्त है। सोमयाग के संदर्भ में होता का स्थान प्रेम का स्थान हो सकता है, मैत्रावरुण का स्थान मैत्री का, ब्राह्मणाच्छंसी का कृपा का व अच्छावाक् का उपेक्षा का। पहले दो स्थान तो न्यायोचित लगते हैं, लेकिन दूसरे दो को सिद्ध करने की आवश्यकता है। बालिशः का अर्थ फैला हुआ, बिखरा हुआ, वाल होता है। इस बिखरे हुए को समेटने का एक ही उपाय है कि किसी प्रकार से इसकी अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में ह्रास का प्रयास किया जाए। यह कृपा करना हो सकता है। क्या ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज अपनी धारणा शक्ति द्वारा अव्यवस्था में ह्रास ला सकता है, यह अन्वेषणीय है। यह कहा जा सकता है कि बिखरे हुए को धारण करना ही कठिन है। यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में जब भगवान् भक्त पर कृपा करता है तो यह नहीं देखता कि भक्त की इच्छा क्या है। अपितु अपनी इच्छा के अनुसार ही भक्त को देता है। पुराणों में इसे छलना, धोखा भी कहा गया है। चौथी उपेक्षा/द्वेष की स्थिति क्या अच्छावाक् की स्थिति कही जा सकती है? द्वेष से अर्थ है कि साधना में जो कष्ट प्राप्त होते हैं, उनसे हमें भय लगता है कि पता नहीं क्या होगा। न माया मिली न राम। इस प्रकार के भय की उपेक्षा का निर्देश है। द्वेष और उपेक्षा का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि जिस ऊर्जा को नियन्त्रित नहीं किया जा सकता, उसकी उपेक्षा करना ही श्रेष्ठ है। अच्छावाक् ऋत्विज के बारे में कहा जाता है कि अन्य ऋत्विज तो स्वर्ग को चले गए, अच्छावाक् रह गया। जब अग्नि के साथ इन्द्र ने सहयोग किया, तभी वह स्वर्ग जा पाया। इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि किसी घटना को नाम-रूप के स्तर तक लाना बहुत कठिन कार्य है। फिर यदि नाम-रूप का प्राकट्य इसलिए हुआ हो कि हमारी देखने-विचार करने की शक्ति सीमित है तो वह भय उत्पन्न करेगा। उस नाम-रूप को बृहत्तर रूप में देखने की आवश्यकता है। यह अच्छावाक् का यक्ष से यश रूप में परिवर्तन होगा। इन्द्र का पूर्व रूप रुद्र होते हैं। जब रुद्र अवस्था शान्त हो जाएगी तो वह इन्द्र बन जाएगी। उपेक्षा शब्द को उप-ईक्षा रूप में, ईक्षण, विचार करने के रूप में भी समझा जा सकता है। इ अक्षर का रूपान्तरण य अक्षर में होकर यक्ष शब्द बन जाता है। य, र, ल, व अक्षरों को अर्धस्वर कहा जाता है। ऋ स्वर का रूपान्तर र में हो सकता है, लृ का ल में और उ का व में। सार्वत्रिक रूप से, जैसे तैत्तिरीय संहिता २.६.२.४ में, आज्य को वज्र कहा जाता है जो शत्रुओं का नाश करता है। लेकिन आज्य वज्र किस प्रकार से है? भौतिक रूप में एक उत्तर तो शरीर में स्टेम कोशिकाओं के आज्य रूप होने के रूप में दिया जा सकता है। स्टेम कोशिकाएं हमारी शत्रुओं से रक्षा करती हैं। दूसरा उत्तर हमें शतपथ ब्राह्मण ७.२.३.४ से मिलता है कि आज्य सर्व का, आपः का, ओषधियों का रस है और जहां रस है, वहीं आत्मा है। सारे प्राण रस की ओर, मधु की ओर खिंचे चले आते हैं। अतः जब हमारी इन्द्रियां किसी बाहरी उद्दीपन स्रोत के बिना आनन्द प्रदान करने लगती हैं तो आज्य का जन्म समझ लेना चाहिए। यह वज्र अवस्था है। अब यह शत्रुओं का नाश करने में समर्थ है। आज्य अवस्था कैसी हो सकती है, इसका ब्राह्मण ग्रन्थों में बार-बार संकेत किया गया है। तैत्तिरीय संहिता २.६.१.२ आदि कईं स्थानों पर आज्य को तेज कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण २.२ तथा शतपथ ब्राह्मण ३.७.१.१३ आदि में आज्य को मधु कहा गया है जिसका उपयोग यूप रूपी यजमान का लेपन करने के लिए किया जाता है। तैत्तिरीय संहिता ६.५.११.२ इत्यादि में आज्य को उक्थ कहा गया है। ऋग्वेद १०.९०.६ पुरुष सूक्त में आज्य को वसन्त ऋतु कहा गया है जो मधु का ही प्रतीक है। वसन्त को अनिरुक्त स्थिति कहा जाता है। अथर्ववेद १३.१.५३ के अनुसार आज्य वर्षा से विश्व आत्मवत् हो जाता है। शतपथ ब्राह्मण १२.९.१.११ आदि में आज्य को अस्थि रूपी इध्म के भीतर स्थित मज्जा कहा गया है। उपरोक्त सारी क्रियाएं एकांगी साधना के अंग हैं। एकांगी साधना का लक्ष्य था कि बाह्य प्राणों के पास जो आज्य बिखरा पडा था, उसे आत्मा को प्राप्त कराना। इसके पश्चात् समाधि से व्युत्थान अथवा यों कहें कि समाधि में प्राप्त आनन्द को व्यवहार में भी अवतरित करने के लिए इडा आदि कर्म और तीन अनुयाज होते हैं। दर्शपूर्ण मास से इतर यज्ञों में अनुयाज की संख्या अधिक भी हो सकती है(उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता ६.३.११.५)। शतपथ ब्राह्मण १.३.२.९ में कहा गया है कि छंद ही अनुयाज है। इस क्रिया का लक्ष्य होता है कि जिस आज्य रूपी आनन्द का संग्रह समाधि अवस्था में किया है, उसका सब प्राणों में, प्रजा में वितरण करना। यज्ञ कर्म में यजमान का प्रतीक जुहू नामक पात्र होता है और प्रजा का प्रतीक उपभृत् नामक पात्र होता है(शतपथ ब्राह्मण १.३.२.२)। प्रयाज कर्म में उपभृत् पात्र में स्थित आज्य को जुहू पात्र में ले लिया जाता है, जबकि अनुयाज कर्म में जुहू में स्थित आज्य को उपभृत पात्र में ग्रहण किया जाता है। एक तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र ध्रुवा होता है—आत्मा की ध्रुव स्थिति का प्रतीक। यह अनुष्टुप् वाक् का प्रतीक है। शिवपुराण में आज्य अवेक्षण के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.३.१.१८ में यजमान-पत्नी द्वारा अदब्ध चक्षु से आज्य अवेक्षण का उल्लेख द्रष्टव्य है। प्रथम लेखन – १९९३ ई., अन्तिम परिवर्धन – १८-४-२०१२ई.(वैशाख कृष्ण द्वादशी, विक्रम संवत् २०६९)
संदर्भ(अपूर्ण) : *अरा॑धि॒ होता॑ नि॒षदा॒ यजी॑यान॒भि प्रयां॑सि॒ सुधि॑तानि॒ हि ख्यत्। यजा॑महै य॒ज्ञिया॒न् हन्त॑ दे॒वाँ ईळा॑महा॒ ईड्याँ॒ आज्ये॑न। - ऋ. १०.५३.२ *यो अ॑स्मा॒ अन्नं॑ तृ॒ष्वा॒३॑दधा॒त्याज्यै॑र्घृ॒तैर्जु॒होति॒ पुष्य॑ति। तस्मै॑ स॒हस्र॑म॒क्षभि॒र्वि च॒क्षे ऽग्ने॑ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यङ्ङ॑सि॒ त्वम्॥ - ऋ. १०.७९.५ *यो होतासी॑त् प्रथ॒मो दे॒वजु॑ष्टो॒ यं स॒माञ्ज॒न्नाज्ये॑ना वृणा॒नाः। स प॑त॒त्री॑त्व॒रं स्था जग॒द्यच्छ्वा॒त्रम॒ग्निर॑कृणोज्जा॒तवे॑दाः॥ - ऋ. १०.८८.४ *यत् पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत। व॒स॒न्तो अ॑स्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्म इ॒ध्मः श॒रद्ध॒विः॥ - ऋ. १०.९०.६ *तस्मा॑द्य॒ज्ञात् स॑र्व॒हुतः॒ संभृ॑तं पृषदा॒ज्यम्। प॒शून् ताँश्च॑क्रे वाय॒व्या॑नार॒ण्यान् ग्रा॒म्याश्च॒ ये॥ - ऋ. १०.९०.८ जहां सामान्य रूप से जुहू नामक पात्र में चार बार आज्य का ग्रहण किया जाता है, शतपथ ब्राह्मण ३.६.३.६ में पृषदाज्य को ५ बार ग्रहण करने का निर्देश है। *त्वामिद॒स्या उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु दू॒तं कृ॑ण्वा॒ना अ॑यजन्त॒ मानु॑षाः। त्वां दे॒वा म॑ह॒याय्या॑य वावृधु॒राज्य॑मग्ने निमृ॒जन्तो॑ अध्व॒रे॥ - ऋ. १०.१२२.७ *कासी॑त् प्र॒मा प्र॑ति॒मा किं नि॒दान॒माज्यं॒ किमा॑सीत् परि॒धिः क आ॑सीत्। छन्दः॒ किमा॑सी॒त् प्रउ॑गं॒ किमु॒क्थं यद्दे॒वा दे॒वमय॑जन्त॒ विश्वे॑॥ - ऋ. १०.१३०.३ इस ऋचा में प्रउग को प्रउक्, अर्थात् विशिष्ट उक्थ, प्राणों का विशेष रूप से जागरण कहा जा सकता है। ऐतरेय ब्राह्मण २.३७ का कथन है कि आज्य द्वारा पवमान का अनुशंसन किया जाता है जबकि प्रउग द्वारा आज्य का। इसका अर्थ होगा कि आज्य के विकास से पूर्व प्राणों का प्रउग स्थिति में आना अनिवार्य है। *आज्य॑स्य परमेष्ठि॒न् जात॑वेद॒स्तनू॑वशिन्। अग्ने॑ तौ॒लस्य प्राशा॑न यातु॒धाना॒न् वि ला॑पय॥ - शौ. १.७.२ *अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकात्सो अपश्यज्जनितारमग्रे । तेन देवा देवतामग्र आयन् तेन रोहान् रुरुहुर्मेध्यासः ॥शौ. ४.१४.१ आज्यसूक्तम्॥ *सं सि॑ञ्चामि॒ गवां॑ क्षी॒रं समाज्ये॑न॒ बलं॒ रस॑म्। संसि॑क्ता अ॒स्माकं॑ वी॒रा ध्रु॒वा गावो॒ मयि॒ गोप॑तौ॥ - शौ. २.२६.४ *वै॒क॒ङ्क॒तेने॒ध्मेन॑ दे॒वेभ्य॒ आज्यं॑ वह। अग्ने॒ ताँ इ॒ह मा॑दय॒ सर्व॒ आ य॑न्तु मे॒ हव॑म्॥ - शौ. ५.८.१ पुरुष सूक्त में ग्रीष्म को इध्म व वसन्त को आज्य कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण १२.९.१.११ में अस्थि को इध्म व मज्जा को आज्य रूप कहा गया है। *उ॒द्वेप॑माना॒ मन॑सा॒ चक्षु॑षा॒ हृद॑येन च। धाव॑न्तु बिभ्य॑तो॒ऽमित्राः॑ प्रत्रा॒सेनाज्ये॑ हु॒ते॥(दे. दुन्दुभिः) - शौ. ५.२१.२ *वा॒न॒स्प॒त्यः संभृ॑त उ॒स्रिया॑भिर्वि॒श्वगो॑त्र्यः। प्र॒त्रा॒सम॒मित्रे॑भ्यो व॒दाज्ये॑ना॒भिघा॑रितः॥ - शौ. ५.२१.३ *द्रु॒प॒दादि॑व मुमुचा॒नः स्वि॒न्नः स्ना॒त्वा मला॑दिव। पू॒तं प॒वित्रे॑णे॒वाज्यं॒ विश्वे॑ शुम्भन्तु॒ मैन॑सः॥ - शौ. ६.११५.३ *या॒तुधाना॒ निर्ऋ॑ति॒रादु॒ रक्ष॒स्ते अ॑स्य घ्न॒न्त्वनृ॑तेन स॒त्यम्। इन्द्रे॑षिता दे॒वा आज्य॑मस्य मथ्नन्तु॒ मा तत् सं पा॑दि॒ यद॒सौ जु॒होति॑॥ अ॒जि॒रा॒धि॒रा॒जौ श्ये॒नौ सं॑पा॒तिना॑विव। आज्यं॑ पृतन्य॒तो ह॑तां॒ यो नः॒ कश्चा॑भ्यघा॒यति॑॥ - शौ. ७.७३.२-३ *स॒प्त होमाः॑ स॒मिधो॑ ह स॒प्त मधू॑नि स॒प्तर्तवो॑ ह स॒प्त। स॒प्ताज्या॑नि॒ परि॑ भू॒तमा॑य॒न् ताः स॑प्तगृ॒ध्रा इति॑ शुश्रुमा व॒यम्॥ - शौ. ८.९.१८ *स॒प॒त्न॒हन॑मृष॒भं घृ॒तेन॒ कामं॑ शिक्षामि ह॒विषाज्ये॑न। नी॒चैः स॒पत्ना॒न् मम॑ पादय॒ त्वम॒भिष्टु॑तो मह॒ता वी॒र्येण ॥ - शौ. ९.२.१ *इ॒दमाज्यं॑ घृ॒तव॑ज्जुषा॒णाः काम॑ज्येष्ठा इ॒ह मा॑दयध्वम्। कृ॒ण्वन्तो॒ मह्य॑मसप॒त्नमे॒व॥ - शौ. ९.२.८ *आज्यं॑ बिभर्ति घृ॒तम॑स्य॒ रेतः॑ साह॒स्रः पोष॒स्तमु॑ य॒ज्ञमा॑हुः। इन्द्र॑स्य रू॒पमृ॑ष॒भो वसा॑नः॒ सो अ॒स्मान् दे॑वाः शि॒व एतु॑ द॒त्तः॥(दे. ऋषभः) - शौ. ९.४.७ *सर्वा॒ दिशः॒ संम॑नसः स॒ध्रीचीः॒ सान्त॑र्दशाः॒ प्रति॑ गृह्णन्तु त ए॒तम्। तास्ते॑ रक्षन्तु॒ तव॒ तुभ्य॑मे॒तं ताभ्य॒ आज्यं॑ ह॒विरि॒दं जु॑होमि॥(दे. अज पञ्चौदनः) - शौ. ९.५.३८ *यदा॑ञ्जनाभ्यञ्ज॒नमा॒हर॒न्त्याज्य॑मे॒व तत्॥ - शौ. ९.६.११ *यमब॑ध्ना॒द् बृह॒स्पति॑र्म॒णिं फालं॑ घृत॒श्चुत॑मु॒ग्रं ख॑दि॒रमोज॑से। तम॒ग्निः प्रत्य॑मुञ्चत॒ सो अ॑स्मै दुह॒ आज्यं॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्विष॒तो ज॑हि॥ - शौ. १०.६.६ *क्रो॒डौ ते॑ स्तां पुरो॒डाशा॒वाज्ये॑ना॒भिघा॑रितौ। तौ प॒क्षौ दे॑वि कृ॒त्वा सा प॒क्तारं॒ दिवं॑ वह॥ - शौ. १०.९.२५ *अ॒ग्नौ सूर्ये॑ च॒न्द्रम॑सि मात॒रिश्व॑न् ब्रह्मचा॒र्य॑१॒प्सु स॒मिध॒मा द॑धाति। तासा॑म॒र्चींषि॒ पृथ॑ग॒भ्रे च॑रन्ति॒ तासा॒माज्यं॒ पुरु॑षो व॒र्षमापः॑॥ - शौ. ११.७.१३ *अस्थि॑ कृ॒त्वा स॒मिधं॒ तद॒ष्टापो॑ असादयन्। रेतः॑ कृ॒त्वाज्यं॑ दे॒वाः पुरु॑ष॒मावि॑शन्॥ - शौ. ११.१०.२९ *स॒प्त जा॒तान् न्यर्बुद उदा॒राणां॑ समी॒क्षय॑न्। तेभि॒ष्ट्वमाज्ये॑ हु॒ते सर्वै॒रुत्ति॑ष्ठ॒ सेन॑या॥ - शौ. ११.११.६ *जनि॑त्रीव॒ प्रति॑ हर्यासि सू॒नुं सं त्वा॑ दधामि पृथि॒वीं पृ॑थि॒व्या। उ॒खा कु॒म्भी वेद्यां॒ मा व्य॑थिष्ठा यज्ञायु॒धैराज्ये॒नाति॑षक्ता॥ - शौ. १२.३.२३ *यथाज्यं॒ प्रगृ॑हीतमालु॒म्पेत् स्रु॒चो अ॒ग्नये॑। ए॒वा ह॑ ब्र॒ह्मभ्यो॑ व॒शाम॒ग्नय॒ आ वृ॑श्च॒तेऽद॑दत्॥ - शौ. १२.४.३४ *वेदिं॒ भूमिं॑ कल्पयि॒त्वा दिवं॑ कृ॒त्वा दक्षि॑णाम्। घ्रं॒सं तद॒ग्निं कृ॒त्वा च॒कार॒ विश्व॑मात्म॒न्वद् व॒र्षेणाज्ये॑न॒ रोहि॑तः॥ व॒र्षमाज्यं॑ घ्रं॒सो अ॒ग्निर्वेदि॒र्भूमि॑रकल्पत। तत्रै॒वान् पर्व॑तान॒ग्निर्गी॒र्भिरू॒र्ध्वाँ अ॑कल्पयत्॥ - शौ. १३.१.५३ *यत् पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत। व॒स॒न्तो अ॑स्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्म इध्मः श॒रद्ध॒विः॥ - शौ. १९.६.१० *घृ॒तेन॑ त्वा॒ समु॑क्षा॒म्यग्न॒ आज्ये॑न व॒र्धय॑न्। अ॒ग्नेश्च॒न्द्रस्य॒ सूर्य॑स्य॒ मा प्रा॒णं मा॒यिनो॑ दभन्॥ - शौ. १९.२७.५ *अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतु ँ रिहन्ति मध्वाभ्यञ्जते। सिन्धोरुच्छ्वासे पतयन्तमुक्षण ँ हिरण्यपावाः पशुमप्सु गृभ्णते॥ - सामवेद ग्रामगेय ५६४(शार्ङ्गम्) *आज्यं वै देवानां सुरभि घृतं मनुष्याणां आयुतं पितॄणाम् नवनीतम् गर्भाणाम् – ऐतरेय ब्राह्मण १.३ *अञ्ज्मो यूपमनुब्रूहीत्याहाध्वर्युः। अञ्जन्ति त्वामध्वरे देवयन्तः इत्यन्वाह। अध्वरे ह्येनं देवयन्तोऽञ्जन्ति। ‘वनस्पते मधुना दैव्येन’ इति एतद्वै मधु दैव्यं यदाज्यम्। - ऐ.ब्रा. २.२ *ते(देवाः) वै प्रातराज्यैरेवाऽऽजयन्त आयन् यदाज्यैरेवाऽऽजयन्त आयंस्तदाज्यानामाज्यत्वम्। तासां वै होत्राणामायतीनामाजयन्तीनामच्छावाकीयाऽहीयत, तस्यमामिन्द्राग्नी अध्यास्तामिन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ बलिष्ठौ सहिष्ठौ सत्तमौ पारयिष्णुतमौ तस्मादैन्द्राग्नमच्छावाकः प्रातःसवने शंसतीन्द्राग्नी हि तस्यामध्यास्ताम् - ऐ.ब्रा. २.३६ *देवरथो वा एष यद्यज्ञस्तस्यैतावन्तरौ रश्मी यदाज्यप्रउगे तद्यदाज्येन पवमानमनुशंसति प्रउगेणाऽऽज्यं देवरथस्यैव तदन्तरौ रश्मी विहरत्यलोभाय – ऐ.ब्रा. २.३७ *तस्मादेवमभिमृशति- अधिवृणक्त्येवैष पुरोडाशम्, अधिश्रयत्यसावाज्यम्। - - - अर्द्धो ह वा एष आत्मनो यज्ञस्य यदाज्यम्। अर्द्धो यदिह हविर्भवति।- - - - सोऽसावाज्यमधिश्रयति – इषे त्वा इति। वृष्ट्यै तदाह। - - - तत् – पुनरुद्वासयति। ‘ऊर्जे त्वेति’। यो वृष्टादूर्ग् रसो जायते तस्मै तदाह। अथ पुरोडाशमधिवृणक्ति – “घर्म्मोऽसि” इति। - - - श.ब्रा. १.२.२.४ *अस्ति वै पत्न्या अमेध्यं यदवाचीनं नाभेः। अथैतदाज्यमवेक्षिष्यमाणा भवति। तदेवास्या एतद्योक्त्रेणान्तर्दधाति, अथ मेधेयेनैवोत्तरार्द्धेनाज्यमवेक्षते। - श.ब्रा. १.३.१.१३ *अथाज्यमवेक्षते। योषा वै पत्नी, रेत आज्यम्। मिथुनमेवैतत् प्रजननं क्रियते। - - - सावेक्षते –“अदब्धेन त्वा चक्षुषावपश्यामि” इति। अग्नेर्जिह्वासि इति। सुहूर्देवेभ्यः इति। धाम्ने धाम्ने मे भव यजुषे यजुषे।“ इति। अथाज्यमादाय प्राङुदाद्रवति। तदाहवनीयेऽधिश्रयति – श.ब्रा. १.३.१.१८ *प्रोक्षणीषु पवित्रे भवतः। ते तत आदत्ते। ताभ्यामाज्यमुत्पुनाति। एको वा उत्पवनस्य बन्धुः- मेध्यमेवैतत्करोति। स उत्पुनाति – “सवितुस्त्वा प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः” इति। अथाज्यलिप्ताभ्यां पवित्राभ्यां प्रोक्षणीरुत्पुनाति – सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य रश्मिभिः इति। तद्यदाज्यलिप्ताभ्यां पवित्राभ्यां प्रोक्षणीरुत्पुनाति, तदप्सु पयो दधाति। तदिदमप्सु पयो हितं। इदं हि यदा वर्षति, अथौषधयो जायन्ते; ओषधीर्जग्ध्वापः पीत्वा तत एष रसः सम्भवति। - श.ब्रा. १.३.१.२२ *अथाज्यमवेक्षते। -- - सोऽवेक्षते। सत्यं वै चक्षुः। - - - सोऽवेक्षते—“तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि इति। स एष सत्य एव मन्त्रः। - श.ब्रा. १.३.१.२६ *यत्सोमो राजा, यत्पुरोडाशः, तत्तदादिश्य गृह्णाति – अमुष्मै त्वा जुष्टं गृह्णामीति। एवमु हैतेषाम्। अथ यान्याज्यानि गृह्यन्ते—ऋतुभ्यश्चैव तानि, छन्दोभ्यश्च गृह्यन्ते। तत्तदनादिश्य आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति। स वै चतुर्जुह्वां गृह्णाति, अष्टौ कृत्व उपभृति। स यच्चतुर्जुह्वां गृह्णाति—ऋतुभ्यस्तद् गृह्णाति, प्रयाजेभ्यो हि तद् गृह्णाति। ऋतवो हि प्रयाजाः तत्तदनादिश्य – आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति- अजामितायै। जामि ह कुर्याद्-यद्वसन्ताय त्वा ग्रीष्माय त्वेति गृह्णीयात् – श.ब्रा. १.३.२.६ *अथ यदष्टौ कृत्व उपभृति गृह्णाति—छन्दोभ्यस्तद् गृह्णाति, अनुयाजेभ्यो हि तद् गृह्णाति। छन्दांसि ह्यनुयाजाः। तत्तदनादिश्य – आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति- अजामितायै। जामि ह कुर्याद् यद् गायत्र्यै त्वा त्रिष्टुभे त्वेति गृह्णीयात्। - श.ब्रा. १.३.२.९ *अथ यच्चतुर्ध्रुवायां गृह्णाति – सर्वस्मै तद् यज्ञाय गृह्णाति। तत्तदनादिश्य – आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति। - श.ब्रा. १.३.२.१० *तदाहुः- कस्मा उ तर्ह्युपभृति गृह्णीयात् यदुपभृता न जुहोतीति। स यद्धोपभृता जुहुयात्- पृथग्घैवेमाः प्रजाः स्युः- नैवात्ता स्यात्, नाद्यः स्यात्। अथ यत्तज्जुह्वैव समानीय जुहोति- तस्मदिमा विशः क्षत्त्रियाय बलिं हरन्ति। - - - श.ब्रा. १.३.२.१५ *स गृह्णाति – “धाम नामासि प्रियं देवानाम्” इति। एतद्वै देवानां प्रियतमं धाम-यदाज्यम्। - - -अनाधृष्टं देवयजनमसि इति। वज्रो ह्याज्यम्। तस्मादाह – अनाधृष्टं देवयजनमसि इति। श.ब्रा. १.३.२.१८ *उत्तराघारः – अस्कन्नमद्य देवेभ्य आज्यं सम्भ्रियासम् इति. अविक्षुब्धमद्य देवेभ्यो यज्ञं तनवा इत्येवैतदाह। - श.ब्रा. १.४.५.१ *ते(प्रयाजाः) आज्यहविषो भवन्ति। वज्रो वा आज्यम्, एतेन वै देवा वज्रेणाज्येन ऋतून् संवत्सरं प्राजयन्—ऋतुभ्यः संवत्सरात् सपत्नान् अन्तरायन्, - -- -एतद्वै संवत्सरस्य स्वं पयः यदाज्यम्। - श.ब्रा. १.५.३.५ अथ चतुर्थे प्रयाजे समानयति बर्हिषि । प्रजा वै बर्ही रेत आज्यं तत्प्रजास्वेवैतद्रेतः सिच्यते तेन रेतसा सिक्तेनेमाः प्रजाः पुनरभ्यावर्तम्प्रजायन्ते तस्माच्चतुर्थे प्रयाजे समानयति बर्हिषि - १.५.३.[१६] स्वाहाग्निमिति तदाग्नेयमाज्यभागं समस्थापयन्त्स्वाहा सोममिति तत्सौम्यमाज्यभागं समस्थापयन् – १.५.३.२२ *”स्वाहा देवा आज्यपाः” इति – तत् प्रयाजानुयाजान् समस्थापयन्, प्रयाजानुयाजा वै देवा आज्यपाः – श.ब्रा. १.५.३.२३ *तदाहुः—‘किंदेवत्यान्याज्यानि’ इति। प्राजापत्यानि इति ह ब्रूयात्। अनिरुक्तो वै प्रजापतिः, अनिरुक्तान्याज्यानि। - श.ब्रा. १.६.१.२० *स आज्यस्योपस्तीर्य(पुरोडाशस्थापनदेशमाज्येनास्तृतं कृत्वा), द्विर्हविषोऽवदाय, अथोपरिष्टादाज्यस्याभिघारयति। सैषाज्येन मिश्राहुतिर्हूयते। - श.ब्रा. १.६.१.२१ *तौ(अग्नीषोमौ) होचतुः—“किमावयोस्ततः स्याद्” इति। “यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्निर्वपान्- तद् वां पुरस्तादाज्यस्य यजान्” इति। तस्माद् यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्निर्वपन्ति – तत्पुरस्तादाज्यभागावग्नीषोमाभ्यां यजन्ति। तन्न सौम्येऽध्वरे, न पशौ। - श.ब्रा. १.६.३.१९ *आज्यभागाभ्यामेव । सूर्याचन्द्रमसावाप्नोत्युपांशुयाजेनैवाहोरात्रे आप्नोति पुरोडाशेनैवार्धमासावाप्नोतीत्यु हैक आहुः । तदु होवाचासुरिः । आज्यभागाभ्यामेवातो यतमे वा यतमे वा द्वे आप्नोत्युपांशुयाजेनैवातोऽहोरात्रे आप्नोति पुरोडाशेनैवातोऽर्धमासावाप्नोति - १.६.३.[२५] *तदाहुः—किमिदं जामि क्रियते—अग्नीषोमयोरेवाज्यस्य, अग्नीषोमयोः पुरोडाशस्य, यदनन्तर्हितं तेन जामि – इति। अनेन ह त्वेवाजामि – आज्यस्येतरम्, पुरोडाशस्येतरम्- तदन्यदिवेतरमन्यदिवेतरं भवति। - - - अनेन ह त्वेवाजामि- उपांश्वाज्यस्य यजति, उच्चैः पुराडाशस्य। स यदुपांशु – तत् प्राजापत्यं रूपम्। - श.ब्रा. १.६.३.२६ चक्षुषी ह वा एते यज्ञस्य यदाज्यभागौ । तस्मात्पुरस्ताज्जुहोति पुरस्ताद्धीमे चक्षुषी तत्पुरस्तादेवैतच्चक्षुषी दधाति तस्मादिमे पुरस्ताच्चक्षुषी - १.६.३.[३८] *अवदानक्लृप्तिः – स आज्यस्योपस्तीर्य द्विर्हविषोऽवदाय अथोपरिष्टादाज्यस्य अभिघारयति।(पुरोडाशस्योभयत आज्यकरणं प्रशंसा--) द्वे वा आहुती—सोमाहुतिरेवान्या—आज्याहुतिरन्या। तत एषा केवली यत् सोमाहुतिः। अथैषाज्याहुतिः – यद्धविर्यज्ञः, यत् पशुः। तदाज्यमेवैतत् करोति- तस्मादुभयत आज्यं भवति। - श.ब्रा. १.७.२.१० *स आज्यस्योपस्तीर्य, द्विर्हविषोऽवदाय, अथोपरिष्टादाज्यस्याभिघारयति। तद्यथैव यज्ञस्यावदानम् – एवमेव तत्। - श.ब्रा. १.७.४.११ *”मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य” इति। मनसा वा इदं सर्वमाप्तम्। - श.ब्रा. १.७.४.२२ *न वा एतत् कस्यैचन देवतायै हविर्गृह्णन्नादिशति—यदाज्यम्। तस्माद् विश्वेभ्यो देवेभ्यः सम्प्रगृह्णाति। - श.ब्रा. १.८.३.२४ *”देवा आज्यपा आज्यमजुषन्तावीवृधन्तमहो ज्यायोऽक्रतेति” तत् प्रयाजानुयाजानाह। प्रयाजानुयाजा वै देवा आज्यपाः। “अग्निर्होत्रेणेदं हविरजुषतावीवृधतमहोज्यायोऽकृतेति”। तदग्निं होत्रेणाजुषतेति। - श.ब्रा. १.९.१.१० *पत्नीसंयाजः-- - - चतस्रो देवता यजति। चतस्रो वै मिथुनम्। - - - - ता वा आज्यहविषो भवन्ति। रेतो वा आज्यम्। रेत एवैतत्सिञ्चति। - - -तेनोपांशु चरन्ति। तिर इव वै मिथुनेन चर्यते। - श.ब्रा. १,९.२.६ *तं(चरुं) श्रपयति – तस्मिन्नधिश्रित आज्यं प्रत्यानयति। अग्नौ वै देवेभ्यो जुह्वति, उद्धरन्ति मनुष्येभ्यः, अथैव पितॄणाम्। - श.ब्रा. २.४.२.१० *आग्रयणेष्टिः-- आज्यं ह वा अनयोर्द्यावापृथिव्योः प्रत्यक्षं रसः। - श.ब्रा. २.४.३.१० *सोमवतां पितॄणां यजनप्रकारः -- स उपस्तृणीत आज्यम्। अथास्य पुरोडाशस्यावद्यति। स तेनैव सह धानानाम्। तेन सह मन्थस्य। सकृदवदधाति। अथोपरिष्टाद् द्विराज्यस्याभिघारयति। ….अथाह पितृभ्योऽग्निष्वात्तेभ्योऽनुब्रूहीति । स उपस्तृणीत आज्यमथास्य मन्थस्यावद्यति- श.ब्रा. २.६.१.२७ *वैसर्जनहोमः—अथोत्पूयाज्यं चतुर्गृहीते जुह्वां चोपभृति च गृह्णाति। पञ्चगृहीतं पृषदाज्यम्। “ज्योतिरसि विश्वरूपं विश्वेषां देवानां समित्” इति। वैश्वदेवं हि पृषदाज्यं धारयन्ति। - श.ब्रा. ३.६.३.६ *अथो रेतो वा आज्यं तद्वनस्पतिष्वेवैतद्रेतो दधाति तस्माद्रेतस आव्रश्चनाद्वनस्पतयोऽनु प्रजायन्ते - ३.६.४.[१५] अथ स्रुवेणोपहत्याज्यम् । अवटमभिजुहोति नेदधस्तान्नाष्ट्रा रक्षांस्युपोत्तिष्ठानिति वज्रो वा आज्यं तद्वज्रेणैवैतन्नाष्ट्रा रक्षांस्यवबाधते तथाधस्तान्नाष्ट्रा रक्षांसि नोपोत्तिष्ठन्त्यथ पुरस्तात्परीत्योदङ्ङासीनो यूपमनक्ति स आह यूपायाज्यमानायानुब्रूहीति- ३.७.१.[१०] *आन्तमग्निष्ठामनक्ति । यजमानो वा अग्निष्ठा रस आज्यं रसेनैवैतद्यजमानमनक्ति – ३.७.१.१३ *तद् यत् स्वयमुदितं नवनीतम्—तदाज्यं भवति। वरुण्यं वा ऽएतद् यन्मथितम्। अथैतन्मैत्रम् – यत् स्वयमुदितम्। – शतपथ ब्राह्मण ५.३.२.६ *सर्वस्योऽअस्यैष रसो यदाज्यमपां च ह्येष ओषधीनां च रसोऽस्यैवैनमेतत्सर्वस्य रसेन *प्रीणाति यावानु वै रसस्तावानात्मा – ७.२.३.४ *तस्मात्समान्या रज्ज्वा वत्सं च मातरं चाभिदधति तेज एव श्रद्धा सत्यमाज्यम्- माश ११.३.१.१ *पयआहुतयो ह वा एता देवानां यदृचः। - - - -आज्याहुतयो ह वा एता देवानां यद्यजूंषि। - - -सोमाहुतयो ह वा एता देवानां यत्सामानि। - - - मेदआहुतयो ह वा एता देवानां यदथर्वांगिरसः। - - - मध्वाहुतयो ह वा एता देवानां यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंस्यः। - श.ब्रा. ११.५.६.४ *ते देवाः प्रजापतिमब्रुवन्। यदि नः ऋक्तो वा यजुष्टो वा सामतो वा यज्ञो ह्वलेत्, केनैनं भिषज्येमेति। स होवाच यद्यृक्तो भूरिति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वा गार्हपत्ये जुहवथ। यदि यजुष्टो भुव इति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वाऽऽग्नीध्रीये जुहवथ। अन्वाहार्यपचने वा हविर्यज्ञे। यदि सामतः स्वरिति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वाऽऽहवनीये जुहवथ। यद्यु अविज्ञातमसत्। सर्वाण्यनुद्रुत्याहवनीये जुहवथ। - श.ब्रा. ११.५.८.६ *स वा एष संवत्सर एव। यत्सौत्रामणी। चन्द्रमा एव प्रत्यक्षात् आदित्यो यजमानः। तस्येयमेव पृथिवी वेदिः। अंतरिक्षमुत्तरवेदिः। - - - वनस्पतय इध्मः। आप आज्यम्। ओषधय आहुतयः। अग्निरेवाग्निः। संवत्सरः संस्था। - श.ब्रा. १२.८.२.३६ *स वा एष आत्मैव। यत्सौत्रामणी। - - - - अस्थीनिध्मः। आज्यं मज्जा। मुखमग्निः। अन्नमाहुतिः। वयः संस्था। – श.ब्रा. १२.९.१.११ *अश्वमेधः -- ब्रह्मौदनं पचति। रेत एव तद्धत्ते। यदाज्यमुच्छिष्यते। तेन रशनामभ्यज्यादत्ते। तेजो वा आज्यम्। - श.ब्रा. १३.१.१.१ *आज्येन जुहोति। तेजो वा आज्यम्। - - एतद्वै देवानां प्रियं धाम, यदाज्यम्। – श.ब्रा. १३.२.१.२ *”वसवस्त्वाऽञ्जन्तु गायत्रेण च्छन्दसा” इति महिष्यभ्यनक्ति। तेजो वा आज्यम्। तेजो गायत्री। तेजसी एवास्मिन्त्समीची दधाति । “रुद्रास्त्वाऽञ्जन्तु त्रैष्टुभेन च्छन्दसा” इति वावाताः। तेजो वा आज्यम्। इंद्रियं त्रिष्टुप्। तेजश्चैवास्मिन्निंद्रियं च समीची दधाति। “आदित्यास्त्वाऽञ्जन्तु जागतेन च्छन्दसा” इति परिवृक्ता। तेजो वा आज्यम्। पशवो जगती। तेजश्चैवास्मिन्पशूंश्च समीची दधाति। - श.ब्रा. १३.२.६.४ *अश्वस्तोमीयद्विपदाहोमब्राह्मणम् – आज्येन जुहोति। मेधो वा आज्यम्। मेधोऽश्वस्तोमीयम्। मेधसैवास्मिन् तन्मेधो दधाति। आज्येन जुहोति। एतद्वै देवानां प्रियं धाम-यदाज्यम्। - श.ब्रा. १३.३.६.२ *चित्तिः स्रुगासीत्, चित्तमाज्यम् वाग्वेदिराधीतं बर्हिः केतो अग्निः विज्ञातमग्निद् वाचस्पतिर्होता - - - – मैत्रायणी संहिता १.९.१, तैत्तिरीय आरण्यक ३.१.१, काठक संहिता ९.११ *दर्शपूर्णमासेष्टिः – स ए॒तमिन्द्र॒ आज्य॑स्यावका॒शम॑पश्यत्। तेनावै॑क्षत। ततो दे॒वा अभ॑वन् पराऽसु॑राः। - - - - ब्र॒ह्म॒वा॒दिनो॑ वदन्ति। यदाज्ये॑ना॒न्यानि॑ ह॒वी ँष्य॑भिघा॒रय॑ति। अथ॒ केनाऽऽज्य॒मिति॑। स॒त्येनेति॑ ब्रूयात्। चक्षु॒र्वै स॒त्यम्। - - ई॒श्व॒रो वा ए॒षो॑ऽन्धी भवि॑तोः। यश्चक्षु॒षाऽऽज्य॑म॒वेक्ष॑ते। नि॒मील्यावे॑क्षेत। दाधारा॒ऽऽत्मन्चक्षुः॑। अ॒भ्याज्यं॑ घारयति। आज्यं॑ गृह्णाति। छन्दा॑ ँसि॒ वा आज्य॑म्। - - च॒तुर्जु॒ह्वां गृ॑ह्णाति। चतु॑ष्पादः प॒शवः॑। - - अ॒ष्टावु॑पभृ॒ति॑। अ॒ष्टाक्ष॑रा गाय॒त्री। - - च॒तुर्ध्रु॒वाया॑म्। चतु॑ष्पादः प॒शवः॑। - - -अ॒ष्टावु॑प॒भृति॑। तस्मा॑द॒ष्टाश॑फा। च॒तुर्ध्रु॒वाया॑म्। तस्मा॒च्चतु॑स्तना। - तै.ब्रा. ३.३.५.३ *(हे आज्य) अ॒पां पुष्प॑म॒स्योष॑धीना॒ ँ रसः॑। सोम॑स्य प्रि॒यं धाम॑। अ॒ग्नेः प्रि॒यत॑म ँ ह॒विः स्वाहा॑। - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.१४.२ * ऋजुम् ऊर्ध्वमाघारम् आघारयेत् , प्राणो वा आघारः,….. शिरो वा एतद्यज्ञस्य यदाघार, आत्मा ऽऽज्यम् । यदाघारम् आघार्योपभृता समञ्ज्याञ् शिरो यज्ञस्य प्रछिन्द्यात् , आज्यधान्या समनक्ति – मैत्रा.सं. ४.१.१४ *यदि पयो न विन्देदाज्येन(अग्निहोत्रं) जुहुयात् – काठक संहिता ६.३ *धेन्वै वा एतद्रेतो यदाज्यमनडुहस्तण्डुलाः मिथुनाद् एवास्मै चक्षुः प्र जनयति घृते भवति तेजो वै घृतं तेजश् चक्षुस् - तै.सं. २.२.९.४ चक्षुषी वा एते यज्ञस्य यद् आज्यभागौ यद् आज्यभागौ यजति चक्षुषी एव तद् यज्ञस्य प्रति दधाति पूर्वार्धे जुहोति तस्मात् पूर्वार्धे चक्षुषी प्रबाहुग् जुहोति तस्मात् प्रबाहुक् चक्षुषी देवलोकं वा अग्निना यजमानो ऽनु पश्यति पितृलोकम्̇ सोमेन । उत्तरार्धे ऽग्नये जुहोति दक्षिणार्धे सोमाय । - तैसं २.६.२.१ यद् आज्यम् उच्छिष्येत तस्मिन् ब्रह्मौदनम् पचेत् तम् ब्राह्मणाश् चत्वारः प्राश्नीयुः । एष वा अग्निर् वैश्वानरो यद् ब्राह्मणः । - तैसं ५.७.३.४ आज्यम् इत्य् उक्थं तद् वै ग्रहाणां निदानम् । - तैसं ६.५.११.२ *त्वष्टेध्मेन । विष्णुर्यज्ञेन । वस॑व॒ आज्ये॑न(सहागच्छन्तु)। - तै.आ. ३.८.२ *प्रजापतिर्द्देवेभ्य आत्मानं यज्ञं कृत्वा प्रायछत्तेऽन्योन्यस्मा अग्राय नातिष्ठन्त तानब्रवीदाजिमस्मिन्नितेति त आजिमायन्यदाजिमाय ँ स्तदाज्यानामाज्यत्वं। स इन्द्रोऽवेदग्निर्वा इदमग्र उज्जेष्यतीति सोऽब्रवीद्यतरोनाविदमग्र उज्जयात्तन्नौ सहेति सोऽग्निरग्र उदजयदथ मित्रावरुणौ अथेन्द्रो ऽथैषैकाहोत्रानुज्जितासीत्स इन्द्रोऽग्निमब्रवीद् यत्सहावोचावहीयन्नौ तदिति सैषैन्द्राग्न्यध्यर्द्धमग्नेस्तोत्रम् अध्यर्द्धमिन्द्रस्य। चत्वारि सन्ति षट् देवत्यानि। - - -सर्व्वाणि स्वाराण्याज्यानि तज्जामि नानादेवत्यैः स्तुवन्त्यजामितायै। ग्राम्येभ्यो वा एतत् पशुभ्यः स्तुवन्ति यदाज्यैः पुनरभ्यावर्तं स्तुवन्ति तस्मात् पराञ्चः प्राज्यन्ते प्रत्यञ्चः प्रजायन्ते- ताण्ड्य ब्राह्मण ७.२.१ तस्यैताः पुरोडाशिनीर् उपसदो भवन्ति। योनिर् वै पुरोडाशो रेत आज्यम्। तद् यत् पुरोडाशं हुत्वाज्येनाभिजुहोति, योन्याम् एव तद् रेतः प्रतिष्ठापयन्ति। - जै.ब्रा. २.२८७ *अद्भिराज्यमाज्येनापः सम्यक् पुनीत सवितुः पवित्रैः। ता देवीः शक्वरीः शाक्वरेणेमं यज्ञमवत संविदाना इत्याज्यं प्रोक्षणीश्चोत्पूयमानाः। उभावाज्यग्रहाञ्जपतः ७ – आप.श्रौ.सू. 4.5.6
१आज्य (विलीन-सर्पिस्-) १. अग्नेर्वा एतद्रूपम् । यदाज्यम् ।....वसूनां वा एतद्रूपम् । यत्तण्डुलाः । तै ३, ८, १४, २ । २. अयातयामं ह्येतत् प्राजापत्यं यदाज्यमयातयामो देवानां प्रजापतिः - काठ ३०, १; क ४६, ४, ४७, ९। ३. अयातयाम ह्याज्यम् । माश १, ५, ३, २५ । ४. अस्कन्नमद्य देवेभ्य आज्यं सम्भ्रियासमित्यविक्षुब्धमद्य देवेभ्यो यज्ञं तनवा इत्येवैतदाह । माश १, ४,५, १ । ५. आज्यं वै देवानां सुरभि । ऐ १, ३।। ६. आज्यं वै यज्ञः । मै ४, १, १२ । ७. आज्यं ह वाऽ अनयोर्द्यावापृथिव्योः प्रत्यक्षं रसः । माश २, ४, ३, १० । ८. अस्थीनिध्मः। आज्यं मज्जा। मुखमग्निः। अन्नमाहुतिः। वयः संस्था।। माश १२, ९, १, ११। ९. आज्येन वै वज्रेण देवा वृत्रमघ्नन् । काठ २४, ९; २९, १; क ३८, २, ४५,२ । १०. आज्येन संयौति ....प्रियेणैवैनं धाम्ना समर्धयत्यथो तेजसा । वैकंकतीम् आ दधाति भा एवाव रुन्द्धे - तैसं ५, १, ९, ५। ११. आत्मा ऽऽज्यम् (यज्ञस्य )। मै ४, १, १४ । १२. ईश्वरो वा एषो ऽन्धो भवितोः । यच्चक्षुषाज्यमवेक्षते निमील्यावेक्षेत। दाधारात्मन्चक्षुः । तैब्रा ३, ३, ५,२ । १३. यदाज्यमुच्छिष्यते । तेन समिधोऽभ्यज्यादधाति । ......अस्थि वा एतत् । यत्समिधः । एतद्रेतः । यदाज्यम् । तै १, १, ९, ४ । १४. एतद्वै जुष्टं देवानां यदाज्यम् .... तस्मादुभयत आज्यं भवति । माश १, ७, २, १०। १५. एतद्वै मधु दैव्यं यदाज्यम् । ऐ २, २ । १६. एतद्वै संवत्सरस्य स्वं पयः यदाज्यम् । माश १, ५, ३, ५। १७. प्रजापतिर् देवेभ्यो यज्ञान् व्यादिशत् स आत्मन्न् आज्यम् अधत्त तं देवा अब्रुवन्न् एष वाव यज्ञो यदाज्यम् । तैसं २, ६, ३, १। १८. एषा हि विश्वेषां देवानां तनूः । यदाज्यम् । तत्रोभयोर्मीमाँसा । जामिः स्यात् । यद्यजुषाज्यं यजुषाप उत्पुनीयात् । छन्दसाप उत्पुनात्यजामित्वाय । तै ३, ३,४, ६ । १९. कस्मात्सत्याद् यातयामान्यन्यानि हवींष्ययातयाममाज्यम् ? प्राजापत्यम् ( आज्यम् ) इति ब्रूयात् । तैसं २, ६, ३, १-२ । २०. काम आज्यम् । तै ३, १, ४, १५, ५,१५; तैआ १०,६४, १। २१. चित्तमाज्यम् । मै १, ९, १; तैआ ३, १, १ । २२. छन्दांसि वा आज्यम् । तै ३, ३, ५, ३ । २३. त (ऋषयः ) एतैर् ( 'यद्देवा देवहेडनम्' इत्याभिः सूक्तैः ) आज्यमजुहवुस्तेऽरेपसो ऽभवन् । काठसंक ९०,३। २४. तदाहुः। किन्देवत्यान्याज्यानीति प्राजापत्यानीति ह ब्रूयादनिरुक्तो वै प्रजापतिर निरुक्तान्याज्यानि ।... यजमानो ह्येव स्वे यज्ञे प्रजापति- माश १, ६, १,२० । २५. तेज (जो वा तैसं., तां.) आज्यम् । तैसं २, ६, १, २, तां १२,१०,१८; तै १, ६,३,४; २,१,५,५, ७, १,४; ३, ३, ४, ३; ९, ३ । २६. त्रैष्टुभमयनं भवत्योजस्कामस्याथकारणिधनमाज्येनामुष्मिँल्लोक उपतिष्ठते । तां १३,४,१० । २७. उपांशु घृतस्य यजति । रेतः सिक्तिर् वै घृतम् । उपांशु वै रेतः सिच्यते । अथ यद् उच्चैः सौम्यस्य यजति । चन्द्रमा वै सोमः । निरुक्त उ वै चन्द्रमाः ।.....देवलोको वा आज्यम् । पितृ लोकः सोमः । देव लोकम् एव तत् पितृ लोकाद् अभ्युत्क्रामन्ति - कौ १६,५। २८. पशव (प्राजापत्यम् ! मै.J) आज्यम् । मै ४, ८, ९; तै १, ६, ३, ४ । आज्येन जुहोति । वज्रो वा आज्यम् ।….आज्यस्य प्रतिपदं करोति । प्राणो वा आज्यम् । मुखत एवास्य प्राणं दधाति ।…..आज्येनान्नततो जुहोति। प्राणो वा आज्यम् । उभयत एवास्य प्राणं दधाति । पुरस्ताच्चोपरिष्टाच्च । तै ३.८.१५.२ आज्येन जुहोति । मेधो वा आज्यम् । मेधोऽश्वस्तोमीयम् । तै ३.९.१२.१ २९. प्राणो (मेधो तै ३, ९, १२, १]) वा आज्यम् । तै ३, ८, १५, २-३, ९,१२,१ । ३०. वसवस्त्वाञ्जन्तु गायत्रेण छन्दसेति महिष्यभ्यनक्ति । तेजो वा आज्यम् । तेजो गायत्री ।तेजसैवास्मै तेजोऽवरुन्धे । रुद्रास्त्वाञ्जन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसेति वावाता । तेजो वा आज्यम् । इन्द्रियं त्रिष्टुप् । तेजसैवास्मा इन्द्रियमवरुन्धे । आदित्यास्त्वाञ्जन्तु जागतेन छन्दसेति परिवृक्ती । तेजो वा आज्यम् । पशवो जगती । तेजसैवास्मै पशूनवरुन्धे । । तै ३, ९, ४, ६ । ३१. य आज्यं (अत्ति ) मज्जानं सः ….यः पुरोडाशं मस्तिष्कँ स । काठ ३४, ११। ३२. यजमानो ( यज्ञो [तै ३, ३, ४, १) वा आज्यम् । तै ३,३, ४,१;४ । ३३. यदजोऽविन्दत् तदाज्यस्याज्यत्वं स घृङ्ङकरोत् तद् घृतस्य घृतत्वं तस्मादजो घृङ्करिक्रञ्चरति । काठ २४, ७; क ३७, ८ ।। ३४. रस (व्रज तैसं.) आज्यम् । तैसं २,६,२,४, माश ३, ७, १,१३ । ३५. रेत आज्यम् । माश १, ३, १, १८, ५,३,१६; तै ३, ८, २, ३ । ३६. रेतो वा आज्यम् । काठसंक १५:१०; माश १, ९, २, ७, ३, ६,४,१५, ६,३,३,१८ । ३७. वज्रो वा (हि माश १, ३, २, १७]) आज्यम् । तैसं ५, २, ५, ४ कौ १३, ७; तै ३, ८, १५, १; माश १,३,२,१७, ४,४, ४ ५, ३, ४, ३, ३, १, ३, ४, ३, ११ । ३८. वसन्तो अस्य (ऽस्य काठसंक.]) आसीदाज्यम् । काठसंक १००: १२; तैआ ३,१२, ३ । ३९. वसव आज्येन (सहागच्छन्तु )। तैआ ३, ८, २ । ४०. स (प्रजापतिः) आत्मन्नाज्यमधत्त । तैसं २, ६, ३, १।। ४१. सत्यमाज्यम् (+सत्येन हीमे लोका आजित्याः [काश.)। काश ३, १, ४, २, माश ११, ३,१,१॥ घर्मो वा एष प्रवृज्यते यदग्निहोत्रं यदप्रतिषिक्तं न जुहोति ब्रह्मवर्चसी भवति यदि पयो न विन्देदाज्येन जुहुयात् तद्ध्यप्रतिषेक्यमपशव्यमीश्वरमस्याशान्तँ शुचा पशून्निर्दहः – काठ ६.३ कामाभिदुग्धोऽस्म्यभिदुग्धोऽस्मि काम कामाय स्वाहेत्यमृतं वा आज्यममृतमेवाऽऽत्मन्धत्ते - इति । तैआ २.१८.२ [ज्य- अमृत- ५,३० द्र.]। आज्य-दोह- ज्येष्ठसामानि वा एतानि (आज्यदोहानि) श्रेष्ठसामानि प्रजापतिसामानि । तां २१,२,३। आज्य-धानी १, दिश आज्यधानी । मै ४, १, ११; काठ ३१, १३ । २. ये यजामह इत्याज्यधानीम् (युनक्ति )। मै ४, १, ११; काठ ३१, १३ । आज्य-प- प्रयाजानुयाजा वै देवा आज्यपाः । काठ ३२, १; माश १, ५,३,२३, ९,१,१०। आज्य-भाग २५७ अनया रीत्या अवदाय गृहीत्वा अत्याक्रम्य दक्षिणाभिमुख्या स्रुचा आहवनीयस्यैशानभागे आग्नेयमाज्यभागं हुत्वा उदङ्ङुत्याक्रम्य पूर्ववदवदाय गृहीत्वा अत्याक्रम्य उदङ्मुख्या स्रुचा आग्नेयदेशे सौम्यमाज्यभागं जुहोति तत्र आज्यं भागो ययोरिति व्युत्पत्त्या तद्देवते अग्नीषोमौ आज्यभागपदार्थौ । - श्रौतपदार्थनिर्वचनम् पृ. ३१ १. चक्षुर्वा (प्राणापानौ वा [काठ.)) आज्यभागौ । काठ २९,३; कौ ३, ५। २. चक्षुषी वा एते यज्ञस्य यदाज्यभागौ । तैसं २, ६, २, १; मै १, ७, ४; काठ ९,२; क ८, ५; माश १, ६, ३, ३८, ११, ७, ४, २, १४, २,२,५२ । ३. वज्र (द्वा ।मै.) आज्यभागौ । तैसं २, ६, २, ४, मै १,१०,८।। ४. वायव्य आज्यभागः । तैसं ७,५,२१,१; तै ३,९,१७, ४, ५ ॥ ता (अग्नीषोमा) अब्रुवतां वार्यं वृणावहा आवामेवाग्र आज्यभागौ यजानिति तस्मादग्नीषोमा एवाग्र आज्यभागौ यजन्ति - काठ ८.१० तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्निर्वपन्ति तत्पुरस्तादाज्यभागावग्नीषोमाभ्यां यजन्ति - माश १.६.३.१९ ऋचम् अनूच्याज्यभागस्य जुषाणेन यजति तेनान्यतोदतो दाधार । ऋचम् अनूच्य हविष ऋचा यजति तेनोभयतोदतो दाधार – तैसं २.६.२.२ आज्याहुति- तत एषा केवली यत्सोमाहुतिरथैषाज्याहुतिर्यद्धविर्यज्ञो यत्पशुः (पशुयज्ञः) .... तस्मादुभयत आज्यं भवति । माश १, ७, २, १० । २आज्य (उक्थ-, शस्त्र-, स्तोत्र-) १. अदितिरपश्च बर्हिश्चादित्या आज्यैः । मै १, ९,२ । २. आज्येन वै देवाः सर्वान् कामानजयन्सर्वममृतत्वम् । कौ १४,१। ३. आत्मा वै यजमानस्याज्यम् । प्राणाः प्रउगम् । तद् यद् आज्यम् शस्त्वा प्रउगम् शंसति । तथा ह यजमानः सर्वम् आयुर् अस्मिंल् लोक एत्य आप्नोत्य् अमृतत्वम् - कौ १४,४ । ४. आदित्या आज्यैः (उदक्रामन् )। काठ ९,१० । ५. किंदेवत्यान्याज्यानीति प्राजापत्यानीति ह ब्रूयादनिरुक्तो वै प्रजापतिरनिरुक्तान्याज्यानि । माश १,६,१, २० । ६. चतुर्होतारं व्याख्यायाऽऽज्यैरुद्गायेत् । काठ ९,१४ । ७. त आजिमायन् ( देवाः) यदाजिमायंस्तदाज्यानामाज्यत्वम् । तां ७,२,१ । ८. इमम् एव लोकम् आग्नेयेनाजयन्न् अन्तरिक्षं मैत्रावरुणेनामुम् ऐन्द्रेण दिश एवैन्द्राग्नेन। तद्यद् (देवाः) इमाँल्लोकान् (आज्यैः) आजयंस्तदाज्यानामाज्यत्वम् । जै १, १०५ । ९. तद्वा इदं षड्विधमाज्यं तूष्णींजपस्तूष्णींशंसः पुरोरुक्सूक्तमुक्थवीर्य्यं याज्येति । …..एतेन वै देवाः षड्विधेन आज्येन षड् ऋतुम् संवत्सरम् आप्नुवन् षड्विधम् । कौ १४,१। १०. ते वा एते पशव एव यदाज्यानि (स्तोत्राणि)। जै १,१०६ तद् आहुर् यद् आज्यानि सर्वाणि समाननिधनानि केनाजामि क्रियन्त इति। नानादेवत्यानीति ब्रूयात् तेनाजामीति – जै १.१०६ ११. ते वै प्रातराज्यैरेवाजयंत आयन् यदाज्यैरेवाजयंत आयंस्तदाज्यानामाज्यत्वम् । ऐ २, ३६ । १२. यद् (देवाः) अब्रुवन्नाजिमेषामयामेति तदेषां (आज्यानाम् ) द्वितीयमाज्यत्वम् । जै १,१०५ । १३. राज्ञ्यसि, प्राची दिग्, वसवस्ते देवा अधिपतयो ऽग्निर्हेतीनां प्रतिधर्ता, त्रिवृत्त्वा स्तोमः पृथिव्यां श्रयत्वाज्यमुक्थमव्यथायै (°थाय [काठ.)) स्तभ्नातु (स्तभ्नोतु [मै.]) रथन्तरं साम । मै २,८,९; काठ १७,८; क २६,७॥ १४. वागेवाज्यम् । कौ २८,९ । १५. सर्वाणि स्वाराण्याज्यानि तज्जामि नानादेवत्यैः स्तुवन्त्यजामितायै। तां ७, २,५॥ अनुष्टुबायतनानि ह्याज्यानि- ऐआ १.१.२
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