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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

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Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

अश्व

 

टिप्पणी : मानव की ज्ञान, क्रिया और भावना, इन तीन चेतनाओं में से चेतना का भावनात्मक रूप जो सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होने में समर्थ है, अश्व कहलाता है। वेदों में जब अश्व के बदले अश्वाः शब्द होगा तो वह केवल शरीर में व्याप्त होने में समर्थ होगा। अश्व बहिर्मुखी इन्द्रियों के द्वारों से बाहर को दौड लगाता है और काम क्रोधादि से अमेध्य पशु बन जाता है। उसे मेध्य बनाने के लिए अश्वमेध यज्ञ की आवश्यकता होती है। - फतहसिंह

गर्ग ५.२.१८( इन्द्र - अनुचर कुमुद का इन्द्र के शाप से केशी अश्व बनना )

पुराणेषु कथा अस्ति यत् कृष्णस्य हननार्थं कंसः केशीअसुरस्य प्रेषणं करोति। केशी असुरः अश्वरूपं धारयति। तस्य वधार्थं कृष्णः तस्य पादौ गृहीत्वा तं भ्रामयति एवं दूरे प्रक्षिपति। असुरः कृष्णस्य कण्ठं गृह्णाति। तदा कृष्णः स्वबाहुं तस्य उदरे प्रवेशयति येन असुरस्य मृत्युः भवति। पूर्वभवे केशी इन्द्रस्य अनुचरः कुमुदः आसीत् एवं तस्य कृत्यं इन्द्रोपरि छत्रभ्रमि धारणं आसीत्। एकदा कौतूहलवशात् सः अश्वमेधहयस्य उपरि आरूढः भवति यस्मात् कारणात् इन्द्रः तं शापं दत्वा तं हयरूपे परिवर्तयति। अत्र छत्रभ्रमि शब्दः ध्येयः अस्ति। ग्रहादि पिण्डाः सूर्यस्य परितः स्वकक्षायां भ्रमन्ति एवं स्वअक्षस्य परितः अपि भ्रमन्ति। स्वकक्षायां भ्रमणे यः संवेगः भवति, तस्य संज्ञा कक्षीय संवेगः अस्ति। स्वअक्षस्य परितः भ्रमणे यः संवेगः भवति, तस्य संज्ञा भ्रमि संवेगः अस्ति। कक्षा एवं भ्रमिसंवेगयोः एकः युग्मनम् अस्ति (स्पिन-आर्बिट कपलिंग)। कथनमस्ति यत् तन्त्रविशेषे भ्रमि एवं कक्षासंवेगयोः योगः स्थिरः अस्ति। यदि भ्रमिसंवेगे ह्रासं भवति, तदा कक्षासंवेगे वृद्धिः भविष्यति। केश्यसुरसस्य संदर्भे अयं प्रतीयते यत् भ्रमिसंवेगस्य रूपान्तरणं कक्षासंवेगे भवति। भ्रमि एवं कक्षासंवेगयोः कः सम्बन्धं अस्ति, अयं अस्मिन् समीकरणे प्रस्तावितं अस्ति –

S= A(m/M)L, A = 2/(3gcosथीटा)

अत्र  m पिण्डस्य संहति(मात्रा) अस्ति,  M सूर्यस्य संहतिः अस्ति। यदि भ्रमिसंवेगस्य माने ह्रासं भवति, तदा पिण्डस्य संहत्यां अपि ह्रासं भविष्यति।

 

     ऋग्वेद के १.१६२ १.१६३ सूक्तों का देवता अश्व है। अश्व शब्द वेद के बहुधा प्रयुक्त शब्दों में से एक है। ऋग्वेद में प्रायः सभी देवताओं के साथ अश्व का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। व्यक्तिगत जीवन में साधना के क्षेत्र में अश्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अश्व हमारी बहिर्मुखी वृत्तियों का, जिन्हें वैदिक साहित्य में सर्व नाम दिया गया है, का प्रतीक है(ब्रह्मसूत्र ३.४.२६ इत्यादि)। इन बहिर्मुखी वृत्तियों को सम्यक् प्रकार से नियन्त्रित करने की आवश्यकता होती है। संभवतः इसी कारण से ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में देवों से प्रार्थना की गई है कि वह अश्वों को रथ से युक्त कर दें। रथ रत धातु से बना है, अर्थात् जो आत्मा में रत हो सके। बाहरी जीवन में रथ राजमार्ग पर चलता है। बहिर्मुखी वृत्तियों पर नियन्त्रण का दूसरा विकल्प अश्व के सभी अंगों को देवों की शक्तियों द्वारा नियन्त्रित करना है, जैसा कि ऋग्वेद १.१६२ व १.१६३ के अश्वसूक्तों व शुक्ल यजुर्वेद के अध्याय २५ में किया गया है। अन्तर्मुखी होने के लिए अत्युत्तम उपायों में से एक है अपने श्वास-प्रश्वास पर ध्यान लगाना। सतत् प्रयत्नों से यह संभव है कि जो श्वास शरीर के अन्दर बिल्कुल प्रवेश नहीं कर रहा था, वह शरीर के प्रत्येक अंग में जाता हुआ प्रतीत होने लगे(चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से यह असंभव सा लगता है। वहां तो श्वास का मार्ग केवल फेफडों तक ही है)।जब श्वास नाभि से नीचे जाता हुआ और फिर मूलाधार से भी नीचे पांवों में होता हुआ पादाङ्गुष्ठ तक जाने लगे, यही उत्तम स्थिति है। महाभारत में उत्तङ्क ऋषि द्वारा जिस अग्नि रूपी अश्व के अपान का धमन करने की बात कही गई है, वह यही स्थिति  है। इस अपान देश का धमन करने से नाग प्राण व्याकुल हो जाते हैं। वह उत्तंक के कुण्डलों को लौटा देते हैं। हमारे पैर नागों का ही रूप हैं।

     ऋग्वेद के बहुत से मन्त्रों में देवताओं से अग्नि, अश्विनौ, सोम, उषा आदि से गोमत और अश्वावत होकर आने की कामना की गई है। अग्नि का अश्व बनना विशेष महत्त्वपूर्ण है। अग्नि अश्व बन कर ही देवों के लिए हवि का वहन करता है। ऐतरेय ब्राह्मण ३.४९ के अनुसार अग्नि अश्व बनकर उक्थों से असुरों को बाहर निकाल फेंकता है। इस संदर्भ में भविष्य पुराण में पावकीय हय पर वडवामृत हय की विजय ध्यान देने योग्य है। काण्व शतपथ ३.१.८.२ के अनुसार अमावास्या के दिन चन्द्रमा आदित्य में और आदित्य अग्नि में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार अमावास्या की रात्रि को अग्नि अश्व रूप में रहता है। इसके विपरीत पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा का अश्व रूप होता है। एक तप्त है तो दूसरा शीतल। ऋग्वेद के नवम मण्डल की कुछ ऋचाओं जैसे ९.६३.१८ में सोम से अश्ववत्, गोमत और हिरण्यवत् होकर क्षरण करने की प्रार्थना की गई है। सूर्य के रथ के वाहक सात अश्वों को पुराणों में वेद रूप तथा छन्द रूप कहा गया है, जबकि सूर्य स्वयं एक अश्व है(शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.२९, ऐतरेय ब्राह्मण ६.३५)। बृहदारण्यक उपनिषद १.१.१ इत्यादि के अनुसार उषा मेध्य अश्व का शीर्ष है। सूर्य चक्षु, वात प्राण इत्यादि इत्यादि(तुलनीय : शुक्ल यजुर्वेद अध्याय २५)। पुराणों में उषा और अश्व का सम्बन्ध किस रूप में प्रस्फुटित हुआ है, यह स्पष्ट नहीं है। अश्वमेध यज्ञ में सायंकाल अश्व के पूर्व पदों में आहुति देते हैं। प्रातःकाल उत्तर पदों में( काण्व शतपथ ३.१.८.२, शतपथ ब्राह्मण १.३.१.५.३, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.९.३)। पूर्वपदों में आहुति से धृति/क्षेम और विधृति की तथा उत्तर पदों में आहुति से रन्ति और रमति की प्राप्ति होती है। आश्वमेधिक अश्व को यूप से बांधने के लिए जिस रस्सी का प्रयोग होता है, वह १३ अरत्नि लम्बी होती है। १२ अरत्नियां संवत्सर के १२ मासों और १३वीं अरत्नि अधिक मास का प्रतीक है। यह संवत्सर एक ऋषभ/बैल का रूप है जिसका ककुद १३वां अधिक मास है(तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.३.३)। इस प्रकार अश्व को ऋषभ से जोडते हैं।

     अश्व शुद्ध रूप में क्या है, यह शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.२८ के आधार पर समझा जा सकता है। प्रजापति के अश्रु ही अश्व बन गए। वह अश्रु करुणा के अश्रु हैं। यह भावनात्मक स्थिति है। बृहदारण्यक उपनिषद १.१.२ इत्यादि के अनुसार अश्व हय रूप धारण करके देवों का, वाजी नाम से गन्धर्वों का, अश्व नाम से मनुष्यों का और अर्वा नाम से असुरों का वहन करता है। पुराणों तथा वेदों में दधीचि द्वारा अश्वशीर्ष धारण करके अश्विनौ देवगण को मधु विद्या का उपदेश करने का उल्लेख आता है(ऋग्वेद १.८४.१४, १.११७.२२, १.११९.९)। यह मधु विद्या क्या है, इसका वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद २.५ में किया गया है। पृथिवी सब भूतों का मधु है और सब भूत पृथिवी के लिए मधु हैं। यही स्थिति आपः और रेतस के बीच, अग्नि और वायु के बीच, वायु व प्राण, आदित्य व चाक्षुष तेज, दिशा व श्रोत्र, चन्द्रमा व मन, विद्युत व तेजस, स्तनयित्नु व शब्द, आकाश व हृद्याकाश, धर्म व धार्म और सत्य व सात्य के बीच है। साधना के स्तर पर, सब भूत हमारे पृथिवी रूपी शरीर के लिए मधु रूप हों, यह स्थिति काल्पनिक सी प्रतीत होती है। दधीचि और मधुविद्या के बीच सम्बन्ध का कारण यह प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में दधि, मधु और घृत इन तीन प्रतीकों को परम अन्न कहा गया है। साधना में पहली स्थिति दधि की होती है। यह साधना में दशमी तिथि है। फिर अन्य अवस्थाएं हैं।

     छान्दोग्य उपनिषद २.६.१ में साम/भक्ति की पांच अवस्थाएं कही गई हैं। हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन। इनमें हिंकार का प्रतिनिधि पशु अजा, प्रस्ताव का अवि, उद्गीथ का गौ, प्रतिहार का अश्व तथा निधन का पुरुष है। प्रस्ताव व प्रतिहार की अवस्थाएं प्राणों को वापस लाने की अवस्थाएं हैं। इनके निहितार्थों का स्पष्टीकरण छान्दोग्य उपनिषद में कईं उदाहरणों के माध्यम से किया गया है। अन्यत्र कहा गया है कि अन्न का प्रतिहरण करने की अवस्था को प्रतिहार कहते हैं। अश्व को ब्राह्मण ग्रन्थों में अन्नाद अर्थात् अन्न का भक्षण करने वाला कहा गया है। प्रजा को भी अन्न ही चाहिए। यह अन्न मधु अथवा मधुमती अवस्था हो सकता है तथा प्रजा हमारी मन की भावनाएं, विचार आदि हो सकते हैं। शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.३ में प्रतिहर्ता को भिषक् या व्यान प्राण कहा गया है।

     पद्मपुराण में गीता के १५वें अध्याय के श्रवण से अश्व रूप धारी सरभ-भेरुण्ड नामक सेनापति की मुक्ति का वर्णन है। गीता के १५वें अध्याय में संसार रूपी अश्वत्थ वृक्ष, परमेश्वर के स्वरूप, क्षर-अक्षर और पुरुषोत्तम के तत्त्व का विवेचन है। इस प्रकार सरभ नाम क्षर का उत्तर रूप प्रतीत होता है। वैदिक साहित्य में शरभ एक अमेध्य पशु है जो अजा के आलभन करने पर उत्पन्न हो जाता है। इस क्षर अश्व का निवास स्थान अश्वत्थ वृक्ष है। अश्वत्थ वृक्ष के रूप की कल्पना गीता में तथा वैदिक साहित्य में इस प्रकार की गई है कि इसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर होती हैं, जैसी कि स्थिति मनुष्य के मानसिक शरीर की है। लेकिन पाप कर्मों के फलस्वरूप ऐसा भी हो सकता है कि इसका वासना रूपी मूल नीचे और शाखाएं ऊपर की ओर हो जाएं(गीता १५.२)। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.१२.२ में अश्वत्थ को अश्व का व्रज/अस्तबल कहा गया है।

     महाभारत आदि में अश्वों के विभिन्न प्रकारों का जो वर्णन मिलता है, वैसा ही वर्णन शुक्ल यजुर्वेद के अश्वमेध सम्बन्धी अध्यायों २२-२५ में भी मिलता है। व्याख्या अनुसंधेय है। पुराणों में कद्रू व विनता के बीच उच्चैःश्रवा अश्व को लेकर विवाद की कथा का वर्णन शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.५ में भी किया गया है जहां अग्नि को श्वेत अश्व कहा गया है। डा. फतहसिंह ने अपनी पुस्तक वैदिक दर्शन में इस कथा की व्याख्या का प्रयास किया है। उनके अनुसार कद्रू स्थिर पृथिवी तत्त्व है, यह महामोहात्मक है। सुपर्णी नाना रूप में प्रकाश करने वाला द्यौ तत्त्व है। सुपर्णी का अर्थ है जिसके पंख लगे हों । यह उड कर बहुत दूर तक जा सकती है। सूर्य या अग्नि रूपी अश्व की किरण रूपी पुच्छ(मानुषी त्रिलोकी) को स्थिर पृथिवी तत्त्व नहीं देख सकता। उसे तो वह काला ही प्रतीत होगा।

     महाभारत में वर्णित राजा नल व अश्वविद्या के संदर्भ की व्याख्या अक्ष शीर्षक के अन्तर्गत की जा चुकी है।

     महाभारत में वर्णित ययाति-कन्या माधवी ब्राह्मी शक्ति का प्रतीक है। यह वही मधु विद्या है जिसका उपदेश दधीचि ऋषि अश्वमुख से अश्विनौ को करते हैं फतहसिंह

     पुराणों में सत्यवान् और सावित्री की कथा की शतपथ ब्राह्मण १३.४.२.६ में अश्वमेध के अन्तर्गत वर्णित सावित्रेष्टि के संदर्भ में समुचित व्याख्या अनुसंधेय है। सावित्रेष्टि में सविता को सत्यप्रसवा कहा गया है। पुराणों में एक ओर सत्यवाक् का पिता द्युमत्सेन है जो बहिर्मुखी वृत्ति के अभाव में अन्धा है। यह सत्यवाक् को जन्म देता है जिसकी अश्वों से खेलने में बहुत रुचि है। दूसरी ओर सावित्री का पिता अश्वपति है।

     महाभारत में नकुल व सहदेव को अश्विनौ के अंश कहा गया है। विराट पर्व में नकुल को अश्वों का विशेषज्ञ और सहदेव को गायों का विशेषज्ञ कहा गया है। ऋग्वेद ८.२२.१७ आदि में अश्विनौ से अश्वावत् और गोमत् होकर वर्ति/गृह में आने की प्रार्थना की गई है।

     महाभारत में शल द्वारा मृगया के पश्चात् वामदेव ऋषि से प्राप्त अश्व न लौटाने के संदर्भ में, वामदेव ने एक राक्षस द्वारा शल के चार टुकडे करा दिए। फिर वामदेव ने शल के भ्राता दल से अश्व वापस मांगे तो दल ने विष बुझे बाण से वामदेव को मारना चाहा। लेकिन बाण से उसका १० वर्षीय पुत्र श्येनजित् ही मर गया। इस कथा में शल, दल और बल तीनों भ्राता स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के प्रतीक हो सकते हैं, जबकि वामदेव स्वयं ब्रह्म है। शल द्वारा मृग की खोज ब्रह्म की खोज है। मृग अर्थात् जो मृग्य, ढूंढने योग्य है। इस ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए वाम्य अश्वों की आवश्यकता है। प्राण-अपान के रूप में अश्वों का पहला युगल है। उसके पश्चात् मन की अर्वाक्-पराक् गति के रूप में अश्वों का दूसरा युगल है। इसी प्रकार अन्य उच्चतर युगल हैं। शल गति व आच्छादन के अर्थों में, दल विदारण के अर्थ में और बल प्राण के अर्थ में आता है। वामदेव ने राक्षस द्वारा शल के चार टुकडे करा दिए। अभी तक शल रूपी स्थूल शरीर समझता था कि मैं शरीर ही हूं। लेकिन अब उसके स्थूल शरीर, प्राण, मन और बुद्धि रूपी चार टुकडे हो गए। दल का दस वर्षीय पुत्र श्येनजित् पांच कर्मेन्द्रियों और पांच ज्ञानेन्द्रियों वाला मन है जो श्येन रूपी अग्नि को जीतना चाहता है। - फतहसिंह

     पुराणों में श्यामकर्ण वाले जिस अश्वमेधीय अश्व का पुनः-पुनः उल्लेख आता है, वैदिक साहित्य में उसका मूल अनुसंधेय है। ऋग्वेद १०.६८.११ में श्याव अश्व का उल्लेख है जिसकी सज्जा नक्षत्रों रूपी आभूषणों से की जाती है। ऋग्वेद के बहुत से सूक्तों जैसे ५.५२ ८.३५ का ऋषि अत्रि-पुत्र श्यावाश्व है। ऋग्वेद की अश्व सम्बन्धी बहुत सी ऋचाएं हैं जिनका सम्यक् अर्थ अनुसन्धेय है। उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.११६.७ १.११७.६ में अश्व के शफों/खुरों को यज्ञ में सोम को छानने के लिए प्रयुक्त छलनी कहा गया है जिससे मधु के १०० घडे भरे जाते हैं। वैदिक निघण्टु में अश्व के २६ पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख है जिन पर श्रीमती माधुरी साहू ने शोध प्रबन्ध  लिखा है।

प्रथम प्रकाशन १९९४ ई.

संदर्भ

*तदाहुर्विवृत्तेऽश्वस्येष्टिं निर्वपंतीति। एष वै सोमो राजा देवानामन्नम् यच्चन्द्रमाः। स यत्रैष एतां रात्रिं न पुरस्तान्न पश्चाद्ददृशे। तदिमं लोकमागच्छति। सोऽस्मिँल्लोके विवर्तते। स यदामावास्येन यजते। विवृत्त एवास्यैतदिष्टिं निर्वपति। अथ यत् पौर्णमासेन यजते, अश्वमेधमेवैतदालभते तमालभ्य देवेभ्यः प्रयच्छति। - मा.श. ११.२.५.४

     उपरोक्त कथन में कहा जा रहा है कि अमावास्या को अश्व रूपी चन्द्रमा इस लोक में आकर विवर्तन करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि विवर्तन से तात्पर्य है कि उसका आभास मात्र होता है। अश्व का अर्थ है अक्ष से, द्यूत से विपरीत स्थिति। इस लोक में सारी घटनाएं आकस्मिक हैं, चांस हैं, इससे विपरीत स्थिति का आभास मात्र।

*एष वा अश्वो मेध्यो यच्चन्द्रमास्तमेतदश्वं मेध्यमालभते यत्पौर्णमासेन यजते स एष आलब्ध एत्यामावास्यायाः - - -  । अथ यदामावास्येन यजते चन्द्रमा आदित्यं प्रविशत्यादित्यो ऽस्तंयन्नग्निं प्रविशति तस्यैताँँ रात्रिमग्नयः सार्धँँ संवसन्ति सो ऽस्यैषो अश्वो मेध्य एताँँ रात्रिमग्निषु विवर्तते यत्र वा अश्वो मेध्यो विवर्तत इष्ट्या तत्र यजन्ते। स यत्प्रातरामावास्येन यजते विवर्तन एवास्य तद्यजते। - का.श. ३.१.८.३

     शांखायन ब्राह्मण ४.८ में कहा गया है कि ब्रह्म पौर्णमासी है, क्षत्र अमावास्या है। काण्व शतपथ के उपरोक्त कथन में कहा जा रहा है कि पौर्णमासी अश्वमेध है। यहां यह अन्तर्निहित है कि अमावास्या राजसूय हो सकता है जिसमें अक्षक्रीडा की, आकस्मिकता या चांस की प्रधानता होती है।

 

अश्व

१. कद्रू-सुपर्णी आख्यानम् -- अग्निर्वा अश्वः श्वेतः यूप स्थाणुः । माश ,,, (तु. माश ६,,,२२)।

२. अथ यदश्रु संक्षरितमासीत्सोऽश्रुरभवदश्रुर्ह वै तमश्व इत्याचक्षते परोऽक्षम् । माश ,, ,११

३. अथ योऽसौ ( सूर्यः) तपती एषोऽश्वः श्वेतो रूपं कृत्वाऽश्वाभिधान्यपिहितेनात्मना

प्रतिचक्रम। ऐ , ३५।।

४. अथैतद् ऋतुपात्रं पुनः प्रयुज्यतेऽश्वं वा एतत् प्रति……यदेतत् पुनः प्रयुज्यते तस्मादेतस्याश्वस्येवाधस्ताच् शफो । मै ,,

प्रजापतेर्वा अक्ष्यश्वत् तत् परापतत् तदश्वोऽभवत् तदश्वस्याश्वत्वं तद्देवा अश्वमेधेन प्रत्यदधुः – तां २१.४.२

यत् तिस्रोऽनुष्टुभश्चतस्रो गायत्रीः करोति तस्मात् त्रिभिस्तिष्ठन् प्रतितिष्ठति सर्वान् पलायमानः प्रतिदधाति – तां २१.४.२

५. अन्तो वा अश्वः पशूनामन्तोऽनुष्टुप्छन्दसामन्तो विष्णुर्देवतानां अन्तश्चतुष्टोमस्स्तोमानामन्तस्त्रिरात्रो यज्ञानां। तां २१,,

६. ब्रह्मौदनं पचति रेत एव तद्धत्ते यदाज्यमुच्छिष्यते तेन रशनामभ्यज्यादत्ते तेजो वा आज्यं प्राजापत्योऽश्वः प्रजापतिमेव तेजसा समर्धयत्यपूतो वा एषोऽमेध्यो यदश्वः। माश १३,,,

७. अश्रुष्वेव (प्रजापतेः) अश्वोऽजायत । काठसंक १७:७ ।।

८. अश्व इव वै प्रजापतिरासीत् । काठ २४,; क ३८, १।

९. सर्वेभ्यस्त्वा देवेभ्य इत्युपरिष्टात् ......अश्वः पशूनां त्विषिमान् हरस्वितमः । तै ,,, ।।

स प्रोक्षति प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामीति प्रजापतिर्वै देवानां वीर्यवत्तमो वीर्यमेवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनां वीर्यवत्तमः इन्द्राग्निभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामीति इन्द्राग्नी वै देवानामोजस्वितमा ओज एवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनामोजस्वितमः वायवे त्वा जुष्टं प्रोक्षामीति वायुर्वै देवानामाशिष्ठो जवमेवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनामाशिष्ठः विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यो जुष्टं प्रोक्षामीति विश्वे वै देवा देवानां यशस्वितमा यश एवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनां यशस्वितमः सर्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यो जुष्टं प्रोक्षामीति माश १३.१.२.[८]

१०. विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्य इत्युत्तरतः ।.....अश्वः पशूनां यशस्वितमः (°नामपचिततमः [तै.J) । तै ,,,; माश १३,,,८ ।

११. प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामीति पुरस्तात्प्रत्यङ्तिष्ठन्प्रोक्षति ।.....अश्वः पशूनामन्नादो वीर्य्यावत्तमः । तै ,,,

१२. वायवे त्वेति पश्चात् ।......अश्वः पशूनामाशुः सारसारितमः । तै ,,,

१३. इन्द्राग्निभ्यां त्वेति दक्षिणतः ।.......अश्वः पशूनामोजिष्ठो बलिष्ठः । तै ,,,। ।

१४. अश्वः प्रस्तोतुः प्राजापत्यो वा अश्वः, प्राजापत्यः प्रस्तोता.... धेनुः प्रतिहर्तुः । मै ,,

१५. वैराजो वै पुरुषः  ।  विराजमेवालभते  ।  अथो अन्नं वै विराट्  ।  अन्नमेवावरुन्धे  । अश्वमालभते  ।  प्राजापत्यो वा अश्वः  । प्रजापतिमेवालभते  ।  अथो श्रीर्वा एकशफम्  । श्रियमेवावरुन्धे  ।  गामालभते यज्ञो वै गौः  । यज्ञमेवालभते  ।  अथो अन्नं वै गौः  । अन्नमेवावरुन्धे  ।  अजावी आलभते भूम्ने  ।  अथो पुष्टिर्वै भूमा  ।  पुष्टिमेवावरुन्धे  ।  । तै ,,,

१६. प्रजापतिर्बाहुभ्यामेवोरसोऽसृजत.. अश्वं पशुं( मुखतः अजं पशुम्....उदरात् गां पशुम्....पद्भ्यां अविं पशुम्) । जै ,६८। ।

१७. राजसूये दशपेयविधिः -- अश्वं प्रस्तोतृ-प्रतिहर्तृभ्याम् (ददाति) । तै ,,,।।

१८. तस्य प्रातःसवने सन्नेषु नाराशंसेष्वेकादशदक्षिणा व्यादिशत्यश्वद्वादशा मध्यन्दिने ता उभयीरपाकरोत्येकादश तृतीयसवने ता वशायामपाकरोति  त्रयस्त्रिंशदेता दक्षिणा भवन्ति त्रयस्त्रिंशद्देवता देवता एवाप्नोत्यश्वश्चतुस्त्रिंशो दक्षिणानां प्रजापतिश्चतुस्त्रिंशो देवतानां प्रजापतिमेवाप्नोति  (°शो दक्षिणानाम् [तां.!) । तां १७, ११,; तै २,,,३।।

१९. अश्वस्त्रिभिस्तिष्ठँस्तिष्ठति ...सर्वाँश्चतुरः पदः प्रतिदधत् पलायते । तैसं ५,,१२,१।

चतुष्टय्य आपो भवन्ति चतुःशफो वा अश्वः प्राजापत्यः समृद्ध्यै ता दिग्भ्यः समाभृता भवन्ति दिक्षु वा आपः अन्नं वा आपः - तैब्रा ३.८.२.४

यदाज्यमुच्छिष्यते तस्मिन्रशनां न्युनत्ति प्रजापतिर्वा ओदनः रेत आज्यम् यदाज्ये रशनां न्युनत्ति प्रजापतिमेव रेतसा समर्धयति दर्भमयी रशना भवति बहु वा एष कुचरोऽमेध्यमुपगच्छति यदश्वः पवित्रं वै दर्भाः – तैब्रा ३.८.२.४

२०. अश्वस्य वा आलब्धस्य रेत उदक्रामत् तत्सुवर्णँ हिरण्यमभवत् यत्सुवर्णँ हिरण्यं ददाति रेत एव तद्दधाति ओदने ददाति रेतो वा ओदनः रेतो हिरण्यम्  तै ,,,; माश १३,,,३ ।।

२१. अश्वस्स्वँ  शकृदुपजिघ्रति कच्चिदृषिं चाग्निं च न निरास्थामिति । काठ ८, ५ ।

२२. अश्वेन वै देवा अग्रे विजितिं व्यजयन्त । मै , ,

अश्वं पूर्वं नयन्ति गर्दभमपरं पापवसीयसस्य व्यावृत्त्यै – मै ३.१.३

तदाहुः द्वादशारत्नी रशना कर्तव्या३ त्रयोदशारत्नी३रिति ऋषभो वा एष ऋतूनाम् यथा संवत्सरः तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम् ऋषभ एष यज्ञानाम् यदश्वमेधः यथा वा ऋषभस्य विष्टपम् एवमेतस्य विष्टपम् त्रयोदशमरत्निँ रशनायामुपादधाति – तैब्रा ३.८.३.

२३. प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामीति पुरस्तात्प्रत्यङ्तिष्ठन्प्रोक्षति प्रजापतिर्वै देवानामन्नादो वीर्यावान् अन्नाद्यमेवास्मिन्वीर्यं दधाति तस्मादश्वः पशूनामन्नादो वीर्यावत्तमः इन्द्राग्निभ्यां त्वेति दक्षिणतः इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ बलिष्ठौ ओज एवास्मिन्बलं दधाति तस्मादश्वः पशूनामोजिष्ठो बलिष्ठः वायवे त्वेति पश्चात् वायुर्वै देवानामाशुः सारसारितमः जवमेवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनामाशुः सारसारितमः विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्य इत्युत्तरतः विश्वे वै देवा देवानां यशस्वितमाः यश एवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनां यशस्वितमः देवेभ्यस्त्वेत्यधस्तात् देवा वै देवानामपचिततमाः अपचितिमेवास्मिन्दधाति तस्मादश्वः पशूनामपचिततमः
सर्वेभ्यस्त्वा देवेभ्य इत्युपरिष्टात् सर्वे वै देवास्त्विषिमन्तो हरस्विनः त्विषिमेवास्मिन्हरो दधाति तस्मादश्वः पशूनां त्विषिमान्हरस्वितमः। तै ,,, ।।

२४. अश्वो न देववाहन इति । अश्वो ह वाऽएष (अग्निः) भूत्वा देवेभ्यो यज्ञं वहति यद्वै नेत्यृच्योमिति तत्तस्मादाहाश्वो न देववाहन इति । माश ,,,३० ।।

२५. अश्वो बृहत् । जै १,३३३; , ३४ ।

२६. अश्वो मनुष्यान् (अवहत् ) । तैसं ७,,२५,; माश १०,,,१ ।

२७. मैत्रेण पूर्वेण प्रचरन्ति , अश्वो मैत्रस्य (+ दक्षिणा [मै.J) । मै ,,; काठ १५,५।

२८. किँ  स्विदासीद्बृहद्वय इत्याह  अश्वो वै बृहद्वयः । तै ,,,; माश १३,,,१५।।

२९. दक्षिणाप्रतिगृहीतुरश्वमुखमार्जनमन्त्रः -- अश्वोस्यत्योसि मयोसि हयोसि वाज्यसि सप्तिरस्यर्व्वासि वृषासि । तां ,,

३०. असौ वा आदित्योऽश्वः [°त्य एषोऽ(शुक्लः)श्वः [माश.J] । तै ३,,२३,; माश ७,,,१०।

३१. आनुष्टुभो (इन्द्रो [कौ.]) वाऽअश्वः । कौ १५,; माश १३, , , १९ ।

३२. आशुः सप्तिरित्याह । अश्व एव जवं दधाति । तस्मात्पुराशुरश्वोऽजायत । तै ३,,१३,२ ।

विधृतिमुपरिष्टात् प्राणानेवास्मै समीचो दधाति .......मनोरश्वासि भूरिपुत्रेतीमामभि मृशति इयं वै मनोरश्वा भूरिपुत्रा अस्यामेव प्रति तिष्ठत्यनुन्मादाय .... चितः स्थ परिचित इत्याह अपचितिमेवास्मिन्दधाति तैआ ,,

३४. ईश्वरो वा अश्वः प्रमुक्तः परां परावतं गन्तोः । तै ३,,,; १२,; ,१३,२ ।

३५. एतेन (अश्वेन) वै देवा असुरानुत्तममभ्यभवन् । क २९,८।

३६. एतेभ्य (अङ्गिरोभ्यः) एतमादित्या आदित्यमेवाश्वं श्वेतं भूतम्...आनयन् (तेभ्य एतम् आदित्या आदित्यम् एवाश्वं श्वेतं भूतम् अश्वाभिधान्य् अभिहितम् अयास्याय ब्रह्माश्वं नीत्वा स्वर्गं लोकम् अगच्छन्।)। जै ,१८८

३७. अग्नेः विभाजनम् -- स्तोमपुरोगवा वै देवा असुरानभ्यजयन् , एष खलु स्तोमो यदश्वो , यदश्वं पुरस्तान् नयन्ति , अभिजित्या , अभिजित्यैवैनं आधत्ते। मै ,,

३८. एष वा अश्वो मेध्यो य एष (आदित्यः) तपति । काश ३,,,;३।।

३९. एष वा अश्वो मेध्यो...यच्चन्द्रमाः । काश ३,,,१।

४०. क्षत्रं वा ऽअन्वश्वः । माश ६,,,१२ ।

४१. क्षत्रं वाऽ अश्वो विडितरे पशवः । माश १३,,,१५।

४२. मनसः पुरुषं चक्षुषोऽश्वं प्राणाद्गां श्रोत्रादविं वाचोऽजं तद्यदेनान्प्राणेभ्योऽधि निरमिमीत तस्मादाहुः प्राणाः पशव इति मनो वै प्राणानां प्रथमं तद्यत्मनसः पुरुषं निरमिमीत तस्मादाहुः पुरुषः प्रथमः पशूनां वीर्यवत्तम ( प्रजापतिर्निरमिमीत ) । माश ,,,

४३. चतुष्कपाला (वारुणाः पुरोडाशाः) भवन्ति, चतुष्पाद्ध्यश्वः । तैसं ,,१२,

४३. जागतोऽश्वः प्राजापत्यः । तै ३,,,४ ।।

अथ गौः । प्राणमेवैतयात्मनस्त्रायते प्राणो हि गौरन्नं हि गौरन्नं हि प्राणस्तां रुद्राय होत्रेऽददात्....... अथाश्वः । वज्रो वा अश्वो वज्रमेवैतत्पुरोगां कुरुते यमलोके मेऽप्यसदिति वै यजते – माश ४.३.४.२७

४५ तं (अश्वम् ) यमाय ब्रह्मणेऽददात् । माश ,,,२७

अथ गां प्रत्येति । रुद्राय त्वा मह्यं वरुणो ददात्विति रुद्राय ह्येतां वरुणोऽददात्सोऽमृतत्वमशीय प्राणो दात्र एधि वयो मह्यं प्रतिग्रहीत्र इति .... अथाश्वं प्रत्येति । यमाय त्वा मह्यं वरुणो ददात्विति यमाय ह्येतं वरुणोऽददात्सोऽमृतत्वमशीय हयो दात्र एधि वयो मह्यं प्रतिग्रहीत्र इति माश ४.३.४.[३१]

४६. तस्मा (आयास्यायोद्गात्रे ) अमुमादित्यमश्वं  श्वेतं कृत्वा ( आदित्याः) दक्षिणामानयन् । तां १६,१२, । ।

४७. अनेन वा अग्रेऽग्ना आहुतिरहूयत , तस्या आहुत्याः पुरुषोऽसृज्यत , द्वितीयामजुहोत् , ततोऽश्वोऽसृज्यत , तस्मादश्व उभयादन् , अनन्तर्हितो हि पुरुषादसृज्यत। मै ,,।।

४८. तस्मादश्वः पशूनां वीर्यवत्तमः (जविष्ठः [ऐ.])। ऐ ५,; माश १३,,,५।

४९. तस्मादश्वः पशूनामाशिष्ठः (°नामोजस्वितमः [माश १३,,,६)। माश १३,,,

अथाश्वं शुक्लं पुरस्तान्नयन्ति । एतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इह रक्षांसि नाष्ट्रा न हन्युरिति त एतं वज्रमपश्यन्नमुमेवादित्यमसौ वा आदित्य एषोऽश्वः....माश ७.३.२.१०

तं प्रत्यञ्चं यन्तम् । एतां चितिमवघ्रापयत्यसौ वा आदित्य एषोऽश्व इमा उ सर्वाः प्रजा या इमा इष्टकास्तद्यदवघ्रापयत्यसावेव तदादित्य इमाः प्रजा अभिजिघ्रति – माश ७.३.२.१२

यद्वेवाघ्रापयति । अग्निर्देवेभ्य उदक्रामत्सोऽपः प्राविशत्ते देवाः प्रजापतिमब्रुवंस्त्वमिममन्विच्छ स तुभ्यं स्वाय पित्र आविर्भविष्यतीति तमश्वः शुक्लो भूत्वाऽन्वैच्छत्तमद्भ्य उपोदासृप्तं पुष्करपर्णे विवेद तमभ्यवेक्षां चक्रे स हैनमुदुवोष तस्मादुवोष तस्मादश्वः शुक्ल उदुष्टमुख इवाथो ह दुरक्षो भावुकस्तमु वा ऋत्वेव हिंसित्वेव मेने तं होवाच वरं ते ददामीति स होवाच । यस्त्वानेन रूपेणान्विच्छाद्विन्दादेव त्वा स इति स यो हैनमेतेन रूपेणान्विच्छति विन्दति हैनं वित्त्वा हैवैनं चिनुते माश ७.३.२.[१५]

५०. तस्मादश्वः शुक्ल उदुष्टमुख इवाथो ह दुरक्षो भावुकः । माश ,,,१४

५१. तस्मादश्वस्त्रिभिः (पद्भिः) तिष्ठंस्तिष्ठत्यथ युक्तः सर्वैः पदैः सममायुते । माश १३,,,६ ।

अत्योऽसीत्याह तस्मादश्वः सर्वान्पशूनत्येति तस्मादश्वः सर्वेषां पशूनाँ श्रैष्ठ्यं गच्छति.... नरोऽस्यर्वासि सप्तिरसि वाज्यसीत्याह रूपमेवास्यैतन्माहिमानं व्याचष्टे ययुर्नामासीत्याह एतद्वा अश्वस्य प्रियं नामधेयम् प्रियेणैवैनं नामधेयेनाभिवदति तैब्रा ३.८.९.१

५२. तस्मादश्वः सर्वेषां पशूनां श्रैष्ठ्यं गच्छति । तै ,,,।।

ईश्वरो वा अश्वः प्रमुक्तः परां परावतं गन्तोः इह धृतिः स्वाहेह विधृतिः स्वाहेह रन्तिः स्वाहेह रमतिः स्वाहेति चतृषु पत्सु जुहोति तैब्रा ३.८.९.

५३. आक्रम्य वाजिन् । पृथिवीमग्निमिच्छ रुचा त्वमिति चक्षुर्वै रुगाक्रम्य त्वं वाजिन्पृथिवीमग्निमिच्छ चक्षुषेत्येतद्...... तस्मादु हैतदश्वः पशूनां भगितमः । माश ,,,१३ ।।

५४. अस्माभिरेष प्रतिगृहीतो यऽएष तपतीति तस्मात्सद्यःक्रियोऽश्वः श्वेतो दक्षिणा। तस्य (अश्वस्य श्वेतस्य) रुक्मः पुरस्ताद्भवति । तदेतस्य रूपं क्रियते य एष (आदित्यः) तपति । माश ,,,२० ।।

५५. तस्य (सौर्यस्य हविषः) अश्वः श्वेतो दक्षिणा । तदेतस्य रूपं क्रियते य एष (सूर्यः) तपति यद्यश्वं श्वेतं न विन्देदपि गौरेव श्वेतः स्यात् । माश ,,,।।

५६. युक्ष्वा हि देवहूतमाँ अश्वाँ अग्ने रथीरिवेति तृतीयस्याह्न आज्यम्भवति ....तान् (असुरान् देवाः) अश्वा भूत्वा पद्भिरपाघ्नत यदश्वा भूत्वा पद्भिरपाघ्नत तदश्वानामश्वत्वमश्नुते यद्यत्कामयते य एवं वेद... तस्मादश्वः प्रत्यङ्पदा हिनस्त्यप पाप्मानं हते य एवं वेद तस्मादेतदश्ववदाज्यम्भवति तृतीयेऽहनि तृतीयस्याह्नो रूपं । ऐ ,।।

५७. तेऽङ्गिरस आदित्येभ्य अमुमादित्यमश्वं श्वेतं भूतं दक्षिणामनयन् । तै ३,, २१,१ ।

५८. ते ऽब्रुवन् (आदित्याः) । यं ( अश्वम् ) नोऽनेष्ट सवर्योऽभूदिति । तस्मादश्वं  सवर्येत्याह्वयन्ति । तै ३,,२१,१।।

५९. कुन्तापसूक्तं --  ते (आदित्याः) ऽश्वं श्वेतं दक्षिणां निन्युरेतमेव य एष (सूर्यः) तपति । कौ ३०,

६०. न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि, देवाँ इदेषि पथिभिस्सुगेभिः.... । काठ ४६,५।

६१. न वै मनुष्यः स्वर्गं लोकमञ्जसा वेदाश्वो वै स्वर्गं लोकमञ्जसा वेद । माश १३, , ,

६२. परमा वा एषा दक्षिणा यदश्वः । काठ ८,५।।

६३. पवस्व वाजसातय इत्य् अनुष्टुक् प्रतिपद् भवति     तिस्रो ऽनुष्टुभश् चतस्रो गायत्रियः ।     यत् तिस्रो ऽनुष्टुभस् तस्माद् अश्वस् त्रिभिस् तिष्ठम्̇स् तिष्ठति     यच् चतस्रो गायत्रियस् तस्मात् सर्वाम्̇श् चतुरः पदः प्रतिदधत् पलायते     परमा वा एषा छन्दसां यद् अनुष्टुक्     ....    परमो ऽश्वः पशूनाम्     परमेणैवैनम् परमतां गमयति । । तैसं ,,१२,; माश १३,,,१ ।

६४. प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा रिरिचानोऽमन्यत, सोऽश्वो भूत्वा संवत्सरं न्यङ् भूम्यां शिरः प्रतिनिधायातिष्ठत् तस्याश्वत्थो मूर्ध्न उदभिनत् । मै ,,१२।।

६५. प्रजापतेर् (+वा [तां.J) अक्ष्यश्वयत्तत्परापतत्तदश्वोऽभवत्तदश्वस्याश्वत्वम् (+ तद्देवा अश्वमेधेन प्रत्यदधुः [तां..) । तैसं ,, १२,; तां २१,,; तै १,,,४।।

अग्निं वै देवा विभाजं नाशक्नुवन् , यत् प्राञ्चमहरन्त्सर्वः पुरोऽभवत् , यत् प्रत्यञ्चमहरन्त्सर्वः पश्चाभवत् , तमश्वेन पूर्ववाहोदवहन् , तदश्वस्य पूर्ववाहः पूर्ववाट्त्वं , अग्नेर्वै विभक्त्या अश्वोऽग्न्याधेये दीयते – मै १.६.४

६६. प्रजापतेर्वै चक्षुरश्वयत् , तस्य यः श्वयथा आसीत् सोऽश्वोऽभवत् । मै ,,

६७. प्राजापत्यो (यजमानो तै ३,,१७,; J) वा अश्वः । तैसं ३,, , , ,,,; मै ४,,;,; काठ ८,; तै ३,,२२,; ,१६,१:१७,; ; माश ६,,,; तैआ ५,,५।

६८. प्राजापत्योऽश्वः । तैसं ५,,,; मै २,,; ,,; ,; ,, ; काठ २२, ; क ४७,; तै १,,,; ,,,; माश १३,,,१।।

६९, यदश्वं ददाति....प्रजापतेरेव तेन प्रियं धामोपैत्यथो अमुष्यादित्यस्य लोकं जयति ।...अन्ततः प्रतिहर्त्रे देयम् , रौद्रो वै प्रतिहर्ता -  मै ,,

७०. यदश्वं ददाति सूर्यभ्राजमेवैनं (दातारं) करोति । काठ २८, ; क ४४,५ ।

७१. यदश्वेन यन्ति रक्षसामतीर्त्यै । काठ १९,; क २९,८ ।।

७२. यद्वै तदश्रु संक्षरितमासीदेष सोऽश्वः । माश ६,,,२८ ।

७३. ते त्रिणवमायतनं अचायन् , तं सेतुं कृत्वा स्वरायन् , तेन पशूनसृजन्त , तान् देवताभ्योऽनयन् यमायाश्वमनयन्। मै ,,; काठ ९,९ ।।

७४. ययुर्नामासीत्याह । एतद्वा अश्वस्य प्रियं नामधेयम् । तै ३,,,१।

७५. यस्मात्प्रजापतिरालब्धोऽश्वोऽभवत्तस्मादश्वो नाम । तै ३,,२१,४, २२,;२ ।

७६. योऽश्वं प्रतिगृह्णीयात् स एतेन वारुणेन हविषा यजेत निर्वरुणत्वाय, चतुष्कपालो भवति  चतुष्पद् वा अश्वः । काठ १२, ६ ।।

७७. यथा राजा विशा     रथाय समनमद् अश्वेभ्यः समनमत् ।     यथा रथो ऽश्वैः
   
प्रजापतये समनमद् भूतेभ्यः समनमत् ।    यथा प्रजापतिर् भूतैः समनमद् एवम् मह्यम् भद्राः संनतयः सं नमन्तु ॥ । तैसं ,,२३, ।।

७८. रश्मिना वा अश्वो यत। ईश्वरो वा अश्वोऽयतो (+ऽधृतो [माश.]) ऽप्रतिष्ठितः परां

परावतं गन्तोः।यत् पार्थुरश्मं ब्रह्मसामं (°साम [माश.J) भवत्यश्वस्य यत्यै (श्वस्यैव [माश) धृत्यै । तैसं ,,१२,; माश १३,,,५।।

७९. वज्री वा अश्वः प्राजापत्यः । क ३०,; तै ३,,,२।।

८०. वज्री वा एषः (+ प्राजापत्यो मै.J) यदश्वः । मै ३,,; तै १,,,५।।

८१. वज्रोऽश्वः (वाऽअश्वः [माश ४,,,२७;,,,१२])। माश १३,,,९।।

८२. पापीयान्   ह्य् अश्वाद् गर्दभः ।...... वज्र्यश्वः । प्रतूर्वन्न् एह्य् अवक्रामन्न् अशस्तीर् इत्य् आह     वज्रेणैव पाप्मानम् भ्रातृव्यम् अव क्रामति -- तैसं ,,,; काठ १९,२।।

८३. रुद्राय गाम् । वरुणायाश्वम् । प्रजापतये पुरुषम् ( २) । मनवे तल्पम् । त्वष्ट्रेऽजाम् । पूष्णेऽ विम् । निर्ऋत्या अश्वतरगर्दभौ । हिमवतो हस्तिनम् ।  (दक्षिणां दद्यात्) । तैआ ,१०, ।।

८४. अथैषोऽश्वः प्रतिगृह्यते, स वा उभयतोदन् प्रतिगृहीतो निर्बभस्त्यस्येन्द्रियं च पशूंश्च, वरुणो वा अश्वो वरुणदेवत्यो , यो वा अश्वं प्रतिगृह्णाति वरुणं स प्रसीदति, तदश्वहविषा यष्टव्यं , निर्वरुणत्वाय, चतुष्कपाला भवन्ति, चतुष्पाद्वा अश्वः, कपालैरेवैनं आप्नोति, यावन्तोऽश्वास्तावन्तः पुरोडाशा भवन्ति, । मै , ,

८५. शुक्रामन्थिनौ ग्रहौ-- वरुणो ह वै सोमस्य राज्ञोऽभीवाक्षि प्रतिपिपेष तदश्वयत्ततोऽश्वः समभवत्तद्यच्छ्वयथात्समभवत्तस्मादश्वो नाम, तस्याश्रु प्रास्कन्दत्ततो यवः समभवत् । माश , ,,११ ।।

८६. वाजिनो (वारुणा [काठ., क.) ह्यश्वाः । काठ २८,; क ४४,; माश ५,,,१५।।

८७. हयो देवान् अवहद् अर्वाऽसुरान् वाजी गन्धर्वान् अश्वो मनुष्यान् ।
    
समुद्रो वा अश्वस्य योनिः समुद्रो बन्धुः ॥  तैसं ७,,२५,; माश १०, ,,१ ।

८८. देविकादि हवींषि -- वारुणं यवमयं चरुम् (निर्वपति), अश्वो दक्षिणाम् । तैसं ,,,

८९. यथा वा अग्निः समिद्धो दीप्यत एवमेषां चक्षुर्दीप्यते यथाग्नेर्धूम उदयत एवमेषामूष्मोदयते यथाग्निरभ्याहितं दहत्येवं बप्सति यथाग्नेर्भस्म सीदत्येवमेषाम्पुरीषं सीदतीमे वा अग्निरिमानेवात्मानमभिसंस्करवा इति तान्नाना देवताभ्य आलिप्सत वैश्वकर्मणं पुरुषं वारुणमश्वमैन्द्रमृषभं त्वाष्ट्रमविमाग्नेयमजम् । माश ,,,।।

९०. सर्वं वा अश्वमेध्याप्नोति अपरिमिता भवन्ति अपरिमितस्यावरुद्ध्यै ब्रह्मवादिनो वदन्ति कस्मात्सत्यात् दक्षिणतोऽन्येषां पशूनामवद्यन्ति उत्तरतोऽश्वस्येति वारुणो वा अश्वः। तै ,,२०,,,१६,१ ।

रुद्राय गामित्याह रौद्री वै गौः स्वयैवैनां देवतया प्रतिगृह्णाति वरुणायाश्वमित्याह
वारुणो वा अश्वः स्वयैवैनं देवतया प्रतिगृह्णाति तैब्रा २.२.५.३

९१. अनृते खलु वै क्रियमाणे वरुणो गृह्णाति वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति वरुणपाशदेवैनं मुञ्चति अश्वो दक्षिणा वारुणो हि देवतयाश्वः समृद्ध्यै। तै ,,,

९२. विभूर्मात्रा प्रभूः पित्राऽश्वोऽसि हयोऽस्यत्योऽसि नरोऽस्यर्वाऽसि सप्तिरसि वाज्यसि वृषाऽसि नृमणा असि ययुर्नामासि……..इह धृतिः स्वाहेह विधृतिः स्वाहेह रन्तिः स्वाहेह रमतिः स्वाहा । तैसं ,,१२, ।।

९३. विराट् छन्दस्तदश्वो वरुणो देवता (गायत्री छन्द, स्तदजा, बृहस्पतिर् देवता,.... जगती छन्द, स्तद् गौः, प्रजापतिर् देवता ,..... पङ्क्तिश्छन्द, स्तत् पुरुषः, परमेष्ठी देवता) । मै ,१३,१४

९४. वीर्यं (वृषा तैसं.] वा अश्वः । तैसं २,,,; माश २,,,२३, २४ ।

९५. वृष्णो अश्वस्य संदानं असीति, वृषा ह्यश्वो , वृषा पर्जन्यः, समृद्ध्यैर्। मै ,,; काठ ११,१०; माश ७,,,१८ ।

९६. यद् गां ददाति वैश्वदेवी वै गौः। विश्वेषाम् एव तद् देवानां तेन प्रियं धामोपैति। यद् अजं ददात्य् आग्नेयो वा अजः। अग्नेर् एव तेन प्रियं धामोपैति। यद् अविं ददात्य् आव्यं तेनावजयति। .....यद् अश्वं ददाति सौर्यो वा अश्वः । गो , ,१९; तै ३,,,; ११,;

दश वै पशोः प्राणा आत्मैकादशः प्राणैरेव पशून्त्समर्धयति वैश्वदेवा भवन्ति वैश्वदेवो वा अश्वोऽश्वस्यैव सर्वत्वाय - माश १३,,,

९७. समुद्र एवास्य (अश्वस्य मेध्यस्य) बन्धुः समुद्रो योनिः । माश १०,,,

९८. समुद्रो वा अश्वस्य योनिः समुद्रो (बन्धुः) । तैसं ७,,२५,३ ।

९९. सूतस्य गृहान्परेत्य वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति सवो वै सूतः सवो वै देवानां वरुणस्तस्माद्वारुणो भवत्येतद्वा अस्यैकं रत्नं यत्सूतस्तस्मा एवैतेन सूयते तं स्वमनपक्रमिणं कुरुते तस्याश्वो दक्षिणा स हि वारुणो यदश्वः। माश ,,,

१००. सूरादश्वं वसवो निरतष्ट  काठ ४०, ६ ।

१०१. सूर्यस्य वा एतदध्वानं यन्ति यदश्वं प्राञ्चं च प्रत्यञ्चं चाक्रमयन्ति । काठ २०,५ ।।

१०२. स हेन्द्र उवाचेमे वा असुरा अहोरात्रयोः संधिं समभ्यवागुः कश् चाहं चेमान् असुरान् अभ्युत्थास्यामहा इति।..... सोऽग्निरश्वो भूत्वा प्रथमः प्रजिगाय, तस्माद् आग्नेयीभिर् उक्थानि प्रणयन्ति । गो ,, ११

१०३. सोमो वै वृष्णो अश्वस्य रेतः । तै ३,,, ५।।

१०४. स्तोमादश्वस्सम्भूतः । काठ ८,५ ॥

अग्निं वै जातं रक्षांस्यधूर्वंस्तान्येनमभिसमलभन्त, तान्यश्वेनापाहत । काठ ८, ५।।

५०. अग्निं वै विभाजं नाशक्नुवंस्तमश्वेन व्यभजन् । काठ ८,५।।

२०८. अग्निर्वै प्रजापतिः (+ तस्याश्वश्चक्षुः ।काठ.]) । मै ३,,; काठ ८,५ ।

४६६. कृष्णो वै भूत्वाऽग्निरश्वं प्राविशत्, स एतदगच्छद्यत्र मृगशफो । मै ,, ।।

आगत्य वाज्यध्वानं सर्वा मृधो विधूनुता इति,...... द्यौस्ते पृष्ठं पृथिवी सधस्थम् इति, द्यौर् ह्येतस्य पृष्ठम् , पृथिवी सधस्थमात्मान्तरिक्षं, समुद्रो योनिरिति , आत्मा ह्येतस्यान्तरिक्षम् , समुद्रो योनिः , विक्शाय चक्षुषा त्वमभितिष्ठ पृतन्यत इति – मै ३.१.४

उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माश्वस्य मेध्यस्य द्यौष्पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यहोरात्राणि प्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो मांसान्यूवध्यं सिकताः सिन्धवो गुदा यकृच्च क्लोमानश्च पर्वता ओषधयश्च वनस्पतयश्च लोमान्युद्यन्पूर्वार्धो निम्लोचन्जघनार्धो यद्विजृम्भते तद्विद्योतते यद्विधूनुते तत्स्तनयति यन्मेहति तद्वर्षति वागेवास्य वागहर्वा अश्वम् पुरस्तान्महिमाऽन्वजायत – माश १०.६.४.१

यो वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरो वेद शीर्षण्वान् मेध्यो भवति ।     उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः।    सूर्यश् चक्षुः ।  वातः प्राणः ।  चन्द्रमाः श्रोत्रम् ।  दिशः पादौ ।     अवान्तरदिशाः पर्शवः । अहोरात्रे निमेषः । अर्धमासाः पर्वाणि । मासाः संधानानि ।     ऋतवो ऽङ्गानि । संवत्सर आत्मा । रश्मयः केशाः । नक्षत्राणि रूपम् । तारका अस्थानि ।   नभो माम्̇सानि । ओषधयो लोमानि । वनस्पतयो वालाः । अग्निर् मुखम् ।     वैश्वानरो व्यात्तम् ।  समुद्र उदरम् । अन्तरिक्षम् पायुः । द्यावापृथिवी आण्डौ ।     ग्रावा शेपः ।  सोमो रेतः ।  यज् जञ्जभ्यते तद् वि द्योतते । यद् विधूनुते तत् स्तनयति।     यन् मेहति तद् वर्षति ।     वाग् एवास्य वाग् – तैसं ७.५.२.२

अत्योऽसीत्याह। तस्मादश्वः सर्वान् पशूनत्येति तस्मादश्वः सर्वेषां पशूनां श्रैष्ठ्यं गच्छति – तै ३.८.९.१ (तु तां १.७.१, माश १३.१.६.१)

अद्भ्यो ह वाऽअग्रेऽश्वः सम्बभूव सोऽद्भ्यः सम्भन्नसर्वः समभवदसर्वो हि वै समभवत्तस्मान्न सर्वैः पद्भिः प्रतितिष्ठत्येकैकमेव पादमुदच्य तिष्ठति तद्यदेवास्यात्राप्स्वहीयत तेनैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति – माश ५.१.४.५

अपो ऽवभृथम् अवैति । अप्सु वै वरुणः। साक्षाद् एव वरुणम् अव यजते । अपोनप्त्रीयं चरुम् पुनर् एत्य निर् वपेत् । अप्सुयोनिर् वा अश्वः -- तैसं २.३.१२.३, ५.३.१२.२, तै ३.८.४.३, १९.२., २०.४, माश १३.२.२.१९

अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजं इत्यश्वान् त्स्नपयन्ति , अप्सुजा वा अश्वाः – मै १.११.६, काठ १४.६, माश ७.५.२.१८

सर्वे वा अन्ये पशवो योनिमन्तः पुरुषयोनयो , अयोनिरश्वोऽप्सुजा, यदेषोऽपोनप्त्रीयश्चरुर्भवति योनिमन्तमेवैनं अकः। - मै २.३.३, काठ १२.६

अश्वं चाविं चोत्तरत एतस्यां तद्दिश्येतौ पशू दधाति तस्मादेतस्यां दिश्येतौ पशू भूयिष्ठौ (गां चाजं च दक्षिणत) – माश ७.५.२.१५

अश्वतर

१. अश्वतरो न प्र जायत आत्तरेता हि । तैसं ७,,,३ ।

२. अश्वतरो बर्हिषि न देयः । अति ह्यप्लवताप ह्यक्रामत । आत्तरेता ह्यप्रजा हि षोडशिनस्स्तोत्रे देयः । जै १,६७ ।।

३. ये (पशवः) दह्यमानादसृज्यन्त तेऽश्वतराश्च कृष्णाश्च । जै ३, २६३ ।।

अश्वतरगर्दभ-

निर्ऋत्या अश्वतरगर्दभौ । तैआ ३, १०, ३ ।

अश्वतरी-

अश्वतरीरथेनाग्निराजिमधावत्तासां प्राजमानो योनिमकूल्यत्तस्मात्ता न विजायन्ते। ऐ ४,९ ।।

अश्वमेध

१. अन्तोऽश्वमेधः । मै २,,९।।

२. अश्वमेधे सर्वा देवता अन्वायत्ताः । माश १३,,,९ ।

३. असावश्वो मेधो मेध्य इत्यादित्यम् (उपदिशन्) । जै १, २५ ।।

४. असावादित्योऽश्वमेधः । तैसं ५,,,; माश ९,,,१८ ।।

५. असौ वाऽआदित्य एकविंशः सोऽश्वमेधः। माश १३,,,५।।

६. उत्सन्नयज्ञो वा एष यदश्वमेधः कस्तद्वेदेत्याहुर्यदि सर्वो वा क्रियते, न वा सर्व इति, यत्संकृत्यच्छावाकसामं भवत्यश्वस्य सर्वत्वाय पर्याप्त्या अनन्तरायाय । तैसं ५,,१२,३ ।

७. ऋषभ एष यज्ञानां यदश्वमेधः । तै ३,,, ३ ।

८. एष एवाश्वमेधो यच्चन्द्रमाः । माश ११,,, १ ।।

९. एष (अश्वमेधः) वा अतिव्याधी नाम यज्ञः । तै ३, ,१९, ३ ।।

१०. एष वाऽअश्वमेधो य एष (सूर्यः) तपति । माश १०,,,८ ।

११. एष (अश्वमेधः) वा ऊर्जस्वान् (पयस्वान्, प्रभूर् , विभूर् ) नाम यज्ञः। तै ३,,१९,१ ।।

१२. एष (अश्वमेधः) वै तेजस्वी (क्लृप्तो, दीर्घो, ब्रह्मवर्चसी) नाम यज्ञः । तै ३,,१९,३ ।।

१३. एष (अश्वमेधः) वै प्रतिष्ठितो (विधृतो, व्यावृत्तो) नाम यज्ञः । तै ३,,१९,२ । १४. ततोऽश्वः समभवद्यदश्वत्तन्मेध्यमभूदिति तदेवाश्वमेधस्याश्वमेधत्वम् । माश १०,,,७ ।

१५. तद् (प्रजापतेरक्षि) देवा अश्वमेधेन (+ एव [तैसं.J) प्रत्यदधुरेष वाव (वै [तैसं.1) प्रजापतिं सर्वं करोति योऽश्वमेधेन यजते । तैसं ५,,१२,; तां २१,,२ ।

१६. तरति सर्वं पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते । माश १३,,,१ ।। १७. तेजसा वा एष ब्रह्मवर्चसेन व्यृध्यते । योऽश्वमेधेन यजते । तै ३,,,१।

१८. निरायत्याश्वस्य शिश्नं महिष्युपस्थे निधत्ते वृषा वाजी रेतोधा रेतो दधात्विति । माश १३,,,२।।

१९. प्रजापतिरश्वमेधः । माश १३,,,१३, ,,१५।।

२०. प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे (यज्ञेन कल्पताम् ) । तैसं ४,,,१ ।

२१. यजमानो वाऽअश्वमेधः । माश १३,,,१।।

२२. योऽश्वमेधेन यजते देवानानेवायनेनैति । तै ३,,३२,३।।

२३. राजा वाऽएष यज्ञानां यदश्वमेधः। माश १३,,,१।

२४. राष्ट्रं वा अश्वमेधः (राष्ट्रमश्व॰ [माश १३, ,,१६J)। तै ३,,,; माश १३,,,३ ।

२५. वृषभ एष यज्ञानां यदश्वमेधः । माश १३,,,२ ।।

२६. श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधः । तै ३,,,; माशे १३,,,२।।

२७. सर्वस्य वा एषा प्रायश्चित्तिः, सर्वस्य भेषजं  सर्व वा एतेन (अश्वमेधेन ) पाप्मानं देवा अतरन्नपि वा एतेन ब्रह्महत्यामतरन् । तैसं ५,,१२,१ ।  

२८. सर्वस्यैष न वेद यो ब्राह्मणः सन्नश्वमेधस्य न वेद सोऽब्राह्मणः । माश १३,,,१७ ।

२९. स वा एष { अश्वमेधः ) वीर्यमेव यज्ञो, यर्हि वा एतेन पुरेजिरे, सर्वमेव वीर्यवदास ।  जै २,२६६ ।

३०. सोऽश्वमेधेनेष्ट्वा स्वराडिति नामाधत्त । गो १, ,८ ॥

[ °ध- अग्नि- १५४; अग्निहोत्र  २९; ६०; अर्काश्वमेध- १; ३ द्र.] ।

अश्व-वृष-

अश्ववृषेणैकशफाः पशवः । काठ ३५,१५ ।

अश्व-शक-

अश्वशकेन धूपयति । तैसं ५,,,१।

अश्व-युज् (नक्षत्र)

१. अश्वयुजोरयुञ्जत । तै १,५, , ९।।

२. अश्वयुजौ नक्षत्रमश्विनौ देवता । तैसं ४,,१०,; मै २,१३,२० (तु. काठ ३९,१३)। ३. अश्विनोरश्वयुजौ । तै १,,,; ,,,१० ।

अश्व-वाल-

यज्ञो ह देवेभ्यो ऽपचक्राम सोऽश्वो भूत्वा पराङाववर्त तस्य देवा अनुहाय

वालानभिपेदुस्तानालुलुपुस्तानालुप्य सार्द्धं  संन्यासुस्तत एता ओषधयः समभवन्

यदश्ववालाः । माश ३, , , १७ ।।

अश्व-सूक्त-> आश्वसूक्ति (सामन् )- गौषूक्तिश्चाश्वसूक्तिश्च बहुप्रतिगृह्य गरगिरावमन्येतां तावते सामनी अपश्यतां ताभ्यां गरन्निरघ्नाताम् । तां १९, , १० ।

अश्व-स्तोम->अश्वस्तोमीय

१. अश्वस्य वा आलब्धस्य मेध उदक्रामत् । तदश्वस्तोमीयमभवत् । तै ३, , १२, १ ।

२. अश्वो वा अश्वस्तोमीयम् (मेधोऽश्व° 1 तै ३,,१२,१ !)। तै ३, , १२, ३ । आश्व- अश्वो वै भूत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत स प्रजायत बहुरभवत्प्रजायते बहुर्भव

त्याश्वेन तुष्टुवानः । ११,,५।

अश्वत्थ१. अथाश्वत्थं ( पात्रं ) भवति । तेन वैश्योऽभिषिञ्चति यदेवादोऽश्वत्थे तिष्ठते इन्द्रो मरुत उपामन्त्रयत । माश ५, , , १४ ।

२. अश्वत्थेन वनस्पतयः (अन्वाभूयन्त) । काठ ३५,१५ ।। ,

३. अश्वत्थे वो ( ओषधीनाम् ) निषदनम् । काठ १६,१३; क २५,४ ।।

४. अश्वत्थो वै वनस्पतीनां सपत्नसाहो विजित्यै । तैसं ५, ,१०,२ ।।

५. एष (अश्वत्थः) वै वनस्पतीनां सपत्नसाहः । काठ १९,१०; क ३०,८ ।।

६. ततः (अश्वस्य) शकाछ्वसी (शकृतःश्वसी) अजायत, तत्पार्श्वान्मध्याच्चाश्वसद्यत्पार्श्वान्मध्याच्चाश्वसत्तदश्वत्थोऽजायत तस्य वेदो मूलं पर्णानि छन्दांसि  - काठसंक १८.१-३