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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

Home Page

Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

आदित्य

टिप्पणी आदित्य अदिति के पुत्र हैं । यह आदान का काम करते हैं विषयों का आदान करने वाले प्राण । ये आदान करके सबको विज्ञानमय कोश में डालते रहते हैं । वेद में सात या आठ आदित्य वर्णित हैं जबकि पुराणों में १२ हैं । वेद में आदित्य शब्द के कुछ सूक्ष्म भेद हैं । पहले बाहर से कान, नाक, आंख आदि से शक्ति का आदान करने वाले प्राण आदित्यासः कहे जाते हैं । चित्तवृत्तियों का निरोध करने पर, चित्त को अन्दर की तरफ ले जाने पर आदित्यासः आदित्याः हो जाते हैं । फिर यह आदान अन्दर करते हैं । अन्त में केवल एक आदित्य रह जाता है । - फतहसिंह

        डा. फतहसिंह ने आदित्यों के सम्बन्ध में जो सुझाव दिया है, उसकी पुष्टि पुराणों के इस कथन से होती है कि चाक्षुष मन्वन्तर के तुषित देव वैवस्वत मन्वन्तर में १२ आदित्य बने । प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, चक्षु, श्रोत्र, रस, घ्राण, स्पर्श, बुद्धि और मन यह १२ तुषित देव हैं ( ब्रह्माण्ड पुराण २.३.३.२०)। वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आदित्य शब्द की निरुक्ति आदान करने वाले के रूप में की गई है ( जैसे शतपथ ब्राह्मण ११.६.३.८)। यह भूतों से किस किस गुण का आदान करते हैं, इसका विस्तार जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ तथा ३.३५८ में किया गया है जैसे नक्षत्रों से क्षत्र का, अन्तरिक्ष से आत्मा का, वायु से रूप का, मनुष्यों से आज्ञा का, पशुओं से चक्ष का, आपः से ऊर्जा का, ओषधियों से रस का इत्यादि ।

        आदित्यों का जन्म अदिति द्वारा ब्रह्मौदन उच्छिष्ट भाग के भक्षण से होता है (तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.९.१ इत्यादि)। ओदन उदान प्राण का रूप है । अतः उदान प्राण के सूक्ष्म भाग के विकास से आदित्यों का जन्म होता है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.६ में कूर्म को आदित्य कहा गया है। कूर्म भी उदान प्राण का एक रूप है । पुराणों में हारीत पुत्र कमठ बालक के समक्ष आदित्य के प्राकट्य का वर्णन किया गया है । कमठ का अर्थ भी कूर्म होता है । अथर्ववेद १८.४.८ में उल्लेख है कि आदित्यों का अयन गार्हपत्य अग्नि है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.२.२१ के अनुसार गार्हपत्य अग्नि उदान प्राण है । लेकिन यहां आहवनीय अग्नि को आदित्य कहा गया है । ऐसा संभव है कि गार्हपत्य अग्नि के स्तर पर जो आदित्य समूह में थे, आहवनीय अग्नि के स्तर पर वह केवल एक आदित्य रह जाए । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.६.३ में शुचि अग्नि को आदित्य कहा गया है ।

        आदित्य अग्नि का ही एक रूप है। शतपथ ब्राह्मण १०.६.२.११ के अनुसार प्राण द्वारा अग्नि का दीपन होता है, अग्नि से वायु का, वायु से आदित्य का, आदित्य से चन्द्रमा का, चन्द्रमा से नक्षत्रों का और नक्षत्रों से विद्युत का । ऐतरेय ब्राह्मण ८.२८ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.१.११ में यह वर्णन थोड अन्तर से मिलता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.६.२ इत्यादि में उल्लख है कि रात्रि में जो अग्नि दूर से ही दिखाई देती है, उसकी किरण भी उसमें स्थित आदित्य के कारण ही है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर ऐसी कल्पना की जा सकती है कि प्रकाश उत्पन्न होने से पूर्व की अवस्था, जिसे अवरक्त भाग कहते हैं, अग्नि की अवस्था है। साधना में प्रकाश के उत्पन्न होने के पश्चात् संवत्सर के १२ मासों के रूप में १२ उषाओं का उदय होने लगता है । शतपथ ब्राह्मण ११.६.३.८ के अनुसार संवत्सर के १२ मास ही आदित्य हैं । यह उल्लेखनीय है कि वैश्वानर अग्नि को भी संवत्सर का रूप कहा गया है(शतपथ ब्राह्मण ५.२.५.१५ इत्यादि)। वैश्वानर अग्नि और आदित्यों, दोनों का यज्ञ में स्थान तृतीय सवन में होता है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.३४ में उल्लेख है कि अग्नि में केवल वैश्वानर अग्नि रूप ही ऐसा है जिससे आदित्य का उदय हो सकता है । अथर्ववेद १३.१ से आरम्भ करके कुछ सूक्त रोहित आदित्य देवता के हैं। रोहित अर्थात् बीजावस्था का रोहण, क्रमशः उदय। अग्नि और आदित्य दोनों को ही रोहित कहा जाता है (शतपथ ब्राह्मण १४.२.१.२)। इनसे यजमान स्वर्ग को रोहण करता है । ऐसा प्रतीत होता है कि साधना की पहली अवस्था में आदित्य उदित होकर रोहण करता है और दूसरी अवस्था में यह आकाश में परिक्रमा करता है (शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.३६)। भौतिक रूप में तो आदित्य का उदय पूर्व में होकर पश्चिम में अस्त होता है । लेकिन साधना में यह चारों दिशाओं में उदित और अस्त होता है । यह इसकी प्रदक्षिणा है। छान्दोग्य उपनिषद ३.६.१ में इन अवस्थाओं का वर्णन है। यह उदय अस्त अवस्थाएं साधारण नहीं हैं। छान्दोग्य उपनिषद ३.१.१ तथा ३.६.१ इत्यादि के अनुसार यह आदित्य की मधुमती अवस्थाएं हैं । इनसे वेदों का जन्म होता है , इस अमृत के दर्शन मात्र से देवगण तृप्ति को प्राप्त होते हैं। जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.८.१.६ के अनुसार आदित्य का उदय अमृत से ही होता है और वह अमृत में ही संचरण करता है । ऋग्वेद १०.६३.३ तथा अथर्ववेद ९.१.४ के अनुसार आदित्यों की माता अदिति स्वयं मधुविद्या है और यह अपने पुत्रों को मधु रूपी दुग्ध का ही पान कराती है । पुराणों में मधुरादित्य का माहात्म्य इस दृष्टिकोण से विचारणीय है ।

        छान्दोग्य उपनिषद ३.११.१ में आदित्यों की प्रदक्षिणा अवस्था के पश्चात् एक और अवस्था का उल्लेख है जब यह ऊर्ध्व दिशा में उदित होकर फिर न तो उदित होता है, न अस्त होता है, मध्य में ही स्थित रहता है। इस अवस्था का नाम श्लोक है । यह विचारणीय है कि क्या आदित्य की इसी अवस्था को विवस्वान कहते हैं?

        वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आदित्य को चक्षु से सम्बद्ध किया गया है। प्रश्नोपनिषद ३.८ में आदित्य को बाह्य प्राण कहा गया है जो चाक्षुष प्राण को ग्रहण करके उदित होता है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.२७ के अनुसार आदित्य देवों और मनुष्यों, दोनों का चक्षु है । शतपथ ८.१.२.१ के अनुसार आदित्य स्वयं में विश्वव्यचा है, अन्दर की ओर दर्शन करता है । लेकिन चक्षुओं में स्थित होने पर यह बाहर की ओर, जिसे सर्व कहते हैं, दर्शन करने वाला हो जाता है । वर्षा(आनन्द की ?) को चाक्षुष्य कहा गया है । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में दक्षिण चक्षु को आदित्य तथा सव्य चक्षु को चन्द्रमा का रूप कहा गया है (उदाहरण के लिए अथर्ववेद १५.१८.२)। अथर्ववेद ८.२.१५ में सूर्य और चन्द्रमा को आदित्यद्वय कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण १२.८.२.३६ के अनुसार चन्द्रमा प्रत्यक्ष रूप में आदित्य यजमान है । प्रश्नोपनिषद १.५ में आदित्य को प्राण और चन्द्रमा को परम अन्न कहा गया है जिसका भक्षण आदित्य करता है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.३.७ तथा जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.९.१.४ के अनुसार चक्षु आदित्य है जबकि मन चन्द्रमा है । बृहदारण्यक उपनिषद १.५.१२ के अनुसार आदित्य मन की ज्योति का रूप है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.८.३.२ के अनुसार चक्षु में पुरुष की प्रतिष्ठा है, आदित्य में अति पुरुष की और विद्युत में परमपुरुष की। चक्षु में स्थित पुरुष का नाम अनुरूप, आदित्य में प्रतिरूप और विद्युत में सर्वरूप है। यह विचारणीय है कि पौराणिक साहित्य में चाक्षुष मन्वन्तर के तुषित देवगण का वैवस्वत मन्वन्तर में आदित्य गण के रूप में जन्म होने के उल्लेख का उपरोक्त वर्णन से कितना तादात्म्य है ।

        ऋग्वेद १.४१.५ तथा ८.२७.६ में आदित्यों के लिए नर विशेषण का प्रयोग हुआ है । अथर्ववेद १३.२.१ में आदित्य के लिए नृचक्षा अर्थात् नृ प्राणों के दर्शन करने वाले विशेषण का प्रयोग हुआ है । नर प्राण दिव्य प्राण होते हैं । शतपथ ब्राह्मण ९.३.१.३ में वर्णन है कि वैश्वानर शब्द के संदर्भ में यह पृथिवी विश्व है जिसमें अग्नि नर है । अन्तरिक्ष विश्व है जिसमें वायु नर है। द्यौ विश्व है जिसमें आदित्य नर है । शिर ही द्यौ है जिसमें केश नक्षत्रों का रूप हैं । उस द्यौ रूपी विश्व में चक्षु रूपी आदित्य नर स्थित है । जिस प्रकार भौतिक जगत में आदित्य द्यौ से नीचे स्थित रहता है, उसी प्रकार चक्षु शिर में नीचे स्थित हैं । पुराणों में अर्जुन द्वारा नरादित्य की स्थापना का वर्णन आता है । अथर्ववेद १३.३.२६ में अर्जुन कृष्णा रात्रि के वत्स के रूप में जन्म लेता है जो द्यौ में आरोहण करता है । यही स्थिति आदित्य की भी होती है । भविष्य पुराण ४.५८.४१ में पर्जन्य वृष्टि से अर्जुन होने का उल्लेख है(स एव वृष्ट्यां पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् ।।) । इससे निष्कर्ष निकलता है कि नर आदित्य की स्थापना अर्जुन बन कर ही की जा सकती है। पुराणों में नरादित्य के साथ साथ केशवादित्य का भी वर्णन आता है । केश वपन करने वाले को केशव कहा जाता है और इस संदर्भ में अथर्ववेद ६.६८.१ का क्षुरिका सूक्त विचारणीय है ।

        साम्ब द्वारा कुष्ठ प्राप्ति व आदित्य आराधना से कुष्ठ से मुक्ति की कथा का स्रोत अथर्ववेद १९.३९.५ का मन्त्र है । इस मन्त्र के अनुसार तीन शाम्बों, अंगिराओं, तीन आदित्यों और तीन बार विश्वेदेवों से उत्पन्न होने पर कुष्ठ विश्वभेषज बन जाता है । साम्ब, शम्भु, शाम्भवी और शम्ब, इन शब्दों का मूल एक ही है । कण्ठ से लेकर मूर्द्धा तक का स्थान शाम्भव स्थान कहा जाता है । मण्डल ब्राह्मणोपनिषद २.५ व अद्वयतारकोपनिषद में शाम्भवी मुद्रा का विस्तृत वर्णन किया गया है । तालुमूल के ऊर्ध्वभाग में महाज्योति होती है जिसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियां प्राप्त होती हैं । निमेष उन्मेष से रहित अवस्था शाम्भवी मुद्रा कहलाती है। पहले अग्निमण्डल, उसके ऊपर सूर्यमण्डल, उसके बीच में सुधाचन्द्र मण्डल, उसके बीच में अखण्ड ब्रह्मतेजोमण्डल होता है । यही शाम्भवी लक्षण है ।

        साम्ब द्वारा नारद को जरा प्राप्ति का शाप व नारद द्वारा नारदादित्य की स्थापना के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.९.१, २.१४.१ तथा २.२०.१ इत्यादि में आदित्य व चन्द्रमा की उदय के पूर्व व पश्चात् की स्थितियों का साम भक्ति के हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ व प्रतिहार आदि से सम्बन्ध उल्लेखनीय है । ब्राह्मण ग्रन्थों जैसे शतपथ ब्राह्मण १३.३.३.३, १३.४.४.१ व १३.५.१.५ में बार बार आदित्य का एकविंश स्तर निर्धारित किया गया है और उसकी व्याख्या के रूप में भक्ति की हिंकार, प्रस्ताव आदि अवस्थाओं के शब्दों को गिनकर २१ कहा गया है। अन्यत्र(उदाहरण के लिए, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.५.१.१ आदि) १२ मासों, ६ ऋतुओं आदि को मिलाकर २० कहा गया है । इनसे परे २१वां आदित्य है। इस संदर्भ में पुराणों में आदित्य के २१ नामों की प्रासंगिकता विचारणीय है ।

        पुराणों में कृष्ण की १६ सहस्र गोपियों द्वारा स्थापित गोप्यादित्य के संदर्भ में आदित्य को ओंकार का रूप कहा गया है( ऐतरेय ब्राह्मण ५.३२ इत्यादि) और गोपियां ओंकार की १६ कलाएं हैं। अथर्वशिखोपनिषद में ओंकार की अ, उ व म मात्राओं में तृतीय मकार को आदित्य से सम्बद्ध किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.१.१० में १५ को वज्र कहा गया है जिसे षोडशी आदित्य ग्रहण करके असुरों का नाश करता है।

        अगस्त्य द्वारा राम को आदित्य हृदय स्तोत्र प्रदान करने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.४० में आदित्य को हृदय की संज्ञा दी गई है । निहितार्थ अन्वेषणीय है । मैत्रायणी उपनिषद ६.१७, ७.१७ तथा ६.३४ इत्यादि के अनुसार अग्नि में जो पुरुष प्रतिष्ठित है, जो हृदय में है तथा जो आदित्य में है, वह यह एक ही है ।

        अङ्गिरसों द्वारा आदित्यों से स्वर्ग में जाने की प्रतिस्पर्द्धा का उल्लेख अंगिरसों की टिप्पणी में किया जा चुका है । आदित्य एक दिन के सत्र द्वारा स्वर्ग पहुंचना चाहते हैं, जबकि अंगिरस २ दिन के सत्र द्वारा। साधना में पहला दिन आत्मा के अनुदिश यज्ञ का प्रतीक है, जबकि दूसरा दिन प्रजा के अनुदिश। इसके अतिरिक्त, जैमिनीय ब्राह्मण २.३६६ में उल्लेख है कि आदित्य की उत्तराभिमुखी रश्मियां आदित्य हैं, जबकि दक्षिणाभिमुख रश्मियां अंगिरस। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.२१.१ के अनुसार अंगिरसों ने आदित्यों को दक्षिणा रूप में आदित्य रूपी श्वेत अश्व प्रदान किया । चूंकि इस अश्व ने असुरों से लोकों को छीन लिया या आदान कर लिया, अतः उसे आदित्य कहा जाता है।

        आदित्य व सूर्य शब्द कुछ वैदिक मन्त्रों में एक साथ आए हैं और इनका अन्तर अथर्ववेद ६.५२.१, ८.२.१५, १०.८.१६, १३.२.२, १३.२.२९, १४.१.१, १७.१.२५, ऋग्वेद १.१९१.९, ७.६०.४, शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.३७ आदि के आधार पर समझने की आवश्यकता है ।

        शतपथ ब्राह्मण ४.५.१.१, ५.३.१.४, ६.६.१.८ तथा १०.३.५.३ आदि में उदयनीय आदित्य के लिए चरु की हवि देने का उल्लेख है। कहा गया है कि जब आदित्य उदित होता है तब सर्व को चरता है । एक ओर वैश्वानर अग्नि है जो द्यौ में शिर की भांति स्थित है। वैश्वानर के लिए पुरोडाश की, जो एकदेवत्य है, हवि दी जाती है । दूसरी ओर आदित्य आत्मा का रूप है जिसके लिए चरु की हवि का विधान है । आत्मा बहुत से अंगों से युक्त है। इसी का प्रतीक तण्डुलों से युक्त चरु को भी कहा गया है। इस प्रकार शिर को आत्मा में धारण करते हैं ? वैश्वानर क्षत्र है तो आदित्य उसकी प्रजाएं। यह उल्लेखनीय है कि उदित होते समय आदित्य का नाम मित्र. चरण करते समय सविता, मध्याह्न के समय इन्द्र और अस्त होते समय वरुण होता है (अथर्ववेद १३.३.१३)। १२ आदित्यों में से कुछ के लिए पुरोडाश की हवियों का भी उल्लेख है। इस संदर्भ में यह विचारणीय है कि अरुण जो उदित होते हुए आदित्य का रूप हो सकता है, को अनूरु अर्थात् पाद रहित क्यों का गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.२३.२ आदि में अश्वमेधीय अश्व को आदित्य कहा गया है। जहां अश्व विवर्तन करता है(पद रखता है?) वहीं वहीं आहुति दी जाती है । कहा गया है कि दर्शपूर्ण मास अश्व के पद हैं ।

        शतपथ ब्राह्मण ६.२.३.६, ८.७.१.९, ८.७.२.१ तथा ८.७.३.११ आदि में अग्निचयन के अन्तर्गत पांच चितियों के मध्य में स्थापित की जाने वाली स्वयमातृण्णा ( स्वाभाविक रूप में छिद्र युक्त) इष्टिका को प्राण का रूप तथा लोकम्पृणा इष्टिका को आदित्य का रूप कहा गया है । इस प्रकार प्राण का आदित्य द्वारा समिन्धन करते हैं । शतपथ ब्राह्मण ८.७.१.९ के अनुसार द्यौ उत्तमा स्वयमातृण्णा है तो आदित्य उत्तमा विश्वज्योति है ।

 

 

 

(ख ) आदित्य और मनु-यज्ञ—

अदिति आदित्यों को जन्म देती है। वे सारे जगत् को धारण करते हैं; वे समस्त भुवन (विश्वस्य भुवनस्य ) के रक्षा करने वाले देव हैं। । आदित्यों की सारी शक्ति का कारण ऋत है और उसी से ये सारी सृष्टि धारण करते हैं । उनमें दिव्य ज्योति है। और उनके अन्तर्गत मित्र, वरुण, अर्यमा, भग, दक्ष, अंश आदि सभी देवता आते हैं; अतः प्रत्येक देव और विश्वेदेवा को भी आदित्य कहा जा सकता है । इसलिये आदित्यों की संख्या निश्चित करना व्यर्थ है; प्रमुख आदित्य अवश्य विभिन्न दृष्टिकोणों से सात, आठ अथवा बारह हो सकते हैं ।

मनु-यज्ञ भी आदित्यों के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। मनु ने आदित्यों के लिये मनु या सप्त होताओं के द्वारा प्रथम यज्ञ किया। ये 'मनुप्रीतासः' आदित्य अदिति के 'अपः' से उत्पन्न हुए थे । बर्गे का यह कहना बिल्कुल ठीक है कि वैदिक यज्ञ के वर्णन में भौतिक जगत  की शक्तियों के व्यापार का रूपक मिलता है । ऋ-वे. १०, १३० से पता लगता है कि एक ही यज्ञ अनेक तन्तुओं द्वारा विश्व में फैला हुआ है; सैंकड़ों देव-कर्मों द्वारा विस्तृत किया गया है। इसका सन्तान करने वाला तथा अन्त करने वाला 'पुरुष' है, जो 'नाक' (स्वर्ग) से इसका सन्तान ( फैलाव ) करता है । यह यज्ञ ऐसा था जिसमें देवों ने देव का यजन किया और उससे अग्नि, सविता, सोम आदि देवताओं की शक्तियां उत्पन्न हुई - सारे देवता जगत् में प्रविष्ट हो गये जिससे ऋषि, पितर और मनुष्य हुए। निस्सन्देह यह प्रथम यज्ञ पुरुष-सूक्त के यज्ञ के समान है, जहां देवलोग पुरुष का यजन करके : नानारूपात्मक सृष्टि करते हैं। इसकी तुलना उस यज्ञ से भी की जा सकती है जिसको द्यावापृथिवी आदि जैसे देवों के जनक या सृष्टिकर्ता धारण करते हुए या सृजन  करते हुए कहे जाते हैं।  जैसे इस मनु--यज्ञ के विस्तार से सृष्टि होती है, वैसे ही 'मनु-रेतस' के विकसित होने से भी सारे भुवन की सृष्टि होती है । अतः मनु द्यौ मनु का यज्ञ उसी प्रकार एक हैं, जिस प्रकार पुरुष तथा उसका यज्ञ; साथ ही दोनों यज्ञों का परिणाम एक ही जगत् की सृष्टि होने से मनु तथा पुरुष यज्ञ को एक मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । परन्तु, मनु-पुरुष कौन है ? इस विषय में यह बात विचारणीय है कि मनु मन या सात ऋषियों द्वारा यज्ञ करता है और यज्ञ का अर्थ है नानारूपात्मक सृष्टि । पिण्डाण्ड में हम देख चुके हैं कि नानारूपात्मक सृष्टि मनोमय में होती है, जो सब से पहले सप्तशीर्षण्य प्राणों ( दोनों आंख, दो कान, दो नथुने, एक मुख), में, अपनी शक्ति विभक्त करता है। वाक या अदिति की शक्तियाँ ही आदित्य हैं, जिनके लिये 'मनोमय' पुरुष रूपी मनु 'कर्म' रूपी यज्ञ को 'मन' या उक्त सप्त-शीर्षण्य प्राण रूपी ऋषियों द्वारा संपादित करता है। इसी प्रकार के यज्ञ का वर्णन ऋ. वे १०.१२८ में देखा जा सकता है, जहां यज्ञ के विभिन्न अंग पिण्ड में ही कल्पित किये गये हैं और कहा गया है कि इस प्रकार के यज्ञ से मन के विचार सत्य और चित्त प्रबुद्ध होता है । भौतिक जगत में 'मन' का समकक्ष सूर्य है । अतः 'सूर्यमय' पुरुष ही मनु है, जो सूर्य अथवा सूर्य की प्रसिद्ध सप्तरश्मि रूपी यज्ञ करवाता है ।

इस बात का प्रमाण ऋ. वे. १०,७२ में भलीभांति मिलता है, जिसमें लिखा है:-- देवों की सृष्टि के दो युग हैं, पूर्व्य युग तथा उत्तर युग। प्रथम में सलिल या समुद्र की अवस्था है, जिसमें सूर्य गुप्त है। दूसरी भुवनों की अवस्था है, जिसमें अदिति के आठ पुत्र उत्पन्न होते हैं; आठ में से सात पुत्र के द्वारा तो वह देवों के पास जाती है और मार्ताण्ड को दूर फेंक देती है । सात पुत्रों के सहित वह पूर्व्य युग को आती है; प्रज्ञा तथा मृत्यु के लिये वह फिर मार्ताण्ड को लाती है। इस वर्णन. से स्पष्ट पता लगता है कि, ब्रह्माण्ड में जितनी शक्तियां काम कर रही हैं, उन्हीं को 'देव' कहा जाता है. और उनका जन्म और कर्म मूलवाक् या शक्ति द्वारा सूर्य या सूर्य से उत्पन्न: सप्तरश्मियों से होता है, जिनको उपर 'देवों' के पास जाने वाले अदिति-पुत्र कहा गया है । जब 'सूर्य' का मार्ग आदित्यों (७,६०.५) , देवों ( ७,६३,५) या वरुण (१,२४,, १.८७.१) द्वारा बनाया हुश्रा कहा जाता है, तब भी यही बात अभिप्रेत है । अतः ,सूर्य देवों का चक्षु या अनीक (१.११५.१, ७३,३) तथा सारे संसार का आत्मा कहलाता है । 

अब हम आदित्यों के विषय में निम्नलिखित वर्णन पर विचार कर सकते है।  'तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रींरुतद्यून् त्रीणि व्रता विदधे अन्तरेषां।

ऋतेनादित्या महिनो महित्वं तदर्य॑मन् वरुण मित्र चारु । त्रीं रोचना दिव्या धारयन्त हिरण्ययाः शुचयो धारपूता । ।   

पिण्डाण्ड के प्रसंग में हम देख चुके हैं कि हमारे शरीर के भीतर जितनी शक्तियां काम कर रही हैं, उनके भीतर इच्छा, ज्ञान, तथा क्रिया शक्तियां निहित हैं। यही तीन व्रत हैं जो आदित्यों के भीतर स्थित बतलाये गये है। इन शक्तियों के क्रमशः.तीन रूप ऊपर बतलाये गये हैं:

() स्थूल शरीर की शक्तियों में व्याप्त इच्छा ज्ञान, क्रिया।

(२) अन्तःकरण के अंगों में व्याप्त बुद्धि, चित्त, मन ।

(३) विज्ञानमय कोष के अंगों में व्याप्त ऋत, सत्य, तमः।

इन तीन में से यहां प्रथम को तीन 'भूमि,' दूसरे तीन 'द्यु' तथा तीसरे को तीन 'रोचना' कहा गया है । जैसे आध्यात्मिक आदित्यों के ये तीन तत्त्व हैं, जिनके तीन रूप हैं, वैसे ही आधिभौतिक आदित्यों में भी। अतः नीचे आधिभौतिक आदित्यों के उक्त तीन तत्वों का वर्णन किया जाता है।

(ग) अग्नि-पिण्डाण्ड में होने वाली क्रियाओं का विश्लेषण करते हुए, हम देख चुके हैं कि सारी क्रियाओं में तीन तत्त्व हैं, जिनके नाम क्रिया, ज्ञान और इच्छा हैं और जो क्रमशः अग्नि इन्द्र तथा सोम भी कहे जा सकते हैं । वैदिक देवताओं की उत्पत्ति के प्रसंग में हमने देखा कि भौतिक जगत की सारी शक्तियां भी क्रमशः तीन देवताओं में ही विभक्त की गई हैं, जो क्रमशः अग्नि, इन्द्र और चन्द्र (सोम) या अग्नि, वायु और सूर्य, अथवा अग्नि, इन्द्र और सूर्य बतलाये गये हैं । बृहदारण्यक उपनिषदं आदि के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि वायु तथा इन्द्र ( वैकुण्ठ ) एक ही हैं, और पूनाओरियन्टलिस्ट के तीन अंकों में प्रकाशित एक लेख में यह भली प्रकार दिखलाया गया है कि सोम के अन्तर्गत विश्व का सारा प्रकाश आ जाता है । अतः उक्त तीन देवताओं की जो भिन्न-भिन्न सूचियां दी गई हैं, उन सबका अभिप्राय केवल अग्नि, इन्द्र तथा सोम से है। यही जो पिण्डाण्ड में आदित्यों (विभिन्न शक्तियों) के तत्व थे, वही ब्रह्माण्ड के आदित्यों के तत्त्व हैं जैसा कि उक्त ऋग्वैदिक उद्धरण (२,२७,८-९) से प्रकट है। इन तीनों तत्त्वों की तीन अवस्थायें हैं, जिनको भूमि, द्यौ तथा रोचना कहा गया है। अतः तीनों अवस्थाओं में इनका स्वरूप समझना आवश्यक है। - डा. फतहसिंह, वैदिक दर्शन, पृष्ठ १०५-१०८

 

 

 

संदर्भ

आदित्य

यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा ।
प्र वः स धीतये नशत् ॥ऋ. १.४१.

अभि प्रिया मरुतो या वो अश्व्या हव्या मित्र प्रयाथन ।
आ बर्हिरिन्द्रो वरुणस्तुरा नर आदित्यासः सदन्तु नः ॥८.२७.

येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हाः ।
उक्थशुष्मान्वृषभरान्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये ॥१०.६३.

आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि ।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः ॥शौअ ६.६८.

मातादित्यानां दुहिता वसूनां प्राणः प्रजानाममृतस्य नाभिः ।
हिरण्यवर्णा मधुकशा घृताची महान् भर्गश्चरति मर्त्येषु ॥९.१.

उदस्य केतवो दिवि शुक्रा भ्राजन्त ईरते ।
आदित्यस्य नृचक्षसो महिव्रतस्य मीढुषः ॥१३.२.

कृष्णायाः पुत्रो अर्जुनो रात्र्या वत्सोऽजायत ।
स ह द्यामधि रोहति रुहो रुरोह रोहितः ॥१३.३.२६  

अङ्गिरसामयनं पूर्वो अग्निरादित्यानामयनं गार्हपत्यो दक्षिणानामयनं दक्षिणाग्निः । - शौअ १८.४.८

त्रिः शाम्बुभ्यो अङ्गिरेभ्यस्त्रिरादित्येभ्यस्परि ।
त्रिर्जातो विश्वदेवेभ्यः ।
स कुष्ठो विश्वभेषजः साकं सोमेन तिष्ठति । शौअ १९.३९.५

अथ तत ऊर्ध्व उदेत्य नैवोदेता नास्तमेतैकल एव मध्ये स्थाता तदेष श्लोकः ॥ १ ॥
न वै तत्र न निम्लोच नोदियाय कदाचन । देवास्तेनाहसत्येन मा विराधिषि ब्रह्मणेति ॥ छा.उ. ३.११.

आदित्यो ह वै बाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः । - प्रश्नोपनिषत् ३.८

१. अग्निमयो ह वै पुनर्णवो भूत्वा स्वर्गं लोकमेति । आदित्यस्य सायुज्यम् । योऽग्निं नाचिकेतं चिनुते । तै ३,११,१०,४ ।

४. अथ यज्ञायज्ञीयम् । स ह स नाक एव स्तोमः। आदित्य एव सः । एष हि न कस्मै चनाकमुदयति । जै ,३१३ ।।

५. अथ यत्तच्चक्षुरासीत् स आदित्योऽभवत् । जैउ २,,,३।

७. अथात उत्तरपक्षः। सोऽसौ (द्यु-) लोकः सोऽसावादित्यस्तन्मनस्तद् बृहत् स भरद्वाजः । ऐआ १,,२।

९. अथैनं (इन्द्रम् ) प्रतीच्यां दिश्यादित्या देवाः... अभ्यषिञ्चन् ...स्वाराज्याय । ऐ ८,१४ ।

११. अद उ एव बृहद् भुवनेष्वन्तरसावादित्यः । ऐआ २, ,१॥

१२. अदितिर्वै प्रजाकामौदनमपचत्तत उच्छिष्टमाश्नात् सा गर्भमधत्त तत आदित्या अजायन्त । गो १,,१५।

१३. अदो यश (अदस्सत्यम् ) इत्यादित्यम् (उपदिशन्) । जै ,२३

१४. अमुम् (आदित्यम् ) आहुः परं मृत्युं पवमानं तु मध्यमम् । तैआ १,,,

१५. अमुष्मिन्नादित्ये देवानां प्रियास्तन्वः । काठ २७,; क ४२,१।

१७. अयं वा आदित्यः श्रेष्ठो रश्मिः । मै ४.६,६ ।

१८. अयातयामा ह्यसावादित्यः । तैसं ५,,,६-७ ।

१९. ऊर्ध्वो ह्य् अयम् अग्निर् दीप्यते तिर्यङ्ङ् अयं वायुः पवते ऽर्वाङ् असाव् आदित्यस् तपति। त एते ऽनिमेषम् अन्योन्यम् ईक्षन्ते। कथम् एतेष्व् एवं सत्सु देवासुरं स्याद् इति। जै ,२४७

२०. अष्टाचत्वारिंशदक्षरा वै जगती। अष्टाचत्वारिंशद् आदित्या देवाः। ते जगतीम् अन्वायत्ताः। तेभ्यो जगत्य् आदित्येभ्यो देवेभ्य एकैकेनाक्षरेण कामान् निकामान् दुहे। एवम् अस्मै जुह्वते दुहे। जगतीं वै स छन्दसां जयत्य् आदित्यान् देवान् देवानाम्। जै ,३६

२२. असा (असौ वा (तैसं.) आदित्य उद्यन्नुद्ग्राभ एष निम्रोचन् निग्राभः । तैसं ५,,,६-७; काठ २१,८।

२३. असा आदित्य एकविंशः (+ एष सविता [काठसंक.) । मै २, ,; काठसंक ६:४। २४. असा आदित्यः प्राङ् चैति प्रत्यङ् च । काठ २०,४ ।

२५. असा आदित्यः शिरः। मै ४, ,,,१०; काठ ३०, ५।

२६. असा आदित्यः शुक्रश्चन्द्रमा मन्थी। मै ४, , ३।

२७. असा आदित्यः स्रुवः (°त्य इन्द्रः [मै ४,,३])। मै ४, ,११,१२,,; काठ ३१, ५।

२८. असावादित्य एकविंशः (+ एतस्मिन्नेव तत्स्वर्गे लोकेऽन्ततः प्रतितिष्ठन्ति । जै २, ४२५.J)। क ४१,; जै २, ३८६, ४२५ ।

२९. असावादित्य एकविंशो विषुवान् , तस्य दिवाकीर्त्यानि(सामानि)एव रश्मयः । जै २,३९० ।

३०. असावादित्यः शिरः प्रजानाम् । तै १, , , ३ ।

३१. असावादित्यः षोडशी (°त्य आहवनीयः [मै.)। मै ४,,; माश , ,,१०

३२. असावादित्यः सत्यम् (सुब्रह्म [ष.]) । तै २, , ११, ; ष १, १ ।

३७. असावेव संवत्सरो योऽसौ (आदित्यः) तपति ।….अथाध्यात्मम्। अयम् एव संवत्सरो यो ऽयं चक्षुषि पुरुषः। जै , २८

३८. असावेवास्मादादित्य उद्यन्पुरस्ताद्रक्षास्यपहन्ति। काठ ३१, १०; क ४७,१० । ३९. असौ खलु वा आदित्य इतो वृष्टिमुदीरयति । तैआ ५, १०, ६ ।

४०. असौ खलु वा आदित्यः प्रवर्ग्यः (+तस्य मरुतो रश्मयः (तैआ ५,,८] )। तैआ ५,,२ ।

४१. असौ खलु वा आदित्यः सुवर्गो लोकः । तैआ ५, , ११।

४२. ते होचुर् न न्वै वयम् अग्निहोत्र इतिं च गतिं चानूचिमह त्वम् अस्मभ्यम् अग्निहोत्र इतिं च गतिं च ब्रूहि वयं तुभ्यं पृथक् पञ्च वरान् दद्म इति। अग्निम् उपदिशन् वाचेयम् इतिर् इत्य् असौ गतिर् इत्य् आदित्यम्। सो ऽहम् अमूं गतिम् अस्याम् इतौ सायं जुहोमीमाम् इतिम् अमुष्यां गतौ प्रातर् जुहोमि। जै , २५

४३. असौ वा अस्य (अग्निहोत्रस्य कर्तुः ) आदित्यो यूपः। ऐ ५, २८ ।

४४. असौ वा आदित्य इन्द्रः (+ एष प्रजापतिः ।तैसं ५, ,,; काठ २२, )। तैसं १, ,,,,,,; मै १, १०, १६, काठ १३, , २२,, २४, ९।

४५. असौ वा आदित्य उद्ग्राभ, एष निग्राभ, उद्यन्वा एतद्यजमानमुद्गृह्णाति, निम्रोचन्नस्य भ्रातृव्यं निगृह्णाति । मै ३, , ८।

४६. असौ वा आदित्य एकाकी चरति । तै ३.९, , ४ ।

४९. असौ वा आदित्य एषो ऽग्निः (ऽ अश्वः [माश , , , २९.)। माश , , , २९;,,,, , १० ।

५२. असौ वा आदित्यः प्राणः । तैसं ५, , , ४ ।

५३. असौ वा आदित्यः शुक्रः (+ चन्द्रमा मन्थी [काठ.)। तैसं ७,,,; मै ४, ,८, ८, ; काठ २७, ; क ४४,,४५, ; ४६, , तां १५,,; माश ९,,,२१ ।

५४. असौ वा आदित्यश्शुचिरेष तेजसः प्रदाता । काठ ८, ८ ।

५६. असौ वा आदित्यः सायमासुवति,... एष प्रातः प्रसुवति । मै १,,७ ।

५८. असौ वा आदित्यः स्वर्गो लोकः ('त्यः तपः [माश.)। मै ३, , ; माश ८,,,५ ।

५९. असौ वा आदित्यो गोपः । तैआ ५, , ४।

६०. असौ वा आदित्यो घर्म एष इन्द्र, एष ब्रह्मवर्चसस्य प्रदाता । काठ १०, ८ ।

६१. असौ वा आदित्यो ज्योतिरुत्तमम् ( तिर्वैश्वानरम् [मै.J)। तैसं ५,,,६-७; मै ३, ,;, ,; काठ २२, १ ।

६३. असौ वा आदित्यो दूडभो रथः (देवानां चक्षुः ।मै ४, , १)। मै १, , ११,,,१।

६४. असौ वाऽ आदित्यो द्रप्सः (ब्रध्नः [तै..) । तै ३, , , ; माश ७,,,२० ।

६५, असौ वा आदित्यो ब्रध्नस्य विष्टपम् । तैसं ५, , ,५ ।

६६. असौ वाऽ आदित्यो ब्रह्म (+ वर्चसस्य प्रदाता [मै.] ) । मै २, , ; ११; जै २, ७८; माश ७, , , १४, १४, ,,३ ।

असौ वा आदित्यो ब्रह्माथो वाग् एव सुब्रह्म। - जै.ब्रा. २.७८

६७. असौ वा आदित्यो भा इति । जै , ३३०; जैउ १, , , १॥

६८. असौ वा आदित्यो रुचः प्रदाता । काठ १३,८ ।

७३. असौ वा आदित्यो वृषाश्वः ( व्यचश्छन्दः माश.)। माश , ,,; तैआ ५, ,५ ।

७४. असौ वा आदित्यो ऽस्तं यन् षोढा विम्रोचति । व्यम्रुचदिति ह स्म वा एतं पूर्व पुराणिन आचक्षते । अथैतर्हि न्यम्रुचदिति । स वा एषो ऽस्तं यन् ब्राह्मणमेव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस्तेजसा ऽग्निमूर्जौषधी रसेनापस्स्वधया वनस्पतीन् । जै ,

७६. असौ वा आदित्यो हरिकेशः सूर्यरश्मिः पुरस्तात् । मै ३, , ८ ॥

७८. असौ वै घर्मो ( वैश्वानरो कौ ४, ; १९, २.]) यो ऽसौ (आदित्यः ) तपति । कौ २, ;,, १९,२।

७९. असौ वै षोडशी योऽसौ (आदित्यः) तपति । कौ १७,१ ।

८०. असौ (आदित्यः) वै स्पार्हः । जै २,३८९ ।

८१. आदित्यं हि तृतीयसवनम् । तां ९, ,७ ।

८२. आदित्य उदयनीयः (उद्गीथः [जैउ.) । माश ३,,,; जैउ १,११,, ५।

८३. आदित्य उपख्याता । काठसंक १२२ : ३ ।

८६. आदित्य एव यशः (सविता गो १,,३३; जैउ.])। गो १,,,३३; जैउ ४,१२,,११ । ८७. आदित्य एषां भूतानामधिपतिः। ऐ ७,२०।।

८८. आदित्यः प्रायणीयः स्यादादित्य उदयनीयः। मै ३,,२ ।

८९. आदित्यं चरुं निर्वपति वरो दक्षिणा । तैसं १,,,१।

९०. आदित्यं चरुं महिष्यै गृहे धेनुर्दक्षिणा । तैसं १,, , १।

९१. आदित्यममुष्यै (दिवे प्रजापतिः वत्सं प्रायच्छत् )। जै ३,१०७ ।

९२. आदित्यं प्रायणीयं भवत्यादित्यमुदयनीयम् । काठ २३, ८ ।

९३. आदित्यश्चक्षुषि (प्रतिष्ठितः)। शांआ १०,१।

९४. आदित्यश्चरुर्महिष्या गृहे (+ धेनुर्दक्षिणा [मै २,, ५])। मै २,,५ ४, ,८ ।

९५. आदित्यः शुक्र उदगात् पुरस्ताज्ज्योतिः कृण्वन् वि तमो बाधमानः। आभासमानः

प्रदिशोऽनु सर्वा भद्रस्य कर्ता रोचमाना आगात् । मै ४,१४,१४ ।

९६. आदित्यस्त्रिपात्तस्येमे लोकाः पादाः । गो १.२,९ ।।

९८. आदित्यस्य (रूपम् ) रुक्मः (स्वराः [ऐआ.) । तै ३,, २०,; ऐआ ३,,५।

९९. आदित्यस्यावृतमन्वावर्तन्त इति दक्षिणं बाहुमन्वावर्तते । कौउ २,९।।

१००. आदित्या अस्मिँल्लोक (मनुष्यलोके) ऋद्धा आदित्या अमुष्मिन् (देवलोके)। तां २४,१२,७ ॥

१०१. आदित्या (+ वा [म., तां..) इमाः प्रजाः। मै २, ,, , ,१, ४, ,; काठ १९,; तां १३,,; १८,,१२।

१०२. आदित्या एव यशः । गो १,,१५।

१०३. आदित्याः पञ्चदशम् (उदजयन्) । काठ १४,४ ।

१०४. आदित्याः पञ्चदशाक्षरया पञ्चदशं मासमुदजयन् । मै १,११,१० ।

१०५. आदित्याः पञ्चदशाक्षरेण पञ्चदश स्तोममुदजयन् । तैसं १,, ११,२ ।

१०६. आदित्याः पश्चात् (पर्यविशन् ) । जै २, १४२ ।

१०७. आदित्याः प्रतीचीं (दिशमुदजयन् ) । मै ४,,१० ।

१०८. आदित्याः प्रपितामहाः (+ तृतीयलोकाधिपतयः [काठसंक १४१:१५])। काठसंक ५४:४; १४०.१२-१३,१४१:१५ ।

१०९. आदित्याजा मलिहा गर्भिणी । मै ४,,९ ।

११०. आदित्याञ् श्म (छ्म [काठ.J) श्रुभिः (प्रीणामि)। मै ३, १५, ; काठ ५३,२ । १११. आदित्या दक्षिणाभिः (सहागच्छन्तु) । तैआ ३, , २।

११२. आदित्यानां वा एतद्रूपम् यल्लाजाः । तै ३, , १४, ४ ।

११३. आदित्यानां जगती (पत्नी)। तैआ ३,,१।

११४. आदित्यानां तृतीयसवनम् । कौ १६,, ३०,; माश ४,,,१।

११५. आदित्यानां तृतीया। तैसं ५,,१७,; मै ३,१५,; काठ ५३,७ ॥

११६. आदित्यानां भागोऽसि, मरुतामाधिपत्यम् । तैसं ४,,,, ,,,; मै २,,; काठ २१.१।

१२१. आदित्यामजामधो रामा मेषीं वा । काठ १३, १।

१२२. आदित्यां मह्लां गर्भिणीमालभते । तैसं १, ,१९,१ ।

१२३. आदित्याय चरुं निर्वपति तस्मिन्छतमानं हिरण्यं ददाति सुवर्णम् । जै २, ९८ ।

१२४. आदित्या वा अपरोद्धार आदित्या अवगमयितारः । तैसं २,,,१।।

१२५. आदित्या वा इत उत्तमाः सुवर्गं लोकमायन् । ते वा इतो यन्तं प्रतिनुदन्ते । तै १,,, ८ ।

१२६. आदित्या वै ग्रावाणः ( देवविशाः [काठ.) । काठ ११,; काश ५,, ,१० ।

१२७. आदित्या वै त्रातार आदित्या अपरोद्धारः । काठ ११,६।

१२८. आदित्या वै देवतया विट् । तैसं २, ,,३ ।

१२९. आदित्या वै पशवः (प्रजाः [तै.) । काठ २४,; तै १,,, १।

१३०. आदित्याश्चाङ्गिरसश्चैतत् सत्र समदधतादित्यानामेकविशतिरङ्गिरसां द्वादशाहः । तां २४,,२॥

१३१. आदित्यास्त्वा जागतेन छन्दसा संमृजन्तु । तां १,,७ ।

१३२. आदित्यास्त्वा पश्चादभिषिञ्चन्तु जागतेन छन्दसा । तै २,,१५, ५।

१३३, आदित्यास्त्वा पुनन्तु (परिगृह्णन्तु [मै.) जागतेन छन्दसा। मै १, , १०; क ३९, ; जै १, ७३।

१३४. आदित्यास्त्वा प्रवृहन्तु जागतेन छन्दसा विश्वेषां देवानां प्रियं पाथ उपेहि। तैसं ३,,,१ ।

वसवस् त्वा संमृजन्तु गायत्रेण छन्दसा॥ रुद्रास् त्वा संमृजन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा॥ आदित्यास् त्वा संमृजन्तु जागतेन छन्दसा इति॥ - जैब्रा १.८१

राजानम् आनयति। ....त्रिर् देवेभ्यो ऽपवथास् त्रिर् आदित्येभ्यस् त्रिर् अङ्गिरोभ्यः। येन तुर्येण ब्रह्मणा बृहस्पतये ऽपवथास् तेन मह्यं पवस्व॥ - जैब्रा १.८१

१३५. वसवो वा एतम् अग्रे प्रौहन्। ते ऽश्राम्यन्। ते रुद्रान् आह्वयन्। तं रुद्राः प्रौहन्। ते ऽश्राम्यन्। त आदित्यान् आह्वयन्। तम् आदित्याः प्रौहन्। तं प्रोहति वसवस् त्वा प्रोहन्तु गायत्रेण छन्दसा॥ रुद्रास् त्वा प्रोहन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा॥ आदित्यास् त्वा प्रोहन्तु जागतेन छन्दसा इति। जैब्रा १.७८

१३६. आदित्यास्त्वा विश्वैर्देवैः पश्चात् पान्तु । तैसं ५,,,४ ।

१३७, तस्याम्(आसन्द्यां) एतम् आदित्यम् अभ्यषिञ्चन्त। वसवो राज्याय रुद्रा वैराज्यायादित्या स्वाराज्याय विश्वे देवास् साम्राज्याय मरुतस् सार्ववश्याय साध्याश् चाप्त्याश् च पारमेष्ठ्याय। तन् न हैतावत् कयाचन देवतया जितं यावद् आदित्येन।। जै , २५

१३८. तस्याम् (आसन्द्यां) एनम् (वरुणं) अभ्यषिञ्चन्त - वसवो राज्याय रुद्रा वैराज्यायादित्या स्वाराज्याय विश्वेदेवास् साम्राज्याय मरुतस् सार्ववश्याय साध्याश् चाप्त्याश् च पारमेष्ठ्याय। तद् एतच् छ्रीसवस्साम। जै , १५२

१३९. आदित्या हि पुनराधेयम् । मै १,,५ ।

१४०. एष ह वा उभयतोज्योतिर् यज्ञक्रतुर् यद् अतिरात्रस् त्रिवृत् पुरस्ताद् बहिष्पवमानं भवति। त्रिवृद् उपरिष्टाद् राथन्तरस् संधिः। अग्निर् वै पूर्वस् त्रिवृद् आदित्य उत्तरः। अग्निना वा अयं लोको ज्योतिष्मान् आदित्येनासौ। । जै ,२३२

१४१. आदित्ये बृहत् (साम) । शांआ ६,; कौउ ४, २ ।

१४२. आदित्येभिर्देवेभिर्दैवतया जागतेन त्वा छन्दसा युनज्मि वर्षाभिः । काठ ४१,९। १४३. आदित्येभ्यो न्यङ्कून् (आलभते)। मै ३,१४,९ ।

१४४. आदित्येभ्यो भुवद्भ्यश्चरुं निर्वपेद् भूतिकामः । तैसं २,,,१ ।

१४५. प्रजापतिर् देवान् असृजत - वसून् रुद्रान् आदित्यान्। तेभ्यो यज्ञं चेमांश् च लोकान् प्रायच्छत्। वसुभ्य एव प्रातस्सवनं प्रायच्छद्, रुद्रेभ्यो माध्यंदिनं सवनम्, आदित्येभ्यस् तृतीयसवनम्। वसुभ्य एवेमं लोकं प्रायच्छद्, रुद्रेभ्यो ऽन्तरिक्षम्, आदित्येभ्यो ऽमुम्। जै , १४१

१४६. आदित्यैर्नो भारती वष्टु यज्ञम् । तैसं ५,,११,; मै ३, १६, २ ।

१४७. आदित्यैर्नो वरुणः स शिशातु (°णः शर्म यसत् (मै., काठ.]) । तैसं २, , ११, ; मै ४, १२,, काठ १०,१२ ।

१४८. तान् इमांस् त्रीन् लोकान् जनयित्वाभ्यश्राम्यत्। तान् समतपत्। तेभ्यस् संतप्तेभ्यस् त्रीणि शुक्राण्य् उदायन्न् अग्निः पृथिव्या वायुर् अन्तरिक्षाद् आदित्यो दिवः॥। जै ,३५७

१४९. आदित्यो देवः सस्फानः । तैसं ३, ,, ६ ।

१५०. आदित्यो नवहोता । स तेजस्वी । तैआ ३, ,४ ।

१५१. आदित्यो निवित् (वाजी [तै) । तै १,,,; जैउ ३,,, २ ।

१५२. आदित्यो बृहत् (बृहतः [जै.)। ऐ ५,३०; जै १,२९२ ।

१५३. आदित्यो यतोऽजायत ततो बिल्व उदतिष्ठत् । तैसं २,,,१ ।

१५४. आदित्यो यशः (यूपः ।तै.)। तै २,,,; माश १२,,,८ ।

१५५. प्रजापतिर् वै पितादित्यः पुत्रः। प्रजापतिर् वामदेव्यम् आदित्यो राजनम्। तस्माद् एष एतयोर् आभावत्तरं तपति। जै ,१५

१५७. आदित्यो वा उद्गाता (+ अधिदैवं चक्षुरध्यात्मम् ।गो १, ,३]) । गो १,,२४,,३ ।

१५९. आदित्यो वाव पुरोहितः । ऐ ८,२७ ।

१६०. आदित्यो वै घर्मः (चक्षुः [जै.) । जै २, ५४; माश ११,,,२ ।

१६१. आदित्यो वै देवसंस्फानः (यज्ञः [मै.J) । मै ३,,, , ; गो २,, ९ ।

१६२. आदित्यो वै प्राणः (ब्रह्म (जैउ ३,,,९])। जैउ ३,,,,,११,,११ ।

१६३. आदित्यो वै भर्गः (वृषाकपिः [गो.) । गो २,, १२; जैउ ४,१२,,२।

१६४. आदित्यो (अदितिदेवताकोऽदितेरुत्पन्नो वा) वै सोमः । काठ २४, ; क ३७,, ४०,५ ।

१६५. आदित्योऽसि दिवि श्रितः । चन्द्रमसः प्रतिष्ठा । तै ३, ११, ,११ ।

१६७. आदित्यो ह्येवोद्यन् पुरस्ताद्रक्षास्यपहन्ति । तैसं २, ,,३ ।

१६८. इमा आदित्याः (अदितेरुत्पन्नाः) प्रजाः । काठ २५,६ ।

१६९. इह वा असा आदित्य आसीत् , तमितोऽध्यमुं लोकमहरस्तद्यतोऽध्यमुं लोकमहरस्तस्माज्ज्योतिषो बिल्वोऽजायत, तस्माद् बैल्वो (यूपः) कार्यः । मै ३,,३ ।

१७०. उच्छिष्टाद्वा आदित्या जाताः । काठ २८,; क ४४,६ ।

१७१. उच्छेषणभागा (उञ्शिष्टभागा [मै.] ) वा आदित्याः । मै १,, १२ काठ २८,; क ६,५।

१७२. उत्तिष्ठन्तह वा तानि रक्षास्यादित्यं योधयन्ति यावदस्तमन्वगात्तानि ह वा एतानि, रक्षासि गायत्रियाभिमन्त्रितेनाम्भसा शाम्यन्ति । तैआ २,,१।

१७३. उद्यन्नु खलु वा आदित्यः सर्वाणि भूतानि प्रणयति तस्मादेनं प्राण इत्याचक्षते । ऐ ५,३१ ।

१७४. उद्यन्वा असा आदित्यो रक्षास्यपाहत । मै ४,,१३ ।

१७५. एकविंशो वा अस्य भुवनस्य विषुवान् , द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका

असावादित्य एकविंशः । जै ,३८९

१७६, एतद्वा आदित्यस्य पदं यद्भूमिः। गो १,, १८ ।

१७८. एताभिर्व्वा आदित्या द्वन्द्वमार्ध्नुवन्मित्रश्च वरुणश्च धाता चार्यमा चाꣳꣳशश्च भगश्चेन्द्रश्च विवस्वांश्च । तां २४, १२, ४ ।

१७९. एते खलु वादित्या यद्ब्राह्मणाः । तै १, , , ८ ।

१८०, एते वै देवयानान् पथो गोपायन्ति यदादित्याः । मै १, ,१२ ।

१८१. एवमिव ( शुक्लमिव ) ह्यसा आदित्यः । मै २, , ६ ।

१८२. एष (आदित्यः ) दीक्षितः(प्रजापतिः ।काठ.)। काठ १२,; गो १, , १ ।

१८३. एष (आदित्यः ) निम्रोचन् निग्राभः । तैसं ५, ,, ६ ।

१८४. एष (आदित्यः ) रुचः प्रदाता । काठ ३४, ९।

१८५. एष वा अपरिपरः पन्था अरक्षस्यो येनासा आदित्य एति । मै ३, , , , , ५ ।

१८६. एष वाव दीक्षितो य एष (आदित्यः) तपति । जै २, ६२ ।

१८७. स ततो रेष्माणम् एव रथं समास्थायादित्यस्य सलोकताम् अभिप्रयाति।....एष वै मृत्युर्यदादित्यो म्रोचन्नेव नाम । जै , २७

१८८. एष ( आदित्यः ) वै यशः (सत्यम् ।ऐ.)। ऐ ४, २०; माश ६, , , ३ ।

१९१. एष ( आदित्यः) वै सत्यम् ।

१९३. एष (आदित्यः ) वै हंसः शुचिषद् । ऐ ४, २० ।

१९४. एष ( आदित्यः ) स्वर्गो लोकः । तै ३, , १०,; १७, ,  २०, २ ।

१९५. एष (आदित्यः ) ह वा अह्नां विचेतयिता [°चेता+ योऽसौ (सूर्यः) तपति [गो.] । ऐ ६,३५; गो २, ,१४ ।

१९६. एष (आदित्यः ) ह्येवाऽऽसाम्प्रजानामृषभः । जैउ १, , , ८ ।

१९७. एषो ( आदित्यः) ऽन्तः । तैसं ७, , , २ ।

१९८. ओमित्यसौ यो ऽसौ ( आदित्यः) तपति । ऐ ५, ३२ ।

१९९, ओमित्यादित्यः । जैउ ३, , , १२।

२०१. कमग्निं चिनुते । सावित्रमग्निं चिन्वानः । अमुमादित्यं प्रत्यक्षेण । तैआ १, २२,१० ।

२०२. किं नु ते मयि (आदित्ये ) इति । ओजो मे बलम्मे चक्षुर्मे । जैउ ३, , , ८ ।

२०३. केतस्सुकेतस्सकेतस्ते न आदित्या जुषाणा अस्य हविषो व्यन्तु स्वाहा । सलिलस्सलिगस्सगरस्ते न आदित्या जुषाणा अस्य हविषो व्यन्तु स्वाहा दिवो ज्योते विवस्व आदित्य ते नो देवा देवेषु सत्यां देवहूतिमासुवध्वमादित्येभ्यस्वाहा । काठ ८, १४ ।

२०४. गावो वा आदित्याः । ऐ ४, १७ ।

२०५. घृतभागा (घृतभाजना माश.1) ह्यादित्याः । काठ १९, ; माश ६, ,,११ । २०६. चक्षुरादित्यः । माश ३, , , १३; जैउ ३, , , ७ ।

२०७. चक्षुरेव स तत् स्वमजुहोदमुममेवादित्यम् । काठ ६, १ ।

२०८. चक्षुष आदित्यः (निरभिद्यत )। ऐआ २, , ; ऐउ १, , ४ ।

२१०. चित्र आदित्यानाम् | मै ३, १४, २० ।

२११. छन्दोभिर्वै देवा आदित्य स्वर्गं लोकमहरन् । तां १२, १०, ६ ।

२१२. जगतीं स छन्दसां जयत्यादित्यान् देवान् देवानाम् । जै १, ३६ ।

२१४. जगत्यादित्याः (अन्वारभन्त)। काठ ७, ६ ।

२१५. जगत्यादित्यानां (+पत्नी [गो.)। मै १, , , काठ ९, १०; गो २, , ९ । २१६. जागतोऽसावादित्यः। जै २, ३६ ।

२१७. ज्योतिः शुक्रमसौ ( आदित्यः )। ऐ ७, १२ ।

२१८. तं स (भरद्वाजः सावित्रमग्निम् ) विदित्वामृतो भूत्वा स्वर्गॆ लोकमियाय। आदित्यस्य  सायुज्यम् । तै ३, १०, ११,५।

२१९. तत आदित्य उदतिष्ठत् । सा प्राची दिक् । तैआ १, २३, ५ ।

२२०. तत उ हादित्याः स्वरीयुः । कौ ३०, ६ ।

२२२. तत्र ह्यादित्यः शुक्रश्चरति । गो १, ,९ ।

२२४. तदसौ वा आदित्यः प्राणः । जैउ ४, ११, ,९।।

२२५. तद्दैव्यं क्षत्रम् (आदित्यलोकं प्रशंसति)। सा श्रीः। तद्ब्रध्नस्य विष्टपम् । तत्स्वाराज्यमुच्यते। तै ३, , १०,३।

२२७. तद्यत्तद्यज्ञस्य शिरोऽच्छिद्यतेति, सो ऽसावादित्यः, स उ एव प्रवर्ग्यः । जै , १२६

२२८. ... हृदयं पृथिव्यै, गन्धं हिरण्यस्य, स्तनयित्नुं वाचस्, सङ्गमं पितॄणां, भां चन्द्रमसः। तद्यदेतेषां भूतानामादत्त, तदादित्यस्यादित्यत्वम् । जै , २६

२२९. तद्यदेष (आदित्यः ) सर्वैर्लोकैस्समस्तस्मादेष (आदित्यः ) एव साम। जैउ १, , ,५।

२३०. तद्वा अदश्चक्षुर्मन्यन्ते यदसा आदित्यः । मै १, , १ ।

२३१. तस्याम् (आसन्द्यां) एतम् आदित्यम् अभ्यषिञ्चन्त। .....तन्न हैतावत् कया चन देवतया जितं यावदादित्येन । जै , २५

२३२. तपो वा असावादित्यः । काठसंक ११९ : ५।

२३३. तर्हि (मध्यन्दिने ) तेक्ष्णिष्ठं तपति (आदित्यः ) । तैआ २, १३, १ ।

२३४. तस्मा (आदित्याय) एता सौरी श्वेतां वशामालभेत, स (आदित्यः) एवास्मिन् (यजमाने) ब्रह्मवर्चसं दधाति । तैसं २, , , १ ।

२३५. तस्मादादित्यश्चरुः प्रायणीयो भवत्यादित्य उदयनीयः । ऐ १, ७ ॥

२३६. षड् एते स्वरसामानो भवन्ति। षड् ऋतवः। ऋतुष्व् एवैनं तद् अध्यूहन्ति, तस्मादेष ( आदित्यः) त्रीनृतून् दक्षिणैति त्रीनुदङ् । जै ,३८६

२३७. अथ यद् एतन् मण्डलं ता आपस् तद् अन्नं तद् अमृतम्।  तस्मिन्नेतस्मिन्मण्डले तेजोमयश्छन्दोमयः पुरुषः ( आदित्यः)। स प्राणस्स इन्द्रस्स प्रजापतिस्सः दीक्षितः । जै , ६२

२३८. तस्य (प्रजापतेः ) यद् रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत् । ऐ ३, ३४ ।

२४०. तस्य (प्रजापतेः ) शोचत आदित्यो मूर्ध्नो ऽसृज्यत । तां ६, , १।

२४१. तस्या (पृथिव्याः ) असौ वत्सो योऽसौ ( आदित्यः ) तपति । जै १, ३२८ ।

२४२. तस्यादित्या अधिपतयः (स्वर्गस्य लोकस्य) । तै ३,,१८,२।

२४३ तस्याम् (आसन्द्याम्) एतमादित्यम् ( देवाः) अभ्यषिञ्चन्त । जै २,२५।

२४४. तस्येमा एव दिशः पत्न्य आसन् (इन्द्रस्य = आदित्यस्य)। तं हेमास्तिस्रो दिशोऽतिचेरुः । इयं हैवास्यानुव्रततमास येयं दक्षिणा दिक् । तस्मादेष एतामेवाभ्युपावर्तते। यद्यप्युत्तरत उदेत्यथैतामेवाभ्युपावर्तते । जै २,६२ ।

२४६. तस्यैतस्याकाशस्यात्मा दमुमूढो यदसावादित्यः । जै २, ५६ ।

२४७. तस्यैतस्या (+ असाव् । ऐआ..) sऽदित्यो रसः (संवत्सरस्य)। ऐआ ३,,; शांआ ८,३ ।

२४८, तान् हादित्यानङ्गिरसो याजयाञ्चक्रुः । गो २, ,१४ ।

२४९. तिस्रो मेष्य आदित्याः । काठ ४९,९ ।

२५१. ते हादित्याः पूर्वे स्वर्गं लोकं जग्मुः पश्चेवाङ्गिरसः षष्ट्यां वा वर्षेषु । ऐ ४, १७ ॥

२५२. त्रिर्वा आदित्यास्सप्त सप्त । काठ ११.६ (तु. मै २, ,१)।

२५३. त्रिर्ह वा एष (मघवा = इन्द्रः । = आदित्यः  ) एतस्य मुहूर्तस्येमाम्पृथिवीं समन्तः पर्यतीमाः प्रजास्संचक्षाणः। जैउ १, १४, ,९ ।

२५४. त्रिष्टुभि प्रस्तुतायां चक्षुषादित्यं संदध्यात् । जै १,२७० ।

२५५. त्रीणि वा आदित्यस्य तेजासि, वसन्ता प्रातर् ग्रीष्मे मध्यन्दिने शरद्यपराह्णे। तैसं २,,,५।

२५६. त्रैष्टुब्जागतो वा आदित्यः । तां ४,,२३ ।

२५७. त्रैष्टुभो वा असावादित्यः शुक्लं कृष्णं पुरुषः । जै १,३२४ ।

२५८. त्रैष्टुभो वा एष य एष (आदित्यः) तपति । कौ २५,४ ।

२५९. दक्षिणा ह्यसौ दिशमन्वावर्तते योऽसौ (आदित्यः) तपति । काश ५,, ,२२,, ,८ ।

२६०. दक्षिणा पर्यावर्तते, स्वमेव वीर्यमनु पर्यावर्तते, तस्माद्दक्षिणोऽर्ध आत्मनो वीर्यावत्तरोऽथो आदित्यस्यैवाऽऽवृतमनु पर्यावर्तते। तैसं ५,,,३ ।

२६१. दिवं लोकानां जयत्यादित्यं देवं देवानाम् । जै १, २७ ।

२६२. दिवमादित्याः (अजयन् ) । काठसंक ५३ : २-३ ।

२६३. दिवमेव तृतीयस्य तृचस्य प्रथमया स्तोत्रियया जयति, आदित्यं द्वितीयया, नक्षत्राणि तृतीयया । जै १,२४५ ।

२६४. देवलोको वा आदित्यः। कौ ५,; गो २, , २५ ।

२६५. देवविशा (आदित्याः) मनुष्यविशाया ईशे । काठ ११,६ ।

२६६. द्यां भारत्यादित्यैरस्पृशत् । मै ४, १३,८ ।

२६८. द्वादशादित्या द्वादशाक्षरा जगती । तैसं ३,,,७ (तु. जै १, १४१)।

२६९, द्वादशादित्यास् (द्वादशमासादित्या अग्निमबिभरुः ) ते दिवमाजयञ्जगतीं छन्दस्ततो वै ते व्यावृतमगच्छञ्छ्रैष्ठ्यं देवानाम् । काठ २१,; क ३१,२० ।

२७०. द्विदेवत्येभ्य आदित्यो (ग्रहः) निर्गृह्यते । मे ४,,९ ।

२७२. पञ्चर्तवो द्वादश मासास्त्रय इमे लोका असा आदित्य एकविंश एष स्वर्गो लोकः । काठसंक १२२: ८-९ ।

२७३. पञ्चाव्यस्तिस्र आदित्यानाम् । काठ ४९, ६ ।

२७४. पर्ज्जन्य (पशव तां.]) आदित्यः। गो १,,; तां २३,१५,४ ।

२७५. पशवो वा (+एते यत् [तैसं.J) आदित्यः (ग्रहः) । तैसं ३,,,; मै ४,,; काठ २८,६ ।

२७६. प्रजननं जगती । सोऽसावादित्यः । जै २, ३६ ।

२७७. प्रजा आदित्यः (ग्रहः)। मै ४, ,९।।

२७८. प्रजापतिरसा आदित्यः । मै २, , ३ ।

२७९. प्रजापतिर्वै पिताऽऽदित्यः पुत्रः । जै २, १५।

२८०. प्राङ् चार्वाङ् चादित्यस्तपति । तां १२, १०, ६ ।

२८१. प्राची च प्रतीची च वसूनां, रुद्राणामादित्यानाम् ! तैसं ४, ,११, २-३; काठ २२, ५ ।

२८२. प्राण आदित्यः । तां १६, १३, २।।

२८३. प्राणा वा आदित्याः । प्राणा हीदं सर्वमाददते । जैउ ४, , ,९।

२८४. प्राणो ह्येष य एष (आदित्यः) तपति । ऐआ २,,, ३।

२८५. बार्हतो वा एष य एष (आदित्यः) तपति । कौ १५,, २५,; गो २, ,२०; शांआ २,१७ ।

२८६. बार्हतो वासावादित्यः । जै २, ३६।

२८७. ब्रध्नस्य विष्टपं चतुस्त्रिशः (+इति दक्षिणतो ऽसौ वा आदित्यो ब्रध्नस्य विष्टपम् [काठ.1)। मै २, , , काठ २०, १३ ।

२८८. ब्रह्मण एतदुदरणं यदसा आदित्य उदेति । काठ ९, १५ ।

२८९. ब्रह्मवर्चसमसा (°साव् ।क.1) आदित्यस्तेजसा (दधाति )। मै ४,,; काठ २०,१३, २९,; क ४५, ८॥

२९२. मह इत्यादित्यः । आदित्येन वाव सर्व लोका महीयन्ते । तैआ ७, , ; तैउ १, ,२ ।

२९४, य एवं विद्वानुदगयने प्रमीयते देवानामेव महिमानं गत्वाऽऽदित्यस्य सायुज्यं गच्छति । तैआ १०, ६४, १।

२९५. य एवायं चक्षुषि पुरुष एष एवादित्यः । जै २, ५६ ।

२९६. य एवासौ (आदित्यः) तपत्येष एव विराट् । जै १, ३४० ।

२९७. य एष आदित्ये पुरुषः स परमेष्ठी ब्रह्माऽऽत्मा । तैआ १०,६३,१।

२९८, यः कामयेत प्रथेय पशुभिः प्र प्रजया जायेयेति स एतामविं वशामादित्येभ्यः कामायालभेत । तैसं २, ,,३।

२९९. यच्चतुर्थेऽहन्प्रवृज्यते । आदित्यो भूत्वा रश्मीनेति। तैआ ५, १२, १।

३००. यच्छुक्लानाम् ( व्रीहीणाम् ) आदित्येभ्यो निर्वपति तस्माच्छुक्ल इव वैश्यो जायते । काठ ११,६।

३०१. यज्जीवं स विवस्वाँ आदित्यः । काठ ११, ६ ।

३०२. यत्तृतीयम् (प्रजापते रेतस उत्पन्नम् ) अदीदेदिव त आदित्या अभवन् । ऐ ३, ३४ ।

३०३. यथादित्या वसुभिः सम्बभूवुः । तैसं २, , ११, ३।।

३०४. यथासौ दिव्यादित्य एवमिदं शिरसि चक्षुः । ऐआ ३, , ; शांआ ७,४ ।

३०५. यथाऽसौ (आदित्यः) देवाना रोचते...एवमेवैष मनुष्याणां रोचते । तैसं ५, , १०, ३ ।

३०६. यदनुदितः ( आदित्यः ) स हिङ्कारः । जैउ १, ,,४ ।

३०७. यदसुराणां लोकानादत्त । तस्मादादित्यो नाम । तै ३, , २१, २ ।

३०८. यदा खलु वा असावादित्यो न्यङ् (यदासा आदित्योऽर्वाङ् [काठ.J) रश्मिभिः पर्यावर्ततेऽथ वर्षति । तैसं २,, १०, ; काठ ११, १० ।

३०९. यदादित्यो ऽस्तमेति वायुमेवाप्येति । जै २, ४९ ।

३१०. यदेतत्पुरुषे रेतो भवति, आदित्यस्तद्रूपम् । ऐआ २, , ७ ।

३११. यदेतदोमित्यादत्ते । असौ वा आदित्य एतदक्षरम् ..... स यदोमित्यादत्ते ऽमुमेवैतदादित्ये मुख आधत्ते । जै १, ३२२ ।

३१४. यन्महान्देव आदित्यस्तेन। कौ ६, ६।

३१६. यस्माद्गायत्रोत्तमस्तृतीयः (त्रिरात्रः) तस्मादर्वाङादित्यस्तपति । तां १०, , २ ।

३१७. या शुचिर (अग्नेस्तनूरासीत् ) अमुमादित्यं तया (प्राविशत् )। काठ ८,९ ।

३१८. ये वै तमादित्यं पुरुषं वेदयन्ते स इन्द्र स प्रजापतिः स ब्रह्मा इति । काठसंक १३८:२०-२१॥

३१९. ये शुक्लास् [+ स्युः (व्रीहयः) तैसं.]] तमादित्यं (°मादित्येभ्यः [काठ..) चरुं निर्वपेत् । तैसं २,,,; काठ ११,६।

३२०. योऽसौ ( आदित्यः) तपन्नुदेति । स सर्वेषां भूतानां प्राणानादायोदेति । असौ यो (आदित्यः) ऽस्तमेति स सर्वेषां भूतानां प्राणानदायास्तमेति । तैआ १, १४, १। ३२१. रश्मिरित्येवादित्यमसृजत । तैसं ५,,, १ ।

३२२. रात्रेर्वत्सः श्वेत आदित्यः । तैआ १,१०,५ ।

३२३. वरुण आदित्यैः (+व्यद्रवत् माश.]) । मै २,,; ऐ १,२४; माश ३,,,१ । ३२४. वरुणस्त्वाऽऽदित्यैः पश्चाद्रोचयतु जागतेन छन्दसा । तैआ ४, , १ ।

३२५. वर्षाभिर्ऋतुनादित्याः स्तोमे सप्तदशे स्तुतं वैरूपेण विशौजसा। तै २, , १९, १-२ ।

३२६. वसवो वै रुद्रा आदित्या सस्रावभागाः । तै ३, , , ७ ।

३२७. वायुर्वा एतं (आदित्यम् ) देवतानामानशे । तां ४, , ७ ।

३२९. विभाति केतुररुणः पुरस्तादादित्यो विश्वा भुवनानि सर्वा । सुगं नु पन्थामन्वेति प्रजानन् पिता देवानामसुरो विपश्चित् । मै ४, १४, १४ ।

३३०. विमानो ह्यसा आदित्यः स्वर्गस्य लोकस्य । मै ३, , ८ ।

३३१. विराड् भूत्वाऽऽदित्योऽभवत् (प्रजापतिः)। जै १, ३१४ ।

३३३. विश्वकर्मा त्वाऽऽदित्यैरुत्तरात् ( रुत्तरतः [माश.) पातु । तैसं १, , १२,; काठ २, ; माश ३, , , ७ ॥

३३४. विश्वकर्मा त्वोत्तरादित्यैः पातु । क २, ३ ।

३३५. विश्वकर्मा व आदित्यैरुत्तरत उपदधताम् । तैआ १, २०, १।

३३६. वैद्युत (आतपो वत्सः) आदित्यस्य । तैआ १, १०,६।

३३७. व्युषि सविता भवस्युदेष्यन् विष्णुरुद्यन्पुरुष उदितो बृहस्पतिरभिप्रयन्मघवेन्द्रो वैकुण्ठो माध्यन्दिने भगोऽपराह्ण उग्रो देवो लोहितायनस्तमिते यमो भवसि (हे आदित्य त्वम् ) । अश्नसु सोमो राजा निशायाम्पितृराजस्स्वप्ने मनुष्यान्प्रविशसि पयसा पशून् । विरात्रे भवो भवस्यपररात्रेऽङ्गिरा अग्निहोत्रवेलायाम्भृगुः । जैउ ४, , , १-३ ।

३३८. शतयोजने ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति । कौ ८, ३ ।

३३९. शिवमसौ (आदित्योऽस्तु ) तपन् । तैसं ७, ,२०,१ ।

३४०. श्रद्धा वै ब्रह्मवर्चसमेकविंश स्तोमानाम् । असौ हि स आदित्यः । जै २, २१८ ।

३४१. श्रीश्च ते (पुरुषस्य = आदित्यस्य) लक्ष्मीश्च ते पत्न्या अहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ ( द्यावापृथिव्यौ ) व्यात्तम् (विकासितमुखम् ) । काठसंक १०३:९

३४२. श्वेत रश्मिं बोभुज्यमानम् । अपां नेतारं भुवनस्य गोपाम् । इन्द्रं (आदित्यम् ) निचिक्युः परमे व्योमन् । तैआ ३, ११, ९।

३४३. श्वेता अवरोकिण आदित्यानाम् । मै ३, १३, ७ ॥

३४४ श्वेतो रश्मिः ( शुक्लवर्णरश्मियुक्त आदित्यः) परि सर्वं बभूव । तैआ ३,११,१० ।

३४७. संवत्सरो ऽसावादित्यः । तैआ १०, ६३, १ ।

३४८. स (प्रजापतिः) आदित्येन दिवं मिथुनं समभवत् । माश ६, ,,४ ।

३५०. स (आदित्यः = सूर्यः) एवास्मिन् (यजमाने) ब्रह्मवर्चसं दधाति । तैसं २,,,३ ।

३५२. स एष वा एको वीरो य एष (आदित्यः) तपत्येष इन्द्र एष प्रजापतिः । जै १,८।

३५३. स एष वाग्निष्टोमो य एष (आदित्यः) तपत्येष इन्द्र एष प्रजापतिरेष एवेदं सर्वम् । जै १,३१४ ।

३५४. स एष (आदित्यः) सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मान् । जैउ १, , ,२।

३५५. स एषोऽपहतपाप्मा (आदित्यः) तपति (+ तस्य छाया नास्ति ।जै २,३७०]) । जै २,८२, ३.७०

३५६. सत्यं य एष [सत्यमेष (आदित्यः [माश..] तपति । जै २,६६; माश १४, ,,२२ ।

३५८. सप्त ह्येत आदित्यस्य रश्मयः । जैउ १, , , ८ ।

३५९. सप्तादित्याः । तां २३, १५,३ ।

३६०. सम् इन्द्रो मरुद्भिर् यज्ञियैः समादित्यैर्नो वरुणो अजिज्ञिपत् । तैसं ,, ११,

३६१. समादित्यैर्वरुणो विश्ववेदाः (नोऽव्यात् ) । मै ४,१२,; काठ १०,१२ ।

३६२. सम्राडसि प्रतीची दिगादित्यास्ते देवा अधिपतयः सोमो हेतीनां प्रतिधर्ता सप्तदशस्त्वा स्तोमः पृथिव्यां श्रयतु । मरुत्वतीयमुक्थमव्यथायै स्तभ्नोतु (क्थमव्यथयत् स्तभ्नातु तैसं.)) वैरूपं साम । तैसं ४, , , १-२; मै २, , ९ । ३६३. स य आदित्यश्चक्षुरेव तत् । जै १, २४९ ।

३६४. स य एतदेवं वेदेष एवादित्यो भूत्वैतस्यां राजासन्द्यामास्ते । जै २, २६ ।

३६५. स यदादित्य उदेति । एतामेव तत्सुवर्णां कुशीमनुसमेति । तै १, ,१०, ७ ।

३६६. स यश्चायमशरीरः प्रज्ञात्मा यश्चासावादित्य एकमेतदिति विद्यात् (+तस्मात्पुरुषं पुरुषं प्रत्यादित्यो भवति ।ऐआ.])। ऐआ ३, , ; शांआ ८, ३ ।

३६७. स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये । स एकः । तैआ ९, १०, ; तैउ ३, १०, ४ ।

३७१. सर्पा वा आदित्याः । तां २५, १५, ४ ।

३७३. सलिलः सलिगः सगरस्ते न आदित्याः..., केतः सुकेतः सकेतस्ते न आदित्याः"... विवस्वन्नादित्य ..., आदित्येभ्यः स्वाहा । मै १, , १।

३७४. स वा एष (आदित्यः) इन्द्र वैमृध उद्यन् भवति सवितोदितो मित्रस्संगवकाल इन्द्रो वैकुण्ठो माध्यन्दिने समावर्तमानश्शर्व उग्रो देवो लोहितायन् प्रजापतिरेव संवेशेऽस्तमितः । जैउ ४,,,१० ।

३७५. स वा एष (आदित्यः) न कदाचनास्तमयति नोदयति । तद्यदेनं पश्चादस्तमयतीति मन्यन्ते अह्न एव तदन्तं गत्वाथात्मानं विपर्यस्यते ऽहरेवाधस्तात्कृणुते रात्रीं परस्तात् । गो २, , १० ।

३७६. स वा एष (आदित्यः) न कदाचनास्तमेति नोदेति तं यदस्तमेतीति मन्यन्तेऽह्न एव तदन्तमित्वाऽथात्मानं विपर्यस्यते रात्रिमेवावस्तात् कुरुते ऽहः परस्तादथ यदेनं प्रातरुदेतीति मन्यन्ते रात्रेरेव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्यते ऽहरेवावस्तात्कुरुते रात्रिं परस्तात्स वा एष न कदाचन निम्रोचति । ऐ३, ४४ ।

३७७. सविता त्वा ऽऽदित्यैः पश्चाद् रोचयतु । मै ४, , ५ ।

३७८. सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः। तेऽस्य युक्तास्तैरिदं सर्वं हरति तद्यदेतैरिदं सर्वं हरति तस्माद्धरयः (रश्मयः)युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य ) हरयः शतादश” (ऋ० ६, ४७, १८) इति । जैउ १,१४,,५।

३७९. सामवेद आदित्यात् ( उदैत् ) । जै १, ३५७ ।

३८०. साम्नामादित्यो देवतं तदेव ज्योतिर्जागतच्छन्दो द्यौः स्थानम् । गो १, , २९ ।

३८२. सुदिति ( °दी [तैसं.J) रस्यादित्येभ्यस्त्वादित्याञ्जिन्व । तैसं ४, , , , काठ १७, ; ३७, १७ ॥

३८३. सुदीतिरित्यादित्यान् (असृजत) । तैसं ५,,,१ ।

३८४. सुवरित्यादित्यः । तैआ ७,,; तैउ १, ,२ ।

३८५. स्वयंविलीनम् (आज्यम् ) आदित्यस्य । काठ २३,१ ।

३८६. स्वरित्येव सामवेदस्य रसमादत्त (प्रजापतिः) । सोऽसौ द्यौरभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत स आदित्योऽभवद्रसस्य रसः । जैउ ,,, ।।

अथैष एव पुरुषो योऽयं चक्षुषि य आदित्ये सोऽतिपुरुषः यो विद्युति स परमपुरुषः – जै.उ.ब्रा. १.८.३.२

३८७. स्वर्गं लोकमायन् (आदित्याः) अहीयन्ताङ्गिरसः । तां १६, १२, १ ।

३८८. स्वर्भानुर्वा आसुर आदित्यं तमसाऽविध्यत् । तं देवाश्चर्षयश्चाभिषज्यन् । त एतानि दिवाकीर्त्यानि सामान्यपश्यन् । तैरस्य तमोऽपाघ्नन् । जै २,३९० (तु. तां ४,,१३)।

३८९. हन्तेति चन्द्रमा ओमित्यादित्यः । जैउ ३, ,,२ ॥

स (आदित्यः) उद्यन्नेवामूम् (दिवम) अधिद्रवत्यस्तं यन्निमाम् (पृथिवीम् ) अधिद्रवति । माश १,,,११।।

तेषाम् ( नक्षत्राणाम् ) एष उद्यन्नेव वीर्य्यं क्षत्रमादत्त तस्मादादित्यो नाम । माश २,,,१८ ।

आदित्यस्त्वेव सर्वऽऋतवः । यदैवोदेत्यथ वसन्तो यदा संगवोऽथ ग्रीष्मो यदा मध्यन्दिनोऽथ वर्षा यदापराह्णोऽथ शरद्यदैवास्तमेत्यथ हेमन्तः । माश २,,,९ ।

सर्वतोमुखो वा ऽ असावादित्य एष वाऽइदꣳꣳ सर्वं निर्द्धयति यदिदं किञ्च पुष्यति तेनैष सर्वतोमुखस्तेनान्नादः । माश २, , ,१४ ॥

अष्टौ ह वै पुत्रा अदितेः । यांस्त्वेतद्देवा आदित्या इत्याचक्षते सप्त ह वै तेऽविकृत हाष्टमं जनयांचकार मार्ताण्डम् । माश ,,,

यमु ह (मार्तण्डं देवा आदित्याः) तद्विचक्रुः स विवस्वानादित्यस्तस्येमाः प्रजाः । माश ३,,,४।

आदित्य एव प्रायणीयो भवति । माश ३,,,६ । .

द्वय्यो ह वा इदमग्रे प्रजा आसुः । आदित्याश्चैवाङ्गिरसश्च । माश ३, ,, १३ ।

यद्वाऽएष एव शुक्रो य एष (आदित्यः) तपति तद्यदेष तपति तेनैष शुक्रः । माश ४,,,१ ।

एष वै शुक्रो (संवत्सरो [माश १४, , , २७] ) य एष (आदित्यः ) तपति । माश ४, ,, २६,  ३,,१७; १४,,,२७ ।

आदित्यान्वाऽअनु पशवः । माश ४,३,,१३ ।।

विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथः । माश ४, , , १८।

आदित्यान् वाऽनु गावः (ग्रावाणः [माश ४,,,१९])। माश ४,,,१९, २२ ।

आदित्यानीमानि यजूषीत्याहुः । माश ४,,,१९ ।

महिष्यै गृहान् परेत्याऽऽदित्यं ( अदितिदेवताकम् ) चरुं निर्वपति । माश ५, ,,४ ।

आदित्यो ह्यस्य सर्वस्येष्टे । माश ६,,,१७

पञ्चचितिकस्याग्नेः मन्त्राः - सं दिव्येन दीदिहि रोचनेनेति(वा.सं. २७.१ ) असौ वा ऽ आदित्यो दिव्य रोचनम् (दिव्यो गन्धर्वः)। माश ,, , २६

रजांसि देवः सविता महित्वनेति (वा.सं. ११.५) इमे वै लोका रजांस्यसावादित्यो देवः सविता । माश , , , १८

सौ वा आदित्य एषोऽश्वस्त एतेन वज्रेण दक्षिणतो रक्षांसि नाष्ट्रा अपहत्याभयेऽनाष्ट्र एतं यज्ञमातन्वत ६.३.१.२९

अथाजस्य । अयं वाऽअग्निर्ऋतमसावादित्यः सत्यं, यदि वासावृतमय सत्यमुभयम्वेतदयमग्निः । माश ,,,१०

स य स कूर्मो (यज्ञो [माश १४, , , ६.]) ऽसौ स आदित्यः । माश ६, , ,,,, , , १४,,,,

क्षत्रं वै वैश्वानरो विडेष आदित्यश्चरुः क्षत्रं च तद्विशं च करोति वैश्वानरं पूर्वं निर्वपति क्षत्रं तत्कृत्वा विशं करोति। एक एष भवति । एकदेवत्य एकस्थं तत्क्षत्रमेकस्थां श्रियं करोति चरुरितरो बहुदेवत्यो भूमा वा एष तण्डुलानां यच्चरुर्भूमो एष देवानां यदादित्या विशि तद्भूमानं दधाती ६.६.१.८

सत्य हैतद्यद्रुक्मः।...... तद्यत्तत्सत्यम् । असौ स आदित्यः । माश ६,,,१-२ ।

तद्यत्तत्सत्यम् । असौ स आदित्यः (+य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः [माश १४,,,२३]) माश ६, , , , १४,,,२३ ।।

यद्वेव रुक्मं प्रतिमुच्य बिभर्ति । असौ वा आदित्य एष रुक्मो नो हैतमग्निम्मनुष्यो मनुष्यरूपेण यन्तुमर्हति (+ एष हीमाः सर्वाः प्रजा भतिरोचते [माश ७, , , १०])। माश , , ,;,,,१०।

अथ शिक्यपाशं प्रतिमुञ्चते । विश्वा रूपाणि प्रतिमुञ्चते कविरित्यसौ वा आदित्यः कविर्विश्वा रूपा शिक्यं । माश ९,,,१५, , , ,

असौ वा आदित्यो हꣳꣳसः शुचिषत् । माश , , , ११ ।।

आदित्यो वाऽअस्य (अग्नेः) दिवि वर्चः । माश ७,,,२३ ।

य आहवनीयेऽग्निः स प्राणः सोऽसावादित्योऽथ य आग्नीध्रीयेऽग्निः स व्यानः स उ अयं वायुः.. – ७.१.२.२१

ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तादिति । असौ वा आदित्यो ब्रह्माहरहः पुरस्ताज्जायते (+ असौ द्यौर्ब्राह्मणी शांआ.])। माश ,,,१४, १४, , , ; शांआ १, ५।

वि सीमतः सुरुचो वेन आवरिति मध्यं वै सीमेमे लोकाः सुरुचो असावादित्यो वेनो यद्वै प्रजिजनिषमाणो ऽवेनत्तस्माद्वेनः । माश , , , १४

कूर्मेष्टकोपधानम् - स यः कूर्मोऽसौ स आदित्योऽमुमेवैतदादित्यमुपदधाति तं पुरस्तात्प्रत्यञ्चमुपदधात्यमुं तदादित्यं पुरस्तात्प्रत्यञ्चं दधाति - ७.५.१.६

इत ऊर्ध्वं प्राञ्चं चिनोत्यसौ वा आदित्य एषोऽग्निरमुं तदादित्यमित ऊर्ध्वं प्राञ्चं दधाति तस्मादसावादित्य इत ऊर्ध्वः प्राङ्धीयते - ७.५.१.३६

आदित्यो वाऽएष गर्भो यत्पुरुषः ।माश ७,५,२,१७ ।

चित्रं देवानामुदगादनीकमिति । असौ वा आदित्य एष पुरुषस्तदेतच्चित्रं देवानामुदेत्यनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेरित्युभयेषां हैतद्देवमनुष्याणां चक्षुः – ७.५.२.२७

अथ पश्चात् । असौ वाऽ आदित्यो विश्वव्यचाः यदा ह्येवैष उदेत्यथेद सर्वं व्यचो भवति। माश , , , ,  ६, , १८ ।

एष एव वज्रः पञ्चदशस्तस्यासावेवादित्यः षोडशी वज्रस्य भर्ता स एतेन पञ्चदशेन वज्रेणैतया त्रिष्टुभा दक्षिणतः पाप्मानमपाहत तथैवैतद्यजमान एतेन पञ्चदशेन वज्रेणैतया त्रिष्टुभा दक्षिणतः पाप्मानमपहते - ८.५.१.१०

व्यचश्छन्द इत्यसौ वा आदित्यो व्यचश्छन्दः - ८.५.२.३

इयं वा अषाढाऽसावादित्य स्तोमभागा अमुं तदादित्यमस्यां प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापयति - ८.५.४.२

पञ्चमीचितिः - यल्लोकम्पृणान्ता अन्याश्चितयो भवन्ति नात्र लोकम्पृणामुपदधाति काऽत्र लोकम्पृणेत्यसौ वा आदित्यो लोकम्पृणैष उ एषा चितिः - , , ,

असौ वाऽ आदित्यो लोकम्पृणा (इष्टका), (+एष हीमांल्लोकान्पूरयति [माश ८,,,१.J)। माश , , , ,,,;

तस्य (आदित्यस्य ) रथप्रोतश्चासमरथश्च सेनानीग्रामण्याविति वार्षिको तावृतू । माश ८,, ,१८।

असौ वा आदित्यो लोकम्पृणैष हीमांल्लोकान्पूरयत्यमुमेवैतदादित्यमुपदधाति तां सर्वासु चितिषूपदधातीमेवै लोका एताश्चितयोऽमुं तदादित्यमेषु लोकेषु दधाति तस्मादेष सर्वेभ्य एवैभ्यो लोकेभ्यस्तपति - ८.७.२.१

२२३. तदसावादित्य इमांल्लोकान्त्सूत्रे समावयते तद्यत्तत्सूत्रं वायुः सः । माश ८, , ,१० ।

अथ प्रजापतेर्हृदयं गायति । असौ वा आदित्यो हृदयं श्लक्ष्ण एष श्लक्ष्णं हृदयं परिमण्डल एष परिमण्डलं हृदयमात्मन्गायति । माश , , , ४०.।

स यः स वैश्वानरः । इमे स लोका इयमेव पृथिवी विश्वमग्निर्नरोऽन्तरिक्षमेव विश्वं वायुर्नरो द्यौरेव विश्वमादित्यो नरः - ९.३.१.३

स यः स वैश्वानरः ( संवत्सरः [माश १०, , , ३]) असौ स आदित्यः। माश ९, ,,२५, १०,,,३ ।

वसोर्धारा -- संहित इति । असौ वाऽ आदित्यः सꣳꣳहितः एष ह्यहोरात्रे संदधाति । माश , , ,

राष्ट्रभृद्धोमः- यद्वेव रथशीर्षे जुहोति । असौ वा ऽ आदित्य एष रथः एतद्वै तद्रूपं कृत्वा प्रजापतिरेतानि मिथुनानि परिगत्यात्मन्नधत्तात्मन्नकुरुत । माश , , , १५

वातहोमाः - स्वर्ण सूर्यः स्वाहेति(वासं. १८.५०)  असौ वा आदित्यः सूर्यः । माश , , ,२३

स यः स धातासौ स आदित्यः । अथ यत्तद्दिशां परमं क्रान्तमेतत्तद्यस्मिन्नेष एतत्प्रतिष्ठितस्तपति - ९.५.१.३७

स एष (आदित्यः) एकशतविधस्तस्य रश्मयः शतं विधा एष एवैकशततमो य एष तपति । माश १०,,,३ ।

जगती छन्द आदित्यो देवता श्रोणी। माश १०, , , ६ ।

या वै सा वागग्निरेव स यत्तच्चक्षुरसौ स आदित्यो यत्तन्मन एष स चन्द्रमा यत्तच्छ्रोत्रं दिश एव तत् १०.३.३.७

अग्निरेव पुरः अग्निं हि पुरस्कृत्येमाः प्रजा उपासत आदित्य एव चरणं यदा ह्येवैष उदेत्यथेदं सर्वं चरति तदेतद्यजुः सपुरश्चरणमधिदेवतं - १०.३.५.३

तस्यैतदन्नं क्यमेष चन्द्रमास्तदर्क्यं यजुष्टः (अर्कस्य = आदित्यस्य) । माश १०, ,,२२ ।

सा या सा वागसौ स आदित्यः । माश १०, , ,४।।

मण्डलमेवऽर्चः (आदित्यस्य)। माश १०, , ,५॥

ऽथ य एष एतस्मिन् (आदित्य)ण्डले पुरुषः सोऽग्निस्तानि यजूंषि स यजुषां लोकः - १०.५.२.१

यदेतन् (आदित्य-) मण्डलं तपति। तन्महदुक्थं ता ऋचः स ऋचां लोकः । माश १०,, ,१।

असौ वाऽ आदित्यो विवस्वानेष ह्यहोरात्रे विवस्ते तमेष ( मृत्युः ) वस्ते सर्वतो ह्येनेन परिवृतः । माश १०,,,

षष्टिश्च ह वै त्रीणि च शतान्यादित्यस्य रश्मयः । माश १०, , , ४ ।

षष्टिश्च ह वै त्रीणि च शतान्यादित्यं नाव्याः समन्तं परियन्ति । माश १०,,, १४ ।

एष वै सुततेजा वैश्वानरः ( यदादित्यः)। माश १०, , , ८ ।

चक्षुस्त्वाऽएतद्वैश्वानरस्य ( यदादित्यः) । माश १०, ,, ८ ।

एतद्वै 'ककुभ रूपं वृषभस्य रोचते बृहद्' ( मा ८, ४९) य एष (आदित्यः) तपति । माश ११,,,१० (तु. तैसं ३,,,२) ।

कतम आदित्या इति। द्वादश मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीदं सर्वमाददाना
यन्ति ते यदिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति
माश ११.६.३.८

कतम आदित्या इति, द्वादश मासाः संवत्सर इति होवाच । एत आदित्याः ( °रस्यैत आदित्या माश.]) एते हीदं सर्वमाददाना यन्ति, (+ते यदिदं सर्वमादाना यन्ति [माश.) तस्माद् आदित्या इति । माश ११, , , ; जै २,७७ ।

अथ यद्विषुवन्तमुपयन्ति । आदित्यमेव देवतां यजन्ते । माश १२,,,१४

स वा एष संवत्सर एव। यत्सौत्रामणी। चंद्रमा एव प्रत्यक्षात् आदित्यो यजमानः। - १२.८.२.३६

अश्वमेधः - युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवास्मा आदित्यं युनक्ति  । माश १३, , ,

एकविंशं मध्यममहर्भवति असौ वा आदित्य एकविंशः सोऽश्वमेधः - १३.३.३.३

एकविंशं मध्यममहर्भवति असौ वा आदित्य एकविंशः सोऽश्वमेधः स्वेनैवैनं स्तोमेन स्वायां देवतायां प्रतिष्ठापयति तस्मादेकविंशम् - १३.५.१.५

श्मशानम् - असौ वा आदित्यः पाप्मनो ऽपहन्ता स एवास्मात्पाप्मानमपहन्त्यथो आदित्यज्योतिषमेवैनं करोति । माश १३, ,,११

स यः स विष्णुर्यज्ञः सः । स यः स यज्ञो ऽसौ स आदित्यः । माश १४, ,, ६।

तत् ( छिन्नं विष्णोश्शिरः) पतित्वासावादित्योऽभवत् । माश १४, , , १० ।

अथेमं विष्णुं यज्ञं त्रेधा व्यभजन्त। वसवः प्रातःसवन  रुद्रा माध्यन्दिनꣳꣳ सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । माश १४,,,१५

अथैष वाव यशः य एष (आदित्यः) तपति । तद्यत्तदादित्यो यशो यज्ञो हैव तद्यशः.. माश १४,,,३२

अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्या हि देवताभ्यां यजमानाः स्वर्गं लोक रोहन्ति । माश १४,,,

एष वै वृषा हरिः य एष ( आदित्यः) तपति । माश १४, , , २६ ।

आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूषि वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते । माश १४,,,३३ ।

दीक्षा - अग्निर् हि देवानाम् आसीनानां श्रेष्ठः।....आदित्यो हि देवानाम् उत्थितानां श्रेष्ठः – जै २.२२;

२२८ – मै १.५.९,

२६७ – काठ ७.६;

३७८ असा आदित्योऽग्निः – काठसंक १२२,

३७९ – माश ६.४.१.१, ३.९, १०,

३८० – तै १.६.६.२, तै १.१.६.२;

३८१ – मै २.१.२, तैआ ५.७.१०,

३८६ आदित्योऽग्निः – काठसंक ८३,

४३७एष वा अग्निर्वैश्वानरो य एष तपति । तस्य रात्रिस् समिद् अहर् ज्योती रश्मयो धूमो नक्षत्राणि विष्फुलिङ्गाश् चन्द्रमा अङ्गाराः।– जै १.४५,

४३९ तैसं ५.२.८.१-२, मै १.६.३, ६, तै २.१.४.५, ३.७.३.२;

५२६ – कौ ३.६,

प्रो अयासीद् इन्दुर् इन्द्रस्य निष्कृतम् इति प्रवद् ऋचा च साम्ना च.... प्रेति भृगवः प्रेत्य् अङ्गिरसः प्रेत्य् आदित्या स्वर्गं लोकम् आरोहन्।जै ३.१८८

अग्निहोत्र- ४२ – काठ ६.१,

५२ – काठ ६.३;

तद् होवाचारुणिर् द्यौर् वा अग्निहोत्री तस्या आदित्य एव वत्स इयम् एवाग्निहोत्रस्थाली। – जै १.६०

अङ्गिरस्- २ – काठ ९.१६,

२० – माश ३.५.१.१७,

इदं राधः प्रतिगृह्णीह्य् अंगिर इदं राधो बृहत् पृथु देवा ददतु वो वरम् तद् वो अस्तु सुचेतनं युष्मे अस्तु दिवे दिवे प्रत्य् एव गृभायत॥ इत्य् एवैनान् प्रत्यग्राहयन्। ततो वा आदित्याः पूर्वे स्वर्गं लोकम् अगच्छन्न्, अहीयन्तांगिरसः। – जै २.११७, तु. तां १६.१२.१,

आदित्याश्चाङ्गिरसश्चादीक्षन्त ते स्वर्गे लोकेऽस्पर्धन्त तेऽङ्गिरस आदित्येभ्यः श्वः सुत्यां प्राब्रुवंस्त आदित्या एतमपश्यंस्तं सद्यः परिक्रीयायास्यमुद्गातारं वृत्वा तेन स्तुत्वा स्वर्गं लोकमायन्नहीयन्ताङ्गिरसः - तां १६.१२.१

२३ – गो २.६.१४,

२४ – ऐ ४.१७,

२७ – मै ३.४.२;

अध्वर्यु- १३ – ष २.५;

अनडुङ्- ३ – काठ ६.३, क ४.२;

अनुख्यातृ १ – तैसं ३.३.८.५, तै ३.७.५.४, गो २.२.१९, ४.९

अन्त- ९ – काठ ११.४;

अप्- ५७ – तैआ १.२२.३;

१३४ – तैआ १.२२.८ ;

अपरिपर- काठ २४.६, क ३७.७ (तु. मै ३.७.७);

अप्रतिधृष्या- ऐ ५.२५;

असाव् एवाभिप्लवो यो ऽसौ तपति। एष हीदं सर्वम् अभिप्लवते। तद् आहुर् यत् पृष्ठ्याभिप्लवाव इत्य् आचक्षते ऽभिप्लवम् उ वै पूर्वम् उपयन्ति। कथं पृष्ठ्यः पूर्व उपेतो भवतीति। स ब्रूयाद् यद् एवायम् अवरो वायुः पवते पर आदित्यस् तेनेति। – जै २.३१

३ – माश १२.२.२.१०,

अमृत- ३४ – तैसं ४.४.५.२;

तद् आहुः किं संवत् किं सरं किम् अयनम् इति।.... आदित्य एवायनम्। स ह्य् एषु लोकेष्व् एति। अथाध्यात्मम्। ... प्राण एवायनम्. स ह्य् अस्मि्न् सर्वस्मिन्न् एति। – जै २.२९

अर्क- ५ – काठ १०.८, माश १०.६.२.६;

असावादित्यो ऽर्कपुष्पम् - शांआ १.४;

अश्मन्- ३ – माश ९.२.३.१४;

त एतम् आदित्यास् सद्यःक्रीयं यज्ञं समभरन्। ते ऽब्रुवन्न् अग्ने चिरं तद् यच् छ्व, इमाम् एव वयं तुभ्यम् अद्य सुत्यां प्रब्रूमः। तेषां नस् त्वं होतासि, गौर् आंगिरसो ऽध्वर्युर्, बृहस्पतिर् उद्गाता, अयास्यो ब्रह्मेति सर्वान् अवृणत।– जै ३.१८८

३८ – काश ३.१.८.१, ३,

५८ – तै ३.९.२१.१,

५९ – कौ ३०.६;

६९ – मै ४.८.३;

अग्निम् उपदिशन् वाचायम् अर्क इत्य् असाव् अश्वो मेधो मेध्य इत्य् आदित्यम्। सो ऽहम् अमुम् अश्वं मेधं मेध्यं अस्मिन्न् अर्के सायं जुहोमीमम् अर्कम् अमुष्मिन्न् अश्वे मेधे मेध्ये प्रातर् जुहोमि। – जै १.२५

अग्निम् उपदिशन् वाचेयम् इतिर् इत्य् असौ गतिर् इत्य् आदित्यम्। - जै १.२५

४ – तैसं ५.७.५.३, माश ९.४.२.१८,

५ – माश १३.५.१.५ ;

एतस्माद् ध वै विश्वे देवा अपक्रामन्ति यस्याहवनीयम् अनुद्धृतम् अभ्य् अस्तम् एति। स दर्भेण सुवर्णं हिरण्यं प्रबध्य पश्चाद् धरेत्। तद् एतस्य रूपं क्रियते य एष तपति। ... एतस्माद् ध वै विश्वे देवा अपक्रामन्ति यस्याहवनीयम् अनुद्धृतम् अभ्युदेति। स दर्भेण रजतं हिरण्यं प्रबध्य पुरस्ताद् धरेत्। तच् चन्द्रमसो रूपं क्रियते। रात्रेर् वा एतद् रूपम्।– जै १.६२ (तु. माश १२.४.४.६),

२आज्य-१ – मै १.९.२;

४ – काठ ९.१० 

 

आदित्य-ग्रह

१. अथैष सरसो ग्रहो यदादित्यग्रहः । कौ १६,,३०,१।

२. आदित्यग्रहं (अनु) गावः (प्रजायन्ते) । तैसं ६, , १०,१।

३. सवनततिर्वा आदित्यग्रहः । कौ १६, १।

आदित्य-धामन्

१. आदित्यधामानो वा अन्ये (उत्तरे ।मै..) प्राणा अङ्गिरोधामानोऽन्ये (अधरे ।मै.1) । मै ३,,; काठ २०,११ ।

२. ये पुरस्तात् (प्राणाः) त आदित्यधामानः । काठ २०, ११, क ३१,१३ ।

आदित्य-पात्र

१. अथैतदादित्यपात्रं पुनः प्रयुज्यते, गाꣳꣳ वा एतत् प्रति । मै ४, , ८ ।

२. आदित्यपात्रं प्रयुज्यते गाव एव तत् पशूनामनुप्रजायन्ते । काठ २८,१० ।

३. यदादित्यपात्रं प्रयुज्यते गा एव तेन पशूनां दाधार । क ४५,१ ।

आदित्य-वत्- वरुणायादित्यवते यवमयं चरुम् (निर्वपेत् )। मै २, , ६ ।

आदित्य-स्थ- पुरुषो यजूषि (आदित्यस्थः) । माश १०,,,५।

आदित्या- पष्ठौही गर्भिण्यादित्या। मै २,,१३ ।

 

*अव्याधितं चेत्स्वपन्तमादित्योऽभ्यस्तमियाद्वाग्यतोऽनुपविशन्रात्रिशेषं भूत्वा येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तम इति पञ्चभिरादित्यमुपतिष्ठेत आश्व.गृ.सू. 3.7.1