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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Anapatya to aahlaada only)

by

Radha Gupta, Suman Agarwal, Vipin Kumar

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Anapatya - Antahpraak (Anamitra, Anaranya, Anala, Anasuuyaa, Anirudhdha, Anil, Anu, Anumati, Anuvinda, Anuhraada etc.)

Anta - Aparnaa ((Antariksha, Antardhaana, Antarvedi, Andhaka, Andhakaara, Anna, Annapoornaa, Anvaahaaryapachana, Aparaajitaa, Aparnaa  etc.)

Apashakuna - Abhaya  (Apashakuna, Apaana, apaamaarga, Apuupa, Apsaraa, Abhaya etc.)

Abhayaa - Amaavaasyaa (Abhayaa, Abhichaara, Abhijit, Abhimanyu, Abhimaana, Abhisheka, Amara, Amarakantaka, Amaavasu, Amaavaasyaa etc.)

Amita - Ambu (Amitaabha, Amitrajit, Amrita, Amritaa, Ambara, Ambareesha,  Ambashtha, Ambaa, Ambaalikaa, Ambikaa, Ambu etc.)

Ambha - Arishta ( Word like Ayana, Ayas/stone, Ayodhaya, Ayomukhi, Arajaa, Arani, Aranya/wild/jungle, Arishta etc.)

Arishta - Arghya  (Arishtanemi, Arishtaa, Aruna, Arunaachala, Arundhati, Arka, Argha, Arghya etc.)           

Arghya - Alakshmi  (Archanaa, Arjuna, Artha, Ardhanaareeshwar, Arbuda, Aryamaa, Alakaa, Alakshmi etc.)

Alakshmi - Avara (Alakshmi, Alamkara, Alambushaa, Alarka, Avataara/incarnation, Avantikaa, Avabhritha etc.)  

Avasphurja - Ashoucha  (Avi, Avijnaata, Avidyaa, Avimukta, Aveekshita, Avyakta, Ashuunyashayana, Ashoka etc.)

Ashoucha - Ashva (Ashma/stone, Ashmaka, Ashru/tears, Ashva/horse etc.)

Ashvakraantaa - Ashvamedha (Ashwatara, Ashvattha/Pepal, Ashvatthaamaa, Ashvapati, Ashvamedha etc.)

Ashvamedha - Ashvinau  (Ashvamedha, Ashvashiraa, Ashvinau etc.)

Ashvinau - Asi  (Ashvinau, Ashtaka, Ashtakaa, Ashtami, Ashtaavakra, Asi/sword etc.)

Asi - Astra (Asi/sword, Asikni, Asita, Asura/demon, Asuuyaa, Asta/sunset, Astra/weapon etc.)

Astra - Ahoraatra  (Astra/weapon, Aha/day, Ahamkara, Ahalyaa, Ahimsaa/nonviolence, Ahirbudhnya etc.)  

Aa - Aajyapa  (Aakaasha/sky, Aakashaganga/milky way, Aakaashashayana, Aakuuti, Aagneedhra, Aangirasa, Aachaara, Aachamana, Aajya etc.) 

Aataruusha - Aaditya (Aadi, Aatma/Aatmaa/soul, Aatreya,  Aaditya/sun etc.) 

Aaditya - Aapuurana (Aaditya, Aanakadundubhi, Aananda, Aanarta, Aantra/intestine, Aapastamba etc.)

Aapah - Aayurveda (Aapah/water, Aama, Aamalaka, Aayu, Aayurveda, Aayudha/weapon etc.)

Aayurveda - Aavarta  (Aayurveda, Aaranyaka, Aarama, Aaruni, Aarogya, Aardra, Aaryaa, Aarsha, Aarshtishena, Aavarana/cover, Aavarta etc.)

Aavasathya - Aahavaneeya (Aavasathya, Aavaha, Aashaa, Aashcharya/wonder, Aashvin, Aashadha, Aasana, Aasteeka, Aahavaneeya etc.)

Aahavaneeya - Aahlaada (Aahavaneeya, Aahuka, Aahuti, Aahlaada etc. )

 

 

आहवनीय

टिप्पणी : तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.५.१.२.१.१३ आदि का कथन है कि साधना की एक स्थिति आने पर सारे शरीर में दाह उत्पन्न हो जाता है । उस दाह की शान्ति का उपाय यह है कि उस अग्नि  का गार्हपत्य, ओदनपचन व आहवनीय अग्नि आदि के रूप में विभाजन कर दिया जाए । यज्ञ कार्य में गार्हपत्य अग्नि के निकट यजमान -पत्नी और आहवनीय अग्नि के निकट यजमान बैठता है । गार्हपत्य अग्नि की साधना द्वारा गृह की आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है - गृह कल्पवृक्ष बन जाए, जिस वस्तु की कामना हो वह तुरन्त प्राप्त हो जाए । गार्हपत्य अग्नि का विकास पूर्ण होने पर आहवनीय अग्नि का विकास होता है । कहा गया है कि गार्हपत्य से १२ प्रक्रम की दूरी पर ( ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१०.४ के अनुसार ३६ प्रक्रम की दूरी पर ) आहवनीय अग्नि की स्थापना करनी चाहिए । यह १२ प्रक्रम १२ मास के १२ सूर्यों के प्रतीक हो सकते हैं । गार्हपत्य और आहवनीय अग्नियों के बीच में दक्षिणाग्नि/ओदनपचन/अन्वाहार्यपचन अग्नि की स्थिति होती है । शतपथ ब्राह्मण २.३.२.२ के अनुसार गार्हपत्य अग्नि का अधिपति यम, अन्वाहार्यपचन का नल नैषध और आहवनीय का अधिपति इन्द्र होता है ।

          प्रश्नोपनिषद ४.३ के अनुसार गार्हपत्य अपान वायु का रूप है (शतपथ ब्राह्मण २.२.२.१८ व ७.१.२.२१ के अनुसार उदान वायु का रूप) । अपान द्वारा भुक्त अन्न का पाचन होता है जिससे उदान प्राण विकसित होता है । उदान प्राण इष्ट फल है ( उदित होते हुए आदित्य का रूप? ) । अन्वाहार्यपचन अग्नि व्यान का और आहवनीय अग्नि प्राण का रूप है । छान्दोग्य उपनिषद ४.११.१ में इन अग्नियों के क्रमिक विकास का वर्णन किया गया है । गार्हपत्य का विकास पृथिवी, अग्नि, अन्न व आदित्य के रूप में, अन्वाहार्यपचन का आपः, दिशा, नक्षत्रों व चन्द्रमा के रूप में तथा आहवनीय का प्राण, आकाश, द्यौ व विद्युत के रूप में होता है ।

          आहवनीय अग्नि को सार्वत्रिक रूप से हव्यवाहन अर्थात् यज्ञ में प्रदत्त आहुति का देवों तक वहन करने वाला कहा गया है । प्रश्न यह है कि आहवनीय अग्नि का यह रूप कैसे प्राप्त किया जा सकता है । जो आहुति आहवनीय अग्नि में देवताओं के हेतु दी जाती है, वह कोई साधारण अन्न की आहुति नहीं, अपितु श्रेष्ठतम अन्न की, जिसे वैदिक साहित्य में अन्नाद्य कहते हैं, आहुति होती है । पशुओं से प्राप्त होने वाले दधि, मधु, घृत आदि की गणना सर्वश्रेष्ठ अन्नों में की जाती है । अध्यात्म में स्वयं यजमान साधक ही पशु है । जैसा कि आहुति शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, सारा शरीर दुन्दुभि की भांति नाद से ओत प्रोत होने पर साधक के अन्दर एक घृत का जन्म होता है जो आहवनीय अग्नि में जल कर ज्योति उत्पन्न करता है । इस अवस्था का नाम आहुति है । पुराणों तथा वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आहवनीय अग्नि को मुख स्थानीय कहा गया है ( काठक संहिता ८.७ का कथन है कि जो ओदन पचन अग्नि को जान लेता है, उसके मुख में अग्नि उत्पन हो जाती है ) । शतपथ ब्राह्मण १.४.१.१० में एक आख्यान आता है कि माथव नामक राजा ने अपने मुख में अग्नि धारण कर ली थी और इस कारण वह अपने गुरु गोतम राहूगण के पुकारने पर बोलता नहीं था । जब गुरु ने युक्तिपूर्वक घृत का नाम लिया तो अग्नि मुख से निकल कर सारी पृथिवी पर फैल गई और सब कुछ जला कर शुद्ध कर दिया । अग्नि को घृत बहुत प्रिय है । शरीर में इस घृत को उत्पन्न करने के लिए यजमान रूपी पशु का संस्कार करना होता है, उसको वरुण के पाशों से मुक्त करना होता है । काठक संहिता ३०.९ तथा ३६.१ के अनुसार पशु के अंगों को आहवनीय अग्नि पर पकाकर उसे वरुण पाश से मुक्त करते हैं । इस घृत को प्रकट करने के लिए नाद का, छन्दों का उत्पन्न होना क्यों आवश्यक है, इस संदर्भ में काठक संहिता ७.१० तथा ३१.८ का कथन है कि छन्द पशुओं के लिए व्रज/गोष्ठ हैं जहां रात्रि में पशु आकर विश्राम करते हैं ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.२३.२ आदि के अनुसार आदित्य रात्रिकाल में अश्व पशु बन कर आहवनीय अग्नि में निवास करता है ) । शांखायन ब्राह्मण १८.६ के अनुसार आहवनीय अग्नि पशुओं की ज्योति है जिसे देखकर प्रजारूपी पशु वापस लौट आते हैं ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.५.४) ।

          हरिवंश पुराण में गरुड द्वारा आकाशगङ्गा जल द्वारा आहवनीय अग्नि को शान्त करने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.२२ ७.१.२.१२ में उल्लेख है कि आहवनीय अग्नि अग्नि और सोम या सूर्य और चन्द्र दोनों है ( गार्हपत्य अग्नि सोम का रूप है : काठक संहिता २६.२) । शिव की जटा में गङ्गा की स्थिति कही जाती है । ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा में इन जटाओं रूपी अग्नि के स्तूप को प्रस्तर कहा जाता है ( तैत्तिरीय संहिता २.६.५.५, शतपथ ब्राह्मण १.३.३.१२ व १.३.४.१०) । यह प्रस्तर समित्/समिधा का उत्तर रूप है, समिति अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् प्रस्तर रूप प्राप्त होता है । शिर पर केशों के प्रतीक के रूप में आहवनीय अग्नि के निकट वेदी पर तृण द्वारा प्रस्तर रूपी आच्छादन किया जाता है । इस प्रस्तर में गङ्गा की या सोम की स्थिति किस प्रकार से है, यह ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट नहीं है ।

          शतपथ ब्राह्मण काण्ड ६ से लेकर काण्ड ९ तक अग्निचयन का वर्णन है । यह अग्निचयन आहवनीय अग्नि पर किया जाता है जिसमें इष्टकाओं/ईंटों के ५ स्तर या चितियां होती हैं । इष्टकाओं का चयन इस प्रकार किया जाता है कि आहवनीय अग्नि को एक श्येन का रूप प्राप्त हो जाता है जो उडकर स्वर्ग से सोम का आहरण कर सकता है ( गोपथ ब्राह्मण १.३.१० के अनुसार गायत्री वेदी है जिसका शिर आहवनीय है ) । इन ५ चितियों में से प्रत्येक के मध्य में एक के ऊपर एक ५ स्वयमातृण्णा ( स्वयं - आतृण्णा अर्थात् प्राकृतिक रूप में छिद्रों से युक्त ) इष्टकाओं को रखा जाता है । चितियों में अन्य इष्टकाओं के लिए, जिनके नाम ऋतव्येष्टका, प्राणभृता, अपस्या, छन्दस्या आदि हैं, के लिए यह विधान है कि एक इष्टका पर उसी नाम की दूसरी इष्टका न रखी जाए । श्रीमती स्टेला क्रैमरिश ने अपनी पुस्तक दि हिन्दू टैम्पल्स में यह मत व्यक्त किया है कि मन्दिर में इष्टदेव हिरण्यगर्भ की प्रतिष्ठा स्वयमातृण्णा इष्टकाओं की स्थापना का रूप हो सकता है ।

          ऋग्वेद का आरम्भ अग्निमीळे पुरोहितं इत्यादि से होता है । यह पुरोहित अग्नि कौन सी है, इसके उत्तर में ऐतरेय ब्राह्मण ८.२४ का कथन है कि राजा के लिए आहवनीय अग्नि ही पुरोहित है, जाया गार्हपत्य है और अन्वाहार्यपचन अग्नि पुत्र का रूप है । इस पुरोहित अग्नि को किस प्रकार सेवा से संतुष्ट करना चाहिए, यह भी यहां वर्णन किया गया है । पुरोहित के तीन स्तर कहे गए हैं - पृथिवी पर अग्नि, अन्तरिक्ष में वायु और द्यौ में आदित्य । इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण ११.६.२.६ में भी अन्तरिक्ष, द्यौ, पृथिवी, पुरुष के मुख, स्त्री के उपस्थ को आहवनीय अग्नि का रूप दिया गया है ।

          आहवनीय व गार्हपत्य अग्नियों में कुछ अन्य अन्तर उल्लेखनीय हैं । आहवनीय क्षत्र का स्थान है, गार्हपत्य प्रजा का । आहवनीय ऐन्द्र व वैश्वानरीय है जबकि गार्हपत्य मारुत है ( तैत्तिरीय संहिता २.२.५.६ २.२.११.१) । आहवनीय अग्नि का नाम सम्राट् है जबकि गार्हपत्य अग्नि का गृहपति ( शतपथ ब्राह्मण २.४.१.९) । यव और व्रीहि पशुओं के रूप हैं ( मैत्रायणी संहिता १.६.११) । आहवनीय पर यवमय अपूप और गार्हपत्य पर व्रीहिमय अपूप रखा जाता है ( शतपथ ब्राह्मण २.२.३.१३) । आहवनीय पर आपः का प्रतीक पुष्करपर्ण रखा जाता है, जबकि गार्हपत्य पर पशुओं के प्रतीक ऊषाओं को रखा जाता है ( शतपथ ब्राह्मण ७.३.१.९) । गार्हपत्य को पशुओं रूपी प्रजाओं के अंशुओं से सम्बद्ध किया जाता है, जबकि आहवनीय को द्रप्स और अंशु से ( शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.१) । आहवनीय अग्नि को अजैकपाद कहा गया है, जबकि गार्हपत्य को अहिर्बुध्न्य ( काठक संहिता ७.१३) । असुर पहले आहवनीय, फिर गार्हपत्य और उसके पश्चात् अन्वाहार्यपचन का आधान करते हैं । देवगण पहले अन्वाहार्यपचन, फिर गार्हपत्य और अन्त में आहवनीय का। मनुष्यों के लिए पहले गार्हपत्य, फिर अन्वाहार्यपचन और अन्त में आहवनीय के आधान का विधान है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.७, काठक संहिता ८.४) । गार्हपत्य के स्तर पर इध्म व बर्हि की प्रतिष्ठा होती है जबकि आहवनीय पर समित् और प्रस्तर की । आहवनीय देवों का आयतन है , अन्तराग्नि पशुओं का, गार्हपत्य मनुष्यों का और ओदनपचन पितरों का ( मैत्रायणी संहिता १.४.१०) । प्रणव में गार्हपत्य अकार का, दक्षिणाग्नि उकार का, आहवनीय मकार का और संवर्तक अग्नि अर्धमात्रा का प्रतिनिधि है ( नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद ३.४, ब्रह्मविद्योपनिषद ६, कालाग्निरुद्रोपनिषद १६) ।

          यज्ञकर्म में गार्हपत्य अग्नि का स्वरूप वृत्ताकार, दक्षिणाग्नि का अर्धवृत्त या चन्द्राकार और आहवनीय अग्नि का वर्गाकार होता है । तान्त्रिक साहित्य में मन्त्रों के गूढ रहस्यों को प्रकट करने के लिए वृत्त, त्रिकोण, वर्ग आदि का बहुत प्रयोग हुआ है । विशेष रूप से, कल्पतरु रिसर्च एकेडमी, बंगलौर से प्रकाशित पुस्तक श्रीसूक्त में इस विधा का सफल प्रयोग किया गया है ।

          पुराणों में आहवनीय अग्नि के १६ धिष्ण्य रूपी पुत्र क्यों कहे गए हैं, जबकि यज्ञकर्म में केवल ८ धिष्ण्य अग्नियां होती हैं, यह विचारणीय है ।

A fire in vedic sacrifical rituals is divided at least in three parts - Garhapatya, Anvaahaaryapachana/Dakshinagni and Aahavaneeya. The question arises what is the need of dividing a fire in parts? It has been said that at a particular stage in penances, the whole body feels immense heat and a way to quench that heat is t o divide that fire in parts. Let us see what are the functions of each part of this divided fire, with particular reference to Aahavaneeya one. In a yaga, wife of yajamaana sits beside the Garhapatya fire while yajamaana himself sits beside Aahavaneeya fire. Garhapatya fire fulfills the needs of a house - let the house become a wish - fulfilling tree, kalpa tree. When the development of Garhapatya fire is completed, then development of Aahavaneeya fire takes place. Between Garhapatya and Aahavaveeya fire, there is an other fire named Dakshinaagni or Anvaahaaryapachana agni. The presiding diety of Gaarhpatya fire is Yama, that of Dakshinaagni is Nala Naishadha and that of Aahavaneeya is Indra. Indra is a state of devotee who has become free from sins.

          Gaarhapatya fire is a form of Apaana praana which digests the food. This gives rise to Udaana praana or the rising sun. Anvaahaaryapachana is a form of Vyaana praana and Aahavaneeya that of praana. Out of these three, Gaarhapatya develops in earth, fire, cereal and sun. Anvaahaarya develops in waters, directions, stars and moon. Aahavaneeya develops in praana, upper sky, and electricity.

          It is said that fire is the mouth of gods. They accept their food through fire. Further, there is a universal statement that Aahavaneeya fire resides in mouth. This statement can be taken to mean that our mouth or face is the highest development of our body. And this is not the end. There are so many stages of further development of our body through the head. In somayaga, there is a ritual of establishment of fire according to sequential decrease in entropy. This is called Agnichayana. This is performed near Aahavaneeya. Symbolically, this is done by different types of bricks, those bricks which fulfill particular type of desires. This way, fire is given a shape of a hawk which can fly and bring soma from the heaven.

          Rigveda starts with the mantra Agnimeede Purohitam etc. The question is which one is that fire which is purohita, the priest, which is worthy of being worshipped? The answer has been given that for a king, Aahavaneeya fire is the purohita, Gaarhapatya is the wife and Anvaahaaryapachana is the son. How this priest fire should be satisfied, it has also been described.

          The shpae of Aahavaneeya fire is square, that of Garhapatya is circular and that of Anvaahaaryapachana is semicircular, of a moon. This concept has been tacitly used to explain the mysteries of mantras in tantra. Take for example the book Srisuktam published by Kalpataru Research Academy, Bangalore.

          Puraanic texts mention 16 Dhishnya fires as the sons of Aahavaneeya. In a somayaga, 8 Dhishnya fires have got a special mention in connection with losing their right to partake of soma. The other 8 are also enumerated by specialists.

          There are several differences in rituals to be performed at the three fires. These details are omitted here.

 

संदर्भ

*युनज्मि त्वा ब्रह्मणा दैव्येन(तैसं १.६.२.१) इत्याहवनीयम्। तेजिष्ठा ते तपना या च रोचना प्रत्योषन्तीस्तन्वो यास्ते अग्ने। ताभिर्वर्माण्यभितो व्ययस्व मा त्वा दभन्यज्ञहनः पिशाचा इति। - आप.श्रौ.सू. ४.६.४

 

आहवनीय (अग्नि-)

प्राणोदानावेवाहवनीयश्च गार्हपत्यश्च व्यानोऽन्वाहार्यपचनः - माश २.२.२.१८

य आहवनीयेऽग्निः स प्राणः सोऽसावादित्योऽथ य आग्नीध्रीयेऽग्निः स व्यानः स उ अयं वायुर्योऽयं पवतेऽथ यो गार्हपत्येऽग्निः स उदानः - माश ७.१.२.२१

अथ हैनमाहवनीयोऽनुशशास प्राण आकाशो द्यौर्विद्युदिति य एष विद्युति पुरुषो दृश्यते सोऽहमस्मि स एवाहमस्मीति ॥ छाउ ४.११.

प्रजापतिः प्रजा असृजत । ता अस्मात्सृष्टाः पराचीरायन्न् । ताभ्यो ज्योतिरुदगृह्णात् । तं ज्योतिः पश्यन्तीः प्रजा अभि समावर्तन्त । - तैब्रा १.१.५.४

तद्धैके । आहवनीयादुल्मुकमाहरन्त्ययमग्निरयं सोमस्ताभ्यां सहसद्भ्यां निष्क्रेष्यामह इति वदन्तस्तदु तथा न कुर्याद् – माश ३.३.४.२२

ऽस्य स आहवनीय एव द्यौरथ य आहवनीयेऽग्निस्तौ सूर्याचन्द्रमसौ सोऽस्यैष आत्मैव माश ७.१.२.१२

 किं यज्ञस्य यजमान इति प्रस्तर इति तस्य क्व सुवर्गो लोक इति । आहवनीय इति ब्रूयात् । यत् प्रस्तरम् आहवनीये प्रहरति यजमानम् एव सुवर्गं लोकं गमयति – तैसं २.६.५.५

शिरो वै यज्ञस्याहवनीयः पूर्वोऽर्धो वै शिरः पूर्वार्धमेवैतद्यज्ञस्य कल्पयत्युपर्युपरि प्रस्तरं धारयङ्कल्पयत्ययं वै स्तुपः प्रस्तर एतमेवास्मिन्नेतत्प्रतिदधाति – माश १.३.३.१२

ग्नीन्वा एष स्वर्ग्यान्राजोद्धरते यत्पुरोहितं तस्य पुरोहित एवाहवनीयो भवति जाया गार्हपत्यः पुत्रोऽन्वाहार्यपचनः – ऐब्रा ८.२४

ते वा एते आहुती हुते उत्क्रामतः। ते अन्तरिक्षमाविशतस्ते अन्तरिक्षमेवाहवनीयं कुर्वाते वायुं समिधं मरीचीरेव शुक्रामाहुतिं ते अन्तरिक्षं तर्पयतस्ते तत उत्क्रामतः ते दिवमाविशतः। ते दिवमेवाहवनीयं कुर्वाते आदित्यं समिधं चन्द्रमसमेव शुक्रामाहुतिं ते दिवं तर्पयतस्ते तत आवर्तेते ते इमामाविशतः। ते इमामेवाहवनीयं कुर्वाते अग्निं समिधमोषधीरेव शुक्रामाहुतिं ते इमां तर्पयतस्ते तत उत्क्रामतः ते पुरुषमाविशतः। तस्य मुखमेवाहवनीयं कुर्वाते जिह्वां समिधमन्नमेव शुक्रामाहुतिं ते पुरुषं तर्पयतः स य एवं विद्वानश्नात्यग्निहोत्रमेवास्य हुतं भवति ते तत उत्क्रामतः ते स्त्रियमाविशतः। तस्या उपस्थमेवाहवनीयं कुर्वाते धारकां समिधं धारका ह वै नामैषैतया ह वै प्रजापतिः प्रजा धारयांचकार रेत एव शुक्रामाहुतिं ते स्त्रियं तर्पयतः – माश ११.६.२.६

आहवनीये वैश्वानरम् अधि श्रयति गार्हपत्ये मारुतम् पापवस्यसस्य विधृत्यै – तैसं २.२.५.६

आहवनीय ऐन्द्रम् अधि श्रयति गार्हपत्ये मारुतम् पापवस्यसस्य विधृत्यै – तैसं २.२.११.१

स आहवनीयमुपतिष्ठते । आगन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तममग्ने सम्राडभि द्युम्नमभि सह आयच्छस्वेत्यथोपविश्य तृणान्यपलुम्पति अथ गार्हपत्यमुपतिष्ठते । अयमग्निर्गृहपतिर्गार्हपत्यः प्रजाया वसुवित्तमः अग्ने गृहपतेऽभि द्युम्नमभि सह आयच्छस्वेत्यथोपविश्य तृणान्यपलुम्पत्येतन्नु जपेनैतेन न्वेव भूयिष्ठा इवोपतिष्ठन्ते माश २.४.१.९

अर्कपलाशाभ्याम् । व्रीहिमयमपूपं कृत्वा यत्र गार्हपत्यमाधास्यन्भवति तन्निदधाति तद्गार्हपत्यमादधाति अर्कपलाशाभ्यां यवमयमपूपं कृत्वा यत्राहवनीयमाधास्यन्भवति तन्निदधाति तदाहवनीयमादधाति – माश २.२.३.१२

अथ गार्हपत्य एवोषान्निवपति । नाहवनीयेऽयं वै लोको गार्हपत्यः पशव ऊषा अस्मिंस्तल्लोके पशून्दधाति...... अथाहवनीय एव पुष्करपर्णमुपदधाति । न गार्हपत्य आपो वै पुष्करपर्णं द्यौराहवनीयो दिवि तदपो दधात्युभयत्र सिकता निवपति रेतो वै सिकता – माश ७.३.१.९

एतस्य प्रणवस्य या पूर्वा मात्रा सा पृथिव्यकारः स ऋग्भिरृग्वेदो ब्रह्मा वसवो गायत्री गार्हपत्यः सा प्रथमः पादो भवति च सर्वेषु पादेषु चतुरात्मा स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभिर्द्वितीयान्तरिक्षं स उकारः स यजुभिर् यजुर्वेदो विष्णुरुद्रास्त्रिष्टुब्दक्षिणाग्निः सा द्वितीयः पादो भवति च सर्वेषु पादेषु चतुरात्मा

स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभिस्तृतीया द्यौः स मकारः स सामभिः सामवेदो रुद्रादित्या जगत्याहवनीयः सा

तृतीयः पादो भवति - नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद ३.४

ऋग्वेदो गार्हपत्यं च पृथिवी ब्रह्म एव च । आकारस्य शरीरं तु व्याख्यातं ब्रह्मवादिभिः ॥ ४ ॥

यजुर्वेदोऽन्तरिक्षं च दक्षिणाग्निस्तथैव च । विष्णुश्च भगवान्देव उकारः परिकीर्तितः ॥ ५ ॥

सामवेदस्तथा द्यौश्चाहवनीयस्तथैव च । ईश्वरः परमो देवो मकारः परिकीर्तितः ॥ब्रह्मविद्योपनिषत्

 

धनं मे शँस्य पाहि तन्मे गोपायेति प्रवत्स्यन्नाहवनीयमुपतिष्ठेत धनस्य वा एष गोप्ता तदेवास्मै परिददाति  - काठ.सं. ७.११

अग्ने गृहपतेऽहे बुध्न्य परिषद्य दिवः पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाल्लोकं विन्द यजमानाय पृथिव्या मूर्धन् सीद...... अग्ने संराडजैकपादाहवनीय दिवः पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाल्लोकं विन्द यजमानाय पृथिव्या मूर्धन् सीद – काठ.सं ७.१३

प्रत्यस्मिल्लोके स्थास्यसि । अभि सुवर्गं लोकं जेष्यसीति । गार्हपत्यमग्र आदधात् । गार्हपत्यं वा अनु प्रजाः पशवः प्रजायन्ते । गार्हपत्येनैवास्मै प्रजां पशून्प्राजनयत् । अथान्वाहार्यपचनम् । तिर्यङ्ङिव वा अयं लोकः । अस्मिन्नेव तेन लोके प्रत्यतिष्ठत् । अथाहवनीयम् । तेनैव सुवर्गं लोकमभ्यजयत् – तैब्रा १.१.४.७

हवनीयं वा एतद्व्यर्धयति यत् पशुश्रपणं करोति – काठ.सं. ३०.९

यजमानो वा एककपाल आहवनीयस्स्वर्गो लोकस्सर्वहुतं जुहोति हविर्भूतमेवैनँ स्वर्गं लोकं गमयत्यात्मा वा एककपाल: पशवो घृतं – काठ.सं. ३६.१

असौ वा आदित्योऽश्वः    स आहवनीयमागच्छति   तद्विवर्तते    यदग्निहोत्रं जुहोति   अश्वस्यैव मेध्यस्य विवर्तनेविवर्तने जुहोति   - तैब्रा ३.९.२३.२

देवतानां वा एतदायतनं यदाहवनीयो , यदन्तराग्नी तत् पशूनां , मनुष्याणां गार्हपत्यः , पितॄणां ओदनपचनः – मैसं १.४.१०

हवींष्य् आत्मा  गार्हपत्यो जघनम् आहवनीयः शिरः सौवर्णराजतौ पक्षौ – गोब्रा १.३.१०

१. अथ यदि सामत: (यज्ञो भ्रेषं नीयात् ) स्वस्स्वाहेत्याहवनीये जुहवाथ (प्रजापतिर्देवानुवाच)। सैव तत्र प्रायश्चित्तिः । जै १,३५८ ।

२. अथ यस्य देवयजनस्याहवनीयादन्याः प्राचीरापो धावन्ति, गार्हपत्यादन्याः प्रतीचीस्तद्यजेत । मै ३,,४।

३. अथाहवनीयमुपतिष्ठते । शस्य पशून्मे पाहीति पशूना  हैष ईष्टे । माश २,, , ५।

४. अथैषा देवयोनिर्देवलोको यदाहवनीयः । जै १,१७ ॥

. असा आहवनीयोऽमुष्मिंस्तेन लोके प्रतितिष्ठति काठसंक १०: १०२ ।

. आहवनीय ऐन्द्रमधिश्रयति । तैसं २,,११,१।

७. आहवनीयः साम सुवर्गो लोको बृहत् । तैआ १०,६३, १।

८. आहवनीयाय एव पशून् परिदाय प्रैति । मै १,,१४ ।

९. आहवनीयेनामुं (द्यु-) लोकम् (देवा अभ्यजयन् ) । मै ३,,; क ४०,५ ।

१०. आहवनीयो वा आहुतीनां प्रतिष्ठा । माश २,, ,१० ।

११. आहवनीयो वै यज्ञस्य शिरः । माश ६, ,,१।

१२. इन्द्रो ह्याहवनीयः । माश २,,,३८ ।

१३. एतदायतनो यजमानो यदाहवनीयः । तां १२,१०,१६ ।

१४. एतद्वै देवानामायतनं यदाहवनीयः । तैसं १,,,१।

१५. एष वै यज्ञः। येन तद्देवा दिवमुपोदक्रामन्नेष आहवनीयोऽथ य इहाहीयत स

गार्हपत्यस्तस्मादेतं (आहवनीयम् ) गार्हपत्यात्प्राञ्चमुद्धरन्ति । माश १,,,२२।।

१६. ब्रह्मवादिनो वदन्ति यद् एष गार्हपत्यश् चीयते ऽथ  क्वास्याऽऽहवनीय इत्यसावादित्य इति ब्रूयादेतस्मिन्हि सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुह्वति ।

तैसं ,,,

१७. चतुरश्रमाहवनीयस्य कुर्याच्चतुरश्रो ह्यसौ लोकोऽरत्निमात्रो भवति, एतावान् ह्यात्मा, प्रजापतिना संमितः । काठसंक १६: ६-७ ।

१८. तस्य (राज्ञः) पुरोहित एवाहवनीयो भवति । ऐ ८,२४ ।

१९. देवतानां वा एतदायतनं यदाहवनीयः । मै १,,१०; काठ ३२,७ ।

२०. देवयोनिर्वाऽएष यदाहवनीयः । तस्यैतावमृतपक्षौ। यावेतावभितोऽग्नी।  माश १२, ,,१०

२१. देवानां वा एतान्यायतनानि यद् गार्हपत्यश्च दक्षिणाग्निश्चाहवनीयश्च । काठसंक १५-१६. १५-१६ ।

२२. द्यौराहवनीयः । काठ ८,; क ७,; माश ८,,, १४ (तु. जै १,५१)।

२३. धिष्ण्या (शम इति जैउ.) आहवनीयः । काठ ,; क ७,; जैउ ४,११,,१५ ॥  

२४. प्रजापतिर् (रुद्र) आहवनीयः । मै ३,,१।

२५. प्राञ्चौ बाहू उन्नयति । आहवनीयमेव गृह्णाति । क ४७,८ (तु. मै ४,,१०)। २६. प्राणोदानावेवाहवनीयश्च गार्हपत्यश्च । माश २,,,१८ ।

२७. मुखमेवास्य (यज्ञस्य) आहवनीयः । माश ३,५.३, ३ ।

२८. मुखमेवाहवनीयः (पुरुषस्य) । कौ १७,७ (तु. तैआ १०,६४,१) ।

२९. यजमान ( °नो वा [तैसं.)आहवनीयः । तैसं ३,,,; तै ३,,,२ ।

३०. यजमानदेवत्यो वा आहवनीयः । तै १,,,३ ।

३१. यजमानायतन  वा आहवनीयः । मै ३,,२ ।

३२. यज्ञ (ज्ञो वै ऐ.]) आहवनीयः। ऐ ,२४,२६; माश १,,,२६ ।

३३. यदाहवनीयं गच्छतः, स्वर्गं तेन लोकम् । मै ३,,७।

३४. यद्वाऽआहवनीयमुपतिष्ठते । दिवं तदुपतिष्ठते । माश २, , ,३६ ।

३५. यद्वा आहवनीयमुपतिष्ठते । पशूंस्तद्याचते । माश २,,, ३२ ।

३६. योऽग्नेस्तृतीयो भागस्तं देवा श्वोभूते प्राञ्चमनयन् स देवेभ्य आहवनीयोऽभवत् । काठसंक १४ः ४-५ ।

३७. योनिर्वै पशूनामाहवनीयः । कौ १८,; गो २, ,६ ।

३८. शिरो वै यज्ञस्याहवनीयः पूर्वोऽर्धो वै शिरः पूर्वार्धमेवैतद्यज्ञस्य कल्पयति । माश

,,,१२।

३९. सामवेदादाहवनीयः (अजायत)। ष ४,१ ।

४०. स्वर्गो लोकश्चतुरश्रस्तस्मादाहवनीयश्चतुरश्रः । काठसंक १५:१३ ।

४१. स्वर्गों वै (हि । काठ., क.J) लोक आहवनीयः । मै ३,,, काठ २५.८; क ४०, ; ; तै १,,,; ष १,५ (तु. मै १, १०,; काठ २०,; ३६,; क ३१,४)॥ [ °य- अपान- २; अमावस्या- २; आत्मन्- २३; आदित्य- ३१ द्र.]  

आहवनीय-भाज- आहवनीयभाग् यजमानः । कौ ३,९ ।